साधारण एवं आभ्युदयिक श्रद्धकी विधिका विवरण | saadhaaran evan aabhyudayik shraaddh vidhi ka vivaran

मत्स्य पुराण सत्रहवाँ अध्याय

साधारण एवं आभ्युदयिक श्रद्धकी विधिका विवरण

सूत उवाच

अतः परं प्रवक्ष्यामि विष्णुना यदुदीरितम् ।
श्राद्धं साधारणं नाम भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ॥ १

अयने विषुवे युग्मे सामान्ये चार्कसंक्रमे। 
अमावास्याष्टकाकृष्णपक्षे पञ्चदशीषु च ॥ २

आर्द्रामधारोहिणीषु द्रव्यब्राह्मणसङ्गमे।
गजच्छायाव्यतीपाते  विष्टिवैधृतिवासरे ॥ ३

वैशाखस्य तृतीया या नवमी कार्त्तिकस्य च। 
पञ्चदशी च माघस्य नभस्ये च त्रयोदशी ॥ ४

युगादयः स्मृता होता दत्तस्याक्षयकारिकाः । 
तथा मन्वन्तरादौ च देयं श्राद्धं विजानता । ५

सूतजी कहते हैं- ऋषियो। इसके पश्चात् अब मैं उस साधारण श्राद्धके विषयमें बतला रहा हूँ, जो भोग एवं मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला है तथा जिसका स्वयं भगवान् विष्णुने वर्णन किया है। सूर्यके उत्तरायण एवं दक्षिणायनके समय, विषुवयोग (सूर्यके तुला और मेष राशिपर संक्रमण करते समय), कृष्णपक्षको अष्टका (मार्गशीर्ष, पौष, फाल्गुन कृष्णपक्षकी सप्तमी, अष्टमी, नवमी-इन तीन तिथियोंका समुदाय), अमावास्या और पूर्णिमा तिथियोंमें, आर्द्रा मघा और रोहिणी नक्षत्रोंमें, द्रव्य और ब्राह्मणके मिलनेपर, गजच्छाया, व्यतिपात और वैधृति योगोंमें तथा विष्टि (भद्रा) करणमें पूर्वोक्त साधारण श्राद्ध किया जाता है। वैशाखमासकी शुक्लतृतीया (अक्षयतृतीया), कार्तिकमासकी शुक्लनवमी (अक्षयनवमी), माघमासकी पूर्णिमा और भाद्रपदमासके शुक्लपक्षकी त्रयोदशी- ये युगादि तिथियोंके नामसे प्रसिद्ध हैं। इनमें किया गया श्राद्ध अक्षय फलदायक होता है। इसी प्रकार विद्वान् श्राद्धकर्ताको मन्वन्तरोंकी आदि तिथियोंमें भी श्राद्ध कर्म करना चाहिये ॥ १-५ ॥

अश्वयुक्छुक्लनवमी द्वादशी कार्त्तिके तथा। 
तृतीया चैत्रमासस्य तथा भाद्रपदस्य च ॥ ६

फाल्गुनस्य ह्यमावास्या पौषस्यैकादशी तथा। 
आषाढस्यापि दशमी माघमासस्य सप्तमी ॥ ७

श्रवणस्याष्टमी कृष्णा तथाषाढी च पूर्णिमा।
कार्तिकी फाल्गुनी चैत्री ज्येष्ठपञ्चदशी सिता। 
मन्वन्तरादयश्चैता दत्तस्याक्षयकारिकाः ॥ ८

यस्यां मन्वन्तरस्यादौ रथमास्ते दिवाकरः । 
माघमासस्य सप्तम्यां सा तु स्याद् रथसप्तमी ॥ ९

पानीयमप्यत्र तिलैर्विमिश्र दद्यात् पितृभ्यः प्रयतो मनुष्यः ।
आद्धं कृतं तेन समाः सहस्त्रं रहस्यमेतत् पितरो वदन्ति ॥ १०

