मत्स्य पुराण तीसवाँ अध्याय
सखियों सहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देव यानी के साथ बात चीत तथा विवाह
शौनक उनाच
अथ दीर्घेण कालेन देवयानी नृपोत्तम।
वनं तदैव निर्याता क्रीडार्थं वरवर्णिनी ।। १
तेन दासीसहस्त्रेण सार्धं शर्मिष्ठया तदा।
तमेव देशं सम्प्राप्ता यथाकामं चचार सा॥ २
ताभिः सखीभिः सहिता सर्वाभिर्मुदिता भृशम्।
क्रीडन्त्योऽभिरताः सर्वाः पिबन्त्यो मधु माधवम् ॥ ३
खादन्त्यो विविधान् भक्ष्यान् फलानि विविधानि च।
पुनश्च नाहुषो राजा मृगलिप्सुर्यदृच्छया ।॥ ४
तमेव देशं सम्प्राप्तो जललिप्सुः प्रतर्षितः ।
ददर्श देवयानीं च शर्मिष्ठां ताश्च योषितः ॥ ५
पिबन्त्यो ललनास्ताश्च दिव्याभरणभूषिताः ।
उपविष्टां च ददृशे देवयानी शुचिस्मिताम् ॥ ६
रूपेणाप्रतिमां तासां स्त्रीणां मध्ये वराङ्गनाम्।
शर्मिष्ठया सेव्यमानां पादसंवाहनादिभिः ॥ ७
शौनकजी कहते हैं नृपश्रेष्ठ तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् उत्तम वर्णवाली देवयानी फिर उसी वनमें विहारके लिये गयी। उस समय उसके साथ एक हजार दासियोंसहित शर्मिष्ठा भी सेवामें उपस्थित थी। वनमें उसी प्रदेशमें जाकर वह उन समस्त सखियोंके साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक इच्छानुसार विचरने लगी। वे सब वहाँ भाँति-भाँतिके खेल खेलती हुई आनन्दमें मग्र हो गयीं। वे कभी वासन्तिक पुष्पोंके मकरन्दका पान करतीं, कभी नाना प्रकारके भोज्य पदार्थोंका स्वाद लेतीं और कभी फल खाती थीं। इसी समय दैवेच्छासे नहुषपुत्र राजा ययाति पुनः शिकार खेलनेके लिये उसो स्थानपर आ गये। वे परिश्रम करनेके कारण अधिक थक गये थे और जल पीना चाहते थे। उन्होंने देवयानी, शर्मिष्ठा तथा अन्य युवतियोंको भी देखा। वे सभी पीनेयोग्य रसका पान कर रही थीं। राजाने पवित्र मुसकानवाली देवयानीको वहाँ परम सुन्दर आसनपर बैठी हुई देखा। उसके रूपको कहीं तुलना नहीं थी। वह सुन्दरी उन स्वियोंके मध्यमें बैठी हुई थी और शर्मिष्ठा उसकी चरणसेवा कर रही थी॥ १-७॥
मयातिरुवाच
द्वाभ्यां कन्यासहस्त्राभ्यां द्वे कन्ये परिवारिते।
गोत्रे च नामनी चैव द्वयोः पृच्छाम्यतो ह्यहम् ॥ ८
देवयान्युवाच
आख्यास्याम्यहमादत्स्व वचनं मे नराधिप।
शुक्रो नामासुरगुरुः सुतां जानीहि तस्य माम् ॥ ९
इयं च मे सखी दासी यत्राहं तत्र गामिनी।
दुहिता दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा वृषपर्वणः ॥ १०
ययातिने पूछा- दो हजार कुमारी सखियोंसे घिरी हुई कन्याओ। मैं आप दोनोंके गोत्र और नाम पूछ रहा हूँ। शुभे। आप दोनों अपना परिचय दें देवयानी बोली- महाराज। मैं स्वयं परिचय देती हूँ, आप मेरी बात सुनें। असुरोंके जो सुप्रसिद्ध गुरु शुक्राचार्य हैं, मुझे उन्हींकी पुत्री जानिये। यह दानवराज वृषपर्वाको पुत्री शर्मिष्ठा मेरी सखी और दासी है। मैं विवाह होनेपर जहाँ जाऊँगी, वहाँ यह भी साथ जायगी ॥ ८-१०॥
ययातिरुवाच
कथं तु ते सखी दासी कन्येयं वरवर्णिनी।
असुरेन्द्रसुता सुश्रूः परं कौतूहलं हि मे ॥११
