मत्स्य पुराण एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय
शङ्कर जी की आज्ञा से इन्द्र का त्रिपुर पर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्यु न्माली का वध, देवता ओं की विजय और दानवोंका युद्ध-विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
सूत उवाच
ततो रणे देवबलं नारदोऽभ्यगमत् पुनः ।
आगत्य चैव त्रिपुरात् सभायामास्थितः स्वयम् ॥ १
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। तदनन्तर नारदजी त्रिपुरसे लौटकर पुनः युद्धस्थलमें देवताओंकी सेना में सम्मिलित हो गये। वे स्वयं देव सभामें उपस्थित हुए। १
इलावृतमिति ख्यातं तद्वर्षं विस्तृतायतम्।
यत्र यज्ञो बलेर्वृत्तो बलिर्यत्र च संयतः ॥ २
देवानां जन्मभूमिर्या त्रिषु लोकेषु विश्रुता।
विवाहाः क्रतवश्चैव जातकर्मादिकाः क्रियाः ॥ ३
देवानां यत्र वृत्तानि कन्यादानानि यानि च।
रेमे नित्यं भवो यत्र सहायैः पार्षदैर्गणैः ॥ ४
लोकपालाः सदा यत्र तस्थुर्मेरुगिरौ यथा।
मधुपिङ्गलनेत्रस्तु चन्द्रावयवभूषणः ।
देवानामधिपं प्राह गणपांश्च महेश्वरः ॥ ५
वासवैतदरीणां ते त्रिपुरं परिदृश्यते।
विमानैश्च पताकाभिर्ध्वजैश्च समलङ्कृतम् ॥ ६
इदं वृत्तमिदं ख्यातं वह्निवद् भृशतापनम् ।
एते जना गिरिप्रख्याः सकुण्डलकिरीटिनः ॥ ७
प्राकारगोपुराट्टेषु कक्षान्ते दानवाः स्थिताः ।
इमे च तोयदाभासा दनुजा विकृताननाः ॥ ८
निर्गच्छन्ति पुरो दैत्याः सायुधा विजयैषिणः ॥ ९
स त्वं सुरशतैः सार्धं ससहायो वरायुधः ।
सुहृद्धिर्मामकैर्भृत्यैर्व्यापादय महासुरान् ॥ १०
अहं च रथवर्येण निश्चलाचलवस्थितः ।
पुरः पुरस्य रन्ध्रार्थी स्थास्यामि विजयाय वः ॥ ११
यदा तु पुष्ययोगेने एकत्वं स्थास्यते परम्।
तदेतन्निर्दहिष्यामि शरेणैकेन वासव ॥ १२
इलावृत्त नामसे विख्यात विस्तृत वर्ष, जहाँ बलिका यज्ञ सम्पन्न हुआ था तथा जहाँ बलि बाँधे गये थे, तीनों लोकोंमें देवताओंकी जन्मभूमिके रूपमें प्रसिद्ध है। उसी इलावृत्तमें देवताओंके जातकर्म आदि संस्कार तथा यज्ञ और कन्यादान आदि कर्म सम्पन्न हुए हैं। यहाँ भगवान् शङ्कर अपने पार्षदगणोंको साथ लेकर नित्य विहार करते हैं। यहाँ लोकपालगण मेरुगिरिकी तरह सदा निवास करते हैं। इसी स्थानपर जिनके नेत्र मधुके समान पीले रंगके हैं तथा जो द्वितीयाके चन्द्रमाको भूषणरूपमें धारण करते हैं, उन्हीं भगवान् महेश्वरने देवराज इन्द्र और अपने गणेश्वरोंसे इस प्रकार कहा- 'इन्द्र! तुम्हारे शत्रुओंका यह त्रिपुर दिखायी पड़ रहा है।
यह विमानों, पताकाओं और ध्वजोंसे सुशोभित है। यह सुदृढ़ है तथा इसके विषयमें ऐसी प्रसिद्धि है कि यह अग्निकी तरह अत्यन्त तापदायक है। इसके निवासी दानव किरीट-कुण्डल धारण किये उन्हीं पर्वतके समान दौख रहे हैं। इन दानवोंकी अङ्ग कान्ति बादलकी-सी है और इनके मुख टेढ़े-मेढ़े हैं। ये सभी परकोटों, फाटकों और अट्टालिकाओंपर तथा कक्षान्तमें स्थित हैं। (वह देखो) वे सभी दैत्य विजयकी अभिलाषासे हथियारोंसे सुसज्जित हो नगरसे बाहर निकल रहे हैं। इसलिये तुम सहायकोंसहित अपना श्रेष्ठ अस्त्र वज्र लेकर सैकड़ों देवताओं तथा मेरे भृत्योंके साथ आगे बढ़कर इन महासुरोंका संहार करो। मैं इस श्रेष्ठ रथपर निश्चल पर्वतकी तरह स्थित रहकर तुमलोगोंकी विजयके लिये त्रिपुरके सम्मुख उसके छिद्रकी खोजमें खड़ा रहूँगा। वासव। जब पुष्य नक्षत्रके योगके साथ ये तीनों पुर एक स्थानपर स्थित होंगे, तब मैं एक हो बाणसे इन्हें दग्ध कर डालूँगा ॥१-१२॥
