मत्स्य पुराण एक सौ छठा अध्याय
प्रयाग-माहात्म्य-वर्णन प्रसङ्गमें वहाँ के विविध तीर्थों का वर्णन
युधिष्विर उवाच
यथा यथा प्रयागस्य माहात्म्यं कथ्यते त्वया।
तथा तथा प्रमुच्येऽहं सर्वपापैर्न संशयः ॥ १
भगवन् केन विधिना गन्तव्यं धर्मनिश्चयैः ।
प्रयागे यो विधिः प्रोक्तस्तन्मे ब्रूहि महामुने ॥ २
युधिष्ठिरने पूछा- भगवन्! आप ज्यों-ज्यों प्रयागके माहात्म्यका वर्णन कर रहे हैं, त्यों-त्यों मैं निःसंदेह समस्त पापोंसे मुक्त होता जा रहा हूँ। महामुने। धर्ममें सुदृढ़ बुद्धि रखनेवाले मनुष्योंको किस विधिसे प्रयागकी यात्रा करनी चाहिये ? इसके लिये शास्त्रोंमें जिस विधिका वर्णन किया गया है, वह मुझे बतलाइये ॥ १-२॥
मार्कण्डेय उवाच
कथयिष्यामि ते राजंस्तीर्थयात्राविधिक्रमम् ।
आर्षेण विधिनानेन यथादृष्टं यथाश्रुतम् ॥ ३
प्रयागतीर्थ यात्रार्थी यः प्रयाति नरः क्वचित्।
बलीवर्दसमारूढः शृणु तस्यापि यत् फलम् ॥ ४
नरके वसते घोरे गवां क्रोधो हि दारुणः ।
सलिलं न च गृह्णन्ति पितरस्तस्य देहिनः ॥ ५
यस्तु पुत्रांस्तथा बालान् स्त्रापयेत् पाययेत् तथा।
यधात्मना तथा सर्वं दानं विप्रेषु दापयेत् ॥ ६
ऐश्वर्यलोभान्मोहाद् वा गच्छेद् यानेन यो नरः ।
निष्फलं तस्य तत् तीर्थं तस्माद्यानं विवर्जयेत् ॥७
गङ्गायमुनयोर्मध्ये यस्तु कन्यां प्रयच्छति।
आर्षेणैव विवाहेन यथाविभवसम्भवम् ॥ ८
न स पश्यति तं घोरं नरकं तेन कर्मणा।
उत्तरान् स कुरून् गत्वा मोदते कालमक्षयम् ।
पुत्रान् दारांश्च लभते धार्मिकान् रूपसंयुतान् ॥ ९
तत्र दानं प्रकर्तव्यं यथाविभवसम्भवम् ।
तेन तीर्थफलं चैव वर्धते नात्र संशयः ।
स्वर्गे तिष्ठति राजेन्द्र यावदाभूतसम्प्लवम् ॥ १०
मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्। मैंने ऋषिप्रणीत विधिके अनुसार जैसा देखा एवं जैसा सुना है, उसीके अनुरूप प्रयागतीर्थकी यात्रा-विधिका क्रम बतला रहा हूँ। जो मनुष्य कहींसे भी प्रयागतीर्थकी यात्राके लिये हृष्ट-पुष्ट बैलपर सवार होकर प्रस्थान करता है, उसे जो फल प्राप्त होता है, वह सुनो। गो-वंशको कष्ट देनेवाला वह मनुष्य अत्यन्त घोर नरकमें निवास करता है तथा उस प्राणीके पितर उसका दिया हुआ जल नहीं ग्रहण करते; क्योंकि गौओंका क्रोध बड़ा भयानक होता है। जो विधिके अनुसार पुत्रों तथा बालकोंको प्रयागमें खान कराता है, गङ्गाजलका पान कराता है तथा अपनी ही तरह ब्राह्मणोंको सारा दान दिलाता है (वह तीर्थ फलका भागी होता है)।
