मत्स्य पुराण सोलहवाँ अध्याय,
श्राद्धों के विविध भेद, उनके करने का समय तथा श्रद्धमें निमन्त्रित करने योग्य ब्राह्मण के लक्षण
सूत उवाच
श्रुत्वैतत् सर्वमखिलं मनुः पप्रच्छ केशवम्।
श्राद्धे कालं च विविधं श्राद्धभेदं तथैव च ॥ ९
श्राद्धेषु भोजनीया ये ये च व द्विजातयः ।
कस्मिन् वासरभागे वा पितृभ्यः श्राद्धमाचरेत् ॥ २
कस्मिन् दत्तं कथं याति श्रद्धं तु मधुसूदन ।
विधिना केन कर्तव्यं कथं प्रीणाति तत् पितृन् ॥ ३
सूतजी कहते हैं- ऋषियो। यह सारा वृत्तान्त पूर्णरूपसे सुनकर मनुने मत्स्यभगवान्से पूछा- 'मधुसूदन । श्राद्धके लिये कौन-सा काल उत्तम है? श्राद्धके विभिन्न भेद कौन से हैं? आद्धोंमें कैसे ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये? तथा कैसे ब्राह्मण वर्जित हैं? दिनके किस भागमें पितरोंके लिये श्राद्ध करना उचित है? कैसे पात्रको श्राद्धीय वस्तु प्रदान करनी चाहिये? तथा उसका फल पितरोंको कैसे प्राप्त होता है? ब्राद्ध किस विधिसे करना उपयुक्त है? तथा वह श्राद्ध किस प्रकार पितरोंको प्रसत्र करता है ? (ये सारी बातें मुझे बतलानेकी कृपा करें) ॥१-३॥
मत्स्य उवाच
कुर्यादहरहः श्राद्धमन्नाद्येनोदकेन वा।
पयोमूलफलैर्वापि पितृभ्यः प्रीतिमावहन् ॥ ४
नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं श्रद्धमुच्यते।
नित्यं तावत् प्रवक्ष्यामि अर्ध्यावाहनवर्जितम् ।। ५
अदैवं तद् विजानीयात् पार्वणं पर्वसु स्मृतम् ।
पार्वणं त्रिविधं प्रोक्तं शृणु तावन्महीपते ।। ६
पार्वणे ये नियोज्यास्तु ताञ्शृणुष्व नराधिप।
पञ्चाग्निः स्त्रातकश्चैव त्रसुपर्णः षडङ्गवित् ॥ ७
श्रोत्रियः श्रोत्रियसुतो विधिवाक्यविशारदः ।
सर्वज्ञो वेदविन्मन्त्री ज्ञातवंशः कुलान्वितः ॥ ८
पुराणवेत्ता धर्मज्ञः स्वाध्यायजपतत्परः ।
शिवभक्तः पितृपरः सूर्यभक्तोऽथ वैष्णवः ॥ ९
ब्रह्मण्यो योगविच्छान्तो विजितात्मा च शीलवान् ।
भोजयेच्चापि दौहित्रं यन्नतः स्वसुहृद् गुरून् । १०
विपतिं मातुलं बन्धुमृत्विगाचार्यसोमपान्।
यश्च व्याकुरुते वाक्यं यश्च मीमांसतेऽध्वरम् ॥ ११
सामस्वरविधिज्ञश्च पक्तिपावनपावनः ।
सामगो ब्रह्मचारी च वेदयुक्तोऽथ ब्रह्मवित् ॥ १२
यत्र ते भुञ्जते श्राद्धे तदेव परमार्थवत्।
एते भोज्याः प्रयत्नेन वर्जनीयान् निबोध मे ।। १३
पतितोऽभिशस्तः क्लीबः पिशुनव्यङ्गरोगिणः ।
कुनखी श्यावदन्तश्च कुण्डगोलाश्वपालकाः ॥ १४
परिवित्तिर्नियुक्तात्मा प्रमत्तोन्मत्तदारुणाः ।
बैडालो बकवृत्तिश्च दम्भी देवलकादयः ॥ १५
कृतघ्नान् नास्तिकांस्तद्वन्स्लेच्छदेशनिवासिनः ।
त्रिशङ्कुर्वर्बरद्राववीतद्रविडकोङ्कणान् ॥ १६
वर्जयेल्लिङ्गिनः सर्वाश्राद्धकाले विशेषतः ।
पूर्वेद्युरपरेद्युर्वा विनीतात्मा निमन्त्रयेत् ॥ १७
निमन्त्रितान् हि पितर उपतिष्ठन्ति तान् द्विजान्।
वायुभूतानुगच्छन्ति तथासीनानुपासते ॥ १८
