पितृ-वंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन | pitr-vansh ka varnan, peevaree ka vrttaant tatha shraaddh-vidhi ka kathan |

मत्स्य पुराण पन्द्रहवाँ अध्याय

पितृ-वंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधि का कथन

सूत उवाच

विभ्राजा नाम चान्ये तु दिवि सन्ति सुवर्चसः ।
लोका बर्हिषदो यत्र पितरः सन्ति सुव्रताः ॥ १

सूतजी कहते हैं- त्रऋषियो। स्वर्ग में विआज नामक अन्य तेजस्वी लोक भी हैं, जहाँ परम श्रेष्ठ उत्तम व्रत परायण बर्हिषद् नामक पितर निवास करते है। जहाँ मयूरोंसे युक्त हजारों विमान विद्यमान रहते हैं। १

यत्र बर्हिणयुक्तानि विमानानि सहस्त्रशः।
सङ्कल्प्या बर्हिषो यत्र तिष्ठन्ति फलदायिनः ॥ २

यत्राभ्युदयशालासु मोदन्ते श्राद्धदायिनः ।
याँश्च देवासुरगणा गन्धर्वाप्सरसां गणाः ।। ३

यक्षरक्षोगणाश्चैव यजन्ति दिवि देवताः।
पुलस्त्यपुत्राः शतशस्तपोयोगसमन्विताः ॥ ४

महात्मानो महाभागा भक्तानामभयप्रदाः ।
एतेषां पीवरी कन्या मानसी दिवि विश्रुता ॥ ५

योगिनी योगमाता च तपश्चक्रे सुदारुणम्।
प्रसन्नो भगवांस्तस्या वरं वद्वे तु सा हरेः ॥ ६

योगवन्तं सुरूपं च भर्तारं विजितेन्द्रियम्। 
देहि देव प्रसन्नस्त्वं पतिं मे वदतां वरम् ॥ ७

उवाच देवो भविता व्यासपुत्रो यदा शुकः ।
भविता तस्य भार्या त्वं योगाचार्यस्य सुव्रते ॥ ८

भविष्यति च ते कन्या कृत्वी नाम च योगिनी।
पाञ्चालाधिपतेर्देया मानुषस्य त्वया तदा ॥ ९

जननी ब्रह्मदत्तस्य योगसिद्धा च गौः स्मृता।
कृष्णो गौरः प्रभुः शम्भुर्भविष्यन्ति च ते सुताः ॥ १०

महात्मानो महाभागा गमिष्यन्ति परं पदम् । 
तानुत्पाद्य पुनर्योगात् सवरा मोक्षमेष्यसि ॥ ११

सुमूर्तिमन्तः पितरो वसिष्ठस्य सुताः स्मृताः । 
नाम्ना तु मानसाः सर्वे सर्वे ते धर्ममूर्तयः ॥ १२

ज्योतिर्भासिषु लोकेषु ये वसन्ति दिवः परम्। 
विराजमानाः क्रीडन्ति यत्र ते श्रद्धदायिनः ॥ १३

सर्वकामसमृद्धेषु विमानेष्वपि पादजाः। 
किं पुनः श्राद्धदा विप्रा भक्तिमन्तः क्रियान्विताः ॥ १४

गौर्नाम कन्या येषां तु मानसी दिवि राजते। 
शुक्रस्य दयिता पत्नी साध्यानां कीर्तिवर्धिनी ॥ १५

