पण्यस्त्री-व्रत की विधि और उसका माहात्म्य | panyastree-vrat kee vidhi aur usaka maahaatmy |

मत्स्य पुराण सत्तरवाँ अध्याय

पण्यस्त्री-व्रत की विधि और उसका माहात्म्य

ब्रह्मोवाच

वर्णाश्रमाणां प्रभवः पुराणेषु मया श्रुतः ।
सदाचारस्य भगवन् धर्मशास्त्रविनिश्चयः ।
पण्यस्त्रीणां सदाचारं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ १

ब्रह्माजीने पूछा- भगवन् । मैं पुराणोंमें सभी वर्षों और आश्रमोंके सदाचारकी उत्पत्ति तथा धर्मशास्त्रके सिद्धान्तोंको तो सुन चुका, अब मैं पण्यस्त्रियों (मूल्यद्वारा खरीदी जानेवाली स्त्रियों) के समुचित आचारको यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ ॥ १॥

ईश्वर उवाच

तस्मिन्नेव युगे ब्रह्मन् सहस्त्राणि तु षोडश। 
वासुदेवस्य नारीणां भविष्यन्त्यम्बुजोद्भव ॥ २

ताभिर्वसन्तसमये कोकिलालिकुलाकुले।
पुष्पितोपवने फुल्लकङ्कारसरसस्तटे ।। ३

निर्भरं सह पत्नीभिः प्रसक्ताभिरलङ्कृतः ।
रमयिष्यति विश्वात्मा कृष्णो यदुकुलोद्वहः।
कुरङ्गनयनः श्रीमान् मालतीकृतशेखरः ॥ ४

गच्छन् समीपमार्गेण साम्बः परपुरञ्जयः ।
साक्षात् कन्दर्परूपेण सर्वाभरणभूषितः ।। ५

अनङ्गशरतप्ताभिः साभिलाषमवेक्षितः ।
प्रवृद्धो मन्मथस्तासां भविष्यति यदात्मनि ॥ ६

तदावेक्ष्य जगन्नाथः सर्वतो ध्यानचक्षुषा।
शार्प वक्ष्यति ताः सर्वा वो हरिष्यन्ति दस्यवः ।
मत्परोक्षं यतः कामलौल्यादीदृग्विधं कृतम् ॥ ७

ततः प्रसादितो देव इदं वक्ष्यति शार्ङ्गभृत्।
ताभिः शापाभितप्ताभिर्भगवान् भूतभावनः ॥८

उत्तारभूतं दाशत्वं समुद्राद् ब्राह्मणप्रियः ।
उपदेक्ष्यत्यनन्तात्मा भाविकल्याणकारकम् ॥ ९

भवतीनामृषिर्दाल्भ्यो यद् व्रतं कथयिष्यति। 
तदेवोत्तारणायालं दासीत्वेऽपि भविष्यति । 
इत्युक्त्वा ताः परिष्वज्य गतो द्वारवतीश्वरः ॥ १०

ततः कालेन महता भारावतरणे कृते। 
निवृत्ते मौसले तद्वत् केशवे दिवमागते ॥ ११

शून्ये यदुकुले सर्वेश्चौरैरपि जितेऽर्जुने। 
हृतासु कृष्णपत्नीषु दाशभोग्यासु चाम्बुधौ ॥ १२

तिष्ठन्तीषु च दौर्गत्वसंतप्तासु चतुर्मुख। 
आगमिष्यति योगात्मा दाल्भ्यो नाम महातपाः ।। १३

तास्तमध्येंण सम्पूज्य प्रणिपत्य पुनः पुनः। 
लालप्यमाना बहुशो बाष्पपर्याकुलेक्षणाः ॥ १४

स्मरन्त्यो विपुलान् भोगान् दिव्यमाल्यानुलेपनम् ।
भर्तारं जगतामीशमनन्तमपराजितम् ॥ १५

दिव्यभावां तां च पुरीं नानारत्नगृहाणि च।
द्वारकावासिनः सर्वान् देवरूपान् कुमारकान् । 
प्रश्नमेवं करिष्यन्ति मुनेरभिमुखं स्थिताः ॥ १६