मत्स्यभगवान् कहने लगे राजर्षे! प्रतिदिन पितरोंके प्रति श्रद्धा रखते हुए अन्न आदिसे या केवल जलसे अथवा दूध या फल-मूलसे भी श्राद्धकर्म करना चाहिये। बाद्ध नित्य, नैमित्तिक और काम्यरूपसे तीन प्रकारका बतलाया गया है। इनमें में पहले नित्यश्राद्धका वर्णन कर रहा हूँ, जो अर्घ्य और आवाहनसे रहित होता है। इसे 'अदैव' मानना चाहिये। पर्वोपर सम्पन्न होनेवाले (त्रिपुरुष) श्राद्धको 'पार्वण कहते हैं। महीपते। यह पार्वण श्राद्ध तीन प्रकारका बतलाया जाता है, उन्हें सुनो। नरेश्वर। पार्वण श्राद्धमें जिन्हें नियुक्त करना चाहिये, उन्हें बतलाता हूँ, सुनो। जो पञ्चाग्रि विद्याका ज्ञाता अथवा गार्हपत्य आदि पाँच अग्नियोंका उपासक, स्नातक, त्रिसुपर्ण (ऋग्वेदके एक अंशका अध्येतो), वेदके छहों अङ्गोंका ज्ञाता, श्रोत्रिय, श्रोत्रियका पुत्र, धर्मशास्त्रोंका पारगामी विद्वान्, सर्वज्ञ, वेदवेत्ता, उचित मन्त्रणा करनेवाला, जाने हुए बंशमें उत्पन्न, कुलीन, पुराणोंका ज्ञाता, धर्मज्ञ, स्वाध्याय एवं जपमें तत्पर रहनेवाला, शिवभक्त, पितृपरायण, सूर्यभक्त, वैष्णव, ब्राह्मणभक्त, योगवेत्ता, शान्त, आत्माको वशीभूत कर लेनेवाला एवं शीलवान् हो (ऐसे ब्राह्मणको श्राद्धकर्ममें नियुक्त करना चाहिये)।
(अब इस पुनीत श्राद्धमें जिन्हें भोजन कराना चाहिये, उनके विषयमें बतला रहा हूँ, सुनो।) पुत्रीका पुत्र (नाती), अपना मित्र, गुरु (अथवा गुरुजन), कुलपति (आचार्य), मामा, भाई-बन्धु, ऋत्विक्, आचार्य (विद्यागुरु) और सोमपायी इन्हें प्रयत्नपूर्वक बुलाकर श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये। साथ ही जो विधि- वाक्योंक व्याख्याता, यज्ञके मीमांसक, सामवेदके स्वर और (उसके उच्चारणकी) विधिके ज्ञाता, पङ्गिपावनोंमें भी परम पवित्र, सामवेदके पारगामी विद्वान्, ब्रह्मचारी, वेदज्ञ और ब्रह्मज्ञानी हैं- ये सभी श्राद्धमें चेष्टापूर्वक भोजन कराने योग्य हैं। ऐसे ब्राह्मण जिस श्राद्धमें भोजन करते हैं, वही श्राद्ध परमार्थसम्पन्न माना जाता है। अब जो ब्राह्मण श्राद्धमें वर्जित हैं, उन्हें मैं बतला रहा हूँ सुनो। पतित (जो अपने वर्णाश्रम-धर्मसे च्युत हो गया हो), अभिशस्त (कलङ्कित, बदनाम), नपुंसक, चुगलखोर, विकृत अङ्गावाला, रोगी, बुरे नखोंवाला, काले दाँतोंसे युक्त, कुण्ड (सधवाका जारज पुत्र), गोलक (विधवाका जारज पुत्र), कुत्तोंका पालक, परिवित्ति, नौकर अथवा जिसका मन किसी अन्य श्राद्धमें लगा हो, पागल, उन्मादी, क्रूर, बिडाल एवं बगुलेकी तरह चोरीसे जीविकोपार्जन करनेवाला, दम्भी तथा मन्दिरमें देव-पूजा करके वेतनभोगी (पुजारी) - ये सभी श्राद्धभोजमें निषिद्ध माने गये हैं।
इसी प्रकार कृतघ्न (किये हुए उपकारको न माननेवाला), नास्तिक (परलोकपर विश्वास न करनेवाला), त्रिशङ्क (कीकटसे दक्षिण और महानदीसे उत्तरका भाग), बर्बर (भारतकी पश्चिम सीमापरका प्रदेश), द्वाब, वीत, द्रविड और कोंकण आदि देशोंके निवासी तथा संन्यासी- इन सभीका विशेषरूपसे श्राद्धकार्यमें परित्याग कर देना चाहिये। श्राद्ध-दिवसके एक या दो दिन पहले ही श्राद्धकर्ता विनीतभावसे ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे; क्योंकि पितरलोग आकर उन निमन्त्रित ब्राह्मणोंके निकट उपस्थित होते हैं। वे वायुरूप होकर उन ब्राह्मणोंके पीछे-पीछे चलते हैं तथा उनके बैठ जानेपर पितर भी उन्होंके समीप बैठ जाते हैं ॥ ४-१८ ॥