जो मनुष्य ऐश्वर्यके लोभसे अथवा मोहवश सवारीपर बैठकर प्रयागको यात्रा करता है, उसका वह तीर्थफल नष्ट हो जाता है, इसलिये सवारीका परित्याग कर देना चाहिये। जो गङ्गा-यमुनाके संगमपर ऋषिप्रणीत विवाह-विधिसे अपनी सम्पत्तिके अनुसार कन्या-दान करता है, उसे उस पुण्यकर्मके फलस्वरूप पूर्वोक्त घोर नरकका दर्शन नहीं होता, अपितु वह उत्तरकुरु देशमें जाकर अक्षय-कालतक आनन्दका उपभोग करता है और उसे धर्मात्मा एवं सौन्दर्यशाली स्त्री-पुत्रोंकी भी प्राप्ति होती है। इसलिये राजेन्द्र ! अपनी सम्पत्तिके अनुकूल प्रयागमें दान अवश्य करना चाहिये। इससे तीर्थका फल बढ़ जाता है और वह दाता प्रलयपर्यन्त स्वर्गलोकमें निवास करता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है॥३-१०॥
वटमूलं समासाद्य बस्तु प्राणान् विमुञ्चति।
सर्वलोकानतिक्रम्य रुद्रलोकं स गच्छति ॥ ११
तत्र ते द्वादशादित्यास्तपन्ते रुद्रसंश्रिताः ।
निर्दहन्ति जगत् सर्वं वटमूलं न दह्यते ॥ १२
नष्टचन्द्रार्कभुवनं यदा चैकार्णवं जगत् ।
स्थीयते तत्र वै विष्णुर्यजमानः पुनः पुनः ॥ १३
देवदानवगन्धर्वा ऋषयः सिद्धचारणाः ।
सदा सेवन्ति तत् तीर्थ गङ्गायमुनसङ्गमम् ॥ १४
ततो गच्छेत राजेन्द्र प्रयागं संस्तुवंश्च यत्।
यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयः सिद्धचारणाः ॥ १५
लोकपालाश्च साध्याश्च पितरो लोकसम्मताः ।
सनत्कुमारप्रमुखास्तथैव परमर्षयः ॥ १६
अङ्गिरः प्रमुखाश्चैव तथा ब्रह्मर्षयः परे।
तथा नागाः सुपर्णाश्च सिद्धाश्च खेचराश्च ये ॥ १७
सागराः सरितः शैला नागा विद्याधराश्च ये।
हरिश्च भगवानास्ते प्रजापतिपुरःसरः ॥ १८
जो मनुष्य प्रयागस्थित अक्षयवटके नीचे पहुँचकर प्राणोंका त्याग करता है, वह अन्य सभी पुण्यलोकोंका अतिक्रमण कर रुद्रलोकको चला जाता है। प्रलयकालमें जब बारहों सूर्य रुद्रके आश्रयमें स्थित होकर अपने प्रखर तेजसे तपने लगते हैं, उस समय वे सारे जगत्को तो जलाकर भस्म कर देते हैं, परंतु अक्षयवटको वे भी नहीं जला पाते। प्रलयकालमें जब सूर्य, चन्द्रमा और चौदहों भुवन नष्ट हो जाते हैं तथा सारा जगत् एकार्णवके जलमें निमग्र हो जाता है, उस समय भी भगवान् विष्णु प्रयागमें यज्ञाराधनमें तत्पर होकर स्थित रहते हैं। देवता, दानव, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध और चारण आदि गङ्गा- यमुनाके संगमभूत तीर्थका सदा सेवन करते हैं। अतः राजेन्द्र ! जहाँ प्रयागकी स्तुति करते हुए ब्रह्मा आदि देवगण; ऋषि, सिद्ध, चारण, लोकपाल, साध्यगण, लोकसम्मत पितर; सनत्कुमार आदि परमर्षि; अङ्गिरा आदि महर्षि तथा अन्य ब्रह्मर्षि, नाग, एवं गरुड़ आदि पक्षी, सिद्ध, आकाशचारी जीव, सागर, नदियाँ, पर्वत, सर्प, विद्याधर तथा ब्रह्मासहित भगवान् श्रीहरि निवास करते हैं, उस प्रयागकी यात्रा अवश्य करनी चाहिये। राजसिंह! यह गङ्गा-यमुनाके अन्तरालका प्रयाग-क्षेत्र पृथ्वीका जघनस्थल कहा गया है॥ ११-१८॥
गङ्गायमुनयोर्मध्ये पृथिव्या जघनं स्मृतम्।
प्रयागं राजशार्दूल त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।
ततः पुण्यतमं नास्ति त्रिषु लोकेषु भारत । १९