ययाति बोले- सुन्दरि । यह असुरराजकी रूपवती कन्या सुन्दर भौंहोंवाली शर्मिष्ठा आपकी सखी और दासी किस प्रकार हुई? यह बताइये। इसे सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है ॥ ११ ॥
देवयान्युवाच
सर्वमेव नरव्याघ्र विधानमनुवर्तते ।
विधिना विहितं ज्ञात्वा मा विचित्रं मनः कृथाः ॥ १२
राजवद् रूपवेशी ते ब्राह्यीं वाचं बिभर्षि च।
किं नामा त्वं कुतश्चासि कस्य पुत्रश्च शंस मे ॥ १३
देवयानी बोली- नरश्रेष्ठ! सब लोग दैवके विधानका ही अनुसरण करते हैं। इसे भी भाग्यका विधान मानकर संतोष कीजिये। इस विषयकी विचित्र घटनाओंको न पूछिये। आपके रूप और वेश राजाके समान हैं और आप विशुद्ध संस्कृत भाषा बोल रहे हैं। मुझे बताइये, आपका क्या नाम है, आप कहाँसे आये हैं और किसके पुत्र हैं? ॥ १२-१३॥
ययातिरुवाच
ब्रह्मचर्येण वेदो मे कृत्स्नः श्रुतिपथं गतः ।
राजाहं राजपुत्रश्च ययातिरिति विश्रुतः ।। १४
देवयान्युवाच
केन चार्थेन नृपते होनं देशं समागतः।
जिघृक्षुर्वारि यत् किञ्चिदथवा मृगलिप्सया ॥ १५
ययातिरुवाच
मृगलिप्सुरहं भद्रे पानीयार्थमिहागतः ।
बहुधाप्यनुयुक्तोऽस्मि त्वमनुज्ञातुमर्हसि ॥ १६
ययातिने कहा- मैंने ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक सम्पूर्ण वेदका अध्ययन किया है। मैं राजा नहुषका पुत्र हूँ और इस समय स्वयं राजा हूँ। मेरा नाम ययाति है देवयानीने कहा- महाराज! आप किस कार्यसे बनके इस प्रदेशमें आये हैं? आप जल अथवा कमल लेना चाहते हैं या शिकारकी इच्छासे ही आये हैं? ययातिने कहा- भद्रे ! मैं एक हिंसक पशुको मारनेके लिये उसका पीछा कर रहा था, इससे बहुत थक गया हूँ और पानी पीनेके लिये यहाँ आया हूँ, अतः अब आप मुझे आज्ञा दीजिये ॥१४-१६ ॥
देवयान्युवाच
द्वाभ्यां कन्यासहस्त्राभ्यां दास्या शर्मिष्ठया सह ।
त्वदधीनास्मि भद्रं ते सखे भर्ता च मे भव ॥ १७
ययातिरुवाच
विद्धयौशनसि भद्रं ते न त्वदर्होऽस्मि भामिनि ।
अविवाह्याः स्म राजानो देवयानि पितुस्तव ॥ १८
देवयानीने कहा- सखे। आपका कल्याण हो। मैं दो हजार कन्याओं तथा अपनी सेविका शर्मिष्ठाके साथ आपके अधीन होती हूँ। आप मेरे पति हो जायें ययाति बोले- शुक्रनन्दिनी देवयानि! आपका भला हो। भामिनि! मैं आपके योग्य नहीं हूँ। क्षत्रियलोग आपके पितासे कन्यादान लेनेके अधिकारी नहीं हैं॥१७-१८॥
देवयान्युवाच
सृष्टं ब्रह्मणा क्षत्रं क्षत्रं ब्रह्मणि संश्रितम् ।
ऋषिश्च ऋषिपुत्रश्च नाहुषाद्य भजस्व माम् ॥ १९
ययातिरुवाच
एकदेहोद्भवा वर्णाश्चत्वारोऽपि वरानने।
पृथग्धर्माः पृथक्छौचास्तेषां वै ब्राह्मणो वरः ॥ २०
देवयान्युवाच
पाणिग्रहो नाहुषार्य न पुम्भिः सेवितः पुरा।
त्वमेनमग्रहीरग्रे वृणोमि त्वामहं ततः ॥ २१
कथं तु मे मनस्विन्याः पाणिमन्यः पुमान् स्पृशेत् ।
गृहीतमृषिपुत्रेण स्वयं वाप्युषिणा त्वया ॥ २२
