मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन | Manuka Matsya Questions about eschatology to God, description of the nature of Matsya's destruction

मत्स्य पुराण दूसरा अध्याय

मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होने पर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्य के सींग में शेषनाग की रस्सी से बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदि के विषय में विविध प्रश्न करना और मत्स्य भगवान्‌ का उत्तर देना

सूत उवाच

एवमुक्तो मनुस्तेन पप्रच्छ मधुसूदनम्। 
भगवन् कियद्भिर्वर्षेर्भविष्यत्यन्तरक्षयः ॥ १

सत्त्वानि च कथं नाथ रक्षिष्ये मधुसूदन । 
त्वया सह पुनर्योगः कथं वा भविता मम ॥ २

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! भगवान् मस्त्यद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर मनुने उन मधुसूदनसे प्रश्न किया-'भगवन्। यह युगान्त-प्रलय कितने वर्षों बाद आयेगा? नाथ। मैं सम्पूर्ण जीवोंकी रक्षा किस प्रकार कर सकूँगा? तथा मधुसूदन। आपके साथ मेरा पुनः सम्मिलन कैसे हो सकेगा?' ॥१-२॥

मत्स्य उवाच

अद्यप्रभृत्यनावृष्टिर्भविष्यति महीतले।
यावद् वर्षशतं सायं दुर्भिक्षमशुभावहम् ।। ३

ततोऽल्पसत्त्वक्षयदा रश्मयः सप्त दारुणाः ।
सप्तसप्तेर्भविष्यन्ति प्रतप्ताङ्गारवर्षिणः ॥ ४

और्वानलोऽपि विकृतिं गमिष्यति युगक्षये।
विषाग्निश्चापि पातालात् संकर्षणमुखाच्च्युतः । 
भवस्यापि ललाटोत्थतृतीयनयनानलः ॥ ५

त्रिजगन्निर्दहन् क्षोभं समेष्यति महामुने। 
एवं दग्धा मही सर्वा यदा स्याद् भस्मसंनिभा ।। ६

आकाशमूष्मणा तप्तं भविष्यति परंतप । 
ततः सदेवनक्षत्रं जगद् यास्यति संक्षयम् ॥ ७

संवर्ती भीमनादश्च द्रोणश्चण्डो बलाहकः। 
विद्युत्यताकः शोणस्तु सप्तैते लयवारिदाः ॥ ८

अग्निप्रस्वेदसम्भूतां प्लावयिष्यन्ति मेदिनीम् । 
समुद्राः क्षोभमागत्य चैकत्वेन व्यवस्थिताः ॥ ९

एतदेकार्णवं सर्व करिष्यन्ति जगत्त्रयम् । 
वेदनावमिमां गृह्य सत्त्वबीजानि सर्वशः ॥ १०

आरोप्य रज्जुयोगेन मत्प्रदत्तेन सुव्रत।
संयम्य नावं मच्छुङ्गे मत्प्रभावाभिरक्षितः ।॥ ११

एकः स्थास्यसि देवेषु दग्धेष्वपि परंतप । 
सोमसूर्यावहं ब्रह्मा चतुर्लोकसमन्वितः ॥ १२

नर्मदा च नदी पुण्या मार्कण्डेयो महानृषिः । 
भवो वेदाः पुराणानि विद्याभिः सर्वतोवृतम् ॥ १३

त्वया सार्धमिदं विश्वं स्थास्यत्यन्तरसंक्षये । 
एवमेकार्णवे जाते चाक्षुषान्तरसंक्षये ॥ १४

वेदान् प्रवर्तयिष्यामि त्वत्सर्गादौ महीपते। 
एवमुक्त्वा स भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ १५

मनुरप्यास्थितो योगं वासुदेवप्रसादजम् । 
अभ्यसन् यावदाभूतसम्प्लवं पूर्वसूचितम् ॥ १६

