मत्स्य पुराण छिहत्तरवाँ अध्याय
फल सप्तमी व्रत की विधि और उसका माहात्म्य
ईश्वर उवाच
अन्यामपि प्रवक्ष्यामि नाम्ना तु फलसप्तमीम्।
यामुपोष्य नरः पापाद् विमुक्तः स्वर्गभाग् भवेत् ॥ १
ईश्वरने कहा- ब्रह्मन् ! अब मैं फलसप्तमी नामक एक अन्य व्रतका वर्णन कर रहा हूँ, जिसका अनुष्ठान करके मनुष्य पापोंसे विमुक्त हो स्वर्गभागी हो जाता है॥ १
मार्गशीर्ष शुभे मासि सप्तम्यां नियतव्रतः ।
तामुपोष्याथ कमलं कारयित्वा तु काञ्चनम् ॥ २
शर्करासंयुतं दद्याद् ब्राह्मणाय कुटुम्बिने।
रविं काञ्चनकं कृत्वा पलस्यैकस्य धर्मवित्।
दद्याद् द्विकालवेलायां भानुर्मे प्रीयतामिति ॥ ३
भक्त्या तु विप्रान् सम्पूज्य चाष्टम्यां क्षीरभोजनम्।
दत्त्वा कुर्यात् फलयुतं यावत् स्यात् कृष्णसप्तमी ॥ ४
तामप्युपोष्य विधिवदनेनैव क्रमेण तु ।
तद्वद्धेमफलं दत्त्वा सुवर्णकमलान्वितम् ॥ ५
शर्करापात्रसंयुक्तं वस्त्रमाल्यसमन्वितम्।
संवत्सरं च तेनैव विधिनोभवसप्तमीम् ॥ ६
उपोष्य दत्त्वा क्रमशः सूर्यमन्त्रमुदीरयेत् ।
भानुरकों रविर्ब्रह्मा सूर्यः शक्रो हरिः शिवः ।
श्रीमान् विभावसुस्त्वष्टा वरुणः प्रीयतामिति ॥ ७
प्रतिमासं च सप्तम्यामेकैकं नाम कीर्तयेत् ।
प्रतिपक्षं फलत्यागमेतत् कुर्वन् समाचरेत् ॥ ८
व्रतनिष्ठ मनुष्यको चाहिये कि वह मार्गशीर्ष नामक शुभ मासमें शुक्लपक्षकी सप्तमी तिथिको सोनेका एक कमल बनवाये और उस दिन उपवास कर उसे मुझपर प्रसन्न हों' यों कहकर ब्राह्मणको दान करे। शक्करसमेत कुटुम्बी ब्राह्मणको दान कर दे। इसी प्रकार धर्मवेत्ता व्रती एक पल सोनेकी सूर्यकी मूर्ति बनवाकर उसे सायंकालके समय 'भगवान् सूर्य फिर अष्टमीके दिन ब्राह्मणोंको फलसहित दूधसे बने हुए अन्नका भोजन कराकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करे। ऐसा तबतक करते रहना चाहिये जबतक पुनःकृष्णपक्षको सप्तमी न आ जाय। उस दिन भी उसी क्रमसे विधिपूर्वक उपवास करके स्वर्णमय कमलके साथ स्वर्णनिर्मित फलका दान करना चाहिये। उसके साथ शक्करसे भरा हुआ पात्र, वस्त्र और पुष्पमाला भी होना आवश्यक है। इस प्रकार एक वर्षतक दोनों पक्षोंकी सप्तमीके दिन उपवास और दान कर क्रमशः सूर्य-मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये। भानु, अर्क, रवि, ब्रह्मा, सूर्य, शक्र, हरि, शिव, श्रीमानू, विभावसु त्वष्टा और वरुण-ये मुझपर प्रसन्न हों। मार्गशीर्षसे प्रारम्भ कर प्रत्येक मासको सप्तमी तिथिको उपर्युक्त नामोंमें क्रमशः एक-एकका कीर्तन करना चाहिये। प्रत्येक पक्षमें फलदान करनेका भी विधान है। इस प्रकार सारा कार्य करते हुए व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये ॥ २-८॥
व्रतान्ते विप्रमिथुनं पूजयेद् वस्त्रभूषणैः।
शर्कराकलशं दद्याद्धेमपद्मदलान्वितम् ॥ ९
यथा न विफलाः कामास्त्वद्भक्तानां सदा रवे।
तथानन्तफलावाप्तिरस्तु मे सप्तजन्मसु ॥ १०
इमामनन्तफलदां यः कुर्यात् फलसप्तमीम्।
सर्वपापविशुद्धात्मा सूर्यलोके महीयते ॥ ११
सुरापानादिकं किञ्चिद् यदत्रामुत्र वा कृतम्।
तत् सर्वं नाशमायाति यः कुर्यात् फलसप्तमीम् ॥ १२
कुर्वाणः सप्तमीं चेमां सततं रोगवर्जितः ।
भूतान् भव्यांश्च पुरुषांस्तारयेदेकविंशतिम्।
यः शृणोति पठेद् वापि सोऽपि कल्याणभाग् भवेत् ॥ १३
व्रतको समाप्तिपर वस्त्र और आभूषण आदिद्वारा सपत्नीक ब्राह्मणकी पूजा करे और स्वर्णमय कमलसहित शक्करसे भरा हुआ कलश दान करे। उस समय ऐसा कहे 'सूर्यदेव। जिस प्रकार आपके भक्तोंकी कामनाएँ कभी विफल नहीं होतीं, उसी प्रकार मुझे भी सात जन्मोंतक अनन्त फलकी प्राप्ति होती रहे।' जो मनुष्य इस अनन्त फलदायिनी फलसप्तमीका व्रत करता है, उसका आत्मा समस्त पापोंसे विशुद्ध हो जाता है और वह सूर्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है। फलसप्तमीव्रतका अनुष्ठान करनेवाले मनुष्यद्वारा इस लोकमें अथवा परलोकमें मद्यपान आदि जो कुछ भी दुष्कर्म किया गया है, वह सारा-का-सारा विनष्ट हो जाता है। इस फलसप्तमीव्रतका निरन्तर अनुष्ठान करनेवाले मनुष्यके पास रोग नहीं फटकते और वह अपनी भूत एवं भविष्यकी इक्कीस पीढ़ियोंको तार देता है। जो इस व्रत- विधानको सुनता अथवा पढ़ता है, वह भी कल्याणभागी हो जाता है॥९-१३॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे फलसप्तमीव्रतं नाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७६ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें फलसप्तमीव्रत नामक छिहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ७६ ॥
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