श्रवणात् तस्य तीर्थस्य नामसंकीर्तनादपि।
मृत्तिकालम्भनाद् वापि नरः पापात् प्रमुच्यते ॥ २०
तत्राभिषेकं यः कुर्यात् संगमे शंसितव्रतः ।
तुल्यं फलमवाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः ॥ २१
न वेदवचनात् तात न लोकवचनादपि।
मतिरुत्क्रमणीया ते प्रयागमरणं प्रति ॥ २२
दश तीर्थसहस्त्राणि तिस्रः कोट्यस्तथापराः ।
तेषां सांनिध्यमत्रैव ततस्तु कुरुनन्दन ।॥ २३
या गतिर्योगयुक्तस्य सत्यस्थस्य मनीषिणः ।
सा गतिस्त्यजतः प्राणान् गङ्गायमुनसङ्गमे ॥ २४
न ते जीवन्ति लोकेऽस्मिंस्तत्र तत्र युधिष्ठिर।
ये प्रयागं न सम्प्राप्तास्त्रिषु लोकेषु वञ्चिताः ।। २५
एवं दृष्ट्वा तु तत् तीर्थ प्रयागं परमं पदम् ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यः शशाङ्क इव राहुणा ॥ २६
भारत! यह प्रयाग तीनों लोकोंमें विख्यात है। इससे बढ़कर पुण्यप्रद तीर्थ तीनों लोकोंमें दूसरा नहीं है। इस प्रयागतीर्थका नाम सुननेसे, इसके नामोंका संकीर्तन करनेसे अथवा इसकी मिट्टीका स्पर्श करनेसे मनुष्य पापसे छूट जाता है। जो व्रतनिष्ठ मनुष्य उस संगममें स्नान करता है, उसे राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंके समान फलकी प्राप्ति होती है। तात। इसलिये न तो किसी वेद-वचनसे, न लोगोंके आग्रहपूर्ण कथनसे ही तुम्हें प्रयाग-मरणके प्रति निश्चित की हुई अपनी बुद्धिमें किसी प्रकारका उलट-फेर करना चाहिये। कुरुनन्दन। इस भूतलपर जो दस हजार बड़े तीर्थ हैं तथा इनके अतिरिक्त जो तीन करोड़ अन्य तीर्थ हैं, उन सबका प्रयागमें ही निवास है। गङ्गा-यमुनाके संगमपर प्राण छोड़नेवालेको वही गति प्राप्त होती है, जो गति योगनिष्ठ एवं सत्यपरायण विद्वान्को मिलती है। युधिष्ठिर! जिन लोगोंने प्रयागकी यात्रा नहीं की, वे तो मानो तीनों लोकोंमें ठग लिये गये और उनका जीवन इस लोकमें नहींके समान है। इस प्रकार परमपदस्वरूप इस प्रयागतीर्थका दर्शन करके मनुष्य उसी प्रकार समस्त पापोंसे छूट जाता है, जैसे (ग्रहणकालके बाद) राहुग्रस्त चन्द्रमा ॥ १९-२६ ॥
कम्बलाश्वतरौ नागौ यमुना दक्षिणे तटे।
तत्र स्त्रात्वा च पीत्वा च सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ २७
तत्र गत्वा च संस्थानं महादेवस्य विश्रुतम्।
नरस्तारयते सर्वान् दश पूर्वान् दशापरान् ॥ २८
कृत्वाभिषेकं तु नरः सोऽश्वमेधफलं लभेत् ।
स्वर्गलोकमवाप्नोति यावदाभूतसम्प्लवम् ॥ २९
पूर्वपार्श्वे तु गङ्गायास्त्रिषु लोकेषु भारत।
कूपं चैव तु सामुद्रं प्रतिष्ठानं च विश्रुतम् ॥ ३०
ब्रह्मचारी जितक्रोधस्त्रिरात्रं यदि तिष्ठति।
सर्वपापविशुद्धात्मा सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥ ३१
उत्तरेण प्रतिष्ठानाद् भागीरथ्यास्तु पूर्वतः ।
हंसप्रपतनं नाम तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् ॥ ३२