मत्स्यभगवान् कहने लगे- 'महामुने। आजसे लेकर सौ वर्षतक इस भूतलपर वृष्टि नहीं होगी, जिसके फलस्वरूप परम अमाङ्गलिक एवं अत्यन्त भयंकर दुर्भिक्ष आ पड़ेगा। तदनन्तर युगान्त प्रलयके उपस्थित होनेपर तपे हुए अंगारकी वर्षा करनेवाली सूर्यकी सात भयंकर किरणें छोटे-मोटे जीवोंका संहार करनेमें प्रवृत्त हो जायेंगी। बडवानल भी अत्यन्त भयानक रूप धारण कर लेगा। पाताललोकसे ऊपर उठकर संकर्षणके मुखसे निकली हुई विषाग्रि तथा भगवान् रुद्रके ललाटसे उत्पन्न तीसरे नेत्रकी अग्रि भी तीनों लोकोंको भस्म करती हुई भभक उठेगी। परंतप। इस प्रकार जब सारी पृथ्वी जलकर राखकी ढेर बन जायगी और गगन- मण्डल ऊष्मासे संतप्त हो उठेगा, तब देवताओं और नक्षत्रोंसहित सारा जगत् नष्ट हो जायगा। उस समय संवर्त, भीमनाद, द्रोण, चण्ड, बलाहक, विद्युत्पताक और शोण नामक जो ये सात प्रलयकारक मेष हैं, ये सभी अग्निके प्रस्वेदसे उत्पन्न हुए जलकी घोर वृष्टि करके सारी पृथ्वीको आप्लावित कर देंगे। तब सातों समुद्र क्षुब्ध होकर एकमेक हो जायेंगे और इन तीनों लोकोंको पूर्णरूपसे एकार्णवके आकारमें परिणत कर देंगे। सुव्रत। उस समय तुम इस वेदरूपी नौकाको ग्रहण करके इसपर समस्त जीवों और बीजोंको लाद देना तथा मेरे द्वारा प्रदान की गयी रस्सीके बन्धनसे इस नावको मेरे सींगमें बाँध देना। परंतप । (ऐसे भीषण कालमें जब कि) सारा देव-समूह जलकर भस्म हो जायगा तो भी मेरे प्रभावसे सुरक्षित होनेके कारण एकमात्र तुम्हीं अवशेष रह जाओगे। इस आन्तर- प्रलयमें सोम, सूर्य, मैं, चारों लोकोंसहित ब्रह्मा, पुण्यतोया नर्मदा नदी, महर्षि मार्कण्डेय, शंकर, चारों वेद, विद्याओंद्वारा सब ओरसे घिरे हुए पुराण और तुम्हारे साथ यह (नौका- स्थित) विश्व-ये ही बचेंगे। महीपते! चाक्षुष मन्वन्तरके प्रलयकालमें जब इसी प्रकार सारी पृथ्वी एकार्णवमें निमग्र हो जायगी और तुम्हारे द्वारा सृष्टिका प्रारम्भ होगा, तब मैं वेदोंका (पुनः) प्रवर्तन करूँगा। ऐसा कहकर भगवान् मत्स्य वहीं अन्तर्धान हो गये तथा मनु भी वहीं स्थित रहकर भगवान् वासुदेवकी कृपासे प्राप्त हुए योगका तबतक अभ्यास करते रहे, जबतक पूर्वसूचित प्रलयका समय उपस्थित न हुआ ॥ ३-१६ ॥

काले यथोक्ते सञ्जाते वासुदेवमुखोद्गते । 
शृङ्गी प्रादुर्बभूवाथ मत्स्यरूपी जनार्दनः ॥ १७

भुजङ्गो रज्जुरूपेण मनोः पार्श्वमुपागमत्।
भूतान् सर्वान् समाकृष्य योगेनारोप्य धर्मवित् ।। १८

भुजङ्गरज्वा मत्स्यस्य शृङ्गे नावमयोजयत्। 
उपर्युपस्थितस्तस्याः प्रणिपत्य जनार्दनम् ॥ १९

आभूतसम्प्लवे तस्मिन्नतीते योगशायिना।
पृष्टेन मनुना प्रोक्तं पुराणं मत्स्यरूपिणा। 
तदिदानी प्रवक्ष्यामि शृणुध्वमृषिसत्तमाः ॥ २०

यद् भवद्भिः पुरा पृष्टः सृष्ट्यादिकमहं द्विजाः । 
तदेवैकार्णवे तस्मिन् मनुः पप्रच्छ केशवम् ॥ २१