वैशाख्यामुपरागेषु तथोत्सवमहालये।
तीर्धायतनगोष्ठेषु दीपोद्यानगृहेषु च॥११

विविक्तेषूपलिप्तेषु श्रद्धं देयं विजानता। 
विप्रान् पूर्वे परे चाह्नि विनीतात्मा निमन्त्रयेत् ॥ १२

शीलवृत्तगुणोपेतान् वयोरूपसमन्वितान्। 
द्वौ दैवे त्रीस्तथा पित्र्ये एकैकमुभयत्र वा ॥ १३

भोजयेत् सुसमृद्धोऽपि न प्रसज्जेत विस्तरे। 
विश्वान् देवान् यवैः पुष्पैरभ्यर्ध्यासनपूर्वकम् ॥ १४

पूरयेत् पात्रयुग्मं तु स्थाप्य दर्भपवित्रकम्। 
शंनो देवीत्यपः कुर्याद् यवोऽसीति यवानपि ॥ १५

गन्धपुष्यैश्च सम्पूज्य वैश्वदेवं प्रति न्यसेत् । 
विश्वेदेवास इत्याभ्यामावाह्य विकिरेद् यवान् ॥ १६

गन्धपुष्पैरलङ्कृत्य या दिव्येत्यर्ध्वमुत्सृजेत् । 
अभ्यर्च्य ताभ्यामुत्सृष्टिं पितृकार्यं समारभेत् ॥ १७

आश्विनमासकी शुक्लनवमी, कार्तिकमासकी शुक्लद्वादशी, चैत्रमासकी शुक्लतृतीया, भाद्रपदमासकी शुक्लतृतीया, फाल्गुनमासकी अमावास्या, पौषमासकी शुक्ल एकादशी, आषाढ़‌मासकी शुक्लदशमी, माघमासको शुक्लससमी, श्रवणमासकी कृष्णाष्टमी, आषाढ्‌मासकी पूर्णिमा तथा कार्तिक, फाल्गुन, चैत्र और ज्येष्ठकी पूर्णिमा ये चौदह तिथियाँ चौदह मन्वन्तरोंकी आदि तिथियाँ हैं; इनमें किया गया श्राद्ध अक्षय फलकारक होता है। जिस मन्वन्तरकी आदि तिथि माघमासको शुक्लसप्तमीमें भगवान् सूर्य रथपर आरूढ़ होते हैं, वह सप्तमी रथसप्तमीके नामसे प्रसिद्ध है। इस तिथिमें यदि मनुष्य प्रयत्नपूर्वक अपने पितरोंको तिलमिश्रित जलमात्र प्रदान करता है अर्थात् तर्पण कर लेता है तो वह सहस्रों वर्षोंतक किये गये श्राद्धके समान फलदायक होता है। 

इसका रहस्य पितृगण स्वर्य बतलाते हैं। विद्वान् श्राद्धकर्ताको चाहिये कि वह वैशाखी पूर्णिमामें, सूर्य एवं चन्द्रग्रहणमें, विशेष उत्सवके अवसरपर, पितृपक्षमें, तीर्थस्थान, देव-मन्दिर एवं गोशालामें, दीपगृह और वाटिकामें एकान्तमें लिपी पुती हुई भूमिपर श्राद्ध-कार्य सम्पन्न करे। वह श्राद्धके एक या दो दिन पूर्व ही विनम्रभावसे शीलवान्, सदाचारी, गुणी, रूपवान् एवं अधिक अवस्थावाले ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे। देवकार्यमें दो और पितृ-कार्यमें तीन अथवा दोनोंमें एक-एक ही ब्राह्मणको भोजन कराना चाहिये। अतिशय समृद्धिशाली होनेपर भी विस्तारमें नहीं लगना चाहिये। उस समय विश्वेदेवोंको आसन प्रदान करके यव और पुष्पोंद्वारा उनकी अर्चना करे। फिर दो मिट्टीके पात्र (कोसा) रखकर उनमें कुशनिर्मित पवित्रक डाल दे और 'शं नो देवीरभीष्टये०' (वाज० सं० ३६। १२) इस मन्त्रको पढ़कर उन्हें जलसे भर दे और 'यवोऽसि०' (नारायणोपनिषद्) यह मन्त्र उच्चारणकर उनमें यव डाल दे। फिर गन्ध, पुष्प आदिसे पूजा करके उन्हें विश्वेदेवंकि उद्देश्यसे (उनके निकट) रख दे। फिर 'विश्वेदेवास०' (शु० यजु० ७। ३४) इत्यादि दो मन्त्रोंद्वारा विश्वेदेवोंका आवाहन करके (वेदीपर) जौ बिखेर दे। तत्पश्चात् गन्ध-पुष्प आदिसे अलंकृत करके 'या दिव्या आपः० (तै० सं०) इस मन्त्रसे उन्हें अर्घ्य प्रदान करे। इस प्रकार उनकी पूजा करके और उनसे निवृत्त होकर पितु कार्य आरम्भ करे ॥ ६-१७॥ 