अश्वमेधफलं तस्मिन् स्त्रानमात्रेण भारत ।
यावच्चन्द्रश्च सूर्यश्च तावत् स्वर्गे महीयते ॥ ३३
उर्वशीरमणे पुण्ये विपुले हंसपाण्डुरे।
परित्यजति यः प्राणान् शृणु तस्यापि यत् फलम् ।। ३४
षष्टिवर्षसहस्त्राणि षष्टिवर्षशतानि च।
सेव्यते पितृभिः सार्धं स्वर्गलोके नराधिप । ३५
उर्वशीं तु सदा पश्येत् स्वर्गलोके नरोत्तम।
पूज्यते सततं पुत्र ऋषिगन्धर्वकिन्नरैः ॥ ३६
ततः स्वर्गात् परिभ्रष्टः क्षीणकर्मा दिवश्च्युतः ।
उर्वशीसदृशीनां तु कन्यानां लभते शतम् ॥ ३७
मध्ये नारीसहस्त्राणां बहूनां च पतिर्भवेत्।
दशग्रामसहस्त्राणां भोक्ता भवति भूमिपः ॥ ३८
काञ्चीनूपुरशब्देन सुप्तोऽसौ प्रतिबुध्यते।
भुक्त्वा तु विपुलान् भोगांस्तत्तीर्थं भजते पुनः ॥ ३९
कम्बल और अश्वतर नामवाले दोनों नाग यमुनाके दक्षिण तटपर निवास करते हैं, अतः वहाँ स्नान और जलपान कर मनुष्य समस्त पापोंसे छूट जाता है। प्रयागक्षेत्रमें स्थित महादेवजीके सुप्रसिद्ध स्थानकी यात्रा करके मनुष्य अपनी दस आगेकी और दस पीछेकी पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है और वह प्रलयपर्यन्त स्वर्गलोकमें निवास करता है। भारत! गङ्गाके पूर्वी तटपर तीनों लोकोंमें विख्यात समुद्रकूप और प्रतिष्ठानपुर (झूसी) है। वहाँ यदि मनुष्य तीन राततक क्रोधको वशमें कर ब्रह्मचर्यपूर्वक निवास करता है तो उसका आत्मा समस्त पापोंसे मुक्त होकर शुद्ध हो जाता है और उसे अश्वमेध यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है। भारत ! भागीरथीके पूर्वतटपर प्रतिष्ठानपुर (झूसी)- से उत्तर दिशामें 'हंसप्रपतन' नामक तीर्थ है, जो तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ स्रानमात्र कर लेनेसे अश्वमेध- यज्ञका फल प्राप्त होता है
तथा वह यात्री सूर्य एवं चन्द्रमाकी स्थितिपर्यन्त स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसी प्रकार जो मनुष्य पुण्यप्रद उर्वशीरमण तथा विशाल हंसपाण्डुर नामक तीर्थोंमें अपने प्राणोंका परित्याग करता है, उसे जो फल प्राप्त होता है, वह सुनो। नरेश्वर! वह स्वर्गलोकमें छाछठ हजार वर्षांतक पितरोंके साथ सेवित होता है और नरोत्तम! स्वर्गलोकमें वह सदा उर्वशीको देखता रहता है। पुत्र! साथ ही युधिष्ठिर ऋषि, गन्धर्व और किन्नर निरन्तर उसकी पूजा करते हैं। तदनन्तर पुण्य क्षीण हो जानेपर जब वह स्वर्गसे च्युत होता है, तब दस हजार गाँवोंका उपभोग करनेवाला भूपाल होता है। वह अनेकों सहस्र नारियोंके बीच रहता हुआ उनका पति होता है। उससे उर्वशी सरीखी सौन्दर्यशालिनी सौ कन्याएँ उत्पन्न होती है। वह करधनी और नूपुरके झंकार-शब्दोंद्वारा नींदसे जगाया जाता है। इस प्रकार प्रचुर भौगोंका उपभोग करके वह पुनः प्रयागतीर्थकी यात्रा करता है॥ २७-३९ ॥
शुक्लाम्बरधरो नित्यं नियतः संयतेन्द्रियः ।