देवयानीने कहा- नहुषनन्दन। ब्राह्मणसे क्षत्रिय जाति और क्षत्रियसे ब्राह्मण जाति मिली हुई है। आप राजर्षिके पुत्र हैं और स्वयं भी राजर्षि हैं; अतः आज मुझसे विवाह कीजिये ययाति बोले- वरानने। एक ही परमेश्वरके शरीरसे चारों वर्णोंकी उत्पत्ति हुई है, परंतु सबके धर्म और शौचाचार अलग-अलग हैं। ब्राह्मण उन सभी वर्षोंमें श्रेष्ठ है देवयानी ने कहा- नहुषकुमार ! नारीके लिये पाणिग्रहण एक धर्म है। पहले किसी भी पुरुषने मेरा हाथ नहीं पकड़ा था। सबसे पहले आपने ही मेरा हाथ पकड़ा था। इसलिये आपका ही मैं पतिरूपमें वरण करती हूँ। मैं मनको वशमें रखनेवाली स्त्री हूँ। आप जैसे राजर्षिकुमार अथवा राजर्षिद्वारा पकड़े गये मेरे हाथका स्पर्श अब दूसरा कोई कैसे कर सकता है?॥ १९-२२॥
ययातिरुवाच
कुद्धादाशीविषात् सर्पाज्वलनात् सर्वतोमुखात् ।
दुराधर्षतरो विप्रः पुरुषेण विजानता ॥ २३
देवमान्युनाच
कधमाशीविषात् सर्पाज्ज्वलनात् सर्वतोमुखात् ।
दुराधर्षतरो विप्र इत्यात्थ पुरुषर्षभ ॥ २४
ययाति बोले- देवि ! विज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह ब्राह्मणको क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्प अथवा सब ओरसे प्रज्वलित अग्निसे भी अधिक दुर्धर्ष एवं भयंकर समझे देवयानीने कहा- पुरुषप्रवर! ब्राह्मण विषधर सर्प और सब ओरसे प्रज्वलित होनेवाली अग्निसे भी दुर्धर्ष एवं भयंकर है, यह बात आपने कैसे कही ? ॥२३-२४॥
ययातिरुवाच
दशेदाशीविषस्त्वेकं शस्त्रेणैकश्च वध्यते।
हन्ति विप्रः सराष्ट्राणि पुराण्यपि हि कोपितः ॥ २५
दुराधर्षतरो विप्रस्तस्माद् भीरु मतो मम।
अतोऽदत्तां च पित्रा त्वां भद्रे न विवहाम्यहम् ॥ २६
देवयान्युवाच
दत्तां वहस्व पित्रा मां त्वं हि राजन् वृतो मया।
अयाचतो भयं नास्ति दत्तां च प्रतिगृह्णतः ॥ २७
ययाति बोले- भद्रे! सर्प एकको ही हँसता है, शस्त्रसे भी एक ही व्यक्तिका वध होता है; परंतु क्रोधमें भरा हुआ ब्राह्मण समस्त राष्ट्र और नगरका भी नाश कर सकता है। भीरु। इसीलिये मैं ब्राह्मणको अधिक दुर्धर्ष मानता हूँ। अतः जब तक आपके पिता आपको मेरे हवाले न कर दें, तबतक मैं आपसे विवाह नहीं करूँगा देवयानीने कहा- राजन् ! मैंने आपका वरण कर लिया है अब आप मेरे पिताके देनेपर ही मुझसे विवाह करें। आप स्वयं तो उनसे याचना करते नहीं हैं, उनके देनेपर ही मुझे स्वीकार करेंगे; अतः आपको उनके कोपका भय नहीं है। (राजन् ! दो घड़ी ठहर जाइये। मैं अभी पिताके पास संदेश भेजती हूँ। धाय। शीघ्र जाओ और मेरे ब्रहातुल्य पिताको यहाँ बुला ले आओ। उनसे यह भी कह देना कि देवयानीने स्वयंवरकी विधिसे नहुष- नन्दन राजा ययातिका पतिरूपमें वरण किया है।) ॥२५-२७॥
शौनक उवाच
त्वरितं देवयान्याथ प्रेषिता पितुरात्मनः ।
सर्व निवेदयामास धात्री तस्मै यथातथम् ॥ २८
श्रुत्वैव च स राजानं दर्शयामास भार्गवः ।
दृष्ट्वैवमागतं विप्रं ययातिः पृथिवीपतिः ॥ २९
ववन्दे ब्राह्मणं काव्यं प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः ।
तं चाप्यभ्यवदत् काव्यः साम्ना परमवल्गुना ।। ३०
शौनकजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार देवयानीने तुरन्त धायको भेजकर अपने पिताको संदेश दिया। धायने जाकर शुक्राचार्यसे सब बातें ठीक-ठीक बता दीं। सब समाचार सुनते ही शुक्राचार्यने वहाँ आकर राजाको दर्शन दिया। विप्रवर शुक्राचार्यको आया देख राजा ययातिने उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनम्रभावसे खड़े हो गये। तब शुक्राचार्यने भी राजाको परम मधुर वाणीसे सान्त्वना प्रदान की॥ २८-३०॥
