मत्स्य पुराण सतहत्तरवाँ अध्याय
शर्करा सप्तमी व्रत की विधि और उसका माहात्म्य
ईश्वर उवाच
शर्करासप्तमीं वक्ष्ये तद्वत् कल्मषनाशिनीम्।
आयुरारोग्यमैश्वर्यं ययानन्तं प्रजायते ॥ १
ईश्वरने कहा- ग्रहान् । अब मैं उसी प्रकार पापनाशिनी शर्करासप्तमीका वर्णन कर रहा हूँ, जिसका अनुष्ठान करनेसे मनुष्यको अनन्त आयु, आरोग्य और ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है॥ १
माधवस्य सिते पक्षे सप्तम्यां नियतव्रतः ।
प्रातः स्त्रात्वा तिलैः शुक्लैः शुक्लमाल्यानुलेपनैः ॥ २
स्थण्डिले पद्ममालिख्य कुङ्कुमेन सकणिकम् ।
तस्मिन् नमः सवित्रे तु गन्धधूपौ निवेदयेत् ॥ ३
स्थापयेदुदकुम्भं च शर्करापात्रसंयुतम्।
शुक्लवस्त्रैरलङ्कृत्य शुक्लमाल्यानुलेपनैः ।
सुवर्णेन समायुक्तं मन्त्रेणानेन पूजयेत् ॥ ४
विश्ववेदमयो यस्माद् वेदवादीति पठ्यसे ।
त्वमेवामृतसर्वस्वमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥ ५
पञ्चगव्यं ततः पीत्वा स्वपेत् तत्पार्श्वतः क्षितौ।
सौरसूक्तं जपंस्तिष्ठेत् पुराणश्रवणेन वा ॥ ६
अहोरात्रे गते पश्चादष्टम्यां कृतनैत्यकः ।
तत् सर्वं वेद विदुषे ब्राह्मणाय निवेदयेत् ॥ ७
भोजयेच्छक्तितो विप्राञ्शर्कराघृतपायसैः ।
भुञ्जीतातैललवणं स्वयमप्यथ वाग्यतः ॥ ८
अनेन विधिना सर्व मासि मासि समाचरेत्।
संवत्सरान्ते शयनं शर्कराकलशान्वितम् ॥ ९
सर्वोपस्करसंयुक्तं तथैकां गां पयस्विनीम्।
गृहं च शक्तिमान् दद्यात् समस्तोपस्करान्वितम् ॥ १०
सहस्त्रेणाथ निष्काणां कृत्वा दद्याच्छतेन वा।
दशभिर्वाथ निष्केण तदर्धेनापि शक्तितः ॥ ११
सुवर्णाश्वः प्रदातव्यः पूर्ववन्मन्त्रवादनम् ।
न वित्तशाठ्यं कुर्वीत कुर्वन् दोषं समश्नुते ॥ १२
व्रतनिष्ठ पुरुष वैशाखमासमें शुक्लपक्षकी सप्तमी तिथिको प्रातःकाल श्वेत तिलोंसे युक्त जलसे नान करके श्वेत पुष्पोंकी माला और श्वेत चन्दन धारण कर ले। फिर वेदीपर कुङ्कुमसे कर्णिकासहित कमलका चित्र बनावे। उसपर 'सवित्रे नमः' कहकर गन्ध और धूप निवेदित करे। फिर उसपर शक्करसे परिपूर्ण पात्रसहित जलपूर्ण कलश स्थापित करे, उसपर स्वर्णमयी मूर्ति रख दे और उसे श्वेत वस्त्रसे सुशोभित करके श्वेत पुष्पमाला और चन्दनद्वारा वक्ष्यमाण-मन्त्रके उच्चारणपूर्वक पूजन करे। (वह मन्त्र इस प्रकार है- 'सूर्यदेव । विश्व और वेद आपके स्वरूप हैं, आप वेदवादी कहे जाते हैं और सभी प्राणियोंके लिये अमृततुल्य फलदायक हैं, अतः मुझे शान्ति प्रदान कीजिये।' तत्पश्चात् पञ्चगव्य पान कर उसी कलशके पार्श्वभागमें भूमिपर शयन करे। उस समय सूर्यसूक्तका जप अथवा पुराणका श्रवण करते रहना चाहिये।
