श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग चौवालीसवाँ अध्याय
त्रिमूर्तिदान विधि
सनत्कुमार उवाच
अथान्यत्सम्प्रवक्ष्यामि सर्वदानोत्तमोत्तमम् ।
पूर्वोक्तदेशकाले च मण्डपे च विधानतः ॥ १
प्रणयात्कुण्डमध्ये च स्थण्डिले शिवसन्निधाँ।
पूर्वं विष्णुं समासाद्य पद्मयोनिमतः परम् ॥ २
मन्त्राभ्यां विधिनोक्ताभ्यां प्रणवादिसमन्त्रकम् ।
नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि।
तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥ ३
ब्रह्मब्राह्मणवृद्धाय ब्रह्मणे विश्ववेधसे।
शिवाय हरये स्वाहा स्वधा वौषट् वषट् तथा ॥ ४
सनत्कुमार बोले- अब मैं समस्त दानोंमें अत्युत्तम अन्य [त्रिमूर्ति] दानका वर्णन करूँगा। पूर्वोक्त काल और स्थानमें भलीभाँति मण्डप तथा वेदीका निर्माण करे। इसके बाद भक्तिपूर्वक शिवकुण्डके समीप स्थण्डिलपर शिवजीको स्थापित करके उनके पार्श्वभागमें पहले विष्णुको, बादमें पद्मयोनि ब्रह्माको स्थापित करके सप्रणव शिवमन्त्रसहित विधिपूर्वक उनको पूजा करे। वे मन्त्र इस प्रकार हैं- नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ।। ब्रह्मब्राह्मणवृद्धाय ब्रह्मणे विश्ववेधसे। शिवाय हरये स्वाहा स्वधा वौषट् वषट् तथा ॥ १-४॥
पूजयित्वा विधानेन पश्चाद्धोमं समाचरेत्।
सर्वद्रव्यं हि होतव्यं द्वाभ्यां कुण्डविधानतः ।। ५
ऋत्विजौ द्वौ प्रकर्तव्यौ गुरुणा वेदपारगौ।
तानुद्दिश्य यथान्यायं विप्रेभ्यो दापयेद्धनम् ॥ ६
शतमष्टोत्तरं तेभ्यः पृथक्पृथगनुत्तमम् ।
वस्त्राभरणसंयुक्तं सर्वालङ्कारसंयुतम् ॥ ७
गुरुरेको हि वै श्रीमान् ब्रह्मा विष्णुर्महेश्वरः ।
तेषां पृथक्पृथग्देयं भोजयेद्ब्राह्मणानपि ।। ८
शिवार्चना च कर्तव्या स्नपनादि यथाक्रमम् ॥ ९
इस प्रकार विधानपूर्वक पूजन करके बादमें होम करना चाहिये। ब्रह्मा तथा विष्णु-इन दोनोंके लिये पृथक् पृथक् कुण्डकी व्यवस्था करके सम्पूर्ण होम-द्रव्यका हवन करना चाहिये। आचार्यको चाहिये कि वेदके पारगामी दो ऋत्विजोंको नियुक्त करे। उन ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवको उद्देश्य करके ब्राह्मणोंको समुचित दक्षिणा द्रव्य दिलाना चाहिये। वस्त्राभूषण और सभी अलंकारोंके साथ एक सौ आठ उत्तम स्वर्ण मुद्राएँ पृथक् पृथक् उन विप्रोंको प्रदान करनी चाहिये। श्रीमान् गुरु (आचार्य) एक हैं, फिर पटे उन्हें साक्षात् ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव मानकर पृथक- पृथक् तीनों मूर्तियोंका दान करना चाहिये और अन्य ब्राह्मणों एवं दीन-दुःखियोंको भोजन कराना चाहिये। इसके अनन्तर अभिषेक आदि शिवार्चन यथाक्रम करना चाहिये ॥५-९ ॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे विष्णुदानविधानवर्णनं नाम चतुश्चत्वारिशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तर भागमें 'विष्णुदानविधानवर्णन' नामक चौवालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४४॥
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