इत्युक्तो वै भगवता रुद्रेणेह सुरेश्वरः ।
ययौ तत्त्रिपुरं जेतुं तेन सैन्येन संवृतः ॥ १३
प्रक्रान्तरथभीमैस्तैः सदेवैः पार्षदां गणैः।
कृतसिंहरवोपेतैरुद्गच्छद्भिरिवाम्बुदैः ॥ १४
तेन नादेन त्रिपुराद् दानवा युद्धलालसाः ।
उत्पत्य दुद्रुवुश्चेलुः सायुधाः खे गणेश्वरान् ॥ १५
अन्ये पयोधरारावाः पयोधरसमा बभुः ।
ससिंहनादं वादित्रं वादयामासुरुद्धताः ॥ १६
देवानां सिंहनादश्च सर्वतूर्यरवो महान्।
ग्रस्तोऽभूद् दैत्यनादैश्च चन्द्रस्तोयधरैरिव ॥ १७
चन्द्रोदयात् समुद्भूतः पौर्णमास इवार्णवः ।
त्रिपुरं प्रभवत् तद्वद् भीमरूपमहासुरैः ॥ १८
प्राकारेषु पुरे तत्र गोपुरेष्वपि चापरे।
अट्टालकान् समारुह्य केचिच्चलितवादिनः ॥ १९
स्वर्णमालाधराः शूराः प्रभासितवराम्बराः ।
केचिन्नदन्ति दनुजास्तोयमत्ता इवाम्बुदाः ॥ २०
इतश्चेतश्च धावन्तः केचिदुद्धृतवाससः ।
किमेतदिति पप्रच्छुरन्योऽन्यं गृहमाश्रिताः ॥ २१
किमेतन्त्रैर्न जानामि ज्ञानमन्तर्हितं हि मे।
ज्ञास्यसेऽनन्तरेणेति कालो विस्तारतो महान् ॥ २२
सोऽप्यसौ पृथ्वीसारं सिंहश्च रथमास्थितः ।
तिष्ठते त्रिपुरं पीड्य देहव्याधिरिवोच्छ्रितः ॥ २३
य एषोऽस्ति स एषोऽस्तु का चिन्ता सम्भ्रमे सति ।
एहि ह्यायुधमादाय क्व मे पृच्छा भविष्यति ॥ २४
इति तेऽन्योन्यमाविद्धा उत्तरोत्तरभाषिणः ।
आसाद्य पृच्छन्ति तदा दानवास्त्रिपुरालयाः ॥ २५
भगवान् रुद्रद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर देवराज इन्द्र उस विशाल सेनाके साथ उस त्रिपुरको जीतनेके लिये आगे बढ़े। चलते समय देवताओं और पार्षदगणोंक रथोंसे भीषण शब्द हो रहा था और वे सभी मेघकी गर्जनाके समान सिंहनाद कर रहे थे। उस शब्दको सुनकर दानवगण युद्धकी लालसासे अस्त्र लेकर त्रिपुरसे बाहर निकले और आकाशमें छलाँग मारते हुए गणेश्वरोंपर टूट पड़े। उनमें कुछ अन्य उद्दण्ड दानव, जो काले मेघके समान शोभा पा रहे थे, मेघकी तरह गर्जना कर रहे थे और सिंहनाद करते हुए बाजा बजा रहे थे। उस समय दैत्योंके सिंहनादसे देवताओंका सिंहनाद और सभी प्रकारके तुरही आदि बाजोंका महान् शब्द उसी प्रकार अभिभूत हो गया, जैसे बादलोंके बीच चन्द्रमा छिप जाते हैं। जैसे चन्द्रमाके उदय होनेपर पूर्णिमा तिथिको समुद्र वृद्धिगत हो जाता है, वैसे ही उन भयंकर रूपवाले महान् असुरोंसे त्रिपुर उद्दीत हो उठा।