दर्भासनं तु दत्त्वादौ त्रीणि पात्राणि पूरयेत्। 
सपवित्राणि कृत्वादी शन्नो देवीत्यपः क्षिपेत् ॥ १८

तिलोऽसीति तिलान् कुर्याद् गन्धपुष्पादिकं पुनः । 
पात्रं वनस्पतिमयं तथा पर्णमयं पुनः ॥ १९

जलजं वाथ कुर्वीत तथा सागरसम्भवम्। 
सौवर्ण राजतं वापि पितॄणां पात्रमुच्यते ॥ २०

रजतस्य कथा वापि दर्शनं दानमेव वा
राजतैर्भाजनैरेषामथवा रजतान्वितैः ।। २१

वार्यपि श्रद्धया दत्तमक्षयायोपकल्पते। 
तथार्घ्यपिण्डभोज्यादौ पितृणां राजतं मतम् ॥ २२

शिवनेत्रोद्भवं यस्मात् तस्मात् पितृवल्लभम्। 
अमङ्गलं तद् यत्नेन देवकार्येषु वर्जयेत् ॥ २३

एवं पात्राणि सङ्कल्प्य यथालाभं विमत्सरः । 
या दिव्येति पितुर्नाम गोत्रैर्दर्भकरो न्यसेत् ॥ २४

पितॄनावाहयिष्यामि कुर्वित्युक्तस्तु तैः पुनः । 
उशन्तस्त्वा तथायान्तु अभ्यामावाहयेत् पितृन् ॥ २५

या दिव्येत्यर्घ्यमुत्सृज्य दद्याद् गन्धादिकांस्ततः । 
हस्तात् तदुदकं पूर्व दत्त्वा संस्त्रवमादितः ।। २६

पितृपात्रे निधायाथ न्युब्जमुत्तरतो न्यसेत्। 
पितृभ्यः स्थानमसीति निधाय परिषेचयेत् ॥ २७

तत्रापि पूर्ववत् कुर्यादग्निकार्य विमत्सरः । 
उभाभ्यामपि हस्ताभ्यामाहृत्य परिवेषयेत् ॥ २८

प्रशान्तचित्तः सततं दर्भपाणिरशेषतः ।
गुणाब्यैः सूपशाकैस्तु नानाभक्ष्यैर्विशेषतः ॥ २९

अन्नं तु सदधिक्षीरं गोघृतं शर्करान्वितम्।
मांसं प्रीणाति वै सर्वान् पितृनित्याह केशवः ।। ३०

द्वौ मासी मत्स्यमांसेन त्रीन् मासान् हारिणेन तु।
औरभ्रेणाथ चतुरः शाकुनेनाथ पञ्च वै॥ ३१

षण्मासं छागमांसेन तृप्यन्ति पितरस्तथा ।
सप्त पार्षतमांसेन तथाष्टावेणजेन तु ॥ ३२

दश मासांस्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिषैः ।
शशकूर्मजमांसेन मासानेकादशैव तु ॥ ३३

संवत्सरं तु गव्येन पयसा पायसेन च।
रौरवेण च तृष्यन्ति मासान् पञ्चदशैव तु ॥ ३४

वार्बीणसस्य मांसेन तृप्तिर्द्वादशवार्षिकी।
कालशाकेन चानन्ता खड्गमांसेन चैव हि ।। ३५