देवयान्युवाच
राजायं नाहुषस्तात दुर्गमे पाणिमग्रहीत्।
नमस्ते देहि मामस्मै लोके नान्यं पतिं वृणे ॥ ३१
देवयानी बोली- तात! आपको (हाथ जोड़कर) नमस्कार है। ये नहुषपुत्र राजा ययाति हैं। इन्होंने संकटके समय मेरा हाथ पकड़ा था। आप मुझे इन्हींकी सेवामें समर्पित कर दें। मैं इस जगत्में इनके सिवा दूसरे किसी पतिका वरण नहीं करूँगी ॥ ३१ ॥
शुक्र उवाच
वृतोऽनया पतिर्वीर सुतया त्वं ममेष्टया।
गृहाणेमां मया दत्तां महिषीं नहुषात्मज ॥ ३२
शुक्राचार्यने कहा- वीर नहुषनन्दन। मेरी इस लाड़ली पुत्रीने तुम्हें पतिरूपमें वरण किया है, अतः मेरी दी हुई इस कन्याको तुम अपनी पटरानीके रूपमें ग्रहण करो ॥ ३२॥
ययातिरुवाच
अधर्मो मां स्पृशेदेवं पापमस्याश्च भार्गव।
वर्णसंकरतो ब्रह्मन्निति त्वां प्रवृणोम्यहम् ॥ ३३
ययाति बोले- भार्गव ब्रह्मन् । मैं आपसे यह वर माँगता हूँ कि इस विवाहमें यह प्रत्यक्ष दीखनेवाला वर्णसंकरजनित महान् अधर्म मेरा स्पर्श न करे ॥ ३३ ॥
शुक्र उवाच
अधर्मात् त्वां विमुञ्चामि वरं वरय चेप्सितम्।
अस्मिन् विवाहे त्वं श्लाघ्यो रहः पापं नुदामि ते ।। ३४
वहस्व भार्या धर्मेण देवयानीं शुचिस्मिताम्।
अनया सह सम्प्रीतिमतुलां समवाप्नुहि ।। ३५
इयं चापि कुमारी ते शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
सम्पूज्या सततं राजन् न चैनां शयने हृय ॥ ३६
शुक्राचार्यने कहा- राजन् । मैं तुम्हें अधर्मसे मुक्त करता हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो। विवाहको लेकर तुम प्रशंसाके पात्र बन जाओगे। मैं तुम्हारे सारे पायको दूर करता हूँ। तुम सुन्दर मुसकानवाली देवयानीको धर्मपूर्वक अपनी पत्नी बनाओ और इसके साथ रहकर अतुल सुख एवं प्रसनता प्राप्त करो। महाराज! वृषपर्वाकी पुत्री यह कुमारी शर्मिष्ठा भी तुम्हें समर्पित है। इसका सदा आदर करना, किंतु इसे अपनी सेजपर कभी न सुलाना ॥ ३४-३६ ॥
शौनक उवाच
एवमुक्तो ययातिस्तु शुकं कृत्वा प्रदक्षिणम्।
जगाम स्वपुरं हृष्टः सोऽनुज्ञातो महात्मना ॥ ३७
(तुम्हारा कल्याण हो। इस शर्मिष्वको एकान्तमें बुलाकर न तो इससे बात करना और न इसके शरीरका स्पर्श ही करना। अब तुम विवाह करके इसे (देवयानीको) अपनी पत्नी बनाओ। इससे तुम्हें इच्छानुसार फलकी प्राप्ति होगी।)
शौनकजी कहते हैं- शतानीक। शुक्राचार्यके ऐसा कहनेपर राजा ययातिने उनकी परिक्रमा की (और शास्त्रोक्त विधिसे मङ्गलमय विवाह-कार्य सम्पन्न किया)। पुनः उन महात्माकी आज्ञा ले नृपश्रेष्ठ ययाति बड़े हर्षक साथ अपनी राजधानीको चले गये ॥ ३७॥
इति श्रीमाल्ये महापुराणे सोमवंशे ययातिचरिते त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सोम-वंश-वर्णन-प्रसंगमें ययाति-चरित नामक तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥
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