मत्स्य पुराण तिरपनवाँ अध्याय
पुराणों की नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
ऋषय ऊचुः
पुराणसंख्यामाचक्ष्व सूत विस्तरशः क्रमात्
दानधर्ममशेषं तु यथावदनुपूर्वशः ॥ १
ऋषियोंने पूछा- सूतजी। अब आप हमलोगोंसे क्रमशः पुराणोंकी संख्याका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। साथ ही उनके दान और धर्मकी सम्पूर्ण आनुपूर्वी विधि भी यथार्थरूपसे बतलाइये ॥ १ ॥
सूत उवाच
इदमेव पुराणेषु पुराणपुरुषस्तदा ।
यदुक्तवान् स विश्वात्मा मनवे तन्निबोधत ॥ २
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। ऐसे ही प्रश्नके उत्तर में उस समय पुराणपुरुष विश्वात्मा मत्स्यभगवान्ने मनुके प्रति पुराणों के विषयमें जो कुछ कहा था, उसे सुनिये ॥ २॥
मत्स्य उवाच
पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्।
अनन्तरं च वकोभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः ॥ ३
पुराणमेकमेवासीत् तदा कल्पान्तरेऽनघ।
त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम् ॥ ४
निर्दग्धेषु च लोकेषु वाजिरूपेण वै मया।
अङ्गानि चतुरो वेदान् पुराणं न्यायविस्तरम् ॥ ५
मीमांसां धर्मशास्त्रं च परिगृह्य मया कृतम्।
मत्स्यरूपेण च पुनः कल्पादावुदकार्णवे ॥ ६
अशेषमेतत् कथितमुदकान्तर्गतेन च।
श्रुत्वा जगाद च मुनीन् प्रति देवांश्चतुर्मुखः ॥ ७
प्रवृत्तिः सर्वशास्त्राणां पुराणस्याभवत् ततः ।
कालेनाग्रहणं दृष्ट्वा पुराणस्य ततो नृप ॥ ८
व्यासरूपमहं कृत्वा संहरामि युगे युगे।
चतुर्लक्षप्रमाणेन द्वापरे द्वापरे सदा ॥ ९
तथाष्टादशधा कृत्वा भूर्लोकेऽस्मिन् प्रकाश्यते।
अद्यापि देवलोकेऽस्मिशतकोटिप्रविस्तरम् ॥ १०
तदर्थोऽत्र चतुर्लक्षं संक्षेपेण निवेशितम् ।
पुराणानि दशाष्टौ च साम्प्रतं तदिहोच्यते ॥ ११
मत्स्य भगवान् ने कहा- राजर्षे। ब्रह्माजीने (सृष्टिनिर्माणके समय) समस्त शास्त्रोंमें सर्वप्रथम पुराणका ही स्मरण किया था। उसके बाद उनके मुखोंसे वेद प्रादुर्भूत हुए हैं। अनघ! उस कल्पान्तरमें सौ करोड़ श्लोकोंमें विस्तृत, पुण्यप्रद और त्रिवर्ग-तीन पुरुषार्थके समुदाय (धर्म, अर्थ, काम) का साधनस्वरूप पुराण एक ही था। सभी लोकोंके जलकर नष्ट हो जानेपर मैंने ही अश्व (हयग्रीव) रूपसे व्याकरणादि छहों अङ्गॉसहित चारों वेद, पुराण, न्यायशास्त्र, मीमांसा और धर्मशास्त्रको ग्रहण करके उनका संकलन किया था। पुनः मैंने ही कल्पके आदिमें एकार्णवके समय मत्स्यरूप से जलके भीतर स्थित रहकर इस (विषय) का पूर्णरूपसे वर्णन किया था।
उसे सुनकर ब्रह्माने देवताओं और मुनियोंसे कहा था। राजन् ! तभीसे संसारमें समस्त शास्त्रों और पुराणोंका प्रचार हुआ। काल-प्रभावसे पुराणकी ओरसे लोगोंकी उदासीनता देखकर प्रत्येक द्वापरयुगमें मैं सदा व्यासरूपसे प्रकट होता हूँ और उस (पुराण) का संक्षेप कर चार लाख श्लोकोंमें बना देता हूँ। वही अठारह भागोंमें विभक्त होकर इस भूलोकमें प्रकाशित होता है। आज भी यह पुराण इस देवलोकमें सौ करोड़ श्लोकोंमें ही है। उसका पूरा सारांश मैंने संक्षेपसे इस चार लाख श्लोकोंवाले पुराणमें भर दिया है। अब उन अठारह पुराणोंका यहाँ वर्णन किया जाता है॥ ३-११॥