एककालं तु भुञ्जानो मासं भूमिपतिर्भवेत् ॥ ४०
सुवर्णालङ्कृतानां तु नारीणां लभते शतम्।
पृथिव्यामासमुद्रायां महाभूमिपतिर्भवेत् ॥ ४१
धनधान्यसमायुक्तो दाता भवति नित्यशः ।
भुक्त्वा तु विपुलान् भोगांस्तत्तीर्थं भजते पुनः ॥ ४२
अथ संध्यावटे रम्ये ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ।
उपवासी शुचिः संध्यां ब्रह्मलोकमवाप्नुयात् ॥ ४३
कोटितीर्थं समासाद्य यस्तु प्राणान् परित्यजेत् ।
कोटिवर्षसहस्त्राणां स्वर्गलोके महीयते ॥ ४४
ततः स्वर्गात् परिभ्रष्टः क्षीणकर्मा दिवश्च्युतः ।
सुवर्णमणिमुक्ताढ्यकुले जायेत रूपवान् ॥ ४५
ततो भोगवतीं गत्वा वासुकेरुत्तरेण तु।
दशाश्वमेधकं नाम तीर्थ तत्रापरं भवेत् ॥ ४६
कृताभिषेकस्तु नरः सोऽश्वमेधफलं लभेत् ।
धनाढ्यो रूपवान् दक्षो दाता भवति धार्मिकः ॥ ४७
चतुर्वेदेषु यत् पुण्यं यत् पुण्यं सत्यवादिषु।
अहिंसायां तु यो धर्मो गमनादेव तत् फलम् ॥ ४८
कुरुक्षेत्रसमा गङ्गा यत्र यत्रावगाह्यते।
कुरुक्षेत्राद् दशगुणा यत्र विन्ध्येन संगता ॥ ४९
जो मनुष्य प्रयागतीर्थमें एक मासतक श्वेत वस्त्र धारण करके जितेन्द्रिय होकर नित्य नियमपूर्वक रहते हुए एक ही समय भोजन करता है, वह (जन्मान्तरमें) राजा होता है तथा समुद्रपर्यन्त पृथ्वीका चक्रवर्ती सम्राट् हो जाता है। उसे सुवर्णालंकारोंसे विभूषित सैकड़ों स्त्रियाँ प्राप्त होती हैं। वह धन-धान्यसे सम्पन्न होकर नित्य दान देता रहता है। इस प्रकार प्रचुर भोगोंका उपभोग करके वह पुनः प्रयागतीर्थकी यात्रा करता है। तदनन्तर रमणीय संध्यावटकी छायामें जो मनुष्य ब्रह्मचर्यपूर्वक जितेन्द्रिय एवं निराहार रहकर पवित्रभावसे संध्योपासन करता है वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। जो मनुष्य कोटितीर्थमें जाकर प्राणोंका परित्याग करता है वह हजारों करोड़ वर्षीतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तत्पश्चात् पुण्य क्षीण होनेपर जब स्वर्गलोकसे नीचे गिरता है,
तब सुन्दर रूप धारण कर सुवर्ण, मणि और मोतीसे भरे-पूरे कुलमें जन्म लेता है। इसके बाद वासुकिहदकी उत्तर दिशामें स्थित भोगवती नामक तीर्थमें जानेपर वहाँ दशाश्वमेध नामवाला दूसरा तीर्थ मिलता है। वहाँ जो मनुष्य स्नान करता है उसे अश्वमेध यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है। वह सम्पत्तिशाली, सौन्दर्य-सम्पन्न, चतुर, दानी और धर्मात्मा होता है। चारों वेदोंके अध्ययनसे जो पुण्य होता है, सत्यभाषणसे जो पुण्य कहा गया है तथा अहिंसा-व्रतका पालन करनेसे जो धर्म बतलाया गया है, वह सारा फल प्रयागतीर्थकी यात्रासे ही प्राप्त हो जाता है। गङ्गामें जहाँ कहीं भी स्नान किया जाय, वहाँ गङ्गा कुरुक्षेत्रके समान फलदायिका मानी गयी हैं, परंतु जहाँ वह विन्ध्यपर्वतसे संयुक्त हुई हैं, वहाँ गङ्गा कुरुक्षेत्रसे दसगुना अधिक फलदायिनी हो जाती हैं॥ ४०-४९ ॥