यत् किञ्चिन्मधुसंमिश्र गोक्षीरं घृतपायसम्।
दत्तमक्षयमित्याहुः पितरः पूर्वदेवताः ॥ ३६

स्वाध्यायं श्रावयेत् पित्र्यं पुराणान्यखिलानि च।
ब्रह्मविष्ण्वर्करुद्राणां सूक्तानि विविधानि च ॥ ३७

इन्द्राग्निसोमसूक्तानि पावनानि स्वशक्तितः ।
बृहद्रथन्तरं तद्वज्येष्ठसाम सरौहिणम् ॥ ३८

तथैव शान्तिकाध्यायं मधुब्राह्मणमेव च।
मण्डलं ब्राह्मणं तद्वत् प्रीतिकारि तु यत् पुनः ॥ ३९

पितृ-श्राद्धमें) पहले कुशोंका आसन प्रदान करके तीन अर्घ्यपात्रोंको तैयार करना चाहिये। उनमें प्रथमतः कुशनिर्मित पवित्रक डालकर 'शं नो' देवी०' (शु० यजु० ३६। १२) इस मन्त्रसे उन्हें जलसे भर दे, पुनः 'तिलोऽसि०' इस मन्त्रसे उनमें तिल डालकर उन्हें (अमन्त्रक ही) गन्ध, पुष्प आदिसे पूरा कर दे। पितरोंके निमित्त प्रयुक्त किये गये ये पात्र काष्ठके या वृक्षके पत्तेके या जल एवं सागरसे उत्पन्न हुए पत्तेके अथवा सुवर्णमय या रजतमय होने चाहिये। (यदि चाँदीका पात्र देनेकी सामर्थ्य न हो तो) चाँदीके विषयमें कथनोपकथन, दर्शन अथवा दानसे ही कार्य सम्पन हो सकता है। पितरोंके निमित्त यदि चाँदीके बने हुए या चाँदीसे मढ़े हुए पात्रोंद्वारा श्रद्धापूर्वक जलमात्र भी प्रदान कर दिया जाय तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है। इसी प्रकार पितरंकि लिये अर्घ्य, पिण्ड और भोजनके पात्र भी चाँदीके ही प्रशस्त माने गये हैं। चूंकि चाँदी शिवजीके नेत्रसे उद्भूत हुई है, इसलिये यह पितरोंको परम प्रिय है; किन्तु देवकार्यमें इसे अशुभ माना गया है, इसलिये देवकार्यमें चाँदीको दूर रखना चाहिये। 

इस प्रकार यथाशक्ति पात्रोंकी व्यवस्था करके मत्सररहित हो कुश हाथमें लेकर 'या दिव्या०' (तै० स०) इस मन्त्रद्वारा अपने पिताके नाम और गोत्रका उच्चारण करते हुए (उन अर्घ्यपात्रोंको) रख दे। (फिर ब्राह्मणोंकी और देखकर यों कहे कि) 'मैं अपने पितरोंका आवाहन करूँगा।' इसके उत्तरमें ब्राह्मणलोग कहें- 'करो'। ऐसा कहे जानेपर उशन्तस्त्वा०' - एवं' आयान्तु नः०' - इन दोनों ऋचाओंद्वारा पितरोंका आवाहन करे। तत्पश्चात् 'या दिव्या०' इस मन्त्रसे उन्हें अर्घ्य प्रदान करके गन्ध, पुष्प आदिसे उनकी पूजा करे। फिर पिण्डदानसे पूर्व उस जलको हाथमें लेकर उसे पितृ-पात्रमें रखकर वेदीके अग्रभागमें उलटकर रख दे और 'पितृभ्यः स्थानमसि' - यह पितरोंके लिये स्थान है' ऐसा कहकर उसे जलसे सींच दे। इस कार्यमें भी पूर्ववत् सावधानीपूर्वक अग्रिकार्य सम्पन करे। 

