प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्र के विविध तीर्थ स्थानों का वर्णन | prayaag-maahaatmy-prasangamen prayaag kshetr ke vividh teerth sthaanon ka varnan |

मत्स्य पुराण एक सौ चारवाँ अध्याय

प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्र के विविध तीर्थ स्थानों का वर्णन

युधिष्ठिर उवाच

भगवञ्श्रोतुमिच्छामि पुरा कल्पे यथास्थितम् ।
ब्रह्मणा देवमुख्येन यथावत् कथितं मुने ॥ १

कथं प्रयागे गमनं नराणां तत्र कीदृशम् ।
मृतानां का गतिस्तत्र स्त्रातानां तत्र किं फलम् ॥ २

ये वसन्ति प्रयागे तु ब्रूहि तेषां च किं फलम्।
एतन्मे सर्वमाख्याहि परं कौतूहलं हि मे ॥ ३

युधिष्ठिरने पूछा- ऐश्वर्यशाली मुने। प्राचीन कल्पमें प्रयाग-क्षेत्रकी जैसी स्थिति थी तथा देवश्रेष्ठ ब्रह्माने जिस प्रकार इसका वर्णन किया था, वह सब मैं सुनना चाहता हूँ। मुने। प्रयागकी यात्रा किस प्रकार करनी चाहिये ? वहाँ मनुष्योंको कैसा आचार-व्यवहार करनेका विधान है? वहाँ मरनेवालेको कौन-सी गति प्राप्त होती है? वहाँ खान करनेसे क्या फल मिलता है? जो लोग सदा प्रयागमें निवास करते हैं, उन्हें किस फलकी प्राप्ति होती है? यह सब मुझे बतलाइये; क्योंकि इसे जाननेकी मुझे बड़ी उत्कण्ठा है॥ १-३॥

मार्कण्डेय उवाच

कथयिष्यामि ते वत्स यच्छ्रेष्ठं तत्र यत् फलम्।
पुरा ऋषीणां विप्राणां कथ्यमानं मया श्रुतम् ॥ ४

आप्रयागं प्रतिष्ठानादापुराद् वासुकेहुँदात्।
कम्बलाश्वतरी नागौ नागाच्च बहुमूलकात्।
एतत् प्रजापतेः क्षेत्रं त्रिषु लोकेषु विश्श्रुतम् ॥ ५

तत्र स्रात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः ।
तत्र ब्रह्मादयो देवा रक्षां कुर्वन्ति संगताः ॥ ६

अन्ये च बहवस्तीर्थाः सर्वपापहराः शुभाः।
न शक्याः कथितुं राजन् बहुवर्षशतैरपि।
संक्षेपेण प्रवक्ष्यामि प्रयागस्य तु कीर्तनम् ॥ ७

षष्टिर्धनुः सहस्त्राणि यानि रक्षन्ति जाह्नवीम्।
यमुनां रक्षति सदा सविता सप्तवाहनः ॥ ८

प्रयागं तु विशेषेण सदा रक्षति वासवः ।
मण्डलं रक्षति हरिर्दैवतैः सह संगतः ॥ ९

तं वटं रक्षति सदा शूलपाणिर्महेश्वरः ।
स्थानं रक्षन्ति वै देवाः सर्वपापहरं शुभम् ॥ १०

अधर्मेणावृतो लोको नैव गच्छति तत्पदम् ।
अल्पमल्पतरं पापं यदा तस्य नराधिप।
प्रयागं स्मरमाणस्य सर्वमायाति संक्षयम् ॥ ११

दर्शनात् तस्य तीर्थस्य नामसंकीर्तनादपि।
मृत्तिकालम्भनाद् वापि नरः पापात् प्रमुच्यते ॥ १२

मार्कण्डेयजीने कहा- वत्स । पूर्वकालमें प्रयागक्षेत्रमें जो श्रेष्ठ स्थान हैं तथा वहाँकी यात्रासे जो फल प्राप्त होता है, इस विषयमें ऋषियों एवं ब्राह्मणोंके मुखसे मैंने जो कुछ सुना है, वह सब तुम्हें बतला रहा हूँ। प्रयागके प्रतिष्ठानपुर (झूसी) से वासुकिहदतकका भाग, जहाँ कम्बल, अश्वतर और बहुमूलक नामवाले नाग निवास करते हैं, तीनों लोकोंमें प्रजापति क्षेत्रके नामसे विख्यात है, वहाँ खान करनेसे लोग स्वर्गलोकमें जाते हैं और जो वहाँ मृत्युको प्राप्त होते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता। ब्रह्मा आदि देवता संगठित होकर (वहाँ रहनेवालोंकी) रक्षा करते हैं। राजन् ! इसके अतिरिक्त इस क्षेत्रमें मङ्गलमय एवं समस्त पापोंका विनाश करनेवाले और भी बहुत-से तीर्थ हैं, 