यत्र गङ्गा महाभागा बहुतीर्धा तपोधना।
सिद्धक्षेत्रं हि तज्ज्ञेयं नात्र कार्या विचारणा ॥ ५०
क्षितौ तारयते मर्त्यान् नागांस्तारयते ऽप्यधः ।
दिवि तारयते देवांस्तेन त्रिपथगा स्मृता ॥ ५१
यावदस्थीनि गङ्गायां तिष्ठन्ति हि शरीरिणः ।
तावद् वर्षसहस्त्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥ ५२
ततः स्वर्गात् परिभ्रष्टो जम्बूद्वीपपतिर्भवेत् ।
तीर्थानां तु परं तीर्थं नदीनां तु महानदी।
मोक्षदा सर्वभूतानां महापातकिनामपि ॥ ५३
सर्वत्र सुलभा गङ्गा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा।
गङ्गाद्वारे प्रयागे च गङ्गासागरसंगमे।
तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः ॥ ५४
सर्वेषामेव भूतानां पापोपहतचेतसाम् ।
गतिमन्विष्यमाणानां नास्ति गङ्गासमा गतिः ॥ ५५
पवित्राणां पवित्रं च मङ्गलानां च मङ्गलम्।
महेश्वरशिरोभ्रष्टा सर्वपापहरा शुभा ॥ ५६
जहाँ बहुत-से तीर्थोसे युक्त, महाभाग्यशालिनी एवं तपस्विनी गङ्गा बहती हैं, उस स्थानको सिद्धक्षेत्र मानना चाहिये, इसमें अन्यथा विचार करना अनुचित है। गङ्गा भूतलपर मनुष्योंको, पातालमें नागोंको तथा स्वर्गलोकमें देवताओंको तारती हैं, इसी कारण उन्हें 'त्रिपथगा' कहा जाता है। मृत प्राणीकी हड्डियाँ जितने समयतक गङ्गामें वर्तमान रहती हैं, उतने वर्षोंतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तत्पश्चात् स्वर्गसे च्युत होनेपर वह जम्बूद्वीपका स्वामी होता है। गङ्गा सभी तीर्थोंमें सर्वोत्तम तीर्थ, नदियोंमें महानदी और महान्-से-महान् पाप करनेवाले सभी प्राणियोंके लिये मोक्षदायिनी हैं। गङ्गा सर्वत्र तो सुलभ हैं, परंतु गङ्गाद्वार, प्रयाग और गङ्गासागर संगममें दुर्लभ मानी गयी हैं। इन स्थानोंपर स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकको चले जाते हैं और जो यहाँ शरीर त्याग करते हैं, उनका तो पुनर्जन्म होता ही नहीं, अर्थात् वे मुक्त हो जाते हैं। जिनका चित्त पापसे आच्छादित है, अतः उद्धार पानेके लिये गतिकी खोजमें लगे हैं, उन सभी प्राणियोंके लिये गङ्गाके समान दूसरी गति नहीं है। महेश्वरके जटाजूटसे च्युत हुई मङ्गलमयी गङ्गा समस्त पापोंका हरण करनेवाली हैं। ये पवित्रोंमें परम पवित्र और मङ्गलोंमें मङ्गल-स्वरूपा हैं॥ ५०-५६॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे प्रयागमाहात्म्ये षडधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०६ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके प्रयागमाहात्म्यमें एक सौ छठा अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १०६ ॥
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