उस पुरमें कुछ दानव परकोटोंपर तथा कुछ फाटकों और अट्टालिकाओंपर चढ़कर 'चलो, निकलो' ऐसा कहकर ललकार रहे थे। कुछ शूर-वीर दानव सुन्दर एवं श्रेष्ठ वस्त्र धारण किये हुए थे, उनके गलेमें स्वर्णकी जंजीर शोभा पा रही थी और वे जलसे भरे हुए बादलकी भाँति सिंहनाद कर रहे थे। कुछ वस्त्र फहराते हुए इधर-उधर दौड़ रहे थे और घरपर आकर परस्पर एक-दूसरेसे पूछ रहे थे-'यह क्या हो रहा है?' (दूसरा उत्तर देता था कि) 'क्या हो रहा है, यह तो मैं नहीं जानता; क्योंकि उसकी जानकारी मुझसे छिपी हुई है। कुछ समयके बाद तुम्हें भी ज्ञात हो जायगा। अभी तो बहुत समय शेष है। (देखो न) वहाँ पृथ्वीके सारभूत रथपर बैठा हुआ वह जो सिंह खड़ा है, वह त्रिपुरको उसी प्रकार पीड़ा दे रहा है, जैसे बढ़ी हुई व्याधि शरीरको कष्ट देती है। यह जो हो, सो रहे; ऐसे हलचलके उपस्थित होनेपर चिन्ता करना व्यर्थ है। अब हथियार लेकर मैदानमें आ जाओ, फिर मुझसे पूछनेकी आवश्यकता नहीं रह जायगी।' उसी समय त्रिपुरनिवासी दानव परस्पर एक-दूसरेको पकड़कर इसी प्रकार पूछते थे और परस्पर उत्तर-प्रत्युत्तर देते थे ॥ १३-२५॥
तारकाख्यपुरे दैत्यास्तारकाख्यपुरःसराः ।
निर्गताः कुपितास्तूर्णं बिलादिव महोरगाः ॥ २६
निर्धावन्तस्तु ते दैत्याः प्रमथाधिपयूथपैः ।
निरुद्धा गजराजानो यथा केसरियूथपैः ॥ २७
दर्पितानां ततश्चैषां दर्पितानामिवाग्निनाम्।
रूपाणि जज्वलुस्तेषामग्नीनामिव धम्यताम् ॥ २८
ततो बृहन्ति चापानि भीमनादानि सर्वशः ।
निकृष्य जघ्नुरन्योऽन्यमिषुभिः प्राणभोजनैः ।। २९
मार्जारमृगभीमास्यान् पार्षदान् विकृताननान् ।
दृष्ट्वा दृष्ट्वा हसत्रुच्चैर्दानवा रूपसम्पदाः ॥ ३०
बाहुभिः परिधाकारैः कृष्यतां धनुषां शराः ।
भटवर्मेषु विविशुस्तडागानीव पक्षिणः ॥ ३१
मृताः स्थ क्व नु यास्यध्वं हनिष्यामो निवर्तताम् ।
इत्येवं परुषाण्युक्त्वा दानवाः पार्षदर्षभान् ॥ ३२
बिभिदुः सायकैस्तीक्ष्णैः सूर्यपादा इवाम्बुदान् ।
प्रमथा अपि सिंहाक्षाः सिंहविक्रान्तविक्रमाः ।
खण्डशैलशिलावृक्षैर्विभिदुर्दैत्यदानवान् ॥ ३३
अम्बुदैराकुलमिव हंसाकुलमिवाम्बरम्।
दानवाकुलमत्यर्थं तत्पुरं सकलं बभौ ॥ ३४
विकृष्टचापा दैत्येन्द्राः सृजन्ति शरदुर्दिनम्।
इन्द्रचापाङ्कितोरस्का जलदा इव दुर्दिनम् ॥ ३५
इषुभिस्ताड्यमानास्ते भूयो भूयो गणेश्वराः ।
चक्कुस्ते देहनिर्यांसं स्वर्णधातुमिवाचलाः ॥ ३६
तेऽथ वृक्षशिलावज्रशूलपट्टिपरश्वधैः ।
चूर्ण्यन्तेऽभिहता दैत्याः काचाष्टङ्कहता इव ॥ ३७
तारकाख्यो जयत्येष इति दैत्या अघोषयन्।
जयतीन्द्रश्च रुद्रश्च इत्येव च गणेश्वराः ॥ ३८
बाहर निकलकर उन दैत्योंने देवसेनापर धावा बोल दिया, परंतु प्रमथगणोंके यूथपतियोंने उन्हें ऐसा रोक दिया, जैसे सिंहसमूह गजराजोंके दलको स्तम्भित कर देते हैं। उन गर्वीले दानवोंका रूप तो यों ही (क्रोधके कारण) अग्निकी तरह उद्दीप्त हो उठा था, इधर रोक दिये जानेपर वे धाँकी जाती हुई आगकी तरह जल उठे। फिर तो सब ओर भयंकर सिंहनाद होने लगा। दानवगण बड़े-बड़े धनुषोंपर प्रत्यञ्चा चढ़ाकर प्राण-हरण करनेवाले बाणोंद्वारा एक-दूसरेपर प्रहार करने लगे। प्रमथगणोंमें किन्हींके मुख बिलाव और किन्हींके मृगके समान भयंकर थे तथा किन्हींके मुख टेढ़े-मेढ़े थे। उन्हें देख-देखकर ठहाका मारकर सौन्दर्यशाली दानव हँसने लगे। परिषकी-सी आकारवाली भुजाओंद्वारा खींचे जाते हुए धनुषोंसे छूटे हुए बाण योद्धाओंके कवचोंमें उसी प्रकार घुस जाते थे, जैसे पक्षी तालाबोंमें प्रवेश करते हैं। उस समय दानवगण पार्षदयूथपतियोंको ललकारकर कह रहे थे-'अरे! अब तो तुमलोग मरे ही हो। हमारे हाथोंसे छूटकर कहाँ जाओगे! लौट आओ। हमलोग तुम्हें मार डालेंगे।' ऐसी कठोर बातें कहकर वे अपने तीखे बाणोंसे उन्हें इस प्रकार विदीर्ण कर रहे थे,
