राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना | raaja yayaati ka vasumaan aur shibike prati grah ko asveekaar karana |

मत्स्य पुराण बयालीसवाँ अध्याय

राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना

वसुमानुवाच

पृच्छाम्यहं वसुमानौषदश्वि- यद्यस्ति लोको दिवि महां नरेन्द्र।
यद्यन्तरिक्षे प्रथितो महात्मन् क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये ॥ १

वसुमान्ने कहा- नरेन्द्र! मैं उषदश्वका पुत्र हूँ और आपसे पूछ रहा हूँ। यदि स्वर्ग या अन्तरिक्षमें मेरे लिये भी कोई विख्यात लोक हों तो बताइये। महात्मन् ! मैं आपको पारलौकिक धर्मका ज्ञाता मानता हूँ ॥१॥

ययातिरुवाच

यदन्तरिक्षं पृथिवी दिशश्च यत्तेजसा तपते भानुमांश्च।
लोकास्तावन्तो दिवि संस्थिता वै ते त्वां भवन्तं प्रतिपालयन्ति ॥ २

वसुमानुवाच

तांस्ते ददामि पत मा प्रपातं ये मे लोकास्तव ते वै भवन्तु ।
क्रीणीष्वैनांस्तृणकेनापि राजन् प्रतिग्रहस्ते यदि सम्यक् प्रदुष्टः ॥ ३

ययातिरुवाच

न मिध्याहं विक्रियं वै स्मरामि मया कृतं शिशुभावेऽपि राजन्।
कुर्या न चैवाकृतपूर्वमन्यै- र्विधित्समानो वसुमन् न साधु ॥ ४

ययातिने कहा- राजन् । पृथ्वी, आकाश और दिशाओंके जितने प्रदेशको सूर्यदेव अपनी किरणोंसे तपाते और प्रकाशित करते हैं, उतने लोक तुम्हारे लिये स्वर्गमें स्थित हैं। वे तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं वसुमान् बोले- राजन् ! वे सभी लोक मैं आपके लिये देता हूँ, वे सब आपके हो जायें। धीमन् । यदि आपको प्रतिग्रह लेनेमें दोष दिखायी देता हो तो एक मुट्ठा तिनका मुझे मूल्यके रूपमें देकर मेरे इन सभी लोकोंको आप खरीद लें ययातिने कहा- राजन् ! मैंने बचपनमें भी कभी इस प्रकार झूठ-मूठकी खरीद-बिक्री की हो, इसका मुझे स्मरण नहीं है। जिसे पूर्ववर्ती अन्य महापुरुषोंने नहीं किया, वह कार्य मैं भी नहीं कर सकता हूँ; क्योंकि मैं सत्कर्म करना चाहता हूँ ॥२-४॥

वसुमानुवाच

तांस्त्वं लोकान् प्रतिपद्यस्व राजन् मया दत्तान् यदि नेष्टः क्रयस्ते।
नाहं तान् वै प्रतिगन्ता नरेन्द्र सर्वे लोकास्तावका वै भवन्तु ॥५

शिविरुवाच

पृच्छामि त्वां शिबिरौशीनरोऽहं ममापि लोका यदि सन्ति तात।
शिविरुवाच यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिताः क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये ॥ ६

वसुमान् बोले- राजन् । यदि आप खरीदना नहीं चाहते तो मेरे द्वारा स्वतः अर्पण किये हुए पुण्यलोकोंको ग्रहण कीजिये। नरेन्द्र। निश्चय जानिये कि मैं उन लोकोंमें नहीं जाऊँगा। वे सब आपके ही अधिकारमें रहें ॥५॥शिबिने कहा-तात! मैं उशीनरका पुत्र शिबि आपसे पूछता हूँ। यदि अन्तरिक्ष या स्वर्गमें मेरे भी पुण्यलोक हों तो बताइये; क्योंकि मैं आपको उक्त धर्मका ज्ञाता मानता हूँ ॥५-६॥

ययातिरुवाच

न त्वं वाचा हृदयेनापि राजन् परीप्समानो मावमंस्था नरेन्द्र।
तेनानन्ता दिवि लोकाः स्थिता वै विद्युद्रूपाः स्वनवन्तो महान्तः ॥ ७

शिबिरुवाच

तांस्त्वं लोकान् प्रतिपद्यस्व राजन् मया दत्तान् यदि नेष्टः क्रयस्ते।
न चाहं तान् प्रतिपद्येह दत्त्वा यत्र त्वं तात गन्तासि लोके ॥ ८