नामतस्तानि वक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः ।
ब्रह्मणाभिहितं पूर्व यावन्मात्रं मरीचये ॥ १२
ब्राह्यं त्रिदशसाहस्रं पुराणं परिकीर्त्यते।
लिखित्वा तच्च यो दद्याज्जलधेनुसमन्वितम् ।
वैशाखपूर्णिमायां च ब्रह्मलोके महीयते ॥ १३
एतदेव यदा पद्ममभूर्द्धरण्मयं जगत् ।
तवृत्तान्ताश्रयं तद्वत् पाद्ममित्युच्यते बुधैः।
पाद्यं तत्पञ्चपञ्चाशत्सहस्त्राणीह कथ्यते ॥ १४
तत्पुराणं च यो दद्यात् सुवर्णकमलान्वितम् ।
ज्येष्ठे मासि तिलैर्युक्तमश्वमेधफलं लभेत् ॥ १५
वाराहकल्पवृत्तान्तमधिकृत्य पराशरः ।
यत् प्राह धर्मानखिलांस्तद्युक्तं वैष्णवं विदुः ॥ १६
तदाषाढे च यो दद्याद् घृतधेनुसमन्वितम् ।
पौर्णमास्यां विपूतात्मा स पदं याति वारुणम्।
त्रयोविंशतिसाहस्त्रं तत्प्रमाणं विदुर्बुधाः ॥ १७
श्वेतकल्पप्रसङ्गेन धर्मान् वायुरिहाब्रवीत्।
यत्र तद्वायवीयं स्याद् रुद्रमाहात्म्यसंयुतम् ।
चतुर्विंशत्सहस्त्राणि पुराणं तदिहोच्यते ॥ १८
श्रावण्यां श्रावणे मासि गुडधेनुसमन्वितम् ।
यो दद्याद् वृषसंयुक्तं ब्राह्मणाय कुटुम्बिने।
शिवलोके स पूतात्मा कल्पमेकं वसेन्नरः ॥ १९
यत्राधिकृत्य गायत्रीं वर्ण्यते धर्मविस्तरः ।
वृत्रासुरवधोपेतं तद् भागवतमुच्यते ॥ २०
सारस्वतस्य कल्पस्य मध्ये ये स्युर्नरोत्तमाः ।
तद्वृत्तान्तोद्भवं लोके तद् भागवतमुच्यते ॥ २१
लिखित्वा तच्च यो दद्याद्धेमसिंहसमन्वितम् ।
पौर्णमास्यां प्रौष्ठपद्यां स याति परमां गतिम् ।
अष्टादश सहस्त्राणि पुराणं तत् प्रचक्षते ॥ २२
श्रेष्ठ मुनियो। अब मैं उनका नाम निर्देशानुसार वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने महर्षि मरीचिके प्रति जितने श्लोकोंका वर्णन किया था, वह प्रथम ब्रह्मपुराण कहा जाता है। उसमें तेरह हजार श्लोक हैं। जो मानव इस पुराणको लिखकर उस पुस्तकका जलधेनु (दानके लिये जलके घड़ेमें कल्पित गौ) के साथ वैशाखकी पूर्णिमा तिथिके दिन ब्राह्मणको दान कर देता है, वह ब्रह्मलोकमें पूजित होता है। जिस समय यह जगत् स्वर्णमय कमलके रूपमें परिणत था, उस समयका वृत्तान्त जिसमें वर्णन किया गया है, उसे विद्वान्लोग (द्वितीय) पद्मपुराण नामसे अभिहित करते हैं। उस पद्मपुराणकी श्लोक संख्या पचपन हजार बतायी जाती है। स्वर्णनिर्मित कमलसे युक्त उस पुराणका जो मनुष्य तिलके साथ ज्येष्ठमासमें ब्राह्मणको दान करता अश्वमेध यज्ञ के फलकी प्राप्ति होती है। महर्षि पराशरने है, उसे वाराह कल्पके वृत्तान्तका आश्रय लेकर जिन सम्पूर्ण धमौका वर्णन किया है, उनसे युक्त (तृतीय) पुराणको वैष्णव (विष्णुपुराण) कहा जाता है। विद्वान्लोग उसका प्रमाण तेईस हजार श्लोकोंका बतलाते हैं।