जैसे सूर्यकी किरणें बादलोंको भेदकर पार कर जाती हैं। उधरसे सिंहके समान पराक्रमी एवं सिंह-सदृश नेत्रोंवाले प्रमथगण भी शिलाओं, शिलाखण्डों और वृक्षोंके प्रहारसे दैत्यों और दानवोंको चूर्ण-सा कर दे रहे थे। उस समय बादलोंसे आच्छादित एवं हंसोंसे व्याप्त आकाशकी तरह वह सारा पुर दानवोंसे व्याप्त होकर अत्यन्त सुशोभित हो रहा था। जैसे इन्द्र-धनुषसे चिह्नित मध्यभागवाले बादल जलकी वृष्टि कर दुर्दिन (मेघाच्छन दिवस) उत्पन्न कर लेते हैं, उसी प्रकार दैत्येन्द्रगण अपने धनुषोंकी प्रत्यञ्चाको कानतक खींचकर बाणोंकी वर्षा कर अन्धकार उत्पन्न कर रहे थे। दानवोंके बाणोंसे बारम्बार घायल होनेके कारण गणेश्वरोंके शरीरोंसे रक्तकी धार बह रही थी, जो ऐसी प्रतीत होती थी, मानो पर्वतोंसे सुवर्णधातु निकल रही हो। उधर गणेश्वरोंद्वारा चलाये गये वृक्ष, शिला, वत्र, शूल, पट्टिश और कुठारके प्रहारसे दैत्यगण ऐसे चूर-चूर कर दिये जा रहे थे जैसे कुल्हाड़ी या छेनीके प्रहारसे काच छिन्न-भिन्न हो जाता है। उधर दैत्यगण 'यह देखो, तारकाक्ष जीत रहा है' ऐसी घोषणा कर रहे थे। तभी इधरसे गणेश्वर सिंहनाद करते हुए बोल रहे थे- 'देखो-देखो, इन्द्र और रुद्र विजयी हो रहे हैं'॥ २६-३८ ॥
वारिता दारिता बाणैर्योधास्तस्मिन् बलोभये।
निःस्वनन्तोऽम्बुसमये जलगर्भा इवाम्बुदाः ॥ ३९
करैश्छिन्नैः शिरोभिश्च ध्वजैश्छत्रैश्च पाण्डुरैः ।
युद्धभूमिर्भयवती मांसशोणितपूरिता ॥ ४०
व्योम्नि चोत्प्लुत्य सहसा तालमात्रं वरायुधैः ।
दृढाहताः पतन पूर्वं दानवाः प्रमथास्तथा ॥ ४१
सिद्धाश्चाप्सरसश्चैव चारणाश्च नभोगताः ।
दृढप्रहारहृषिताः साधु साध्विति चुक्कुशुः ॥ ४२
अनाहताश्च वियति देवदुन्दुभयस्तथा।
नदन्तो मेघशब्देन शरभा इव रोषिताः ॥ ४३
ते तस्मिस्त्रिपुरे दैत्या नद्यः सिन्धुपताविव।
विशन्ति क्रुद्धवदना वल्मीकमिव पन्नगाः ॥ ४४
तारकाख्यपुरे तस्मिन् सुराः शूराः समन्ततः ।
सशस्त्रा निपतन्ति स्म सपक्षा इव भूधराः ॥ ४५
उन दोनों सेनाओंमें बाणोंद्वारा रोके एवं घायल किये गये वीर इतने जोरसे सिंहनाद कर रहे थे जैसे वर्षाकालमें जलसे भरे हुए बादल गरजते हैं। कटे हुए हाथों, मस्तकों, पीले रंगकी पताकाओं और छत्रोंसे तथा मांस और रुधिरसे भरी हुई युद्धभूमि बड़ी भयावनी लग रही थी। दानव तथा प्रमथगण उत्तम अत्र धारण कर पहले तो सहसा ताड़-वृक्षकी ऊँचाई बराबर आकाशमें उछल पड़ते थे और पुनः सुदृढ़रूपसे घायल होकर भूतलपर गिर पड़ते थे। गगनमण्डलमें स्थित सिद्ध, अप्सरा और चारणोंके समूह (दानवोंपर) सुदृढ़ प्रहार होनेसे हर्षित होकर 'ठीक है, ठीक है', ऐसा कहते हुए चिल्लाने लगते थे। उस समय आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बिना चोट किये ही बज रही थीं।