भगवान् शंकरने कहा- कमलोद्भव ब्रह्मन् ! उसी द्वापरयुगमें वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णको सोलह सहस्र पलियाँ होंगी। एक बार वसन्त ऋतुमें वे सभी नारियाँ खिले हुए पुष्पोंसे सुशोभित वनमें उत्फुल्ल कमल- पुष्पोंसे परिपूर्ण एक सरोवरके तटपर जायेंगी। उस समय कोकिल कूज रहे होंगे, भ्रमर-समूह अपनी गुंजार चतुर्दिक् बिखेर रहे होंगे तथा शीतल-मन्द-सुगन्ध पवन बह रहा होगा। इसी समय वे निश्चिन्त रूपसे एकत्र होकर जलपान आदि कार्योंमें लीन होंगी। उस समय यदुकुलके उद्वाहक विश्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण भी उनके साथ वहाँ भ्रमण करेंगे। उसी समय शत्रु नगरीको जीतनेवाले, अलंकारोंसे सुशोभित श्रीमान् साम्ब, जिनके नेत्र मृगनेत्रसरीखे होंगे, जिनका मस्तक मालतीकी मालासे सुशोभित होगा, जो सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित तथा रूपसे साक्षात् कामदेवके समान होंगे, उस सरोवरके समीपवर्ती मार्गसे जा निकलेंगे। उन्हें देखकर वे सभी (स्त्रियाँ) रागभरी दृष्टिसे उनकी ओर देखने लगेंगी। तब जगदीश्वर श्रीकृष्ण ध्यान दृष्टिसे सारा वृत्तान्त जानकर उन्हें शाप दे देंगे- 'चूँकि तुमलोगोंने मुझसे विश्वासघात किया; कामलोलुपतावश ऐसा जघन्य कार्य किया है, इसलिये चोर तुमलोगोंका अपहरण कर लेंगे।' तत्पश्चात् शापसे संतप्त हुई उन स्त्रियोंद्वारा प्रसन्न किये जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण जो अनन्तात्मा, ब्राह्मणोंके प्रेमी तथा प्राणियोंको भवसागरसे पार करनेवाले कर्णधार हैं, 

उन्हें भविष्यमें इस प्रकार कल्याणकारी मार्गका उपदेश करेंगे- 'महर्षि दाल्भ्य तुमलोगोंको जो व्रत बतलायेंगे, वही दासीत्वावस्थामें भी तुमलोगोंका उद्धार करनेमें समर्थ होगा।' यों कहकर द्वारकाधीश वहाँसे चले जायेंगे। चतुर्मुख ! इसके बहुत दिन बाद जब श्रीभगवान्द्वारा पृथ्वीका भार दूर करने, मौसलयुद्ध समाप्त होने- मूसलद्वारा यदुवंशियोंकि विनाश होने, भगवान् श्रीकेशवके वैकुण्ठ पधार जाने तथा यदुकुलके वीरोंसे शून्य हो जानेपर दस्युगण अर्जुनको पराजितकर श्रीकृष्णकी पत्नियोंका अपहरण कर लेंगे और उन्हें अपनी पत्नी बना लेंगे, तब अपनी दुर्गतिसे दुःखी हुई वे सभी समुद्रमें निवास करेंगी। उसी समय महान् तपस्वी योगात्मा महर्षि दाल्भ्य वहाँ आयेंगे। तब वे ऋषिकी अर्घ्यद्वारा पूजा करके बारंबार उनके चरणोंमें प्रणिपात करेंगी और आँखोंमें आँसू भरकर अनेकों प्रकारसे विलाप करेंगी। उस समय उनको प्रचुर भोगोंका, दिव्य पुष्पमाला और अनुलेपका, अनन्त एवं अपराजित जगदीश्वर पतिका, दिव्य भावोंसे संयुक्त द्वारकापुरीका, नाना प्रकारके रनोंसे निर्मित गृहोंका, द्वारकावासियोंका और देवरूपी सभी कुमारोंका स्मरण हो रहा होगा। तब वे मुनिके समक्ष खड़ी होकर इस प्रकार प्रश्न करेंगी ॥ २-१६ ॥

