प्रयाग में मरने वालों को गति और गौ-दान का महत्त्व | prayaag mein marane vaalon ko gati aur gau-daan ka mahattv |

मत्स्य पुराण एक सौ पाँचवाँ अध्याय

प्रयाग में मरने वालों को गति और गौ-दान का महत्त्व

मार्कण्डेय उवाच

शृणु राजन् प्रयागस्य माहात्यं पुनरेव च।
यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ १

मार्कण्डेयजीने कहा- राजन् । पुनः प्रयागके माहात्म्यका ही वर्णन सुनो, जिसे सुनकर मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है॥ १

आर्तानां हि दरिद्राणां निश्चितव्यवसायिनाम्।
स्थानमुक्तं प्रयागं तु नाख्येयं तु कदाचन ॥ २

व्याधितो यदि वा दीनो वृद्धो वापि भवेन्नरः ।
गङ्गायमुनयोर्मध्ये यस्तु प्राणान् परित्यजेत्। ३

दीप्तकाञ्चनवर्णाभैर्विमानैः सूर्यवर्चसैः ।
गन्धर्वाप्सरसां मध्ये स्वर्गे मोदति मानवः ।
ईप्सितौल्लभते कामान् वदन्ति ऋषिपुङ्गवाः ॥ ४

सर्वरत्नमयैर्दिव्यैर्नानाध्वजसमाकुलैः।
वराङ्गनासमाकीर्णैर्मोदते शुभलक्षणैः ॥ ५

गीतवाद्यविनिर्घोषैः प्रसुप्तः प्रतिबुध्यते।
यावन्न स्मरते जन्म तावत् स्वर्गे महीयते ॥ ६

ततः स्वर्गात् परिभ्रष्टः क्षीणकर्मा दिवश्च्युतः ।
हिरण्यरत्नसम्पूर्ण समृद्धे जायते कुले।
तदेव स्मरते तीर्थं स्मरणात् तत्र गच्छति ॥ ७

देशस्थो यदि वारण्ये विदेशस्थोऽथवा गृहे।
प्रयागं स्मरमाणोऽपि यस्तु प्राणान् परित्यजेत् ।
ब्रह्मलोकमवाप्नोति वदन्ति ऋषिपुङ्गवाः ॥ ८

दुःखियों, दरिखों और निश्चित व्यवसाय करनेवालोंके कल्याणके लिये प्रयागक्षेत्र ही प्रशस्त कहा गया है। इसे कभी (कहीं) प्रकट नहीं करना चाहिये। श्रेष्ठ ऋषियोंका कथन है कि जो मनुष्य रोगग्रस्त, दीन अथवा वृद्ध होकर गङ्गा और यमुनाके संगममें प्राणोंका त्याग करता है, वह तपाये हुए सुवर्णकी-सी कान्तिवाले एवं सूर्यसदृश तेजस्वी विमानोंद्वारा स्वर्गमें जाकर गन्धर्वों और अप्सराओंके मध्यमें आनन्दका उपभोग करता है और अपने अभीष्ट मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है। वहाँ वह सम्पूर्ण रत्रोंसे सुशोभित, अनेकों रंगोंकी ध्वजाओंसे मण्डित, अप्सराओंसे खचाखच भरे हुए शुभ लक्षणसम्पन्न दिव्य विमानोंमें बैठकर आनन्द मनाता है तथा माङ्गलिक गीतों और बाजोंक शब्दोंद्वारा नोंदसे जगाया जाता है। इस प्रकार जबतक वह अपने जन्मका स्मरण नहीं करता, तबतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तत्पश्चात् पुण्य क्षीण होनेपर उसका स्वर्गसे पतन हो जाता है। इस प्रकार स्वर्गसे भ्रष्ट हुआ वह जीव सुवर्ण-रत्नसे परिपूर्ण एवं समृद्ध कुलमें जन्म धारण करता है और समयानुसार पुनः उसी तीर्थका स्मरण करता है तथा स्मरण आनेसे पुनः उस प्रयागक्षेत्रकी यात्रा करता है। ऋषिवरोंका कथन है कि मनुष्य चाहे देशमें हो अथवा विदेशमें, घरमें हो अथवा वनमें, यदि वह प्रयागका स्मरण करते हुए प्राणोंका परित्याग करता है तो ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है ॥१-८॥

सर्वकामफला वृक्षा मही यत्र हिरण्मयी।
ऋषयो मुनयः सिद्धास्तत्र लोके स गच्छति ॥ ९

स्त्रीसहस्त्रावृते रम्ये मन्दाकिन्यास्तटे शुभे।
मोदते ऋषिभिः सार्धं सुकृतेनेह कर्मणा ॥ १०

सिद्धचारणगन्धर्वैः पूज्यते दिवि दैवतैः।
ततः स्वर्गात् परिभ्रष्टो जम्बूद्वीपपतिर्भवेत् ॥ ११

ततः शुभानि कर्माणि चिन्तयानः पुनः पुनः ।
गुणवान् वित्तसम्पन्नो भवतीह न संशयः ॥ १२

कर्मणा मनसा वाचा सत्यधर्मप्रतिष्ठितः ।
गङ्गायमुनयोर्मध्ये यस्तु गां सम्प्रयच्छति ।
स गोरोमसमाब्दानि लभते स्वर्गमुत्तमम् ॥ १३

स्वकार्ये पितृकार्ये वा देवताभ्यर्चनेऽपि वा।
यस्तु गां प्रतिगृह्णाति गङ्गायमुनसंगमे ॥ १४

सुवर्णमणिमुक्ताश्च यदि वान्यत् परिग्रहम्। 
विफलं तस्य तत्तीर्थं यावत् तद्धनमश्नुते ॥ १५