तदुपरान्त हाथमें कुश लिये हुए प्रशान्तचित्तसे गुणकारी दाल, शाक आदिसे युक्त विविध प्रकारके खाद्य पदार्थोंको अपने दोनों हाथोंसे लाकर' पूर्णरूपसे परिवेषण करे (परोसे)। पदार्थोंमें दही, दूध और शक्करमिश्रित अन्न तथा गोघृत, गोदुग्ध और खीर आदि जो कुछ पितरोंके निमित्त दिया जाता है, वह अक्षय बतलाया गया है। पितरलोग गृहस्थोंके प्रथम देवता हैं, इसलिये श्राद्धके अवसरपर पितृसम्बन्धी सूक्तोंका स्वाध्याय (पाठ), सम्पूर्ण पुराण, ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और रुद्रके विभिन्न प्रकारके सूक्त, इन्द्र, अग्नि और सोमके पवित्र सूक्त, बृहद्रथन्तर, रौहिणसहित ज्येष्ठ साम, शान्तिकाध्याय, मधुब्राह्मण और मण्डलब्राह्मण आदि तथा इसी प्रकारके अन्यान्य प्रीतिवर्धक सूक्तों या स्तोत्रोंका स्वयं अथवा ब्राह्मणोंद्वारा पाठ करना-करवाना चाहिये ॥ १८-३९॥

विप्राणामात्मनश्चैव तत् सर्वं समुदीरयेत् ।
भुक्तवत्सु ततस्तेषु भोजनोपान्तिके नृप ॥ ४०

सार्ववणिकमन्नाद्यं सन्नीयाप्लाव्य वारिणा।
समुत्सृजेद् भुक्तवतामग्रतो विकिरेद् भुवि ॥ ४१

अग्निदग्धास्तु ये जीवा येऽप्यदग्धाः कुले मम।
भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु प्रयान्तु परमां गतिम् ॥ ४२

येषां न माता न पिता न बन्धु- र्न गोत्रशुद्धिर्न तथान्नमस्ति ।
तत्तृप्तयेऽन्नं भुवि दत्तमेतत् प्रयान्तु लोकेषु सुखाय तद्वत् ॥ ४३

असंस्कृतप्प्रमीतानां त्यक्तानां कुलयोषिताम्।
उच्छिष्ट भागधेयः स्याद् दर्भ विकिरयोश्च यः ।॥ ४४

तृप्ता ज्ञात्वोदकं दद्यात् सकृद् विप्रकरे तथा। 
उपलिप्ते महीपृष्ठे गोशकृन्सूत्रवारिणा ।। ४५

निधाय दर्भान् विधिवद् दक्षिणाग्रान् प्रयत्नतः । 
सर्ववर्णेन चान्नेन पिण्डांस्तु पितृयज्ञवत् ॥ ४६

अवनेजनपूर्व तु नामगोत्रेण मानवः । 
गन्धधूपादिकं दद्यात् कृत्वा प्रत्यवनेजनम् ।। ४७

जान्वाच्य सव्यं सव्येन पाणिनाथ प्रदक्षिणम् । 
पित्र्यमानीय तत् कार्य विधिवद् दर्भपाणिना ।। ४८

दीपप्रज्वालनं तद्वत् कुर्यात् पुष्पार्चनं बुधः । 
अथाचान्तेषु चाचम्य वारि दद्यात् सकृत् सकृत् ।। ४९

अथ पुष्पाक्षतान् पश्चादक्षय्योदकमेव च। 
सतिलं नामगोत्रेण दद्याच्छक्त्या च दक्षिणाम् ॥ ५०

गोभूहिरण्यवासांसि भव्यानि शयनानि च। 
दद्याद् यदिष्टं विप्राणामात्मनः पितुरेव च ॥ ५१

वित्तशाठ्येन रहितः पितृभ्यः प्रीतिमावहन् । 
ततः स्वधावाचनकं विश्वेदेवेषु चोदकम् ।। ५२

दत्त्वाशीः प्रतिगृहीयाद् विश्वेभ्यः प्राङ्‌मुखो बुधः । 
अघोराः पितरः सन्तु सन्त्वित्युक्तः पुनर्द्विजैः ॥ ५३