जो मानव आषाढ़मासकी पूर्णिमाको घृतधेनुयुक्त इस पुराणका दान करता है, उसका आत्मा पवित्र हो जाता है और वह वरुण-लोकमें जाता है। श्वेतकल्पके प्रसङ्गवश वायुने इस मर्त्यलोकमें जिन धर्मोका वर्णन किया था, उनका संकलन जिसमें हुआ है उसे (चतुर्थ) वायवीय (वायुपुराण या शिवपुराण) कहते हैं। वह शङ्करजीके माहात्म्यसे भी परिपूर्ण है। इस पुराणकी श्लोक संख्या चौबीस हजार बतलायी जाती है। जो मनुष्य श्रावणमासमें श्रावणी पूर्णिमाको गुडधेनु और बैलके साथ इस पुराणका कुटुम्बी ब्राह्मणको दान करता है, वह पवित्रात्मा होकर शिवलोकमें एक कल्पतक निवास करता है। जिसमें गायत्रीका आश्रय लेकर विस्तारपूर्वक धर्मका वर्णन किया गया है तथा जो वृत्रासुरवधके वृत्तान्तसे संयुक्त है, उसे (पञ्चम) भागवतपुराण कहा जाता है। इसी प्रकार सारस्वतकल्पमें जो श्रेष्ठ मनुष्य हो गये हैं, लोकमें उनके वृत्तान्तसे सम्बन्धित पुराणको' भागवतपुराण' कहा जाता है। यह पुराण अठारह हजार श्लोकोंका बतलाया जाता है। जो मनुष्य इसे लिखकर उस पुस्तकका स्वर्णनिर्मित सिंहके साथ भाद्रपदमासकी पूर्णिमा तिथिको दान कर देता है वह परमगति-मोक्षको प्राप्त हो जाता है ॥ १२-२२॥
यत्राह नारदो धर्मान् बृहत्कल्पाश्रयाणि च।
पञ्चविंशत्सहस्त्राणि नारदीयं तदुच्यते ॥ २३
आश्विने पञ्चदश्यां तु दद्याद् धेनुसमन्वितम्।
परमां सिद्धिमाप्नोति पुनरावृत्तिदुर्लभाम् ॥ २४
यत्राधिकृत्य शकुनीन् धर्माधर्मविचारणा।
व्याख्याता वै मुनिप्रश्ने मुनिभिर्धर्मचारिभिः ॥ २५
मार्कण्डेयेन कथितं तत् सर्वं विस्तरेण तु।
पुराणं नवसाहस्त्रं मार्कण्डेयमिहोच्यते ॥ २६
प्रतिलिख्य च यो दद्यात् सौवर्णकरिसंयुतम् ।
कार्तिक्यां पुण्डरीकस्य यज्ञस्य फलभाग्भवेत् ॥ २७
यत्तदीशानकं कल्पं वृत्तान्तमधिकृत्य च।
वसिष्ठायाग्निना प्रोक्तमाग्नेयं तत् प्रचक्षते ॥ २८
लिखित्वा तच्च यो दद्याद्धेमपद्यसमन्वितम्।
मार्गशीर्ष्या विधानेन तिलधेनुसमन्वितम् ।
तच्च षोडशसाहस्त्रं सर्वक्रतुफलप्रदम् ॥ २९
यत्राधिकृत्य माहात्म्यमादित्यस्य चतुर्मुखः ।
अघोरकल्पवृत्तान्तप्रसङ्गेन जगत्स्थितिम् ।
मनवे कथयामास भूतग्रामस्य लक्षणम् ॥ ३०
चतुर्दशसहस्त्राणि तथा पञ्चशतानि च।
भविष्यच्चरितप्रायं भविष्यं तदिहोच्यते ॥ ३१
तत्पौषे मासि यो दद्यात् पौर्णमास्यां विमत्सरः ।
गुडकुम्भसमायुक्तमग्निष्टोमफलं भवेत् ॥ ३२
रथन्तरस्य कल्पस्य वृत्तान्तमधिकृत्य च।
सावर्णिना नारदाय कृष्णमाहात्म्यमुत्तमम् ॥ ३३
यत्र ब्रह्मवराहस्य चोदन्तं वर्णितं मुहुः।
तदष्टादशसाहस्रं ब्रह्मवैवर्तमुच्यते ॥ ३४
पुराणं ब्रह्मवैवर्त यो दद्यान्माघमासि च।
पौर्णमास्यां शुभदिने ब्रह्मलोके महीयते ॥ ३५
