मत्स्य पुराण उन्नीसवाँ अध्याय
श्रद्धों में पितरों के लिये प्रदान किये गये हव्य कव्य की प्राप्ति का विवरण
ऋषय ऊचुः
कथं कव्यानि देयानि हव्यानि च जनैरिह।
गच्छन्ति पितृलोकस्थान् प्रापकः कोऽत्र गद्यते ।। १
यदि मर्यो द्विजो भुङ्क्ते हूयते यदि वानले।
शुभाशुभात्मकैः प्रेतैर्दत्तं तद् भुज्यते कथम् ॥ २
ऋषियोंने पूछा- सूतजी। मनुष्योंको (पितरोंक निमित्त) हव्य और कव्य किस प्रकार देना चाहिये? इस मृत्यु लोक में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य- कव्य पितृलोकमें स्थित पितरोंके पास कैसे पहुँच जाते हैं? यहाँ उनको पहुँचाने वाला कौन कहा गया है? यदि मृत्युलोकवासी ब्राह्मण उन्हें खा जाता है अथवा अग्रिमें उनकी आहुति दे दी जाती है तो अपने कर्मानुसार शुभ एवं अशुभ योनियोंमें गये हुए प्रेतोंद्वारा उस पदार्थका उपभोग कैसे किया जाता है?॥ १-२॥
सूत उवाच
वसून् वदन्ति च पितॄन् रुद्रांश्चैव पितामहान्।
प्रपितामहांस्तथादित्यानित्येवं वैदिकी श्रुतिः ॥ ३
नाम गोत्रं पितृणां तु प्रापकं हव्यकव्ययोः ।
श्राद्धस्य मन्त्राः श्रद्धा च उपयोज्यातिभक्तितः ॥ ४
अग्निष्वात्तादयस्तेषामाधिपत्ये व्यवस्थिताः ।
नामगोत्रकालदेशा भवान्तरगतानपि ।। ५
प्राणिनः प्रीणयन्त्येते तदाहारत्वमागतान्।
देवो यदि पिता जातः शुभकर्मानुयोगतः ॥ ६
तस्यान्नममृतं भूत्वा दिव्यत्वेऽप्यनुगच्छति ।
दैत्यत्वे भोगरूपेण पशुत्वे च तृणं भवेत् ॥ ७
श्रद्धानं वायुरूपेण सर्पत्वेऽप्युपतिष्ठति ।
पानं भवति यक्षत्वे राक्षसत्वे तथामिषम् ॥ ८
दनुजत्वे तथा माया प्रेतत्वे रुधिरोदकम्।
मनुष्यत्वेऽन्नपानानि नानाभोगरसं भवेत् ॥ ९
रतिशक्तिः स्त्रियः कान्ता भोज्यं भोजनशक्तिता।
दानशक्तिः सविभवा रूपमारोग्यमेव च ॥ १०
श्रद्धापुष्पमिदं प्रोक्तं फलं ब्रह्मसमागमः ।
आयुः पुत्रान् धनं विद्यां स्वर्ग मोक्षं सुखानि च ॥ ११
राज्यं चैव प्रयच्छन्ति प्रीताः पितृगणा नृणाम्।
श्रूयते च पुरा मोक्ष प्राप्ताः कौशिकसूनवः ।
पञ्चभिर्जन्मसम्बन्धैर्गता विष्णोः परं पदम् ॥ १२
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। पितरोंको वसुगण, पितामहोंको रुद्रगण तथा प्रपितामहोंको आदित्यगण कहा जाता है-ऐसी वैदिकी श्रुति है। पितरोंके नाम और गोत्र (उनके निमित्त प्रदान किये गये) हव्य- कव्यको उनके पास पहुँचानेवाले हैं। अतिशय भक्तिपूर्वक उच्चरित श्राद्धके मन्त्र भी कारण हैं एवं श्रद्धाके उपयोग भी हेतु है। अग्रिष्वात्त आदि पितरोंके आधिपत्य-पदपर स्थित हैं। उन देव पितरोंके समक्ष जो खाद्य पदार्थ पितरोंका नाम, गोत्र, काल और देशका उच्चारण करके श्रद्धासे अर्पित किया जाता है, वह पितृगणोंको यदि वे जन्मान्तरमें भी गये हुए हों तो भी उन्हें तृप्त कर देता है। वह उस समय उस योनिके लिये उपयुक्त आहारके रूपमें परिणत हो जाता है। यदि शुभ कर्मोंके प्रभावसे पिता देवयोनिमें उत्पन्न हो गये हैं तो उनके उद्देश्यसे दिया गया अन्न अमृत होकर देवयोनिमें भी उन्हें प्राप्त होता है। वह श्राद्धात्र दैत्ययोनिमें भोगरूपमें और पशुयोनिमें तृणरूपमें बदल जाता है। सर्पयोनिमें वह वायुरूपसे सर्पके निकट पहुँचता है। यक्ष-योनिमें वह पीनेवाला पदार्थ तथा राक्षसयोनिमें मांस हो जाता है।
दानवयोनिमें मायारूपमें, प्रेतयोनिमें रुधिर और जलके रूपमें तथा मानवयोनिमें नाना प्रकारके भोग-रसोंसे युक्त अन्न-पानादिके रूपमें परिवर्तित हो जाता है। रमण करनेकी शक्ति, सुन्दरी स्त्रियाँ, भोजन करनेके पदार्थ, भोजन पचानेकी शक्ति, प्रचुर सम्पत्तिके साथ-साथ दान देनेकी निष्ठा, सुन्दर रूप और स्वास्थ्य-ये सभी श्रद्धारूपी वृक्षके पुष्प बतलाये गये हैं और ब्रह्मप्राप्ति उसका फल है। पितृगण प्रसन्न होनेपर मनुष्योंको आयु, अनेक पुत्र, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख और राज्य प्रदान करते हैं। सुना जाता है कि कौशिकके पुत्र पूर्वकालमें (श्राद्धके प्रभावसे व्याध, मृग, चक्रवाक आदि योनियोंमें) पाँच बार जन्म लेनेके पश्चात् मुक्त होकर भगवान् विष्णुके परमपद वैकुण्ठलोकको चले गये थे॥ ३-१२॥
इति श्रीमालये महापुराणे आद्धकल्पे फलानुगमनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके श्राद्धकल्पमें फलानुगमन नामक उन्नीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥ १९॥
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