जहाँ संकल्प के लिये प्रयुक्त हुए बर्हि (कुश) फल देनेके लिये उन्मुख होकर उपस्थित रहते हैं एवं जहाँकी अभ्युदय शालाओं में पितरोंको श्राद्ध प्रदान करनेवाले लोग आनन्द मनाते रहते हैं। देवताओं और असुरोंके गण, गन्धवों और अप्सराओंक समूह तथा यक्षों और राक्षसंकि समुदाय स्वर्गमें उन पितरोंके निमित्त यज्ञका विधान करते रहते हैं। महर्षि पुलस्त्यके सैकड़ों पुत्र, जो तपस्या और योगसे परिपूर्ण, महान् आत्मबलसे सम्पन्न, महान् भाग्यशाली एवं अपने भक्तोंको अभय प्रदान करनेवाले हैं, वहाँ निवास करते हैं। इन पितरोंकी एक मानसी कन्या थी, जो पीवरी नामसे विख्यात थी। उस योगिनी एवं योगमाता पीवरीने अत्यन्त कठोर तप किया। उसकी तपस्यासे भगवान् विष्णु प्रसत्र हो गये (और उसके समक्ष प्रकट हुए)। तब पीवरीने श्रीहरिसे यह वरदान माँगा-'देव। यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे योगाभ्यासी, अत्यन्त सौन्दर्यशाली, जितेन्द्रिय, वक्ताओंमें श्रेष्ठ एवं पालन-पोषण करनेवाला पति प्रदान कीजिये।' यह सुनकर भगवान् विष्णुने कहा-' सुव्रते! जब महर्षि व्यासके पुत्र शुक जन्म धारण करेंगे, उस समय तुम उन योगाचार्यकी पत्नी होओगी। उनके संयोगसे तुम्हें एक योगाभ्यासपरायणा कृत्वी नामकी कन्या उत्पन्न होगी। तब तुम उसे मानव योनिमें उत्पन्न हुए पश्चाल-नरेश (नीप मतान्तरसे अणुह) को समर्पित कर देना। तुम्हारी वह योगसिद्धा कन्या (कृत्वी) ब्रह्मदत्तकी माता होकर 'गौ' नामसे भी प्रसिद्ध होगी। तदनन्तर कृष्ण, गौर, प्रभु और शम्भु नामक तुम्हारे चार पुत्र होंगे,जो महान् आत्मबलसे सम्पन्न एवं महान् भाग्यशाली होंगे और अन्तमें परमपदको प्राप्त करेंगे। उन पुत्रोंको पैदा करनेके पश्चात् तुम पुनः अपने योगबलसे वर प्राप्त करोगी और अन्तमें मोक्ष प्राप्त कर लोगी। महर्षि वसिष्ठके पुत्ररूप (सुकाली नामक) पितर, जो सब के सब मानस नामसे विख्यात हैं, अत्यन्त सुन्दर स्वरूपवाले तथा धर्मकी मूर्ति हैं। वे सभी स्वर्गलोकसे परे ज्योतिर्भासी लोकोंमें निवास करते हैं। जहाँ आद्धकर्ता शूद्र भी सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति करनेवाले विमानोंमें विराजमान होकर क्रीड़ा करते रहते हैं, वहाँ क्रियानिष्ठ एवं भक्तिमान् श्राद्धदाता ब्राह्मणोंकी तो बात ही क्या है। इन पितरोंको 'गौ' नामकी मानसी कन्या स्वर्गलोकमें विराजमान है, जो शुक्र की प्रिय पत्नी और साध्योंकी कीर्तिका विस्तार करनेवाली है॥ -१५॥

मरीचिगर्भा नाम्ना तु लोका मार्तण्डमण्डले।
पितरो यत्र तिष्ठन्ति हविष्मन्तोऽङ्गिरः सुताः ॥ १६

तीर्थश्राद्धप्रदा यान्ति ये च क्षत्रियसत्तमाः। 
राज्ञां तु पितरस्ते वै स्वर्गमोक्षफलप्रदाः ॥ १७ 

एतेषां मानसी कन्या यशोदा लोकविश्रुता।
पत्नी हांशुमतः श्रेष्ठा स्नुषा पञ्चजनस्य च ॥ १८

जनन्यथ दिलीपस्य भगीरथपितामही।
लोकाः कामदुघा नाम कामभोगफलप्रदाः ॥ १९

सुस्वधा नाम पितरो यत्र तिष्ठन्ति सुव्रताः ।
आज्यपा नाम लोकेषु कर्दमस्य प्रजापतेः ॥ २०