जिस पुराणमें बृहत्कल्पका आश्रय लेकर देवर्षि नारदने धर्मोका उपदेश किया है, उसे (षष्ठ) नारदीय (नारदपुराण) कहा जाता है। उसमें पचीस हजार श्लोक हैं। जो मनुष्य आश्विनमासकी पूर्णिमा तिथिको धेनुके साथ इस पुराणका दान करता है, वह पुनर्जन्मसे रहित परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है। जिस पुराणमें पक्षियोंका आश्रय लेकर एक मुनिके प्रश्न करनेपर धर्मचारी मुनियोंद्वारा धर्म और अधर्मके विचारका जो कुछ व्याख्यान दिया गया है, उन सबका महर्षि मार्कण्डेयने पुनः विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, वह लोकमें (सप्तम) मार्कण्डेयपुराणके नामसे विख्यात है। इसकी श्लोक-संख्या नौ हजार है। जो मनुष्य इस पुराणको लिखकर स्वर्णनिर्मित हाथीके सहित कार्तिकी पूर्णिमाको उस पुस्तकका दान करता है, वह पुण्डरीक यज्ञके फलका भागी होता है। जिसमें ईशानकल्पके वृत्तान्तका आश्रय लेकर अग्निने महर्षि वसिष्ठके प्रति उपदेश किया है, उसे (अष्टम) आग्रेय (अग्निपुराण) कहते हैं। इसमें सोलह सहस्र श्लोक हैं। जो मनुष्य इसे लिखकर उस पुस्तकका स्वर्णनिर्मित कमल और तिलधेनुसहित मार्गशीर्षमासकी पूर्णिमा तिथिको विधि-विधानके साथ दान करता है, उसके लिये यह सम्पूर्ण यज्ञोंके फलका प्रदाता हो जाता है।
जिसमें अघोर कल्पके वृत्तान्तके प्रसङ्गवश सूर्यके माहात्म्यका आश्रय लेकर ब्रह्माने मनुके प्रति जगत्की स्थिति और प्राणिसमूहके लक्षणका वर्णन किया है तथा जिसमें प्रायः भविष्यकालीन चरितका वर्णन आया है, उसे इस लोकमें (नवम) भविष्यपुराण कहते हैं। उसमें चौदह हजार पाँच सौ श्लोक हैं। जो मनुष्य ईर्ष्या द्वेषरहित हो पौषमासकी पूर्णिमा तिथिको उसका गुड़से पूर्ण घड़ेसहित दान करता है, उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है। जिसमें रथन्तर कल्पके वृत्तान्तका आश्रय लेकर सावर्णि मनुने नारदजीके प्रति भगवान् श्रीकृष्णके श्रेष्ठ माहात्म्यका वर्णन किया है तथा जिसमें ब्रह्मवराहका वृत्तान्त बारम्बार वर्णित हुआ है, उसे (दशम) ब्रह्मवैवर्तपुराण कहते हैं। इसमें अठारह सहल श्लोक हैं। जो मनुष्य माधमासमें पूर्णिमा तिथिको शुभ दिनमें इस ब्रह्मवैवर्तपुराणका दान करता है, वह ब्रह्मलोकमें सत्कृत होता है ॥ २३-३५ ॥
यत्राग्ग्रिलिङ्गमध्यस्थः प्राह देवो महेश्वरः।
धर्मार्थकाममोक्षार्थमाग्ग्रेयमधिकृत्य च॥ ३६
कल्पान्ते लैङ्गमित्युक्तं पुराणं ब्रह्मणा स्वयम्।
तदेकादशसाहस्रं फाल्गुन्यां यः प्रयच्छति।
तिलधेनुसमायुक्तं स याति शिवसाम्यताम् ॥ ३७
महावराहस्य पुनर्माहात्म्यमधिकृत्य च।
विष्णुनाभिहितं क्षोण्यै तद्वाराहमिहोच्यते ॥ ३८
मानवस्य प्रसङ्गेन कल्पस्य मुनिसत्तमाः ।
चतुर्विशत्सहस्त्राणि तत्पुराणमिहोच्यते ॥ ३९
काञ्चनं गरुडं कृत्वा तिलधेनुसमन्वितम् ।
पौर्णमास्यां मधौ दद्याद् ब्राह्मणाय कुटुम्बिने ।
वराहस्य प्रसादेन पदमाप्नोति वैष्णवम् ॥ ४०
यत्र माहेश्वरान् धर्मानधिकृत्य च षण्मुखः ।
कल्पे तत्पुरुषं वृत्तं चरितैरुपबृंहितम् ॥ ४१
स्कान्दं नाम पुराणं च होकाशीति निगद्यते ।