उनसे मेघकी गर्जना तथा क्रुद्ध हुए शरभ (अष्टपदी) की दहाड़के समान शब्द हो रहे थे। दैत्यगण उस त्रिपुरमें इस प्रकार प्रविष्ट हो रहे थे जैसे नदियाँ समुद्रमें और क्रुद्ध मुखवाले सर्प बिमवटमें प्रवेश करते हैं। इधर अस्त्रधारी, शूरवीर देवगण तारकाक्षके उस नगरके ऊपर चारों ओर इस प्रकार छाये हुए थे, मानो पंखधारी पर्वत मँडरा रहे हों। गणेश्वर त्रिपुरमें तीन भागोंमें विभक्त होकर युद्ध कर रहे थे। उस समय विद्युन्माली और मय ये दोनों युद्धस्थलमें वृक्षकी भाँति डटे हुए थे। इसी बीच हिमालय-तुल्य कान्तिमान् दैत्येन्द्र विद्युन्मालौने अपना भयंकर परिघ उठाकर नन्दीपर प्रहार किया। दानवेन्द्रके उस परिघके आघातसे नन्दी विशेषरूपसे घायल हो गये और वे ऐसा चक्कर काटने लगे, जैसे पूर्वकालमें दैत्यराज मधुके प्रहारसे अव्यक्तस्वरूप भगवान् नारायण भ्रमित हो गये थे ॥ ३९-४८ ॥
योधयन्ति त्रिभागेन त्रिपुरे तु गणेश्वराः।
विद्युन्माली मयश्चैव मग्नौ च द्रुमवद्रणे ॥ ४६
विद्युन्माली स दैत्येन्द्रो गिरीन्द्रसदृशद्युतिः ।
आदाय परिघं घोरं ताडयामास नन्दिनम् ॥ ४७
स नन्दी दानवेन्द्रेण परिघेण दृढाहतः।
भ्रमते मधुनाऽव्यक्तः पुरा नारायणो यथा ॥ ४८
नन्दीश्वरे गते तत्र गणपाः ख्यातविक्रमाः ।
दुद्रुवुर्जातसंरम्भा विद्युन्मालिनमासुरम् ॥ ४९
घण्टाकर्णः शङ्कुकर्णो महाकालश्च पार्षदाः ।
ततश्च सायकैः सर्वान् गणपान् गणपाकृतीन् ॥ ५०
भूयो भूयः स विव्याध गणेश्वरमहत्तमान्।
भित्त्वा भित्त्वा रुरावोच्चैर्नभस्यम्बुधरो यथा ॥ ५१
तस्यारम्भितशब्देन नन्दी दिनकरप्रभः ।
संज्ञां लभ्य ततः सोऽपि विद्युन्मालिनमाद्रवत् ॥ ५२
रुद्रदत्तं तदा दीप्तं दीप्तानलसमप्रभम् ।
वज्रं वज्रनिभाङ्गस्य दानवस्य ससर्ज ह॥ ५३
तन्नन्दिभुजनिर्मुक्तं मुक्ताफलविभूषितम् ।
पपात वक्षसि तदा वज्र दैत्यस्य भीषणम् ॥ ५४
स वज्रनिहतो दैत्यो वज्रसंहननोपमः ।
पपात वज्राभिहतः शक्रेणाद्रिरिवाहतः ।। ५५
दैत्येश्वरं विनिहतं नन्दिना कुलनन्दिना।
चुकुशुर्दानवाः प्रेक्ष्य दुद्रुवुश्च गणाधिपाः ।। ५६
दुःखामर्षितरोषास्ते विद्युन्मालिनि पातिते।
द्रुमशैलमहावृष्टिं पयोदाः ससृजुर्यथा ॥ ५७
ते पीड्यमाना गुरुभिर्गिरिभिश्च गणेश्वराः ।
कर्तव्यं न विदुः किंचिद्वन्द्यमाधार्मिका इव ।। ५८
ततोऽसुरवरः श्रीमांस्तारकाख्यः प्रतापवान् ।
स तरूणां गिरीणां वै तुल्यरूपधरो बभौ ॥ ५९
भिन्नोत्तमाङ्गा गणपा भिन्नपादाङ्किताननाः ।
विरेजुर्भुजगा मन्त्रैर्वार्यमाणा यथा तथा ॥ ६०
नन्दीश्वरके घायल होकर रणभूमिसे हट जानेपर विख्यातपराक्रमी घण्टाकर्ण, शङ्कुकर्ण और महाकाल आदि प्रधान पार्षदगण क्रुद्ध होकर एक साथ राक्षस विद्युन्मालीके ऊपर टूट पड़े। तब विद्युन्मालीने उन सभी गणेश्वरोंको जो गणेश-सदृश आकृतिवाले तथा गणेश्वरोंमें प्रधान थे, बाणोंद्वारा लगातार बींधना आरम्भ किया। वह उन्हें घायल करके इतने उच्च स्वरसे सिंहनाद करता था मानो आकाशमें बादल गरज रहे हों। उसके उस सिंहनादसे सूर्य-सरीखे प्रभाशाली नन्दीकी मूर्च्छा भंग हो गयी, तब वे भी विद्युन्मालीपर चढ़ धाये। उस समय उन्होंने रुद्रद्वारा दिये गये एवं प्रज्वलित अग्रिके समान प्रभाशाली चमकते हुए वज्रको वज्रतुल्य कठोर शरीरवाले दानवके ऊपर चला दिया। तब नन्दीके हाथसे छूटा हुआ मोतियोंसे विभूषित वह भयंकर वज्र विद्युन्माली के वक्षःस्थलपर जा गिरा।