ययातिरुवाच

यथा त्वमिन्द्रप्रतिमप्रभाव- स्ते चाप्यनन्ता नरदेव लोकाः।
तथाद्य लोके न रमेऽन्यदत्ते तस्माच्छिवे नाभिनन्दामि वाचम् ॥ ९

ययाति बोले- नरेन्द्र। जो-जो साधु पुरुष तुमसे कुछ माँगनेके लिये आये, उनका तुमने वाणीसे कौन कहे, मनसे भी अपमान नहीं किया। इस कारण स्वर्गमें तुम्हारे लिये अनन्त लोक विद्यमान हैं जो विद्युत्के समान तेजोमय, भाँति-भाँतिके सुमधुर शब्दोंसे युक्त तथा महान् हैं शिबिने कहा- महाराज! यदि आप खरीदना नहीं चाहते तो मेरे द्वारा स्वयं अर्पण किये हुए पुण्यलोकोंको ग्रहण कीजिये। तात! उन सबको देकर निश्चय ही में उन लोकोंमें नहीं जाऊँगा जिन लोकोंमें आप जा रहे होंगे ययाति बोले- नरदेव शिबि! जिस प्रकार तुम इन्द्रके समान प्रभावशाली हो उसी प्रकार तुम्हारे वे लोक भी अनन्त हैं, तथापि दूसरेके दिये हुए लोकमें मैं विहार नहीं कर सकता; इसीलिये तुम्हारे दिये हुएका अभिनन्दन नहीं करता ॥ ७-९ ॥

अष्टक उवाच

न चेदेकैकशो राजैल्लोकान् नः प्रतिनन्दसि । 
सर्वे प्रदाय ताँल्लोकान् गन्तारो नरकं वयम् ॥ १०

ययातिरुवाच

यदर्हास्तद् वदध्वं वः सन्तः सत्यादिदर्शिनः । 
अहं तु नाभिगृहणामि यत् कृतं न मया पुरा ॥ ११

अलिप्समानस्य तु मे यदुक्तं न तत्तथास्तीह नरेन्द्रसिंह ।
अस्य प्रदानस्य यदेव युक्तं तस्यैव चानन्तफलं भविष्यम् ॥ १२

अष्टकने कहा- राजन् ! यदि आप हममेंसे एक- एकके दिये हुए लोकोंको प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण नहीं करते तो हम सब लोग अपने पुण्यलोक आपकी सेवामें समर्पित करके नरक (भूलोक) में जानेको तैयार हैं ययाति बोले- मैं जिसके योग्य हूँ, उसीके लिये यत्न करो; क्योंकि साधु पुरुष सत्यका ही अभिनन्दन करते हैं। मैंने पूर्वकालमें जो कर्म नहीं किया, उसे अब भी स्वीकार नहीं कर सकता। नरेन्द्रसिंह। मुझ निर्लोभके प्रति तुमलोगोंने जो कुछ कहा है उसका फल वैसे ही निराशापूर्ण नहीं होगा, अपितु इतने बड़े दानके लिये जो उपयुक्त होगा, वह अनन्त फल तुम लोगोंको अवश्य प्राप्त होगा ॥ १०-१२॥

अष्टक उवाच

कस्यैते प्रतिदृश्यन्ते रथाः पञ्च हिरण्मयाः ।
उच्चैः सन्तः प्रकाशन्ते ज्वलन्तोऽग्निशिखा इव ॥ १३

ययातिरुवाच

भवतां मम चैवैते रथा भान्ति हिरण्मयाः । 
आरुहौतेषु गन्तव्यं भवद्भिश्च मया सह ॥ १४

अष्टक उवाच

आतिष्ठस्व रथं राजन् विक्रमस्व विहायसा। 
वयमप्यनुयास्यामो यदा कालो भविष्यति ॥ १५

अष्टकने पूछा- आकाशमें ये किसके पाँच सुवर्णमय रथ दिखायी देते हैं, जो आकाशमण्डलमें बड़ी ऊँचाईपर स्थित हैं और अग्नि-शिखाकी भाँति प्रकाशित हो रहे हैं? ययाति बोले- ये जो स्वर्णमय रथ चमक रहे हैं, सभी मेरे तथा तुमलोगोंके लिये आये हैं। इन्हींपर आरूढ़ होकर तुमलोग मेरे साथ इन्द्र-लोकको चलोगे अष्टक बोले- राजन् ! आप रथमें बैठिये और आकाशमें ऊपरकी ओर बढ़िये। जब समय होगा तब हम भी आपका अनुसरण करेंगे ॥ १३-१५॥

ययातिरुवाच

सर्वैरिदानीं गन्तव्यं सह स्वर्गों जितो यतः। 
एष वो विरजाः पन्था दृश्यते देवसागः ॥ १६