सहस्त्राणि शतं चैकमिति मत्र्येषु गद्यते ॥ ४२
परिलिख्य च यो दद्याद्धेमशूलसमन्वितम् ।
शैवं पदमवाप्नोति मीने चोपागते रवी ॥ ४३
त्रिविक्रमस्य माहात्म्यमधिकृत्य चतुर्मुखः ।
त्रिवर्गमभ्यधात् तच्च वामनं परिकीर्तितम् ॥ ४४
पुराणं दशसाहस्त्रं कूर्मकल्पानुगं शिवम्।
यः शरद्विषुवे दद्याद् वैष्णवं यात्यसौ पदम् ॥ ४५
यत्र धर्मार्थकामानां मोक्षस्य च रसातले।
माहात्म्यं कथयामास कूर्मरूपी जनार्दनः ।॥ ४६
इन्द्रद्युम्नप्रसङ्गेन ऋषिभ्यः शक्रसंनिधौ।
अष्टादश सहस्त्राणि लक्ष्मीकल्पानुषङ्गिकम् ॥ ४७
यो दद्यादयने कूर्म हेमकूर्मसमन्वितम्।
गोसहस्त्रप्रदानस्य फलं सम्प्राप्पुयान्नरः ॥ ४८
जिसमें कल्पान्तके समय अग्रिका आश्रय लेकर देवाधिदेव महेश्वरने अग्ग्रिलिङ्गके मध्यमें स्थित रहते हुए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारोंकी प्राप्तिके लिये उपदेश दिया है, उस पुराणको स्वयं ब्रह्माने (एकादश) लैङ्ग (लिङ्ग) पुराण नामसे अभिहित किया है। उसमें ग्यारह हजार श्लोक हैं। जो मानव फाल्गुनमासकी पूर्णिमा तिथिको तिलधेनुसहित इस पुराणका दान करता है, वह शिवजीकी साम्यताको प्राप्त कर लेता है। मुनिवरो ! जिसमें मानवकल्पके प्रसङ्गवश पुनः महावराहके माहात्म्यका आश्रय लेकर भगवान् विष्णुने पृथ्वीके प्रति उपदेश दिया है, उसे भूतलपर (द्वादश) वराहपुराण कहते हैं। उस पुराणकी श्लोक संख्या चौबीस हजार बतलायी जाती है। जो मनुष्य गरुड़की सोनेकी मूर्ति बनवाकर उस मूर्ति तथा तिल-धेनुके साथ इस पुराणका चैत्रमासकी पूर्णिमा तिथिको कुटुम्बी ब्राह्मणको दान करता है, वह वराहभगवान्की कृपासे विष्णुपदको प्राप्त कर लेता है। जिसमें कल्पान्तके समय स्वामिकार्तिकने माहेश्वर धर्मोका आश्रय लेकर शिवजीके सुशोभन चरित्रोंसे युक्त वृत्तान्तका वर्णन किया है, उस (त्रयोदश पुराण) का नाम स्कन्दपुराण है। वह मृत्युलोकमें इक्यासी हजार एक सौ श्लोकोंका बतलाया जाता है।
जो मनुष्य उसे लिखकर उस पुस्तकका स्वर्णनिर्मित त्रिशूलके साथ सूर्यके मौन राशिपर आनेपर (प्रायः चैत्रमासमें) दान करता है, वह शिव-पदको प्राप्त कर लेता है। जिसमें ब्रह्माने त्रिविक्रमके माहात्म्यका आश्रय लेकर त्रिवगोंका वर्णन किया है, उसे (चतुर्दश) वामनपुराण कहते हैं। इसमें दस हजार श्लोक हैं। यह कूर्मकल्पका अनुगमन करनेवाला तथा मङ्गलप्रद है। जो मानव शरत्कालीन विषुवयोग (१८ सितम्बरके लगभग दिन-रातके बराबर होनेके काल-तुलासंक्रान्ति) में इसका दान करता है, वह विष्णु-पदको प्राप्त कर लेता है। जिसमें कूर्मरूपी भगवान् जनार्दनने रसातलमें इन्द्रद्युम्नकी कथाके प्रसङ्गवश इन्द्रके निकट धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके माहात्म्यका ऋषियोंके प्रति वर्णन किया है, उसे (पञ्चदश) कूर्मपुराण कहते हैं। यह लक्ष्मीकल्पसे सम्बन्ध रखनेवाला है। इसमें अठारह हजार श्लोक हैं। जो मनुष्य सूर्यके उत्तरायण एवं दक्षिणायनके प्रारम्भकालमें स्वर्णनिर्मित कच्छपसहित कूर्मपुराणका दान करता है, उसे एक हजार गोदान करनेका फल प्रास होता है॥ ३६-४८ ॥