पुलहाङ्गजदायादा वैश्यास्तान् भावयन्ति च।
यत्र श्राद्धकृतः सर्वे पश्यन्ति युगपद्द्वताः ॥ २१

मातृभ्रातृपितृस्वसृसखिसम्बन्धिबान्धवान् ।
अपि जन्मायुतैर्दृष्टाननुभूतान् सहस्त्रशः ॥ २२

एतेषां मानसी कन्या विरजा नाम विश्रुता।
या पत्री नहुषस्यासीद् ययातेर्जननी तथा ॥ २३

एकाष्टकाभवत् पश्चाद् ब्रह्मलोके गता सती। 
त्रय एते गणाः प्रोक्ताश्चतुर्थं तु वदाम्यतः ॥ २४

लोकास्तु मानसा नाम ब्रह्माण्डोपरि संस्थिताः ।
येषां तु मानसी कन्या नर्मदानामविश्रुता ॥ २५

सोमपा नाम पितरो यत्र तिष्ठन्ति शाश्वताः ।
धर्ममूर्तिधराः सर्वे परतो ब्रह्मणः स्मृताः ॥ २६

उत्पन्नाः स्वधया ते तु ब्रह्मत्वं प्राप्य योगिनः ।
कृत्वा सृष्ट्यादिकं सर्वं मानसे साम्प्रतं स्थिताः ॥ २७

नर्मदा नाम तेषां तु कन्या तोयवहा सरित्। 
भूतानि या पावयति दक्षिणापथगामिनी ।॥ २८

तेभ्यः सर्वे तु मनवः प्रजाः सर्गेषु निर्मिताः ।
ज्ञात्वा श्राद्धानि कुर्वन्ति धर्माभावेऽपि सर्वदा ॥ २९

तेभ्य एव पुनः प्राप्तुं प्रसादाद् योगसंततिम्।
पितृणामादिसर्गे तु श्रद्धमेव विनिर्मितम् ॥ ३०

इसी प्रकार सूर्यमण्डलमें मरीचिगर्भ नामसे प्रसिद्ध अन्य लोक भी हैं, जहाँ अङ्गिराके पुत्र हविष्मान् नामक पितरके रूपमें निवास करते हैं। ये राजाओं (क्षत्रियों) के पितर हैं, जो स्वर्ग एवं मोक्षरूप फलके प्रदाता हैं। जो श्रेष्ठ क्षत्रिय तीर्थोंमें श्राद्ध प्रदान करते हैं, वे इन लोकोंमें जाते हैं। इन पितरोंकी एक यशोदा नामकी लोक-प्रसिद्ध मानसी कन्या थी, जो पञ्चजनकी श्रेष्ठ पुत्रवधू, अंशुमान्‌की पत्नी, (महाराज) दिलीपकी माता और भगीरथकी पितामही थी। अभीष्ट कामनाओं एवं भोगोंका फल प्रदान करनेवाले कामदुध नामक अन्य पितृलोक भी हैं, जहाँ उत्तम व्रतपरायण सुस्वधा नामवाले पितर निवास करते हैं। वे ही पितर प्रजापति कर्दमके लोकोंमें आज्यप नामसे प्रख्यात हैं। महर्षि पुलहके अङ्गसे उत्पन्न हुए वैश्यगण उनकी भावना (पूजा) करते हैं। ब्राद्धकर्ता सभी वैश्यगण इन लोकोंमें पहुँचकर दस हजार जन्मान्तरोंमें देखे और अनुभव किये हुए भी अपने हजारों माता, भाई, पिता, बहन, मित्र, सम्बन्धी और बान्धवोंको एक साथ देखते हैं। 