स्त्रिय ऊचुः

दस्युभिर्भगवन् सर्वाः परिभुक्ता वयं बलात्। 
स्वधर्माच्यवनेऽस्माकमस्मिन् त्वं शरणं भव ॥ १७

आदिष्टोऽसि पुरा ब्रह्मन् केशवेन च धीमता। 
कस्मादीशेन संयोगं प्राप्य वेश्यात्वमागताः ॥ १८

वेश्यानामपि यो धर्मस्तं नो ब्रूहि तपोधन। 
कथयिष्यत्यतस्तासां स दाल्भ्यश्चैकितायनः ॥ १९

स्त्रियाँ कहेंगी - भगवन् । डाकुओंने बलपूर्वक (हमलोगोंका अपहरण करके) अपने वशीभूत कर लिया है। इस प्रकार हम सभी अपने धर्मसे च्युत हो गयी हैं। अब इस विषयमें आप हमलोगोंके आश्रयदाता बनें। ब्रह्मन् । इसके लिये बुद्धिमान् श्रीकेशवने पहले ही आपको आदेश दे दिया है। पता नहीं, किस घोर पाप-कर्मके कारण जगदीश्वर श्रीकृष्णका संयोग पाकर भी हमलोग कुधर्ममें आ पड़ी हैं। इसलिये तपोधन। पण्यस्त्रियोंके लिये भी जो धर्म कहे गये हैं, उन्हें हमें बतलाइये। उनके द्वारा यों पूछे जानेपर चेकितायन महर्षिके पुत्र दाल्भ्य उन्हें सारा वृत्तान्त बतलायेंगे ॥ १७-१९ ॥

दाल्भ्य उवाच

जलक्रीडाविहारेषु पुरा सरसि मानसे। 
भवतीनां च सर्वासां नारदोऽभ्याशमागतः ॥ २०

हुताशनसुताः सर्वा भवन्त्योऽप्सरसः पुरा। 
अप्रणम्यावलेपेन परिपृष्टः स योगवित्। 
कथं नारायणोऽस्माकं भर्ता स्यादित्युपादिश ॥ २१

तस्माद् वरप्रदानं वः शापश्चायमभूत् पुरा।
शय्याद्वयप्रदानेन मधुमाधवमासयोः ॥ २२

सुवर्णोपस्करोत्सर्गाद् द्वादश्यां शुक्लपक्षतः । 
भर्ता नारायणो नूनं भविष्यत्यन्यजन्मनि ॥ २३

यदकृत्वा प्रणामं मे रूपसौभाग्यमत्सरात्। 
परिपृष्टोऽस्मि तेनाशु वियोगो वो भविष्यति। 
चौरैरपहृताः सर्वां वेश्यात्वं समवाप्स्यथ ॥ २४

एवं नारदशापेन केशवस्य च धीमतः। 
वेश्यात्वमागताः सर्वा भवन्त्यः काममोहिताः । 
इदानीमपि यद् वक्ष्ये तच्छृणुध्वं वराङ्गनाः ।। २५

पुरा देवासुरे युद्धे हतेषु शतशः सुरैः । 
दानवासुरदैत्येषु राक्षसेषु ततस्ततः ।। २६

तेषां व्रातसहस्त्राणि शतान्यपि च योषिताम्।
परिणीतानि यानि स्युर्बलाद् भुक्तानि यानि वै। 
तानि सर्वाणि देवेशः प्रोवाच वदतां वरः ॥ २७