श्रुतीनां यत्र कल्पादौ प्रवृत्त्यर्थं जनार्दनः ।
मत्स्यरूपेण मनवे नरसिंहोपवर्णनम् ॥ ४९
अधिकृत्याब्रवीत् सप्तकल्पवृत्तं मुनीश्वराः ।
तन्मात्स्यमिति जानीध्वं सहस्त्राणि चतुर्दश ॥ ५०
विषुवे हेममत्स्येन धेन्वा चैव समन्वितम् ।
यो दद्यात् पृथिवी तेन दत्ता भवति चाखिला ।। ५१
यदा च गारुडे कल्पे विश्वाण्डाद् गरुडोद्भवम् ।
अधिकृत्याब्रवीत् कृष्णो गारुडं तदिहोच्यते ॥ ५२
तदष्टादशकं चैकं सहस्त्राणीह पठ्यते ।
सौवर्णहंससंयुक्तं यो ददाति पुमानिह।
स सिद्धिं लभते मुख्यां शिवलोके च संस्थितिम् ॥ ५३
ब्रह्मा ब्रह्माण्डमाहात्म्यमधिकृत्याब्रवीत् पुनः ।
तच्च द्वादशसाहस्रं ब्रह्माण्ड द्विशताधिकम् ॥ ५४
भविष्याणां च कल्पानां श्रूयते यत्र विस्तरः ।
तद् ब्रह्माण्डपुराणं च ब्रह्मणा समुदाहृतम् ॥ ५५
यो दद्यात् तद् व्यतीपाते पीतोर्णायुगसंयुतम् ।
राजसूयसहस्त्रस्य फलमाप्नोति मानवः ।
हेमधेन्वा युतं तच्च ब्रह्मलोकफलप्रदम् ॥ ५६
चतुर्लक्षमिदं प्रोक्तं व्यासेनाद्भुतकर्मणा।
मत्पितुर्मम पित्रा च मया तुभ्यं निवेदितम् ॥ ५७
इह लोकहितार्थाय संक्षिप्तं परमर्षिणा।
इदमद्यापि देवेषु शतकोटिप्रविस्तरम् ॥ ५८
मुनिवरो। जिसमें कल्पके प्रारम्भमें भगवान् जनार्दनने मत्स्य-रूप धारण करके मनुके प्रति श्रुतियोंकी प्रवृत्तिके निमित्त नृसिंहावतारके वृत्तान्तका आश्रय लेकर सातों कल्पोंक वृत्तान्तोंका वर्णन किया है, उसे (षोडश मात्स्य) मत्स्यपुराण जानना चाहिये। उसमें चौदह हजार श्लोक है। जो मनुष्य विषुवयोग (मेष अथवा तुलाकी संक्रान्ति)- में स्वर्णनिर्मित मत्स्य और दुधारू गौके साथ इस पुराणका दान करता है, उसके द्वारा समग्र पृथ्वीका दान सम्पन्न हो जाता है अर्थात् उसे सम्पूर्ण पृथ्वीके दानका फल प्राप्त होता है। जिसमें भगवान् श्रीकृष्णने गरुड- कल्पके समय विश्वाण्ड (ब्रह्माण्ड) से गरुडकी उत्पत्तिके वृत्तान्तका आश्रय लेकर उपदेश दिया है, उसे इस लोकमें सप्तदश गारुड (गरुडपुराण) कहते हैं। उसे भूतलपर उन्नीस हजार श्लोकोंका कहा जाता है। जो पुरुष स्वर्णनिर्मित हंसके साथ इस पुराणका दान करता है, उसे मुख्य सिद्धि प्राप्त होती है और वह शिवलोकमें निवास करता है। जिसमें ब्रह्माने पुनः ब्रह्माण्डके माहात्म्यका आश्रय लेकर वृत्तान्तोंका वर्णन किया है