शौनक उवाच

तेऽभिरुह्य रथं सर्वे प्रयाता नृपते नृपाः। 
आक्रमन्तो दिवं भान्ति धर्मेणावृत्य रोदसी ॥ १७

अष्टक तवाच

अहं मन्ये पूर्वमेकोऽभिगन्ता सखा चेन्द्रः सर्वथा में महात्मा।
कस्मादेवं शिबिरौशीनरोऽय-मेकोऽत्ययात् सर्ववेगेन वाहान् ॥ १८

ययाति बोले- हम सब लोगोंने साथ-साथ स्वर्गपर विजय पायी है, इसलिये इस समय सबको वहाँ चलना चाहिये। देवलोकका यह रजोहीन सात्त्विक मार्ग हमें स्पष्ट दिखायी दे रहा है शौनकजी कहते हैं- राजन्। तदनन्तर वे सभी नृपश्रेष्ठ उन दिव्य रथोंपर आरूढ़ हो धर्मके बलसे स्वर्गमें पहुँचनेके लिये चल दिये। उस समय पृथ्वी और आकाशमें उनकी प्रभा व्याप्त हो रही थी अष्टक बोले- राजन् । महात्मा इन्द्र मेरे बड़े मित्र हैं, अतः मैं तो समझता था कि अकेला मैं ही सबसे पहले उनके पास पहुँचूँगा; परंतु ये उशीनर-पुत्र शिबि अकेले सम्पूर्ण वेगसे हम सबके वाहनोंको लाँधकर आगे बढ़ गये हैं, ऐसा कैसे हुआ ? ॥१६-१८॥

ययातिरुवाच

अददाद् देवयानाय यावद् वित्तमनिन्दितः । 
उशीनरस्य पुत्रोऽयं तस्माच्छ्रेष्ठो हि वः शिबिः ॥ १९

दानं शौचं सत्यमथो ह्यहिंसा ह्रीः श्रीस्तितिक्षा समताऽऽनृशंस्यम् ।
राजन्त्येतान्यथ सर्वाणि राज्ञि शिबौ स्थितान्यप्रतिमेषु बुद्धया।
एवं वृत्तं ह्रीनिषेवी विभर्ति तस्माच्छिबिरभिगन्ता रथेन ॥ २०

शौनक उवाच

अथाष्टकः पुनरेवान्वपृच्छ- न्मातामहं कौतुकादिन्द्रकल्पम् ।
पृच्छामि त्वां नृपते ब्रूहि सत्यं कुतश्च कश्चासि कथं त्वमागाः।
कृतं त्वया यद्धि न तस्य कर्ता लोके त्वदन्यो ब्राह्मणः क्षत्रियो वा ॥ २१

ययातिने कहा- राजन् । उशीनरके पुत्र शिबिने ब्रह्मलोकके मार्गकी प्राप्तिके लिये अपना सर्वस्व दान कर दिया था, इसलिये ये तुमलोगोंमें श्रेष्ठ हैं। नरेश्वर! दान, पवित्रता, सत्य, अहिंसा, ही, श्री, क्षमा, समता और दयालुता-ये सभी अनुपम गुण राजा शिबिमें विद्यमान हैं तथा बुद्धिमें भी उनकी समता करनेवाला कोई नहीं है। राजा शिबि ऐसे सदाचारसम्पन्न और लज्जाशील हैं। (इनमें अभिमानकी मात्रा छू भी नहीं गयी है।) इसीलिये शिबि रथारूढ़ हो हम सबसे आगे बढ़ गये हैं शौनकजी कहते हैं- शतानीक। तदनन्तर अष्टकने कौतूहलवश इन्द्रतुल्य अपने नाना राजा ययातिसे पुनः प्रश्न किया-'महाराज! मैं आपसे एक बात पूछता हूँ। आप उसे सच-सच बताइये। आप कहाँसे आये हैं, कौन हैं और किसके पुत्र हैं? आपने जो कुछ किया है, उसे करनेवाला आपके सिवा दूसरा कोई क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण इस संसारमें नहीं है' ॥१९-२१॥

ययातिरुवाच

ययातिरस्मि नहुषस्य पुत्रः पूरोः पिता सार्वभौमस्त्विहासम् ।
गुह्यं मन्त्रं मामकेभ्यो ब्रवीमि मातामहो भवतां सुप्रकाशः ॥ २२

सर्वामिमां पृथिवीं निर्जिगाय ऋद्धां महीमददां ब्राह्मणेभ्यः ।
मेध्यानश्वान् नैकशस्तान् सुरूपां- स्तदा देवाः पुण्यभाजो भवन्ति ॥ २३

