लिंग पुराण : तिल धेनु दान विधि निरूपण | Linga Purana: Til Dhenu donation method formulation

श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग सैंतीसवाँ अध्याय

तिलधेनुदानविधिनिरूपण

सनत्कुमार उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि तिलधेनुविधिक्रमम् । 
पूर्वोक्तमण्डपे कुर्याच्छिवपूजां तु पश्चिमे ।। १

तस्याग्रे मध्यतो भूमौ पद्ममालिख्य शोभनम्। 
वस्त्रैराच्छादितं पद्म तन्मध्ये विन्यसेच्छुभम् ॥ २

तिलपुष्पं तु कृत्वाथ हेमपदां विनिक्षिपेत्। 
त्रिंशन्निष्केण कर्तव्यं तदर्धार्थेन वा पुनः ॥ ३

पञ्चनिष्केण कर्तव्यं तदर्धार्थेन वा पुनः। 
तमाराध्य विधानेन गन्धपुष्पादिभिः क्रमात् ॥ ४

सनत्कुमार बोले-अब मैं तिलधेनुदानके विधिक्रमका वर्णन करूँगा। पूर्वमें बताये गये नियमसे निर्मित मण्डपमें पश्चिम भागमें शिवपूजा करनी चाहिये। उसके आगे मध्यमें भूमिपर सुन्दर कमल बनाकर उसे वस्त्रोंसे आच्छादित कर देना चाहिये। उसके मध्यमें उत्तम तिलपुष्प स्थापित करना चाहिये। हेमपद्म (सुवर्णकमल) बनाकर उसे मध्यमें रख देना चाहिये। यह हेमपद्म तीस निष्क सुवर्णसे अथवा उसके आधे अर्थात् पन्द्रह निष्क अथवा उसके भी आधे अर्थात् साढ़े सात निष्क सुवर्णसे बनाना चाहिये, अथवा पाँच निष्क सुवर्णसे अथवा उसके आधे भागसे अथवा उसके भी आधे भागसे उस कमलका निर्माण करना चाहिये। तत्पश्चात् उस हेमपद्मके विग्रहका ध्यान करके गन्ध, पुष्प आदिसे क्रमपूर्वक उसकी विधिवत् पूजा करनी चाहिये ॥ १-४॥ 

पद्मस्योत्तरदिग्भागे विप्रानेकादश न्यसेत्। 
तानभ्यर्च्य विधानेन गन्धपुष्पादिभिः क्रमात् ॥ ५

आच्छादनोत्तरासङ्गं विप्रेभ्यो दापयेत्क्रमात्। 
उष्णीषं च प्रदातव्यं कुण्डले च विभूषिते ॥ ६

हेमाङ्गुलीयकं दत्त्वा ब्राह्मणेभ्यो विधानतः । 
एकं दश च वस्त्राणि तेषामग्रे प्रकीर्य च ॥ ७

तेषु वस्त्रेषु निःक्षिप्य तिलाद्यानि पृथक्पृथक् । 
कांस्यपात्रं शतपलं विभिडौकादशांशकम् ॥ ८

उस पद्मके उत्तर दिग्भागमें ग्यारह ब्राह्मणोंको बैठाना चाहिये और क्रमसे गन्ध, पुष्प आदिसे विधिपूर्वक उनका पूजन करके उन विप्रोंको क्रमसे वस्त्र तथा उत्तरीय प्रदान करना चाहिये; उन्हें पगड़ी भी देनी चाहिये। तत्पश्चात् दो रत्नमय कुण्डल और सुवर्णकी अँगूठी ब्राह्मणोंको विधानपूर्वक प्रदान करके उनके आगे ग्यारह वस्त्र फैलाकर उन वस्त्रोंपर अलग-अलग तिल आदि, सौ पलके बनाये हुए ग्यारह कांस्यपात्र और इक्षुदण्ड रखकर ब्राह्मणोंको प्रदान करना बाहिये ॥ ५-८ ॥

इक्षुदण्डं च दातव्यं ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः । 
गोशृङ्गे तु हिरण्येन द्विनिष्केण तु कारयेत् ॥ ९

रजतेन तु कर्तव्याः खुरा निष्कद्वयेन तु। 
एवं पृथक्पृथक् दत्त्वा तत्तिलेषु विनिक्षिपेत् ॥ १०

रुद्रैकादशमन्त्रैस्तु रुद्रेभ्यो दापयेत्तदा। 
पद्मस्य पूर्वदिग्भागे विप्रान् द्वादश पूजितान् ॥ ११

एतेनैव तु मार्गेण तेषु श्रद्धासमन्वितः । 
द्वादशादित्यमन्त्रैश्च दापयेदेवमेव च ॥१२

पूर्ववद्दक्षिणे भागे विप्रान् षोडश संस्थितान् । 
मूर्ति विघ्नेशमन्त्रैश्च दापयेत्पूर्ववत्पुनः ।॥ १३

यजमानेन कर्तव्यं सर्वमेतद्यथाक्रमम्। 
केवलं रुद्रदानं वा आदित्येभ्योऽथ वा पुनः ॥ १४

मूर्त्यादीनां च वा देयं यथाविभवविस्तरम्। 
पद्म विन्यस्य राजासौ शेषं वा कारयेन्नृपः ॥ १५

दक्षिणा च प्रदातव्या पञ्चनिष्केण भूषणम् ॥ १६

दो निष्क सुवर्णसे गायकी दो सींगें बनाये तथा दो निष्क परिमाणकी चाँदीसे उसके खुर बनाये और सबको पृथक् पृथक् उन तिलोंपर रख दे। इसके बाद रुद्रके ग्यारह मन्त्रोंसे ग्यारह रुद्रोंको तिलधेनु अर्पण कर दे। इसी प्रकार उस पद्मकी पूर्व दिशामें बारह विप्रोंकी पूजा करके श्रद्धायुक्त होकर द्वादश आदित्यके मन्त्रोंसे उन्हें तिलधेनु अर्पण करे। दक्षिण दिशामें स्थित सोलह विप्रोंकी पूजा करके पूर्वकी भाँति विघ्नेश मन्त्रोंसे उन्हें तिलधेनु प्रदान करे। यह समस्त कार्य यजमानके द्वारा यथाक्रम सम्पन्न किया जाना चाहिये। रुद्रोंको अथवा आदित्योंको दानकर अपने सामर्थ्यक अनुसार मूर्ति आदिकी दक्षिणा देनी चाहिये। इस प्रकार राजाको चाहिये कि पद्म-स्थापन करके शेष कार्य आचार्यद्वारा करवाये। अन्तमें पाँच निष्क सुवर्णका भूषण अर्पण करके आचार्यको दक्षिणा प्रदान करनी चाहिये ॥ ९-१६॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे तिलधेनुदानविधिनिरूपणं नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'तिलथेनुदानविधिनिरूपण' नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३७ ॥

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