रसकल्याणिनी-व्रत की विधि और उसका माहात्म्य | rasakalyaaninee-vrat kee vidhi aur usaka maahaatmy |

मत्स्य पुराण तिरसठवाँ अध्याय

रसकल्याणिनी-व्रत की विधि और उसका माहात्म्य

ईश्वर उवाच

अथान्यामपि वक्ष्यामि तृतीयां पापनाशिनीम् । 
रसकल्याणिनीमेनां पुराकल्पविदो विदुः ॥ १

ईश्वरने कहा- नारद ! अब मैं एक अन्य तृतीयाका भी वर्णन कर रहा हूँ जो पापोंका विनाश करनेवाली है, तथा जिसे पुराकल्पके ज्ञातालोग 'रस कल्याणिनी' के नामसे जानते हैं॥ १

माघमासे तु सम्प्राप्ते तृतीयां शुक्लपक्षतः । 
प्रातर्गव्येन पयसा तिलैः स्त्रानं समाचरेत् ॥ २

स्त्रापयेन्मधुना देवीं तथैवेक्षुरसेन च। 
दक्षिणाङ्गानि सम्पूज्य ततो वामानि पूजयेत् ॥ ३

गन्धोदकेन च पुनः पूजनं कुङ्कुमेन वै।
ललितायै नमो देव्याः पादौ गुल्फौ ततोऽर्चयेत् । 
जङ्घां जानुं तथा शान्त्यै तथैवोरुं श्रियै नमः॥ ४

मदालसायै तु कटिममलायै तथोदरम्। 
स्तनौ मदनवासिन्यै कुमुदायै च कन्धराम् ॥ ५

भुजं भुजाग्रं माधव्यै कमलायै मुखस्मिते। 
भूललाटे च रुद्राण्यै शंकरायै तथालकान् ॥ ६

मुकुटं विश्ववासिन्यै शिरः कान्त्यै तथार्चयेत् ।
मदनायै ललाटं तु मोहनायै पुनर्भुवी ॥ ७

नेत्रे चन्द्रार्धधारिण्यै तुष्ट्यै च वदनं पुनः। 
उत्कण्ठिन्यै नमः कण्ठममृतायै नमः स्तनौ ॥ ८

रम्भायै वामकुक्षिं च विशोकायै नमः कटिम् । 
हृदयं मन्मथाधिष्ण्यै पाटलायै तथोदरम् ॥ ९

कटिं सुरतवासिन्यै तथोरुं चम्पकप्रिये। 
जानुजङ्गे नमो गौर्यै गायत्र्यै घुटिके नमः ॥ १०

धराधरायै पादौ तु विश्वकायै नमः शिरः । 
नमो भवान्यै कामिन्यै कामदेव्यै जगत्प्रिये ॥ ११

माघका महीना आनेपर शुक्लपक्षकी तृतीया तिथिको प्रातःकाल ब्रतीको गो-दुग्ध और तिलमिश्रित जलसे ज्ञान करना चाहिये। (इस प्रकार स्वयं शुद्ध होकर) फिर देवीकी मूर्तिको मधु और गन्नेके रससे स्नान करावे। तत्पश्चात् सुगन्धित जलसे शुद्ध खान कराकर कुङ्कुमका अनुलेप करे। पूजनमें दक्षिणाङ्गकी पूजा कर लेनेके पश्चात् वामाङ्गकी पूजा करनेका विधान है। 'ललितायै नमः' से देवीके दोनों चरणों तथा दोनों गुल्फोंकी अर्चना करे। 'शान्त्यै नमः' से जंघाओं और जानुओंका, 'श्रियै नमः' से ऊरुओंका, 'मदालसायै नमः' से कटिभागका, 'अमलायै नमः' से उदरका, 'मदनवासिन्यै नमः' से दोनों स्तनोंका, 'कुमुदायै नमः' से कंधोंका, 'माधव्यै नमः' से भुजाओं और भुजाओंके अग्रभागका, 'कमलायै नमः' से मुख और मुसकानका, 'रुद्राण्यै नमः' से भौहों और ललाटका, 'शङ्करायै नमः' से बालोंका, 'विश्ववासिन्यै नमः' से मुकुटका और 'कान्त्यै नमः' से सिरका पूजन करे। 