फिर तो वज्रके समान ठोस शरीरवाला दैत्य विद्युन्माली उस वज्रसे आहत होकर उसी प्रकार धराशायी हो गया, मानो इन्द्रके प्रहार से पर्वत गिर पड़ा हो। अपने कुल (वर्ग) को आनन्दित करनेवाले नन्दीद्वारा दैत्यराज विद्युन्मालीको मारा गया देखकर दानवलोग चीत्कार करने लगे। तब गणेश्वरोंने उनपर धावा बोल दिया। विद्युन्मालीके मारे जानेपर दानव दुःख और अमर्षके कारण क्रोधसे भरे हुए थे। वे गणेश्वरोंके ऊपर बादलकी भाँति वृक्षों और पर्वतोंकी महान् वृष्टि करने लगे। विशाल पर्वतोंके प्रहारसे पीड़ित हुए सभी गणेश्वर ऐसे किंकर्तव्यविमूढ हो गये, जैसे अधार्मिक जन वन्दनीय गुरुजनोंके प्रति हो जाते हैं। तदनन्तर असुलायक प्रतापी श्रीमान् तारकाक्ष वृक्षों एवं पर्वतोंक समान रूप धारण करके रणभूमिमें उपस्थित हुआ ॥ ४९-६० ॥
मयेन मायावीर्येण वध्यमाना गणेश्वराः ।
भ्रमन्ति बहुशब्दालाः पञ्जरे शकुनो इव ॥ ६१
तथासुरवरः श्रीमांस्तारकाख्यः प्रतापवान्।
ददाह च बलं सर्वे शुष्केन्धनमिवानलः ॥ ६२
तारकाख्येण वार्यन्ते शरवर्षैस्तदा गणाः ।
मयेन मायानिहतास्तारकाख्येण चेषुभिः ॥ ६३
गणेशा विधुरा जाता जीर्णमूला यथा द्रुमाः ॥ ६४
भूयः सम्पतते चाग्निग्रहान् ग्राहान् भुजङ्गमान्।
गिरीन्द्रांश्च हरीन् व्याघ्नान् वृक्षान् सृमरवर्णकान् ।। ६५
शरभानष्टपादांश्च आपः पवनमेव च।
मयो मायाबलेनैव पातयत्येव शत्रुषु ॥ ६६
ते तारकाक्षेण मयेन मायया सम्मुह्यमाना विवशा गणेश्वराः ।
न शक्नुवंस्ते मनसापि चेष्टितुं यथेन्द्रियार्थों मुनिनाभिसंयताः ॥ ६७
महाजलाग्न्यादिसकुञ्जरोरगै-हरीन्द्रव्याघ्रक्षंतरक्षुराक्षसैः
विबाध्यमानास्तमसा विमोहिताः समुद्रमध्येष्विव गाधकाङ्गिणः ॥ ६८
सम्मर्धमानेषु गणेश्वरेषु संनर्दमानेषु सुरेतरेषु ।
ततः सुराणां प्रवराभिरक्षितुं रिपोर्बलं संविविशुः सहायुधाः ॥ ६९
यमो गदास्त्रो वरुणश्च भास्कर-स्तथा कुमारोऽमरकोटिसंयुतः ।
स्वयं च शक्रः सितनागवाहनः कुलीशपाणिः सुरलोकपुङ्गवः ॥ ७०
स चोडुनाथः ससुतो दिवाकरः स सान्तकस्व्यक्षपतिर्महाद्युतिः ।
एते रिपूणां प्रवराभिरीक्षितं तदा बलं संविविशुर्मदोद्धताः ॥ ७१
यथा वनं दर्पितकुञ्जराधिया यथा नभः साम्बुधरं दिवाकरः ।
यथा च सिंहैर्विजनेषु गोकुलं तथा बलं तत्त्रिदशैरभिद्रुतम् ॥ ७२
कृतप्रहारातुरदीनदानवं ततस्त्वभज्यन्त बलं हि पार्षदाः ।
स्वर्योतिषां ज्योतिरिवोष्मवान् हरि-र्वथा तमो घोरतरं नराणाम् ॥ ७३
उस समय बहुतेरे गणेश्वरोंके मस्तक फट गये थे, किन्हींके पैर टूट गये थे और कुछके मुखोंपर घाव लगा था। वे सभी मन्त्रोंद्वारा रोके गये सर्पकी तरह शोभा पा रहे थे। मायावी मयद्वारा मारे जाते हुए गणेश्वर पिंजरे में बंद पक्षीकी तरह अनेकों प्रकारका शब्द करते हुए चक्कर काट रहे थे। तत्पश्चात् असुरश्रेष्ठ प्रतापी श्रीमान् तारकाक्षने पार्षदोंकी सारी सेनाको उसी प्रकार जलाना प्रारम्भकिया, जैसे आग सूखे