तदनन्तर भगवान् वासुदेवके मुखसे कहे गये पूर्वोक्त प्रलयकालके उपस्थित होनेपर भगवान् जनार्दन एक सींगवाले मत्स्यके रूपमें प्रादुर्भूत हुए। उसी समय एक सर्प भी रज्जु रूपसे बहता हुआ मनुके पार्श्वभागमें आ पहुँचा। तब धर्मज्ञ मनुने अपने योगबलसे समस्त जीवोंको खींचकर नौकापर लाद लिया और उसे सर्परूपी रस्सीसे मत्स्यके सींगमें बाँध दिया। तत्पश्चात् भगवान् जनार्दनको प्रणाम करके वे स्वयं भी उस नौकापर बैठ गये। श्रेष्ठ ऋषियो! इस प्रकार उस अतीत प्रलयके अवसरपर योगाभ्यासी मनुद्वारा पूछे जानेपर मत्स्यरूपी भगवान्‌ने जिस पुराणका वर्णन किया था, उसीका मैं इस समय आपलोगोंके समक्ष प्रवचन करूँगा, सावधान होकर श्रवण कीजिये। द्विजवरी। पहले आपलोगोंने मुझसे जिस सृष्टि आदिके विषयमें प्रश्न्न किया है, उन्हीं विषयोंको उस एकार्णवके समय मनुने भी भगवान् केशवसे पूछा था ॥ १७-२१॥

मनुरुवाच

उत्पत्तिं प्रलयं चैव वंशान् मन्वन्तराणि च। 
वंश्यानुचरितं चैव भुवनस्य च विस्तरम् ॥ २२

दानधर्मविधिं चैव श्राद्धकल्पं च शाश्वतम्। 
वर्णाश्रमविभागं च तथेष्टापूर्तसंज्ञितम् ॥ २३

देवतानां प्रतिष्ठादि यच्चान्यद् विद्यते भुवि। 
तत्सर्वं विस्तरेण त्वं धर्म व्याख्यातुमर्हसि ॥ २४

मनुने पूछा- भगवन् । सृष्टिकी उत्पत्ति और उसका संहार, मानव-वंश, मन्वन्तर, मानव-वंशमें उत्पन्न हुए लोगोंके चरित्र, भुवनका विस्तार, दान और धर्मकी विधि, सनातन श्राद्धकल्प, वर्ण और आश्रमका विभाग, इष्टापूर्त (वापी, कूप, तड़ाग आदि) के निर्माणकी विधि और देवताओंकी प्रतिष्ठा आदि तथा और भी जो कोई धार्मिक विषय भूतलपर विद्यमान हैं, उन सभीका आप मुझसे विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ २२-२४॥

मत्स्य उवाच

महाप्रलयकालान्त एतदासीत् तमोमयम्।
प्रसुप्तमिव चातर्व्यमप्रज्ञातमलक्षणम् ॥ २५ 

अविज्ञेयमविज्ञातं जगत् स्थास्नु चरिष्णु च। 
ततः स्वयम्भूरव्यक्तः प्रभवः पुण्यकर्मणाम् ॥ २६

व्यञ्जयन्नेतदखिलं प्रादुरासीत् तमोनुदः ।
योऽतीन्द्रियः परो व्यक्तादणुर्थ्यांयान् सनातनः । 
नारायण इति ख्यातः स एकः स्वयमुद्बभौ ॥ २७

यः शरीरादभिध्याय सिसृक्षुर्विविधं जगत्। 
अप एव ससर्जादौ तासु बीजमवासृजत् ॥ २८

तदेवाण्डं समभवद्धेमरूप्यमयं महत् । 
संवत्सरसहस्त्रेण सूर्यायुतसमप्रभम् ॥ २९

प्रविश्यान्तर्महातेजाः स्वयमेवात्मसम्भवः ।
प्रभावादपि तद्व्याप्त्या विष्णुत्वमगमत् पुनः ॥ ३०

तदन्तर्भगवानेष सूर्यः समभवत् पुरा। 
आदित्यश्चादिभूतत्वाद् ब्रह्मा ब्रह्म पठन्नभूत् ॥ ३९

दिवं भूमिं समकरोत् तदण्डशकलद्वयम् । 
स चाकरोद्दिशः सर्वा मध्ये व्योम च शाश्वतम् ॥ ३२

जरायुर्मेरुमुख्याश्च शैलास्तस्याभवंस्तदा। 
यदुल्वं तदभून्मेघस्तडित्सङ्घातमण्डलम् ॥ ३३

नद्योऽण्डनाम्नः सम्भूताः पितरो मनवस्तथा।
सप्त येऽमी समुद्राश्च तेऽपि चान्तर्जलोद्भवाः ।
लवणेक्षुसुराद्याश्च नानारत्नसमन्विताः ॥ ३४