दाल्भ्य कहते हैं- नारियो ! पूर्वकालमें तुमलोग अप्सराएँ थी और सब-की-सब अग्निकी कन्याएँ थीं। एक बार जब तुमलोग मानस सरोवरमें जलक्रीडाद्वारा मनोरञ्जन कर रही थीं, उसी समय तुमलोगोंक निकट नारदजी आ पहुँचे। उस समय तुमलोग गर्ववश उन्हें प्रणाम न कर उन योगवेत्तासे इस प्रकार प्रश्न कर बैठीं- 'देवर्षे! भगवान् नारायण किस प्रकार हमलोगोंके पति हो सकते हैं, इसका उपाय बतलाइये।' उस समय तुमलोगोंको नारदजीसे वरदान और शाप दोनों प्राप्त हुए थे। (उन्होंने कहा था- 'यदि तुमलोग चैत्र और वैशाखमासमें शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके दिन स्वर्णनिर्मित उपकरणोंसहित दो शय्याएँ प्रदान करोगी तो निश्चय ही दूसरे जन्ममें भगवान् नारायण तुमलोगोंके पति होंगे। 
साथ ही सुन्दरता और सौभाग्यके अभिमानवश जो तुमलोगोंने मुझे बिना प्रणाम किये ही मुझसे प्रश्न किया है, इस कारण तुमलोगोंका उनसे शीघ्र ही वियोग भी हो जायगा तथा डाकू तुमलोगोंका अपहरण कर लेंगे और तुम सभी कुधर्मको प्राप्त हो जाओगी।' इस प्रकार नारदजी एवं बुद्धिमान् भगवान् केशवके शापसे तुम सभी कामसे मोहित होकर कुधर्मको प्राप्त हो गयी हो। सुन्दरियो! इस समय मैं जो कुछ कह रहा हूँ, उसे भी तुमलोग ध्यान देकर सुनो। पूर्वकालमें घटित हुए सैकड़ों देवासुर संग्रामोंमें देवताओंने समय-समयपर बहुत-से दानवो, असुरों, दैत्यों और राक्षसोंको मार डाला था, उनकी जो सैकड़ों-हजारों यूथ की यूथ पत्नियाँ थीं, जिन्हें अन्य राक्षसोंने बलपूर्वक (इसी प्रकार) ब्याह लिया था, उन सबसे वक्ताओंमें श्रेष्ठ देवराज इन्द्रने कहा ॥ २०- २७ ॥

इन्द्र उवाच

वेश्याधर्मेण वर्तध्वमधुना नृपमन्दिरे। 
भक्तिमत्यो वरारोहास्तथा देवकुलेषु च ॥ २८

राजानः स्वामिनस्तुल्याः सुता वापि च तत्समाः । 
भविष्यति च सौभाग्यं सर्वासामपि शक्तितः ॥ २९

यः कश्चिच्छुल्कमादाय गृहमेष्यति वः सदा। 
निधनेनोपचार्यों वः स तदान्यत्र दाम्भिकात् ॥ ३०

देवतानां पितॄणां च पुण्याहे समुपस्थिते।
गोभूहिरण्यधान्यानि प्रदेयानि स्वशक्तितः । 
ब्राह्मणानां वरारोहाः कार्याणि वचनानि च ॥ ३१

यच्चाप्यन्यद् व्रतं सम्यगुपदेक्ष्याम्यहं ततः ।
अविचारेण सर्वाभिरनुष्ठेयं च तत् पुनः ॥ ३२

संसारोत्तारणायालमेतद् वेदविदो विदुः।

इन्द्र बोले-भक्तिमती सुन्दरियो। तुमलोगोंको दाम्भिकोंसे सदा दूर रहना चाहिये। तुमलोगोंको देवताओं एवं पितरोंके पुण्य-पर्व आनेपर अपनी शक्तिके अनुसार गौ, पृथ्वी, स्वर्ण और अन्न आदिका दान करना तथा ब्राह्मणोंकी आज्ञाका पालन करना चाहिये। इसके अतिरिक मैं तुमलोगोंको जिस दूसरे व्रतका उपदेश दे रहा हूँ उसका भी बिना आगा-पीछा सोचे तुम सभीको अनुष्ठान करना चाहिये। यह व्रत तुमलोगों का संसार से उद्धार करने में समर्थ है। इसे वेदवेतालोग ही जानते हैं॥ २८-३२॥

यदा सूर्यदिने हस्तः पुष्यो वाथ पुनर्वसुः ॥ ३३

भवेत् सर्वोषधीस्त्रानं सम्यङ्‌नारी समाचरेत्।
तदा पञ्चशरस्यापि संनिधातृत्वमेष्यति ।
अर्चयेत् पुण्डरीकाक्षमनङ्गस्यानुकीर्तनैः ॥ ३४

कामाय पादौ सम्पूज्य जड्डे वै मोहकारिणे।
मेहूं कंदर्पनिधये कटिं प्रीतिमते नमः ॥ ३५