इन्धनको जला देती है। तारकाक्ष बाणोंकी वर्षा करके पार्षदगणोंको रोक देता था। इस प्रकार मयकी माया और तारकाक्षके बाणोंद्वारा गणेश्वर मारे जा रहे थे। वे पुरानी जड़वाले वृक्षोंकी तरह व्याकुल हो गये। पुनः मयने अपनी मायाके बलपर शत्रुओंके ऊपर अग्निकी वर्षा की तथा ग्रह, मकर, सर्प, विशाल पर्वत सिंह, बाघ, वृक्ष, काले हिरन और आठ पैरोंवाले शरभों (गैंडों) को भी गिराया, जलकी घनघोर वृष्टि की और झंझावातका भी प्रकोप उत्पन्न किया। इस प्रकार तारकाक्ष और मयकी मायासे मोहित होकर वे गणेश्वर मनसे भी चेष्टा करनेमें असमर्थ हो गये।
वे ऐसे निरुद्ध हो गये जैसे मुनियोंद्वारा रोके गये इन्द्रियोंके विषय। उस समय प्रमथगण जल और अग्रिकी महान् वृष्टि, हाथी, सर्प, सिंह, व्याघ्र, रीछ, चीते और राक्षसोंद्वारा सताये जा रहे थे। मायाका इतना घना अन्धकार प्रकट हुआ, जिसमें वे ऐसे विमोहित हो गये, जैसे समुद्रके मध्यमें जलकी थाह लगानेवाले विमूढ़ हो जाते हैं। इस प्रकार गणेश्वर पीड़ित किये जा रहे थे और दानवगण सिंहनाद कर रहे थे। इसी बीच प्रधान प्रधान देवता अस्त्र धारणकर गणेश्वरोंकी रक्षा करनेके लिये शत्रुसेनामें प्रविष्ट हुए। उस अवसरपर गदाधारी यमराज, वरुण, भास्कर, एक करोड़ देवताओंके साथ कुमार कार्तिकेय, श्वेत हाथी ऐरावतपर सवार हो हाथमें वज्र लिये हुए स्वयं देवराज इन्द्र, चन्द्रमा और अपने पुत्र शनैश्चरके साथ सूर्य तथा अन्तकसहित परम तेजस्वी त्रिलोचन रुद्र- ये सभी मदोद्धत देवता उत्कृष्ट बलवानोंद्वारा सुरक्षित शत्रुओंकी सेनामें प्रविष्ट हुए। जिस प्रकार मतवाले गजेन्द्र वनमें, बादलोंसे घिरे हुए आकाशमें सूर्य और निर्जन स्थानमें स्थित गोष्ठमें सिंह प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार देवताओंने उस सेनापर धावा बोल दिया। फिर तो पार्षदगणोंने शस्त्रप्रहार करके दानवोंको ऐसा व्याकुल और दीन कर दिया कि उनका वह विशाल सेना-व्यूह उसी प्रकार छिन्न-भिन्न हो गया जैसे स्वर्गीय ज्योतिः पुओंके महान् ज्योति उष्णरश्मि सूर्य मनुष्योंके अन्धकारका विनाश कर देते हैं तथा चन्द्रमा रात्रिके घने अन्धकारका प्रशमन कर देते हैं॥ ६१-७३॥
विशान्तयामास यथा सदैव निशाकरः संचितशार्वरं तमः ।
ततोऽपकृष्टे च तमः प्रभावे हास्त्रप्रभावे च विवर्धमाने ।। ७४
दिग्लोकपालैर्गणनायकैश्च कृतो महान् सिंहरवो मुहूर्तम् ।
संख्ये विभग्ना विकरा विपादा-श्छिन्नोत्तमाङ्गाः शरपूरिताङ्गाः ॥ ७५
देवेतरा देववरैर्विभिन्नाः सीदन्ति पङ्केषु यथा गजेन्द्राः।
वज्रेण भीमेन च वज्रपाणिः शक्त्या च शक्त्या च मयूरकेतुः ॥ ७६
दण्डेन चोग्रेण च धर्मराजः पाशोन चोग्रेण च वारिगोप्ता।
शूलेन कालेन च यक्षराजो वीर्येण तेजस्वितया सुकेशः ॥ ७७
गणेश्वरास्ते सुरसंनिकाशाःपूर्णाहुतीसिक्तशिखिप्रकाशाः।
उत्सादयन्ते दनुपुत्रवृन्दान् यथेव इन्द्राशनयः पतन्त्यः ॥ ७८
मयस्तु देवान् परिरक्षितार- मुमात्मजं देववरं कुमारम्।
शरेण भित्वा स हि तारकासुतं स तारकाख्यासुरमाबभाषे ॥ ७९
कृत्वा प्रहारं प्रविशामि वीरं पुरं हि दैत्येन्द्र बलेन युक्तः।