एवं तीर्थे न गृह्णीयात् पुण्येष्वायतनेषु च। 
निमित्तेषु च सर्वेषु हाप्रमत्तो भवेद् द्विजः ॥ १६

वह ऐसे लोकमें जाता है, जहाँकी भूमि स्वर्णमयी है, जहाँक वृक्ष इच्छानुसार फल देनेवाले हैं और जहाँ ऋषि, मुनि तथा सिद्धलोग निवास करते हैं। वहाँ वह अपने इस जन्ममें किये हुए पुण्यकर्मोंके प्रभावसे सहस्रों स्त्रियोंसे युक्त, मङ्गलमय एवं रमणीय मन्दाकिनीके तटपर ऋषियोंके साथ सुख भोगता है। स्वर्गलोकमें देवताओंक साथ सिद्ध, चारण और गन्धर्व उसकी पूजा करते हैं। तत्पश्चात् (पुण्य क्षीण होनेपर) वह स्वर्गसे च्युत होकर भूतलपर जम्बूद्वीपका अधिपति होता है। इस जन्ममें उसे बारंबार अपने शुभकर्मोंका स्मरण होता है, जिससे वह निस्संदेह गुणवान् और धनसम्पन्न होता है तथा वह मनुष्य मन-वचन-कर्मसे सत्यधर्ममें स्थित रहता है। जो व्यक्ति गङ्गा-यमुनाके संगमपर कार्योंमें अपने मङ्गलके निमित्त या पितरोंके उद्देश्यसे किये जानेवाले अथवा देवपूजन आदि कार्योंमें गोदान करता है, वह उस गौके रोमतुल्य वर्षांतक स्वर्गमें निवास करता है। यदि कोई वहाँ गोदान लेता है या स्वर्ण, मणि, मोती अथवा अन्य जो कुछ सामग्री दानरूपमें ग्रहण करता है, तो जबतक वह धन उसके पास रहता है, तबतक उसका वह तीर्थ विफल होता है। इस प्रकार (तीर्थयात्रीको) तीर्थमें, पुण्यमय देव मन्दिरोंमें तथा सभी निमित्तों (दानपवों) में दान लेना कदापि उचित नहीं है। इसके लिये ब्राह्मणको विशेषरूपसे सावधान रहना चाहिये ॥ ९-१६ ॥

कपिलां पाटलावर्णा यस्तु धेनुं प्रयच्छति।
स्वर्णशृङ्गीं रौप्यखुरां कांस्यदोहां पयस्विनीम् ॥ १७

प्रयागे श्रोत्रियं सन्तं ग्राहयित्वा यथाविधि।
शुक्लाम्बरधरं शान्तं धर्मज्ञं वेदपारगम् ॥ १८

सा गौस्तस्मै प्रदातव्या गङ्गायमुनसंगमे।
वासांसि च महार्हाणि रत्नानि विविधानि च ॥ १९

यावद् रोमाणि तस्या गोः सन्ति गात्रेषु सत्तम।
तावद् वर्षसहस्त्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥ २०

यत्रासौ लभते जन्म सा गौस्तस्याभिजायते।
न च पश्यति तं घोरं नरकं तेन कर्मणा।
उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मोदते कालमक्षयम् ॥ २१

गवां शतसहस्त्रेभ्यो दद्यादेकां पयस्विनीम्।
पुत्रान् दारांस्तथा भृत्यान् गौरका प्रति तारयेत् ।। २२

तस्मात् सर्वेषु दानेषु गोदानं तु विशिष्यते।
दुर्गमे विषमे घोरे महापातकसम्भवे।
गौरव कुरुते रक्षां तस्माद् देया द्विजोत्तमे ॥ २३

जो मनुष्य प्रयागमें जिसके सींग सोनेसे और खुर चाँदीसे मढ़े हुए हों, निकटमें काँसेकी दोहनी भी रखी हो, ऐसी लाल रंगकी दुधारू कपिला गौका दान करना चाहता हो तो उसे वह गौ गङ्गा-यमुनाके संगमपर विधिपूर्वक ऐसे ब्राह्मणको देनी चाहिये, जो श्रोत्रिय, साधुस्वभाव, श्वेत वस्त्र धारण करनेवाला, शान्त, धर्मज्ञ और वेदोंका पारगामी विद्वान् हो। उसके साथ बहुमूल्य वस्त्र और अनेकों प्रकारके रन भी दान करने चाहिये। राजसत्तम। ऐसा करनेसे उस गौके अङ्गोंमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोंतक दाता स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तत्पश्चात् जहाँ वह जन्म लेता है, वहीं वह गौ भी उसके घर उत्पन्न होती है। उस पुण्यकर्मके प्रभावसे उसे नरकका दर्शन नहीं होता, अपितु वह उत्तरकुरु-प्रदेशको पाकर अक्षय कालतक आनन्दका उपभोग करता है। लाखों गौओंकी अपेक्षा एक ही दुधारू गौका दान प्रशस्त माना गया है; क्योंकि वह एक ही गौ पुत्रों, स्त्रियों और नौकरोंतकका उद्धार कर देती है। यही कारण है कि समस्त दानोंमें गो-दानका विशेष महत्व बतलाया जाता है। दुर्गम स्थानपर, भयंकर विषम परिस्थितिमें और महापातकके घटित हो जानेपर केवल गौ ही रक्षा कर सकती है, अतः मनुष्यको श्रेष्ठ ब्राह्मणको गो- दान देना चाहिये ॥ १७-२३॥

इति श्रीमालये महापुराणे प्रयागमाहात्म्ये पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०५ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके प्रयाग-माहात्म्यमें एक सी पाँचवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १०५ ॥

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