नाभिं सौख्यसमुद्राय रामाय च तथोदरम्।
हृदयं हृदयेशाय स्तनावाह्लादकारिणे ॥ ३६

उत्कण्ठायेति वै कण्ठमास्यमानन्दकारिणे।
वामाङ्गं पुष्पचापाय पुष्यबाणाय दक्षिणम् ॥ ३७

मानसायेति वै मौलिं विलोलायेति मूर्धजम्।
सर्वात्मने च सर्वाङ्ग देवदेवस्य पूजयेत् ॥ ३८

नमः शिवाय शान्ताय पाशाङ्कुशधराय च।
गदिने पीतवस्त्राय शङ्खचक्रधराय च ॥ ३९

नमो नारायणायेति कामदेवात्मने नमः।
सर्वशान्त्यै नमः प्रीत्यै नमो रत्यै नमः श्रियै ॥ ४०

नमः पुष्टयै नमस्तुष्टयै नमः सर्वार्थसम्पदे।
एवं सम्पूज्य देवेशमनङ्गात्मकमीश्वरम् ।
गन्धैर्माल्यैस्तथा धूपैनैवेद्येन च कामिनी ।। ४१

तत आहूय धर्मज्ञ ब्राह्मणं वेदपारगम्।
अव्यङ्गावयवं पूज्य गन्धपुष्पार्चनादिभिः ॥ ४२

शालेयतण्डुलप्रस्थं घृतपात्रेण संयुतम् ।
तस्मै विप्राय सा दद्यान्माधवः प्रीयतामिति ॥ ४३

यथेष्टाहारयुक्तं वै तमेव द्विजसत्तमम् ।
रत्यर्थ कामदेवोऽयमिति चित्तेऽवधार्य तम् ॥ ४४

यद् यदिच्छति विप्रेन्द्रस्तत्तत्कुर्याद् विलासिनी।
सर्वभावेन चात्मानमर्पयेत् स्मितभाषिणी ।। ४५

जब रविवारको हस्त, पुष्य अथवा पुनर्वसु नक्षत्र आवे तो स्त्रीको सर्वोषधिमिश्रित जलसे भलीभाँति स्नान करना उचित है। ऐसा करनेसे उसे देवताकी संनिकटता प्राप्त होगी। फिर नामोंका कीर्तन करते हुए भगवान् पुण्डरीकाक्षकी यों अर्चना करनी चाहिये- 'कामाय नमः' से दोनों चरणोंका, 'मोहकारिणे नमः' से जङ्घाओंका, 'कंदर्पनिधये नमः' से जननेन्द्रियका, 'प्रीतिमते नमः' से कटिका, 'सौख्यसमुद्राय नमः' से नाभिका, 'रामाय नमः' से उदरका, 'हृदयेशाय नमः' से हृदयका, 'आह्लादकारिणे नमः' से दोनों स्तनोंका, 'उत्कण्ठाय नमः' से कण्ठका, 'आनन्दकारिणे नमः' से मुखका, 'पुष्पचापाय नमः' से वामाङ्गका, 'पुष्यबाणाय नमः' से दक्षिणाङ्गका, 'मानसाय नमः'- से ललाटका, 'विलोलाय नमः' से केशोंका और 'सर्वात्मने नमः' से देवाधिदेव पुण्डरीकाक्षके सर्वाङ्गका पूजन करना चाहिये। पुनः 'शिवाय नमः', 'शान्ताय नमः', 'पाशाङ्कुशधराय नमः', 'गदिने नमः', 'पीतवस्त्राय नमः', 'शङ्खचक्रधराय नमः', 'नारायणाय नमः', 'कामदेवात्मने नमः' से भगवान् विष्णुकी पूजा करके 'सर्वशान्त्यै नमः', 'प्रीत्यै नमः', 'रत्यै नमः', 'श्रियै नमः', 'पुष्ट्यै नमः', 'तुष्टयै नमः', 'सर्वार्थसम्पदे नमः' से लक्ष्मीका भी पूजन करनेका विधान है। इस प्रकार व्रतिनी नारी चन्दन, पुष्पमाला, धूप और नैवेद्य आदिसे कामदेवस्वरूप देवेश्वर भगवान् विष्णुकी पूजा करे। तत्पश्चात् वह सुडौल अङ्गोंवाले, धर्मज्ञ एवं वेदज्ञ ब्राह्मणको बुलाकर चन्दन, पुष्प आदि पूजन- सामग्रीद्वारा उनकी पूजा करे और घीसे भरे हुए पात्रके साथ एक सेर अगहनी चावल उस ब्राह्मणको दान करे और कहे- 'माधव मुझपर प्रसन्न हों।' फिर वह विलासिनी नारी उस द्विजवरको यथेष्ट भोजन करावे ॥ ३३-४५ ॥