जिनका वर्णन सैकड़ों वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता, अतः मैं संक्षेपमें प्रयागका वर्णन कर रहा हूँ। यहाँ साठ हजार धनुर्धर वीर गङ्गाकी रक्षा करते हैं तथा सात घोड़ोंसे जुते हुए रथपर चलनेवाले सूर्य सदा यमुनाकी देखभाल करते रहते हैं। इन्द्र विशेषरूपसे सदा प्रयागकी रक्षामें तत्पर रहते हैं। श्रीहरि देवताओंको साथ लेकर पूरे प्रयाग-मण्डलकी रखवाली करते हैं। महेश्वर हाथमें त्रिशूल लेकर सदा वट वृक्षकी रक्षा करते रहते हैं। देवगण इस सर्वपापहारी मङ्गलमय स्थानको रक्षामें तत्पर रहते हैं। इसलिये इस लोकमें अधर्मसे घिरा हुआ मनुष्य प्रयागक्षेत्रमें प्रवेश नहीं कर सकता। नरेश्वर। यदि किसीका स्वल्प अथवा उससे भी थोड़ा पाप होगा तो वह सारा-का-सारा प्रयागका स्मरण करनेसे नष्ट हो जायगा; क्योंकि ऐसा विधान है कि) प्रयागतीर्थके दर्शन, नाम संकीर्तन अथवा मृत्तिकाका स्पर्श करनेसे मनुष्य पापसे मुक्त हो जाता है ॥४-१२॥

पञ्च कुण्डानि राजेन्द्र येषां मध्ये तु जाह्नवी।
प्रयागस्य प्रवेशे तु पापं नश्यति तत्क्षणात् ॥ १३

योजनानां सहस्त्रेषु गङ्गायाः स्मरणान्नरः ।
अपि दुष्कृतकर्मा तु लभते परमां गतिम् ॥ १४

कीर्तनान्मुच्यते पापाद् दृष्ट्वा भद्राणि पश्यति।
अवगाह्य च पीत्वा तु पुनात्यासप्तमं कुलम् ॥ १५

सत्यवादी जितक्रोधो ह्यहिंसायां व्यवस्थितः । 
धर्मानुसारी तत्त्वज्ञो गोब्राह्मणहिते रतः ॥ १६

गङ्गायमुनयोर्मध्ये स्त्रातो मुच्येत किल्बिषात् ।
मनसा चिन्तयन् कामानवाप्नोति सुपुष्कलान् ॥ १७

ततो गत्वा प्रयागं तु सर्वदेवाभिरक्षितम् ।
ब्रह्मचारी वसेन्मासं पितॄन् देवांश्च तर्पयेत्।
ईप्सितॉल्लभते कामान् यत्र यत्राभिजायते ॥ १८

तपनस्य सुता देवी त्रिषु लोकेषु विश्रुता।
समागता महाभागा यमुना तत्र निम्नगा।
तत्र संनिहितो नित्यं साक्षाद् देवो महेश्वरः ॥ १९

दुष्प्राप्यं मानुषैः पुण्यं प्रयागं तु युधिष्ठिर।
देवदानवगन्धर्वा ऋषयः सिद्धचारणाः।
तदुपस्पृश्य राजेन्द्र स्वर्गलोकमुपासते ॥ २०

राजेन्द्र । प्रयागक्षेत्रमें पाँच कुण्ड है, उन्हींके मध्यमें गङ्गा बहती हैं, इसलिये प्रयागमें प्रवेश करते ही उसी क्षण पाप नष्ट हो जाता है। मनुष्य कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, यदि वह हजारों योजन दूरसे भी गङ्गाका स्मरण करता है तो उसे परम गतिकी प्राप्ति होती है। गङ्गाका नाम लेनेसे मनुष्य पापसे छूट जाता है, दर्शन करनेसे उसे जीवनमें माङ्गलिक अवसर देखनेको मिलते है तथा स्नान और जलपान करके तो वह अपनी सात पीढ़ियोंको पावन बना देता है। जो मनुष्य सत्यवादी, क्रोधरहित, अहिंसापरायण, धर्मानुगामी, तत्त्वज्ञ और गौ एवं ब्राह्मणके हितमें तत्पर रहकर गङ्गा और यमुनाके संगममें स्रान करता है, वह पापसे मुक्त हो जाता है 

तथा जो मनसे चिन्तनमात्र करता है, वह अपने अधिक से अधिक मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है। इसलिये समस्त देवताओंद्वारा सुरक्षित प्रयाग-क्षेत्रमें जाकर वहाँ एक मासतक ब्रहाचर्यपूर्वक निवास करते हुए देवों और पितरोंका तर्पण करना चाहिये। वहाँ रहते हुए मनुष्य जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ-वहाँ उसे अभिलषित पदार्थोंकी प्राप्ति होती है। वहाँ सूर्य-कन्या महाभागा यमुना देवी, जो तीनों लोकोंमें विख्यात हैं, नदीरूपमें आयी हुई हैं और साक्षात् भगवान् शंकर वहाँ नित्य निवास करते हैं। इसलिये युधिष्ठिर। यह पुण्यप्रद प्रयाग मनुष्योंके लिये दुर्लभ है। राजेन्द्र ! देव, दानव, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध, चारण आदि गङ्गा-जलका स्पर्श कर स्वर्गलोकमें विराजमान होते हैं॥ १३-२०॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे प्रयागमाहात्ये चतुरधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०४ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें प्रयागमाहात्म्य वर्णन नामक एक सौ चारवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १०४ ॥

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