इन पितरोंकी मानसी कन्या विरजा नामसे विख्यात थी, जो राजा नहुषकी पत्नी और ययातिकी माता थी। बादमें वह पतिपरायणा विरजा ब्रह्मलोकको चली गयी और वहाँ एकाष्टका नामसे प्रसिद्ध हुई। इस प्रकार मैंने तीन पितृगणोंका वर्णन कर दिया। अब इसके बाद चौथे गणका वर्णन कर रहा हूँ। ब्रह्माण्डके ऊपर मानस नामक लोक विद्यमान हैं, उनमें अविनाशी सोमप' नामक पितर निवास करते हैं (ये ब्राह्मणोंके पितर हैं)। उनकी मानसी कन्या नर्मदा-नामसे प्रसिद्ध है। वे सभी पितर धर्मकी-सी मूर्ति धारण करनेवाले तथा ब्रह्मासे भी परे बतलाये गये हैं। स्वधासे उनकी उत्पत्ति हुई है। वे सभी योगाभ्यासी पितर ब्रह्मत्वको प्राप्त करके सृष्टि आदि समस्त कार्योंसे निवृत्त हो इस समय मानस लोकमें विद्यमान हैं। उनकी वह नर्मदा नाम्नी कन्या (भारतके) दक्षिणापथमें आकर जल प्रवाहित करनेवाली नदी हुई है, जो समस्त प्राणियोंको पवित्र कर रही है। इन्हीं पितरोंकी परम्परासे मनुगण (अपने-अपने कार्यकालमें) सृष्टिके प्रारम्भमें प्रजाओंका निर्माण करते हैं। इस रहस्यको जानकर लोग धर्मका अभाव हो जानेपर भी सर्वदा श्राद्ध करते रहते हैं। इन्हीं पितरोंकी कृपासे पुनः इन्होंके द्वारा योग परम्पराको प्राप्त करनेके लिये सृष्टिके प्रारम्भमें पितरोंके लिये श्रद्धका ही निर्माण किया गया था ॥ १६-३० ॥

सर्वेषां राजतं पात्रमथवा रजतान्वितम्।
दत्तं स्वधा पुरोधाय पितॄन् प्रीणाति सर्वदा ॥ ३१

अग्रीषोमयमानां तु कार्यमाप्यायनं बुधः।
अग्न्यभावेऽपि विप्रस्य पाणावपि जलेऽथवा ।। ३२

अजाकर्णेऽश्वकर्णे वा गोष्ठे वा सलिलान्तिके । 
पितॄणामम्बरं स्थानं दक्षिणा दिक् प्रशस्यते ॥ ३३

प्राचीनावीतमुदकं तिलाः सव्याङ्गमेव च।
दर्भा मांसं च पाठीनं गोक्षीरं मधुरा रसाः ॥ ३४

खड्गलोहामिषमधुकुशश्यामाकशालयः ।
यवनीवारमुद्‌गेक्षुशुक्लपुष्पघृतानि च।॥ ३५

वल्लभानि प्रशस्तानि पितृणामिह सर्वदा।
द्वेष्याणि सम्प्रवक्ष्यामि श्रद्धे वर्ज्यानि यानि तु ।। ३६ 

मसूरशणनिष्यावराजमाषकुसुम्भिकाः।
पद्मबिल्वार्कधत्तूरपारिभद्राटरूषकाः॥ ३७

न देयाः पितृकार्येषु पयश्चाजाविकं तथा।
कोद्रवोदारचणकाः कपित्थं मधुकातसी ॥ ३८

एतान्यपि न देयानि पितृभ्यः प्रियमिच्छता।
पितॄन् प्रीणाति यो भक्त्या ते पुनः प्रीणयन्ति तम् ॥ ३९

यच्छन्ति पितरः पुष्टिं स्वर्गारोग्यं प्रजाफलम् ।
देवकार्यादपि पुनः पितृकार्य विशिष्यते ॥ ४०

देवतानां च पितरः पूर्वमाप्यायनं स्मृतम् ।
शीघ्रप्रसादास्त्वक्रोधा निःशस्त्राः स्थिरसौहृदाः ॥ ४१

शान्तात्मानः शौचपराः सततं प्रियवादिनः ।
भक्तानुरक्ताः सुखदाः पितरः पूर्वदेवताः ॥ ४२

हविष्मतामाधिपत्ये श्रद्धदेवः स्मृतो रविः ।
एतद् वः सर्वमाख्यातं पितृवंशानुकीर्तनम् ।
पुण्यं पवित्रमायुष्यं कीर्तनीयं सदा नृभिः ॥ ४३