तथा जिसमें भविष्यकल्पोंका भी विस्तारपूर्वक वर्णन सुना जाता है, उसे ब्रह्माने (अन्तिम अष्टादश) ब्रह्माण्डपुराण बतलाया है। वह ब्रह्माण्डपुराण बारह हजार दो सौ श्लोकोंवाला है। जो मानव व्यतीपात नामक योगमें पीले रंगके दो ऊनी वस्त्रोंके साथ इस पुराणका दान करता है, उसे एक हजार राजसूय यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है। उसी (ब्रह्माण्डपुराण) को यदि स्वर्णनिर्मित गौके साथ दान किया जाय तो वह ब्रह्मलोक-प्राप्तिरूपी फलका प्रदाता बन जाता है। अद्भुतकर्मा महर्षि वेदव्यासने मेरे पिता रोमहर्षणके प्रति इन चार लाख श्लोकोंका वर्णन किया था। उसीको मेरे पिताने मुझे बतलाया और मैंने आपलोगोंक प्रति निवेदन कर दिया। परमर्षि व्यासजीने मृत्युलोकमें लोकहितके लिये इसका संक्षेप कर दिया है, किंतु देवलोकमें तो यह आज भी सौ करोड़ श्लोकोंसे युक्त ही है॥ ४९-५८ ॥
उपभेदान् प्रवक्ष्यामि लोके ये सम्प्रतिष्ठिताः ।
पाद्ये पुराणे यत्रोक्तं नरसिंहोपवर्णनम्।
तच्चाष्टादशसाहस्त्रं नारसिंहमिहोच्यते ॥ ५९
नन्दाया यत्र माहात्म्यं कार्तिकेयेन वर्ण्यते।
नन्दीपुराणं तल्लोकैराख्यातमिति कीर्त्यते ।। ६०
यत्र साम्बं पुरस्कृत्य भविष्यति कथानकम् ।
प्रोच्यते तत् पुनर्लोके साम्बमेतन्मुनिव्रताः ॥ ६१
एवमादित्यसंज्ञा च तत्रैव परिगण्यते ।
अष्टादशभ्यस्तु पृथक् पुराणं यत् प्रदिश्यते ॥ ६२
विजानीध्वं द्विजश्रेष्ठास्तदेतेभ्यो विनिर्गतम् ।
पञ्चाङ्गानि पुराणेषु आख्यानकमतः स्मृतम् ॥ ६३
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंश्यानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ ६४
ब्रह्मविष्णवर्करुद्राणां माहात्म्यं भुवनस्य च।
ससंहारप्रदानां च पुराणे पञ्चवर्णके ॥ ६५
धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चैवात्र कीर्त्यते।
सर्वेष्वपि पुराणेषु तद्विरुद्धं च यत् फलम् ॥ ६६
ऋषियो ! अब मैं उन उपपुराणोंका वर्णन कर रहा हूँ, जो लोकमें प्रचलित हैं। पद्मपुराणमें जहाँ नृसिंहावतारके वृत्तान्तका वर्णन किया गया है, उसे नारसिंह (नरसिंहपुराण) कहते हैं। उसमें अठारह हजार श्लोक हैं। जिसमें स्वामिकार्तिकने नन्दाके माहात्म्यका वर्णन किया है, उसे लोग नन्दीपुराणके नामसे पुकारते हैं। मुनिवरो। जहाँ भविष्यकी चर्चासहित साम्बका प्रसङ्ग लेकर कथानकका वर्णन किया गया है, उसे लोकमें साम्बपुराण कहते हैं। इस प्रकार सूर्य-महिमाके प्रसङ्गमें होनेसे उसे आदित्यपुराण भी कहा जाता है। द्विजवरी! उपर्युक्त अठारह पुराणोंसे पृथक् जो पुराण बतलाये गये हैं, उन्हें इन्हींसे निकला हुआ समझना चाहिये। पुराणोंमें बतलाये गये सर्गादि पाँच अङ्ग तथा आख्यान भी कहे गये हैं। उनमें सर्ग (ब्रह्माद्वारा की गयी सृष्टिरचना), प्रतिसर्ग (ब्रह्माके मानस पुत्रोंद्वारा की गयी सृष्टि- रचना), वंश (सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि), मन्वन्तर (स्वायम्भुव आदि मनुओंका कार्यकाल) और वंश्यानुचरित (पूर्वोक्त वंशोंमें उत्पन्न हुए नरेशोंका जीवन-चरित्र) - ये पाँच पुराणोंके लक्षण बतलाये गये हैं। इन पाँच लक्षणोंवाले सभी पुराणोंमें सृष्टि और संहार करनेवाले ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और रुद्रके तथा भुवन के माहात्म्यका वर्णन किया गया है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका भी इनमें विस्तृत विवेचन किया गया है। इनके विरुद्ध आचरण करनेसे जो फल प्राप्त होता है, उसका भी निरूपण किया गया है॥५९-६६ ॥