स सिसृक्षुरभूद् देवः प्रजापतिररिंदम। 
तत्तेजसश्च तत्रैष मार्तण्डः समजायत ।। ३५

मृतेऽण्डे जायते यस्मान्मार्तण्डस्तेन संस्मृतः ।
रजोगुणमयं यत्तद्रूपं तस्य महात्मनः । 
चतुर्मुखः स भगवानभूल्लोकपितामहः ।। ३६

येन सृष्टं जगत् सर्व सदेवासुरमानुषम् । 
तमवेहि रजोरूपं महत्सत्त्वमुदाहृतम् ॥ ३७

मत्स्यभगवान् कहने लगे- महाप्रलयके समयका अवसान होनेपर यह सारा स्थावर जङ्गमरूप जगत् सोये हुएकी भाँति अन्धकारसे आच्छन्न था। न तो इसके विषयमें कोई कल्पना ही की जा सकती थी, न कोई वस्तु जानी ही जा सकती थी, न किसी वस्तुका कोई चिह्न ही अवशेष था। सभी वस्तुएँ विस्मृत हो चुकी थीं। कोई ज्ञातव्य वस्तु रह ही नहीं गयी थी। तदनन्तर जो पुण्यकर्मकि उत्पत्ति- स्थान तथा निराकार हैं, वे स्वयम्भूभगवान् इस समस्त जगत्‌को प्रकट करनेके अभिप्रायसे अन्धकारका भेदन करके प्रादुर्भूत हुए। उस समय जो इन्द्रियोंसे परे, परात्पर, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, महान्से भी महान्, अविनाशी और नारायण नामसे विख्यात हैं, वे स्वयं अकेले ही आविर्भूत हुए। उन्होंने अपने शरीरसे अनेक प्रकारके जगत्‌की सृष्टि करनेकी इच्छासे (पूर्वसृष्टिका) भलीभाँति ध्यान करके प्रथमतः जलकी ही रचना की और उसमें (अपने वीर्यस्वरूप) बीजका निक्षेप किया। वही बीज एक हजार वर्ष व्यतीत होनेपर सुवर्ण एवं रजतमय अण्डेके रूपमें परिणत हो गया, उसकी कान्ति दस सहस्र सूर्योके सदृश थी। तत्पश्चात् महातेजस्वी स्वयम्भू स्वयं ही उस अण्डेके भीतर प्रविष्ट हो गये तथा अपने प्रभावसे एवं उस अण्डेमें सर्वत्र व्याप्त होनेके कारण वे पुनः विष्णुभावको प्राप्त हो गये। तदनन्तर उस अण्डेके भीतर सर्वप्रथम ये भगवान् सूर्य उत्पन्न हुए, जो आदिसे प्रकट होनेके कारण 'आदित्य' और वेदोंका पाठ करनेसे 'ब्रह्मा' नामसे विख्यात हुए। उन्होंने ही उस अण्डेको दो भागोंमें विभक्त कर स्वर्गलोक और भूतलकी रचना की तथा उन दोनोंके मध्यमें सम्पूर्ण दिशाओं और अविनाशी आकाशका निर्माण किया। उस समय उस अण्डेके जरायु-भागसे मेरु आदि सातों पर्वत प्रकट हुए और जो उल्ब (गर्भाशय) था, वह विद्युत्समूहसहित मेघमण्डलके रूपमें परिणत हुआ तथा उसी अण्डेसे नदियाँ, पितृगण और मनुसमुदाय उत्पन्न हुए। नाना रत्नोंसे परिपूर्ण जो ये लवण, इक्षु, सुरा आदि सातों समुद्र हैं, वे भी उस अण्डेके अन्तःस्थित जलसे प्रकट हुए। शत्रुदमन। जब उन प्रजापति देवको सृष्टि रचनेकी इच्छा हुई, तब वहीं उनके तेजसे ये मार्तण्ड (सूर्य) प्रादुर्भूत हुए। चूँकि ये अण्डेके मृत हो जानेके पश्चात् उत्पन्न हुए थे, इसलिये 'मार्तण्ड' नामसे प्रसिद्ध हुए। उन महात्माका जो रजोगुणमय रूप था, वह लोकपितामह चतुर्मुख भगवान् ब्रह्माके रूपमें प्रकट हुआ। जिन्होंने देवता, असुर और मानवसहित समस्त जगत्‌की रचना की, उन्हें तुम रजोगुणरूप सुप्रसिद्ध महान् सत्त्व समझो ॥ २५-३७ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे आदिसर्गे मनुमत्स्यसंवादवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके आदिसर्गमें मनुमत्स्यसंवादवर्णन नामक दूसरा अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २॥

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