राजन् । उन ब्राहाणोंके भोजन कर चुकनेपर उनके भोजनके संनिकट ही सभी वर्णोंके लिये नियत किये हुए अन्न आदि पदार्थोंको लाकर उन्हें जलसे परिपूर्ण कर भोजन करनेवालोंके समक्ष ही यह कहते हुए पृथ्वीपर बिखेर दे- 'मेरे कुलमें (मृत्युके पश्चात्) जिन जीवोंका अग्रि-संस्कार हुआ हो अथवा जिनका अग्रि संस्कार नहीं भी हुआ हो, वे सभी पृथ्वीपर बिखेरे हुए इस अन्नसे तृप्त हों और परम गतिको प्राप्त हों। जिनकी न माता है, न जिनके पिता या भाई-बन्धु हैं, न तो जिनको गोत्र-शुद्धि हुई है तथा जिनके पास अन्न भी नहीं है, 

उनकी तृप्तिके निमित्त मैंने भूतलपर यह अन्न छींट दिया है, अतः वे भी (मेरे पितरोंकी भाँति) सुखभोगके लिये उत्तम लोकोंमें जायें। इसी प्रकार जो कुलवधुएँ बिना संस्कृत हुए ही मृत्युको प्राप्त हो गयी हैं अथवा जिनका परिवारवालोंने परित्याग कर दिया है, उनके लिये कुश-मूलमें लगा हुआ तथा विकिराका बचा हुआ उच्छिष्ट भाग ही हिस्सा है।' तदनन्तर ब्राह्मणोंको तृप्त जानकर एक बार उनके हाथोंपर जल डाल दे। फिर गोबर, गोमूत्र और जलसे लिपी हुई भूमिपर कुशोंको विधिपूर्वक दक्षिणाभिमुख बिछा दे। तब श्राद्धकर्ता पिताके नाम और गोत्रका उच्चारण करके पहले (कुशोंपर) अवनेजन दे (पिण्डकी वेदीपर कुशसे जल छिड़के), फिर पितृ-यज्ञकी भाँति सभी प्रकारके अन्नोंसे बने हुए पिण्डोंको उन कुशोंपर रख दे। 

पुनः गन्ध, पुष्प आदिसे पिण्ड-पूजा करके उनपर प्रत्यवनेजनका जल छोड़े और बायाँ घुटना टेककर बायें हाथसे प्रदक्षिणा करे; फिर कुश हाथमें लेकर विधिपूर्वक पितृकार्य सम्पन्न करे। बुद्धिमान् श्राद्धकर्ताको पूर्वोक्त विधिके अनुसार दीप जलाना एवं पुष्पोंद्वारा पूजन करना चाहिये। तत्पश्चात् ब्राह्मणोंके आचमन कर लेनेपर स्वयं भी आचमन करके उनके हाथोंपर एक- एक बार जल, पुष्प, अक्षत और तिलसहित अक्षय्योदक डालकर यथाशक्ति उन्हें दक्षिणा दे। पुनः कंजूसी छोड़कर पितरोंको प्रसन्न करते हुए गौ, पृथ्वी, सोना, वस्त्र, सुन्दर शय्याएँ तथा जो वस्तु अपने तथा पिताको अभीष्ट रही हो, वह सब ब्राह्मणोंको दान करना चाहिये। तदुपरान्त स्वधाका उच्चारण करके विद्वान् श्राद्धकर्ता पूर्वाभिमुख हो विश्वेदेवोंको जल प्रदान करके उनसे आशीर्वाद ग्रहण करे। उस समय ब्राहाणोंसे कहे- 'हमारे पितर सौम्य हों।' पुनः ब्राह्मण लोग कहें 'सन्तु हों ॥ ४०-५३॥

गोत्रं तथा वर्धतां नस्तथेत्युक्तश्च तैः पुनः। 
दातारो नोऽभिवर्धन्तामिति चैवमुदीरयेत् ॥ ५४

एताः सत्याशिषः सन्तु सन्त्वित्युक्तश्च तैः पुनः । 
स्वस्तिवाचनकं कुर्यात् पिण्डानुद्धृत्य भक्तितः ॥ ५५

