मत्स्य पुराण अट्ठानबेवाँ अध्याय
संक्रान्ति-व्रत के उद्यापन की विधि
नन्दिकेश्वर उवाच
अथान्यदपि वक्ष्यामि संक्रान्त्युद्यापने फलम् ।
यदक्षयं परे लोके सर्वकामफलप्रदम् ॥ १
नन्दिकेश्वर बोले- नारदजी! अब मैं संक्रान्तिके समय किये जानेवाले उद्यापन-रूप अन्य व्रतका वर्णन कर रहा हूँ, जो इस लोकमें समस्त कामनाओंके फलका प्रदाता और परलोकमें अक्षय फलदायक है। १
अयने विषुवे वापि संक्रान्तिव्रतमाचरेत् ।
पूर्वेद्युरेकभुक्तेन दन्तधावनपूर्वकम्।
संक्रान्तिवासरे प्रातस्तिलैः स्त्रानं विधीयते ॥ २
रविसंक्रमणे भूमौ चन्दनेनाष्टपत्रकम् ।
पर्दा सकणिकं कुर्यात् तस्मिन्नावाहयेद् रविम् ॥ ३
कणिकायां न्यसेत् सूर्यमादित्यं पूर्वतस्ततः ।
नम उष्णार्चिषे याम्ये नमो शृङ्मण्डलाय च ॥ ४
नमः सवित्रे नैर्ऋत्ये वारुणे तपनं पुनः।
वायव्ये तु भगं न्यस्य पुनः पुनरर्थार्चयेत् ॥ ५
मार्तण्डमुत्तरे विष्णुमीशाने विन्यसेत् सदा।
गन्धमाल्यफलैर्भक्ष्यैः स्थण्डिले पूजयेत् ततः ॥ ६
द्विजाय सोदकुम्भं च घृतपात्रं हिरण्मयम्।
कमलं च यथाशक्त्या कारयित्वा निवेदयेत् ॥ ७
चन्दनोदकपुष्पैश्च देवायार्घ्य न्यसेद् भुवि।
विश्वाय विश्वरूपाय विश्वधाम्ने स्वयम्भुवे।
नमोऽनन्त नमो धात्रे ऋक्सामयजुषाम्पते ॥ ८
अनेन विधिना सर्वं मासि मासि समाचरेत् ।
वत्सरान्तेऽथवा कुर्यात् सर्व द्वादशधा नरः ॥ ९
सूर्यके उत्तरायण या दक्षिणायनके दिन अथवा विषुवयोगमें इस संक्रान्तिव्रतका अनुष्ठान करना चाहिये। इस व्रतमें संक्रान्तिके पहले दिन एक बार भोजन करके (रात्रिमें शयन करे।) संक्रान्तिके दिन प्रातः काल दाँतुन करनेके पश्चात् तिलमिश्रित जलसे स्नान करनेका विधान है। सूर्य-संक्रान्तिके दिन भूमिपर चन्दनसे कर्णिकासहित अष्टदल कमलकी रचना करे और उसपर सूर्यका आवाहन करे। कर्णिकामें 'सूर्याय नमः', पूर्वदलपर 'आदित्याय नमः', अग्निकोणस्थित दलपर 'उष्णार्चिषे नमः', दक्षिणदलपर 'ऋङ्मण्डलाय नमः', नैत्यकोणवाले दलपर 'सवित्रे नमः', पश्चिमदलपर 'तपनाय नमः', वायव्यकोणस्थित दलपर 'भगाय नमः', उत्तरदलपर 'मार्तण्डाय नमः' और ईशानकोणवाले दलपर 'विष्णवे नमः' से सूर्यदेवको स्थापित कर उनकी बारंबार अर्चना करे।
तत्पश्चात् वेदीपर भी चन्दन, पुष्पमाला, फल और खाद्य पदार्थोंसे उनकी पूजा करनी चाहिये। पुनः अपनी शक्तिके अनुसार सोनेका कमल बनवाकर उसे घृतपूर्ण पात्र और कलशके साथ ब्राह्मणको दान कर दे। तत्पश्चात् चन्दन और पुष्पयुक्त जलसे भूमिपर सूर्यदेवको अर्घ्य प्रदान करे। (अर्घ्यका मन्त्रार्थ इस प्रकार है-) 'अनन्त! आप ही विश्व हैं, विश्व आपका स्वरूप है, आप विश्वमें सर्वाधिक तेजस्वी, स्वयं उत्पन्न होनेवाले, धाता और ऋग्वेद, सामवेद एवं यजुर्वेदके स्वामी हैं, आपको बारंबार नमस्कार है।' इसी विधिसे मनुष्यको प्रत्येक मासमें सारा कार्य सम्पन्न करना चाहिये अथवा (यदि ऐसा करनेमें असमर्थ हो तो) वर्षकी समाप्तिके दिन यह सारा कार्य बारह बार करे (दोनोंका फल समान ही है) ॥ २-९॥
संवत्सरान्ते घृतपायसेन संतर्ण्य वहिं द्विजपुङ्गवाञ्श्च ।