अदामहं पृथिवीं ब्राह्मणेभ्यः पूर्णामिमामखिलान्त्रैः प्रशस्ताम्।
गोभिः सुवर्णैश्च धनैश्च मुख्यै- रश्वाः सनागाः शतशस्त्वर्बुदानि ॥ २४

सत्येन मे द्यौश्च वसुंधरा च तथैवाग्निर्ध्वलते मानुषेषु ।
न मे वृथा व्याहृतमेव वाक्यं सत्यं हि सन्तः प्रतिपूजयन्ति ॥ २५

साध्वष्टक प्रब्रवीमीह सत्यं प्रतर्दनं वसुमन्तं शिबिं च।
सर्वे देवा मुनयश्च लोकाः सत्येन पूज्य इति मे मनोगतम् ॥ २६

यो नः स्वर्गजितं सर्वं यथावृत्तं निवेदयेत् ।
अनसूयुर्दिजाग्र्येभ्यः स भोजेन्नः सलोकताम् ॥ २७

ययातिने कहा- मैं नहुषका पुत्र और पूरुका पिता राजा ययाति हूँ। मैं इस लोकमें चक्रवर्ती नरेश था। तुम सब लोग मेरे अपने हो, अतः तुमसे गुप्त बात भी खोलकर बतलाये देता हूँ। मैं तुमलोगोंका नाना हूँ। (यद्यपि पहले भी यह बात बता चुका हूँ, तथापि पुनः स्पष्ट कर देता हूँ।) मैंने इस सारी पृथ्वीको जीत लिया था और पुनः इस समृद्धिशालिनी पृथ्वीको ब्राह्मणोंको दान भी कर दिया था। मनुष्य जब एक सौ सुन्दर पवित्र अश्वोंका दान करते हैं तब वे पुण्यात्मा देवता होते हैं। मैंने सब तरहके अन्न, गौ, सुवर्ण तथा उत्तम धनसे परिपूर्ण यह प्रशस्त पृथ्वी ब्राह्मणोंको दान कर दी थी एवं सौ अर्बुद (दस अरब) हाथियोंसहित घोड़ोंका दान भी किया था। सत्यसे ही पृथ्वी और आकाश टिके हुए हैं। इसी प्रकार सत्यसे ही मनुष्य लोकमें अग्नि प्रज्वलित होती है। मैंने कभी व्यर्थ बात मुँहसे नहीं निकाली है; क्योंकि साधु पुरुष सदा सत्यका ही आदर करते हैं। आटक ! मैं तुमसे, प्रतर्दनसे, वसुमान्से और शिबिसे भी यहाँ जो कुछ कहता हूँ, वह सब सत्य ही है। मेरे मनका यह विश्वास है कि समस्त लोक, मुनि और देवता सत्यसे ही पूजनीय होते हैं। जो मनुष्य हृदयमें ईर्ष्या न रखकर स्वर्गपर अधिकार करनेवाले हम सब लोगोंके इस वृत्तान्तको यथार्थरूपसे श्रेष्ठ द्विजोंके सामने सुनायेगा, वह हमारे ही समान पुण्यलोकोंको प्राप्त कर लेगा ॥ २२-२७॥

शौनक उवाच

एवं राजन् स महात्मा ययातिः स्वदौहित्रैस्तारितो मित्रवर्यैः ।
त्यक्त्वा महीं परमोदारकर्मा स्वर्गं गतः कर्मभिर्व्याप्य पृथ्वीम् ॥ २८

एवं सर्वं विस्तरतो यथाव- दाख्यातं ते चरितं नाहुषस्य ।
वंशो यस्य प्रथितः पौरवेयो यस्मिञ्जातस्त्वं मनुजेन्द्रकल्पः ॥ २९

शौनकजी कहते हैं- राजन् ! राजा ययाति बड़े महात्मा थे और उनके कर्म अत्यन्त उदार थे। उनके श्रेष्ठ मित्ररूपी दौहित्रोंने उनका उद्धार किया और वे सत्कर्मीद्वारा सम्पूर्ण भूमण्डलको व्याप्त करके पृथ्वीको छोड़कर स्वर्गलोकमें चले गये। इस प्रकार मैंने तुमसे नहुष-पुत्र राजा ययातिका सारा चरित्र यथार्थरूपसे विस्तारपूर्वक कह सुनाया। यही वंश आगे चलकर पूरुवंशके नामसे विख्यात हुआ, जिसमें तुम मनुष्योंमें इन्द्रके समान उत्पन्न हुए हो ॥ २८-२९॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे सोमवंशे ययातिचरिते द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सोम-वंश-वर्णन प्रसङ्गमें ययाति चरित वर्णन विषयक बयालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ४२ ॥

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