इन सभी पितरोंके निमित्त चाँदीका अथवा चाँदीमिश्रित अन्य धातुका भी पात्र आदि स्वधाका उच्चारण करके (ब्राह्मणको) दान कर दिया जाय तो वह सर्वदा पितरोंको प्रसन्न करता है। विद्वान् (श्राद्धकर्ता) को चाहिये कि (श्राद्धकालमें प्रथमतः) अग्रि, सोम और यमका तर्पण करके उन्हें तृप्त करे (और पितरोंके उद्देश्यसे दिया गया अन्न आदि अग्निमें छोड़ दे)। अग्रिके अभावमें ब्राह्मणके हाथपर, जलमें, अजाकर्णपर, अश्वकर्णपर, गोशालामें अथवा जलके निकट डाल दे। पितरोंका स्थान आकाश बतलाया जाता है। उनके लिये दक्षिण दिशा विशेषरूपसे प्रशस्त मानी गयी है। प्राचीनावीत (अपसव्य) होकर दिया गया जल, तिल, सव्याङ्ग (शरीरका दाहिना भाग), डाभ, फलका गूदा, गो-दुग्ध, मधुर रस, खड्ग, लोह, मधु, कुरा, सावाँ, अगहनीका चावल, यव, तिनीका चावल, मूँग, गना, श्वेत पुष्प और घृत-ये पदार्थ पितरोंके लिये सर्वदा प्रिय और प्रशस्त कहे गये हैं। 

अब जो श्राद्धकार्यमें वर्जित तथा पितरोंके लिये अप्रिय हैं, उन पदार्थोंका वर्णन कर रहा हूँ- मसूर, शण (पेटुआका बीज), सेम, काला उड़द, कुसुमका पुष्प, कमल, बेल या बिल्वपत्र, मदार, धतूरा, पारिभद्र (नीम, देवदारुका पुष्प या पत्ता), अडूसेका फूल तथा भेंड़ और बकरीका दूध। इन्हें पितृ-कार्योंमें नहीं देना चाहिये। पितरोंसे कल्याणप्राप्तिकी इच्छावाले पुरुषको श्राद्धकार्यमें कोदो, उदार (गुलूके वृक्षका पुष्प अथवा पत्ता), चना, कैथ, महुआ और अलसी (तीसी)- इन पदार्थोंका भी उपयोग नहीं करना चाहिये। जो भक्तिपूर्वक (श्राद्धादिद्वारा) पितरोंको प्रसन्न करता है, उसे पितर भी बदलेमें हर्षित कर देते हैं। वे पितृगण प्रसन्न होकर समृद्धि, स्वर्ग, आरोग्य और संतानरूपी फल प्रदान करते हैं। इसीलिये देवकार्यसे भी बढ़कर पितृकार्यकी विशेषता मानी जाती है तथा देवताओंसे पूर्व ही पितरोंके तर्पणकी विधि बतलायी गयी है। ये पितर शीघ्र ही कृपा करनेवाले, क्रोधरहित, शस्त्रविहीन, दृढ़ मैत्रीयुक्त, शान्तात्मा पवित्रतापरायण, सदा प्रियवादी, भक्तोंके प्रति अनुरक्त और सुखदायक (गृहस्थोंके) प्रथम देवता हैं। हविष्यान्त्रका भक्षण करनेवाले इन पितरोंके अधिनायक पदपर श्राद्धके देवतारूपमें सूर्य अधिष्ठित माने गये हैं। इस प्रकार यह पितृ-वंशका वर्णन मैंने तुम लोगोंको पूर्णरूपसे बतला दिया। यह पुण्य-प्रदाता, परम पवित्र और आयुकी वृद्धि करनेवाला है, मनुष्योंको सदा इसका पठन-पाठन करना चाहिये ॥ ३१-४३ ॥

इति श्रीमात्ये महापुराणे पितृवंशानुकीर्तनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें पितृवंशानुकीर्तन नामक पंद्रहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥

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