विश्राममूर्जस्करमप्यवाप्य पुनः करिष्यामि रणं प्रपन्नै: ॥ ८०
वयं हि शस्त्रक्षतविश्षिताङ्का विशीर्णशस्त्रध्वजवर्मवाहाः।
जयैषिणस्ते जयकाशिनश्च गणेश्वरा लोकवराधिपाश्च॥ ८९
मयस्य श्रुत्वा दिवि तारकाख्यो वचोऽभिकाङ्न् नन् क्षतजोपमा।
विवेश तूर्ण त्रिपुरं दितेः सुतैः सुतैरदित्या युधि वृद्धहर्धेः ॥ ८२
ततः सशङ्कानकभेरिभीमं ससिंहनादं हरसैन्यमाबभौ ।
मयानुगं घोरगभीर गह्वरं यथा दहिमाद्रेर्गजसिंहनादितम्॥ ८३
तदनन्तर अन्धकारका प्रभाव नष्ट हो जाने और अस्त्रका प्रभाव बढ़नेपर दिक्पालों, लोकपालों और गणनायकोंने दो घड़ीतक महान् सिंहनाद किया। फिर तो वे युद्धमें दानवोंको विदीर्ण करने लगे। वहाँ किन्होंके हाथ कट गये तो किन्हींके पैर खण्डित हो गये, किन्होंके मस्तक कट गये तो किन्हींके शरीर बाणोंसे घिर गये। इस प्रकार देवश्रेष्ठोंद्वारा घायल किये गये दानव ऐसा कष्ट पा रहे थे, जैसे दलदलमें फैसे हुए गजराज विवश हो जाते हैं। उस समय वज्रपाणि इन्द्र अपने भयंकर वक्रसे, मयूरध्वज स्वामिकार्तिक शक्तिपूर्वक अपनी शक्तिसे, धर्मराज अपने भयंकर दण्डसे, वरुण अपने उग्र पाशसे और पराक्रम एवं तेजसे सम्पन्न सुन्दर बालोंवाले यक्षराज कुबेर अपने काल-सदृश शूल से प्रहार कर रहे थे। देवताओंके समान तेजस्वी एवं पूर्णाहुतिसे सिक्त हुई अग्निके समान प्रकाशमान गणेश्वर दानववृन्दपर उसी प्रकार झपटते थे मानो बिजलियाँ गिर रही हों।
तत्पश्चात् मयने देवताओं की रक्षामें तत्पर पार्वती-नन्दन एवं तारका पुत्र सर्वश्रेष्ठ कुमार कार्तिकेयको बाणसे घायल कर तारकाक्षसे कहा- 'दैत्येन्द्र ! हमलोगोंके शरीर शस्त्रोंके आघातसे क्षत-विक्षत हो गये हैं तथा हमारे शस्त्रास्त्र, ध्वज, कवच और वाहन आदि भी छिन्न-भिन्न हो गये हैं। इधर गणेश्वरों तथा लोकनायक देवोंके मनमें जयकी अभिलाषा विशेषरूपसे जागरूक हो उठी है, साथ ही वे विजयी भी हो रहे हैं, अतः अब में इस वीरपर प्रहार करके सेनासहित नगरमें प्रवेश कर जाता हूँ और वहाँ कुछ देर विश्राम कर शक्ति सम्पन्न होकर पुनः अनुचरोंसहित युद्ध करूँगा।' मयकी ऐसी बात सुनकर उसका पालन करता हुआ रुधिर सरीखे लाल नेत्रोंवाला तारकाक्ष तुरंत ही आकाशमार्गसे दिति-पुत्रोंके साथ त्रुिपरमें प्रवेश कर गया। उस समय देवगण रणभूमिमें हर्षके मारे उछल पड़े। फिर तो मयका पीछा करते हुए भगवान् शर्करके सैनिक विशेष शोभा पा रहे थे। उनके शङ्ख, नगाड़े और भेरियाँ बजने लगीं तथा वे सिंहनाद करने लगे। उस समय ऐसा भीषण शब्द हो रहा था मानो हिमालय पर्वतकी भयंकर एवं गहरी गुफामें गजराज और सिंह दहाड़ रहे हों ॥ ७४-८३॥
इति श्रीमात्ये महापुराणे त्रिपुरदाहे इलावृते देवदानवयुद्धवर्णने प्रहारकृतं नामपञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३५ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके त्रिपुरदाहप्रसङ्गमें इलावृतमें देव-दानव युद्ध-प्रसङ्ग में परस्पर प्रहार नामक एक सौ पैंतीसर्वां अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १३५ ॥
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