इस प्रकार दिन-रात बीत जानेपर अष्टमीके दिन प्रातःकाल नित्यकर्मसे निवृत्त होकर पहलेकी तरह वह सारा सामान वेदज्ञ ब्राह्मणको दान कर दे। पुनः अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणोंको शक्कर, घी और दूधसे बने हुए पदार्थ भोजन करावे और स्वयं भी मौन रहकर तेल और नमकसे रहित पदार्थोंका भोजन करे। इसी विधिसे प्रत्येक मासमें सारा कार्य करना चाहिये। एक वर्ष व्यतीत हो जानेपर शक्करसे पूर्ण कलशसमेत समग्र उपकरणोंसे युक्त शय्या तथा एक दुधारू गौ दान करनेका विधान है। व्रती यदि धन- सम्पत्तिसे युक्त हो तो उसे समस्त उपकरणोंसे युक्त गृहका भी दान करना चाहिये। तदनन्तर अपनी सामर्थ्यके अनुकूल एक हजार अथवा एक सौ अथवा पाँच निष्क (सोलह माशेका एक निष्क होता है जिसे दीनार भी कहते हैं।सोनेका एक घोड़ा बनवाकर पहलेकी ही भाँति मन्त्रोच्चारणपूर्वक दान करना चाहिये। इसमें कृपणता न करे, यदि करता है तो दोषभागी होना पड़ता है ॥ १-१२॥
अमृतं पिबतो वक्त्रात् सूर्यस्यामृतबिन्दवः ।
निष्पेतुर्ये धरण्यां ते शालिमुद्रेक्षवः स्मृताः ॥ १३
शर्करा तु परा तस्मादिक्षुसारोऽमृतात्मवान् ।
इष्टा रवेरतः पुण्या शर्करा हव्यकव्ययोः ॥ १४
शर्करासप्तमी चेयं वाजिमेधफलप्रदा।
सर्वदुष्टप्रशमनी पुत्रपौत्रप्रवर्धिनी ।। १५
यः कुर्यात् परया भक्त्या स वै सद्गतिमाप्नुयात्।
कल्पमेकं वसेत् स्वर्गे ततो याति परं पदम् ॥ १६
इदमनधं शृणोति यः स्मरेद् वा परिपठतीह दिवाकरस्य लोके।
मतिमपि च ददाति सोऽपि देवै- रमरवधूजनमालयाभिपूज्यः ।। १७
अमृत-पान करते समय सूर्यके मुखसे जो अमृतबिन्दु भूतलपर गिर पड़े थे, वे ही शालि (अगहनी धान), मूँग और ईख नामसे कहे जाते हैं। इनमें ईखका सारभूत शक्कर अमृततुल्य सुस्वादु है, इसलिये यह तीनोंमें श्रेष्ठ है। इसी कारण यह पुण्यवती शर्करा सूर्यके हव्य एवं कव्य-दोनों हवनीय पदार्थोंमें उन्हें अत्यन्त प्रिय है। यह शर्करासप्तमी अश्वमेध यज्ञके समान फलदायिनी, समस्त दुष्ट ग्रहोंको शान्त करनेवाली और पुत्र-पौत्रोंकी प्रवर्धिनी है। जो मानव उत्कृष्ट श्रद्धाके साथ इसका अनुष्ठान करता है, उसे सद्गतिकी प्राप्ति होती है। वह एक कल्पतक स्वर्गमें निवास कर अन्तमें परमपदको प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य इस निष्पाप व्रतका श्रवण, स्मरण अथवा पाठ करता है, वह सूर्यलोकमें जाता है। साथ ही जो इसका अनुष्ठान करनेके लिये सम्मति देता है, वह भी देवगणों एवं देवाङ्गनाओंके समूहसे पूजित होता है ॥१३-१७॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे शर्करावर्त नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७७ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें शर्कराससमीव्रत नामक सतहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ७७ ॥
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