उच्छेषणं तु तत् तिष्ठेद् बावद् विप्रा विसर्जिताः । 
ततो ग्रहबलिं कुर्यादिति धर्मव्यवस्थितिः ॥ ५६

उच्छेषणं भूमिगतमजिह्यस्यास्तिकस्य च। 
दासवर्गस्य तत् पित्र्यं भागधेयं प्रचक्षते ॥ ५७

पितृभिर्निर्मितं पूर्वमेतदाप्यायनं सदा। 
अपुत्राणां सपुत्राणां स्त्रीणामपि नराधिप ॥ ५८

ततस्तानग्रतः स्थित्वा परिगृह्योदपात्रकम्। 
वाजे वाज इति जपन् कुशाग्रेण विसर्जयेत् ॥ ५९

बहिः प्रदक्षिणां कुर्यात् पदान्यष्टावनुव्रजन्। 
बन्धुवर्गेण सहितः पुत्रभार्यासमन्वितः ॥ ६०

निवृत्य प्राणिपत्याथ पर्युक्ष्याग्निं समन्त्रवत्। 
वैश्वदेवं प्रकुर्वीत नैत्यर्क बलिमेव च ॥ ६१

ततस्तु वैश्वदेवान्ते सभृत्यसुतबान्धवः । 
भुञ्जीतातिथिसंयुक्तः सर्व पितृनिषेवितम् ॥ ६२

एतच्चानुपनीतोऽपि कुर्यात् सर्वेषु पर्वसु। 
श्राद्धं साधारणं नाम सर्वकामफलप्रदम् ॥ ६३

भार्याविरहितोऽप्येतत् प्रवासस्थोऽपि भक्तिमान्। 
शूद्रोऽप्यमन्त्रवत् कुर्यादनेन विधिना बुधः ॥ ६४

तृतीयमाभ्युदयिकं वृद्धिश्राद्धं तदुच्यते।
उत्सवानन्दसम्भारे यज्ञोद्वाहादिमङ्गले ॥ ६५

(पुनः यजमान कहे) 'हमारे गोत्रकी वृद्धि हो तथा हमारे दाताओंकी अभिवृद्धि हो।' यों कहे जानेपर पुनः वे ब्राह्मण कहें 'वैसा ही हो।' पुनः प्रार्थना करे-'ये आशीर्वाद सत्य हों।' ब्राह्मणलोग कहें- 'सन्तु (सत्य) हों'। पुनः उन ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराये और पिण्डोंको उठाकर भक्तिपूर्वक ग्रहबलि करे-यही धर्मकी मर्यादा है। जबतक निमन्त्रित ब्राह्मण विसर्जित किये जाते हैं, तबतक सभी वस्तुएँ उच्छिष्ट रहती हैं। कपटरहित एवं आस्तिक ब्राह्मणोंका जूठन और पितृकार्यमें भूमिपर बिखरे हुए अन्न नौकरोंके भाग हैं-ऐसा कहा जाता है। नरेश्वर। पितरोंद्वारा व्यवस्थित यह तर्पणरूप कार्य पुत्रहीनों, पुत्रवानों तथा स्त्रियोंके लिये भी है। तदनन्तर ब्राह्मणोंको आगे खड़ा करके जलपात्रको हाथमें लेकर 'वाजे बाजे'- यों कहते हुए कुशकि अग्रभागसे पितरोंका विसर्जन करे तथा बाहर जाकर पुत्र, स्त्री और भाई-बन्धुओंको साथ लेकर आठ पगतक उन ब्राह्मणोंके पीछे-पीछे चलकर उनकी प्रदक्षिणा करे। 