कुम्भान् पुनर्द्वादशधेनुयुक्तान् सरत्नहैरण्यमयपद्मयुक्तान् ॥ १०
पयस्विनीः शीलवतीश्च दद्या- द्वैमैः शृङ्गै रौप्यखुरैश्च युक्ताः ।
गावोऽष्ट वा सप्त सकांस्यदोहा माल्याम्बरा वा चतुरोऽप्यशक्तः ।
दौर्गत्ययुक्तः कपिलामथैकां निवेदयेद् ब्राह्मणपुङ्गवाय ।। ११
हैमीं च दद्यात् पृथिवीं सशेषा- माकार्य रूप्यामथ वा च ताम्रीम्।
पेष्टीमशक्तः प्रतिमां विधाय सौवर्णसूर्येण समं प्रदद्यात्।
न वित्तशाठ्यं पुरुषोऽत्र कुर्यात् कुर्वन्नधो याति न संशयोऽत्र ॥ १२
यावन्महेन्द्रप्रमुखैर्नगेन्द्रः पृथ्वी च सप्ताब्धियुतेह तिष्ठेत् ।
तावत् स गन्धर्वगणैरशेषैः सम्पूज्यते नारद नाकपृष्ठे ॥ १३
ततस्तु कर्मक्षयमाप्य सप्त द्वीपाधिपः स्यात् कुलशीलयुक्तः ।
सृष्टेर्मुखेऽव्यङ्गवपुः सभार्यः प्रभूतपुत्रान्वयवन्दिताङ्घ्रिः ॥ १४
इति पठति श्रृणोति वाथ भक्त्या विधिमखिलं रविसंक्रमस्य पुण्यम् ।
मतिमपि च ददाति सोऽपि देवै रमरपतेर्भवने प्रपूज्यते च ॥ १५
एक वर्ष व्यतीत होनेपर घृतमिश्रित खीरसे अग्नि और श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको भलीभाँति संतुष्ट करे और बारह गौ एवं रत्नसहित स्वर्णमय कमलके साथ कलशोंको दान कर दे। वे गौएँ दूध देनेवाली, सीधी-सादी एवं पुष्प-माला और वस्त्रसे सुसज्जित हों, उनके सींग सोनेसे और खुर चाँदीसे मढ़े गये हों तथा उनके साथ काँसेकी दोहनी भी हो। जो इस प्रकारको बारह गौओंका दान करनेमें असमर्थ हो, उसके लिये आठ, सात अथवा चार ही गौ दान करनेका विधान है। जो दुर्गतिमें पड़ा हुआ निर्धन हो, वह किसी श्रेष्ठ ब्राह्मणको एक ही कपिला गौका दान कर सकता है। इसी प्रकार सोने, चाँदी अथवा ताँबेकी शेषनागसहित पृथ्वीकी प्रतिमा बनवाकर दान करना चाहिये। जो ऐसा करनेमें असमर्थ हो, वह आटेकी शेषसहित पृथ्वीको प्रतिमा बनाकर स्वर्णनिर्मित सूर्यके साथ दान कर सकता है।
पुरुषको इस दानमें कंजूसी नहीं करनी चाहिये। यदि करता है तो उसका अधःपतन हो जाता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। नारदजी! जबतक इस मृत्युलोकमें महेन्द्र आदि देवगणों, हिमालय आदि पर्वतों और सातों समुद्रोंसे युक्त पृथ्वीका अस्तित्व है, तबतक स्वर्गलोकमें अखिल गन्धर्वसमूह उस व्रतीकी भलीभाँति पूजा करते हैं। पुण्य क्षीण होनेपर वह सृष्टिके आदिमें उत्तम कुल और शीलसे सम्पन्न होकर भूतलपर सातों द्वीपोंका अधीश्वर होता है। वह सुन्दर रूप और सुन्दरी पत्नीसे युक्त होता है, बहुत-से पुत्र और भाई बन्धु उसके चरणोंको वन्दना करते हैं। इस प्रकार जो मनुष्य सूर्य-संक्रान्तिकी इस पुण्यमयी अखिल विधिको भक्तिपूर्वक पढ़ता या श्रवण करता है अथवा इसे करनेकी सम्मति देता है, वह भी इन्द्रलोकमें देवताओंद्वारा पूजित होता है॥ १०-१५॥
इति श्रीमाल्ये महापुराणे संक्रान्त्युद्यापनविधिर्नामाष्टनवतितमोऽध्यायः ॥ ९८ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें संक्रान्त्युद्यापनविधि नामक अट्ठानवेवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ९८ ॥
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