एवमादित्यवारेण सर्वमेतत् समाचरेत्।
तण्डुलप्रस्थदानं च यावन्मासास्त्रयोदश ॥ ४६

ततस्त्रयोदशे मासि सम्प्राप्ते तस्य भामिनी।
विप्रायोपस्करैर्युक्तां शय्यां दद्यात् विलक्षणाम् ॥ ४७

सोपधानकविश्रामां सास्तरावरणां शुभाम्।
प्रदीपोपानहच्छत्रपादुकासनसंयुताम् ॥ ४८

सपत्नीकमलङ्कत्य हेमसूत्राङ्गुलीयकैः ।
सूक्ष्मवस्त्रैः सकटकैर्भूरिमाल्यानुलेपनैः ॥ ४९

कामदेवं सपत्नीकं गुडकुम्भोपरि स्थितम् ।
ताम्रपात्रासनगतं हेमनेत्रपटावृतम् ॥ ५०

सकांस्यभाजनोपेतमिक्षुदण्डसमन्वितम् ।
दद्यादेतेन मन्त्रेण तथैकां गां पयस्विनीम् ॥ ५१

यथान्तरं न पश्यामि कामकेशवयोः सदा।
तथैव सर्वकामाप्तिरस्तु विष्णो सदा मम ॥ ५२

यथा न कमला देहात् प्रयाति तव केशव ।
तथा ममापि देवेश शरीरं स्वीकुरु प्रभो ॥ ५३

तथा च काञ्चनं देवं प्रतिगृह्णन् द्विजोत्तमः ।
क इदं कस्मादादिति वैदिकं मन्त्रमीरयेत् ॥ ५४

ततः प्रदक्षिणीकृत्य विसर्ज्य द्विजपुंगवम् ।
शव्यासनादिकं सर्व ब्राह्मणस्य गृहं नयेत् ॥ ५५

ततः प्रभृति यो विप्रो रत्यर्थं गृहमागतः ।
स मान्यः सूर्यवारे च स मन्तव्यो भवेत् तदा ।। ५६

एवं त्रयोदशं यावन्मासमेवं द्विजोत्तमान्।
तर्पयेत यथाकामं प्रोषितेऽन्यं समाचरेत् ॥ ५७

तदनुज्ञया रूपवान् यावदभ्यागतो भवेत्।
आत्मनोऽपि यथाविघ्नं गर्भभूतिकरं प्रियम् ॥ ५८

दैवं वा मानुषं वा स्यादनुरागेण वा ततः ।
साचारानष्टपञ्चाशद् यथाशक्त्या समाचरेत् ॥ ५९

एतद्धि कथितं सम्यग् भवतीनां विशेषतः ।
अधर्मोऽयं ततो न स्याद् वेश्यानामिह सर्वदा ॥ ६०

इस प्रकार रविवारसे प्रारम्भ करके यह सब कार्य करते रहना चाहिये। एक सेर चावलका दान तो तेरह मासतक करनेका विधान है। तेरहवाँ महीना आनेपर उस स्त्रीको चाहिये कि उपर्युक्त ब्राह्मणको समस्त उपकरणोंसे युक्त एक ऐसी विलक्षण शय्या प्रदान करे, जो गद्दा, चादर और विश्रामहेतु बने हुए तकियेसे युक्त एवं सुन्दर हो तथा उसके साथ दीपक, जूता, छाता, खड़ाऊँ और आसनी भी हो। उस समय उस सपत्नीक ब्राह्मणको महीन वस्त्र, सोनेकी जंजीर, अँगूठी, कड़ा, अधिकाधिक पुष्पमाला और चन्दनसे अलंकृत करके गुड़से भरे हुए कलशके ऊपर स्थापित ताम्म्रपात्रके आसनपर सपत्नीक कामदेवकी मूर्तिको रख दे, उसे स्वर्णनिर्मित नेत्राच्छादनसे ढक दे। उसके निकट कांसेका पात्र और गना भी रख दे। 