पुनः (पूजनका अन्य क्रम बतलाते हैं- 'मदनायै नमः' से ललाटकी, 'मोहनायै नमः' से दोनों भीहोंकी, 'चन्द्रार्धधारिण्यै नमः' से दोनों नेत्रोंकी, 'तुष्ट्यै नमः' से मुखकी, 'उत्कण्ठिन्यै नमः' से कण्ठकी, 'अमृतायै नमः' से दोनों स्तनोंकी, 'रम्भायै नमःसे बायर्थी कुक्षिकी, 'विशोकायै नमः' से कटिभागकी, 'मन्मथाधिष्ण्यै नमः' से हृदयकी, 'पाटलायै नमः' से उदरकी, 'सुरतवासिन्यै नमः' से कटिप्रदेशकी चम्पकप्रियायै नमः' से ऊरुओंकी, 'गौयै नमः' से जंघाओं और जानुओंकी, 'गायत्र्यै नमः' से घुटनोंकी 'धराधरायै नमः' से दोनों चरणोंकी और 'विश्वकायै नमः' से सिरकी पूजा करके 'भवान्यै नमः', 'कामिन्यै नमः', 'कामदेव्यै नमः', 'जगत्प्रियायै नमः' कहकर चरणोंमें प्रणिपात (प्रणाम) करना चाहिये ॥ १-११॥

एवं सम्पूज्य विधिवद् द्विजदाम्पत्यमर्चयेत्। 
भोजयित्वान्नपानेन मधुरेण विमत्सरः ॥ १२

जलपूरितं तथा कुम्भं शुक्लाम्बरयुगद्वयम् । 
दत्त्वा सुवर्णकमलं गन्धमाल्यैः समर्चयेत् ॥ १३

प्रीयतामत्र कुमुदा गृह्णीयाल्लवणव्रतम् । 
अनेन विधिना देवीं मासि मासि सदार्चयेत् ॥ १४

लवणं वर्जयेन्माघे फाल्गुने च गुडं पुनः। 
तैलं राजिं तथा चैत्रे वर्ज्य च मधु माधवे ॥ १५

पानकं ज्येष्ठमासे तु आषाढे चाथ जीरकम्। 
श्रावणे वर्जयेत् क्षीरं दधि भाद्रपदे तथा ॥ १६

घृतमाश्वयुजे तद्वदूर्जे वर्ज्य च माक्षिकम् । 
धान्यकं मार्गशीर्षे तु पौषे वर्ज्या च शर्करा ॥ १७

व्रतान्ते करकं पूर्णमेतेषां मासि मासि च। 
दद्याद् द्विकालवेलायां पूर्णपात्रेण संयुतम् ॥ १८

लड्डुकाञ्श्वेतवर्णांश्च संयावमथ पूरिकाः । 
घारिकानप्यपूपांश्च पिष्टापूपांश्च मण्डकान् ॥ १९

क्षीरं शाकं च दध्यन्नमिण्डयर्योऽशोकवर्तिकाः । 
माघादिक्रमशो दद्यादेतानि करकोपरि ।। २०

कुमुदा माधवी गौरी रम्भा भद्रा जया शिवा। 
उमा रतिः सती तद्वन्मङ्गला रतिलालसा ।।२१

इस प्रकार विधि-विधानके साथ देवीको पूजा करके एक द्विज-दम्पतिका भी पूजन करना चाहिये। उस समय व्रती अहंकाररहित हो अर्थात् विनम्रतापूर्वक उन्हें मधुर अन्न और जलका भोजन कराकर दो श्वेत वस्त्रोंसे परिवेष्टित एवं स्वर्णनिर्मित कमलसहित जलसे भरा हुआ घड़ा प्रदान करे फिर चन्दन और पुष्पमाला आदिसे उनकी अर्चना करे, तथा इस प्रकार कहे 'इस व्रतसे कुमुदा देवी प्रसन्न हों।' ऐसा कहकर उस दिन लवण-व्रत ग्रहण करे अर्थात् नमक खाना छोड़ दे। इसी चाहिये। व्रतीको माघमें नमक और फाल्गुनमें गुड़ नहीं विधिसे प्रत्येक मासमें सदा देवीकी अर्चना करनी खाना चाहिये। चैत्रमें तेल और पीली सरसों (या राई) तथा वैशाखमें मधु वर्जित है। 

ज्येष्ठमासमें पानक (एक प्रकारका पेय पदार्थ या ताम्बूल), आषाढ़में जीरा, श्रावणमें दूध और भाद्रपदमें दही निषिद्ध है। इसी प्रकार आश्विनमें भी और कार्तिकमें मधुका निषेध किया गया है। मार्गशीर्षमें धनिया और पौषमें शक्कर वर्जित है। इस प्रकार इन महीनोंके क्रमसे प्रत्येक मासमें व्रतकी समासिके समय सायंकालकी वेलामें उपर्युक्त पदार्थोंसे भरा हुआ एक करवा पूर्णपात्रसहित ब्राह्मणको दान करे। इसी तरह श्वेत रंगके लड्डू, गोझिया, पूरी, घेवर, पूआ, आटेका बना हुआ पूआ, मण्डक (एक प्रकारका पिष्टक), दूध, शाक, दही-मिश्रित अन्न, इण्डरी (एक प्रकारको रोटी) और अशोकवर्तिका (सेंवई)- इन पदार्थोंको माघ आदि मासक्रमसे करवाके ऊपर रखकर दान करनेका विधान है। फिर कुमुदा, माधवी, गौरी, रम्भा, भद्रा, जया, शिवा, उमा, रति, सतो, मङ्गला, रतिलालसा प्रसन्न हों- ऐसा कहकर माघ आदि सभी मासोंमें क्रमशः कीर्तन करना चाहिये ॥ १२-२१॥