वहाँसे लौटकर अग्रिको प्रणाम करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक उसका पर्युक्षण करे तथा वैश्वदेव और नित्य बलि प्रदान करे। वैश्वदेवबलि समाप्त कर लेनेके बाद अपने नौकर-चाकर, पुत्र, भाई-बन्धु और अतिथियोंके साथ सभी प्रकारके पितृ-सेवित (जिन्हें पहले पितरोंको समर्पित किया जा चुका है) पदार्थोंका भोजन करे। इस सामान्य पार्वण नामक श्राद्धको, जो सभी प्रकारके मनोवाञ्छित फलोंका प्रदाता है, उपनयन संस्कारसे रहित व्यक्ति भी सभी पर्वोके अवसरपर कर सकता है। बुद्धिमान् पितृ-भक्त पुरुष पलीरहित अवस्थामें तथा परदेशमें स्थित रहनेपर भी इस श्राद्धका विधान कर सकता है। शूद्रको भी पूर्वोक्त विधिके अनुसार मन्त्ररहित ही इस श्राद्धको करनेका अधिकार है। ऋषियो। अब तीसरे प्रकारके पार्वण श्राद्धको, जो आभ्युदयिक वृद्धिवाद्धके नामसे कहा जाता है, बतला रहा हूँ। यह श्राद्ध किसी उत्सव, हर्ष संयोग, यज्ञ, विवाह आदिके शुभ अवसरपर किया जाता है॥ ५४-६५ ॥  

मातरः प्रथमं पूज्याः पितरस्तदनन्तरम् । 
ततो मातामहा राजन् विश्वेदेवास्तथैव च ॥ ६६

प्रदक्षिणोपचारेण दध्यक्षतफलोदकैः ।
प्राङ्मुखो निर्वपेत् पिण्डान् दूर्वया च कुशैर्युतान् ॥ ६७

सम्पन्नमित्यभ्युदये दद्यादयै द्वयोर्द्वयोः। 
युग्मा द्विजातयः पूज्या वस्त्रकार्तस्वरादिभिः ॥ ६८

तिलार्थस्तु यवैः कार्यों नान्दीशब्दानुपूर्वकः ।
माङ्गल्यानि च सर्वाणि वाचयेद् द्विजपुङ्गवैः ॥ ६९

एवं शूद्रोऽपि सामान्यवृद्धिश्राद्धेऽपि सर्वदा। 
नमस्कारेण मन्त्रेण कुर्यादामान्त्रतः सदा ॥ ७०

दानप्रधानः शूद्रः स्यादित्याह भगवान् प्रभुः । 
दानेन सर्वकामाप्तिरस्य संजायते यतः ॥ ७१

राजन् ! इस श्राद्धमें प्रथमतः माताओंकी पूजा करके तत्पश्चात् पितरोंकी पूजा करनी चाहिये। तदनन्तर मातामह (नाना) और विश्वेदेवोंके पूजनका विधान है। श्राद्धकर्ता पूर्वाभिमुख हो प्रदक्षिणा करके दही, अक्षत, फल और जल आदि सामग्री समेत दूर्वा और कुशोंसे संयुक्त पिण्डोंको समर्पित करे। इस आभ्युदयिक श्राद्धमें 'सम्पन्नम्' इस मन्त्रका उच्चारण करके दोनों प्रकारके पितरोंको अर्घ्य प्रदान करे। उस समय वस्त्र, सुवर्ण आदि सामग्रियोंसे दो ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये। तिलके स्थानपर 'नान्दी' शब्दके उच्चारणपूर्वक यवसे ही कार्य सम्पन्न करे और श्रेष्ठ विद्वान् ब्राह्मणोंद्वारा सभी प्रकारके माङ्गलिक सूक्तों अथवा स्तोत्रोंका पाठ कराये। इसी प्रकार इस सामान्य वृद्धिश्राद्ध में शूद्र भी सदा-सर्वदा नमस्काररूपी मन्त्रके उच्चारणसे तथा आमान्न- दानसे (बिना पके हुए कच्चे अन्नके दानसे) कार्य सम्पन्न कर सकता है। शूद्रको विशेषरूपसे दानप्रधान (दानमें तत्पर, दानशील) होना चाहिये; क्योंकि दानसे उसके सभी मनोरथोंकी पूर्ति हो जाती है-ऐसा सर्वसमर्थ भगवान्ने कहा है॥ ६६-७१ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे साधारणाभ्युदयकीर्तनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥ 

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें साधारणाभ्युदयश्राद्ध-वर्णन नामक सत्रहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १७॥

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