फिर आगे कहे जानेवाले मन्त्रका उच्चारण करके समग्र उपकरणोंसहित उस मूर्तिका तथा एक दुधारू गौका उस ब्राह्मणको दान करे। (दानका मन्त्र इस प्रकार है-) 'केशव। जिस प्रकार लक्ष्मी आपके शरीरसे विलग होकर कहीं अन्यत्र नहीं जातीं, देवेश्वर प्रभो उसी प्रकार आप मेरे शरीरको भी स्वीकार कर लें।' स्वर्णमय कामदेवकी मूर्तिको ग्रहण करते समय वे द्विजवर-'कोऽदात् कस्मा अदात् कामोऽदात् कामायादात् इत्यादि (वाजस० सं० ७।४८) इस वैदिक मन्त्रका उच्चारण करें। तदनन्तर वह स्त्री उन द्विजवरकी प्रदक्षिणा करके उन्हें विदा करे और शय्या, आसन आदि दानकी सभी वस्तुएँ उनके घर भिजवा दे। इस प्रकार इस दैवकर्मको अनुरागपूर्वक अपनी शक्तिके अनुसार विधिपूर्वक अट्ठावन बार करना चाहिये। विशेषतः तुम्हीं लोगोंके लिये ही मैंने इस व्रतका सम्यक् प्रकारसे वर्णन किया है। ऐसा करनेसे पण्यस्त्रियोंको इस लोकमें कभी अधर्मका भागी नहीं होना पड़ेगा ॥ ४६-६० ॥

पुरुहूतेन यत् प्रोक्तं दानवीषु पुरा मया।
तदिदं साम्प्रतं सर्वं भवतीष्वपि युज्यते ॥ ६१

सर्वपापप्रशमनमनन्तफलदायकम्।
कल्याणीनां च कथितं तत् कुरुध्वं वराननाः ॥ ६२

करोति याशेषमखण्डमेतत् कल्याणिनी माधवलोकसंस्था ।
सा पूजिता देवगणैरशेषै- रानन्दकृत् स्थानमुपैति विष्णोः ॥ ६३

पूर्वकालमें इन्द्रने दानव-पत्नियोंके प्रति जिस व्रतका वर्णन किया था, वही सब इस समय तुमलोगोंको भी करना उचित है। सुन्दरियो। कल्याणी स्वियोंक समस्त पापोंको शान्त करनेवाले एवं अनन्त फलदायक जिस व्रतका मैंने वर्णन किया है, उसका तुमलोग अवश्य पालन करो। जो कल्याणमयी नारी इस व्रतका पूरा-पूरा अखण्डरूपसे पालन करती है, वह भगवान् विष्णुके लोकमें स्थित होती है और अखिल देवगणोंद्वारा पूजित होकर भगवान् विष्णुके आनन्ददायक स्थानको प्राप्त होती है॥ ६१-६३॥

श्रीभगवानुवाच

तपोधनः सोऽप्यभिधाय चैवं तदा च तासां व्रतमङ्गनानाम् ।
स्वस्थानमेष्यत्यनु वै समस्ताः व्रतं चरिष्यन्ति च वेदयोने ॥ ६४

श्रीभगवान्ने कहा- ब्रह्मन् । इस प्रकार तपस्वी दाल्भ्य उन स्त्रियोंसे वाराङ्गनाओंके व्रतका वर्णन करके अपने स्थानको चले जायेंगे। उसके पश्चात् वे सभी उस व्रतका अनुष्ठान करेंगी ॥ ६४ ॥

इति श्रीमात्‌ये महापुराणेऽनङ्गदानव्रतं नाम सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७० ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें अनङ्गदानव्रत नामक सत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ७० ॥

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