क्रमान्माघादि सर्वत्र प्रीयतामिति कीर्तयेत् ।
सर्वत्र पञ्चगव्येन प्राप्शनं समुदाहृतम्।
उपवासी भवेन्नित्यमशक्ते नक्तमिष्यते ॥ २२

पुनर्मांधे तु सम्प्राप्ते शर्करां करकोपरि।
कृत्वा तु काञ्चनीं गौरीं पञ्चरत्नसमन्विताम् ॥ २३

हैमीमङ्गुष्ठमात्रां च साक्षसूत्रकमण्डलुम्।
चतुर्भुजामिन्दुयुतां सितनेत्रपटावृताम् ॥ २४

तद्वद् गोमिथुनं शुक्लं सुवर्णास्यं सिताम्बरम्। 
सवस्त्रभाजनं दद्याद् भवानी प्रीयतामिति ।। २५

अनेन विधिना यस्तु रसकल्याणिनीव्रतम् ।
कुर्यात् स सर्वपापेभ्यस्तत्क्षणादेव मुच्यते ॥ २६

नवार्बुदसहस्त्रं तु न दुःखी जायते नरः।
सुवर्णकमलं गौरि मासि मासि ददन्नरः ।
अग्निष्टोमसहस्त्रस्य यत्फलं तदवाप्नुयात् ॥ २७

नारी वा कुरुते या तु कुमारी वा वरानने।
विधवा या तथा नारी सापि तत्फलमाप्नुयात्।
सौभाग्यारोग्यसम्पन्ना गौरीलोके महीयते ॥ २८

इति पठति शृणोति श्रावयेद् यः प्रसङ्गात् कलिकलुषविमुक्तः पार्वतीलोकमेति।
मतिमपि च नराणां यो ददाति प्रियार्थ विबुधपतिविमाने नायकः स्यादमोघः ।। २९

सभी मासोंके व्रतमें पञ्चगव्यका प्राशन (भक्षण) बतलाया गया है। इन सभी व्रतोंमें उपवास करनेका विधान है। यदि उपवास करनेमें असमर्थ हो तो रात्रिमें एक बार तारिकाओंके निकल आनेपर भोजन किया जा सकता है। वर्षान्तमें पुनः माधमास आनेपर गौरीकी एक सोनेकी मूर्ति बनवाये जो अँगूठेके बराबर लम्बी हो। वह चार भुजाओं और ललाटमें चन्द्रमासे युक्त हो। उसे पञ्चरत्नोंसे विभूषित और दो श्वेत वस्त्रोंसे आच्छादित कर दे। फिर करवामें शक्कर भरकर उसीके ऊपर उस मूर्तिको स्थापित करके रुद्राक्षकी माला और कमण्डलुसहित ब्राह्मणको दान कर दे। उसी प्रकार गौके जोड़ेको, जिनका रंग श्वेत और मुख सुवर्णसे मढ़ा हुआ हो, जो श्वेत वस्त्रसे आच्छादित हों, अन्य वस्त्र और पात्रके सहित दान करके 'भवानी प्रसन्न हों' यों कहकर प्रार्थना करनी चाहिये। 

जो मनुष्य इस विधिके अनुसार रसकल्याणिनीव्रतका अनुष्ठान करता है, वह उसी क्षण समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है और नौ अरब एक हजार वर्षांतक कष्टमें नहीं पड़ता। गौरि! इसी प्रकार जो मनुष्य प्रत्येक मासमें स्वर्णनिर्मित कमलका दान करता है वह हजारों अग्निष्टोम-यज्ञोंका जो फल होता है, उसे प्राप्त कर लेता है। वरानने! सधवा स्त्री, कुमारी अथवा विधवा स्त्री-कोई भी यदि इस व्रतका अनुष्ठान करती है तो वह भी उस फलको प्राप्त करती है, साथ ही सौभाग्य और आरोग्यसे सम्पन्न होकर गौरी-लोकमें पूजित होती है। इस प्रकार जो मनुष्य प्रसङ्गवश इस व्रतको पढ़ता, सुनता अथवा दूसरेको सुनाता है, वह कलियुगके पापोंसे मुक्त होकर पार्वती-लोकमें जाता है तथा जो मनुष्योंकी हित-कामनासे इस व्रतका अनुष्ठान करनेके लिये सम्मति देता है, वह इन्द्रके विमानमें स्थित होकर अक्षयकालतक नायक-नेताका पद प्राप्त करता है॥ २२-२९॥

इति श्रीमात्ये महापुराणे रसकल्याणिनीव्रतं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें रस-कल्याणिनी-व्रत नामक तिरसठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ६३ ॥

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