सात्त्विकेषु पुराणेषु माहात्म्यमधिकं हरेः ।
राजसेषु च माहात्म्यमधिकं ब्रह्मणो विदुः ॥ ६७
तद्वदनेश्च माहात्यं तामसेषु शिवस्य च।
संकीर्णेषु सरस्वत्याः पितॄणां च निगद्यते ॥ ६८
अष्टादश पुराणानि कृत्वा सत्यवतीसुतः ।
भारताख्यानमखिलं चक्रे तदुपबृंहितम् ।
लक्षेणैकेन यत् प्रोक्तं वेदार्थपरिवृंहितम् ॥ ६९
वाल्मीकिना तु यत् प्रोक्तं रामोपाख्यानमुत्तमम् ।
ब्रह्मणाभिहितं यच्च शतकोटिप्रविस्तरम् ॥ ७०
आहुत्य नारदायैव तेन वाल्मीकये पुनः।
वाल्मीकिना च लोकेषु धर्मकामार्थसाधनम्।
एवं सपादाः पञ्चैते लक्षा मर्त्य प्रकीर्तिताः ॥ ७१
पुरातनस्य कल्पस्य पुराणानि विदुर्बुधाः ।
धन्यं यशस्यमायुष्यं पुराणानामनुक्रमम् ।
यः पठेच्छृणुयाद् वापि स याति परमां गतिम् ॥ ७२
इदं पवित्रे यशसो निधान-मिदं पितृणामतिवल्लभं च।
इदं च देवेष्वमृतायितं च नित्यं त्विदं पापहरं च पुंसाम् ॥ ७३
सत्त्वगुणप्रधान पुराणोंमें भगवान् विष्णुके माहात्म्यकी तथा रजोगुणप्रधान पुराणोंमें ब्रह्माकी प्रधानता जाननी चाहिये। उसी प्रकार तमोगुणप्रधान पुराणोंमें अग्रि और शिवजीके माहात्म्यका विशेषरूपसे वर्णन किया गया है। संकीर्ण पुराणों (उपपुराणों) में सरस्वती और पितरोंका वृत्तान्त कहा गया है। सत्यवती नन्दन व्यासजीने इन अठारह पुराणोंकी रचना कर इनके कथानकोंसे समन्वित सम्पूर्ण महाभारत नामक इतिहासकी रचना की, जो वेदोंके अर्थसे सम्पत्र है। वह एक लाख श्लोकोंमें वर्णित है। महर्षि वाल्मीकिने जिस उत्तम रामोपाख्यान- रामायणका वर्णन किया है, उसीको पहले सौ करोड़ श्लोकोंमें विस्तार करके ब्रह्माने नारदजीको बतलाया था। नारदजीने उसे लाकर वाल्मीकिजीको प्रदान किया। वाल्मीकिजीने धर्म, अर्थ और कामके साधनस्वरूप उस रामायणका लोकोंमें प्रचार किया। इस प्रकार ये सवा पाँच लाख श्लोक मृत्युलोकमें प्रचलित बतलाये गये हैं। विद्वान्लोग इन पुराणोंको पुरातन कल्पकी कथाएँ मानते हैं। इन पुराणोंका अनुक्रम धन, यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला है। जो इसे पढ़ता अथवा सुनता है, वह परम गतिको प्राप्त हो जाता है। यह परम पवित्र और यशका खजाना है। यह पितरोंको परम प्रिय है। यह देवताओंमें अमृतके समान प्रतिष्ठित है और नित्य मनुष्योंके पापका हरण करनेवाला है ॥ ६७-७३ ॥
इति श्रीमालये महापुराणे पुराणानुक्रमणिकाभिधानं नाम त्रिपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५३ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें पुराणानुक्रमणिकाभिधान नामक तिरपनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ५३ ॥
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