दक्षिणं जानुमालभ्य त्वं मया तु निमन्त्रितः ।
एवं निमन्त्र्य नियमं श्रवयेत् पितृबान्धवान् ॥ १९
अक्रोधनैः शौचपरैः सततं ब्रह्मचारिभिः ।
भवितव्यं भवद्भिश्च मया च श्राद्धकारिणा ॥ २०
पितृयज्ञं विनिर्वर्त्य तर्पणाख्यं तु योऽग्निमान् ।
पिण्डान्वाहार्यकं कुर्याच्छ्राद्धमिन्दुक्षये सदा ॥ २१
गोमयेनोपलिप्ते तु दक्षिणप्रवणे स्थले।
श्राद्धं समाचरेद् भक्त्या गोष्ठे वा जलसंनिधौ ॥ २२
अग्निमान् निर्वपेत् पित्र्यं चरुं च सममुष्टिभिः ।
पितृभ्यो निर्वपामीति सर्व दक्षिणतो न्यसेत् ॥ २३
अभिघार्य ततः कुर्यान्निर्वापत्रयमग्रतः ।
तेऽपि तस्यायताः कार्याश्चतुरङ्गुलविस्तृताः ॥ २४
दर्वीत्रयं तु कुर्वीत खादिरं रजतान्वितम् ।
रत्निमात्रं परिश्लक्ष्णं हस्ताकाराग्रमुत्तमम् ॥ २५
उदपात्रं च कांस्यं च मेक्षणं च समित् कुशान् ।
तिलाः पात्राणि सद्वासो गन्धधूपानुलेपनम् ॥ २६
आहरेदपसव्यं तु सर्वे दक्षिणतः शनैः ।
एवमासाद्य तत् सर्वं भवनस्याग्रतो भुवि ॥ २७
गोमयेनोपलिप्तायां गोमूत्रेण तु मण्डलम् ।
अक्षताभिः सपुष्पाभिस्तदद्भ्यर्व्यापसव्यवत् ॥ २८
विप्राणां क्षालयेत् पादावभिनन्द्य पुनः पुनः ।
आसनेषूपक्लृप्तेषु दर्भवत्सु विधानवत् ॥ २९
उस समय श्राद्धकर्ता ब्राह्मणके दाहिने घुटनेको स्पर्शकर (उससे) इस प्रकार प्रार्थना करे-'मैं आपको निमन्त्रित कर रहा हूँ।' इस प्रकार निमन्त्रण देकर अपने पिताके भाई- बन्धुओंको श्राद्ध-नियम बतलाते हुए यों कहे' (मैं अमुक दिन पितृ-श्राद्ध करूँगा, अतः उस दिन) आपलोगोंको निरन्तर क्रोधरहित, शौचाचारपरायण तथा ब्रह्मचर्य व्रतमें स्थित रहना चाहिये। मुझ श्राद्धकर्ताद्वारा भी इन नियमोंका पालन किया जायगा।' इस प्रकार पितु-यज्ञसे निवृत्त होकर तर्पण-कर्म करना चाहिये। श्राद्धकर्ताको 'पिण्डान्वाहार्यक' नामक श्राद्ध सदा अमावास्या तिथिमें करना चाहिये। गोशालामें या किसी जलाशयके निकट दक्षिण दिशाकी ओर ढालू स्थानको गोबरसे लीपकर वहीं भक्तिपूर्वक श्राद्धकर्म करना चाहिये। श्राद्धकर्ता पितरोंके निमित्त बनी हुई चरुको समसंख्यक (२, ४, ६) मुट्ठियोंद्वारा 'मैं पितरोंको चरु प्रदान कर रहा हूँ'- यों कहकर पितरोंको चरु प्रदान करे और शेष सबको अपनी दाहिनी ओर रख ले। तत्पश्चात् अग्रिमें घीकी धारा छोड़कर चरुको तीन भागोंमें विभक्त करके आगेकी ओर रखे। उन भागोंको भी चार अङ्गुलके विस्तारका लम्बा बना देना चाहिये।
पुनः तीन दर्वी (कैरछुले, जिनसे हवनीय पदार्थ अग्रिमें छोड़े जाते हैं) रखनी चाहिये, जो खैर या चाँदीमिश्रित अन्य धातुकी बनी हों, जिनका परिमाण मुट्ठी बँधे हुए हाथके बराबर हो, जो अत्यन्त चिकनी, उत्तम एवं हथेलीकी-सी बनी हुई सुडौल हों। इसी प्रकार अपसव्य होकर (जनेऊको बाँयें कंधेसे दाहिने कंधेपर रखकर) पीतलका जलपात्र, मेक्षण (प्रणीतापात्र), समिधा, कुश, तिल, अन्यान्य पात्र, शुद्ध नवीन वस्त्र, गन्ध, धूप, चन्दन आदिको लाकर सबको धीरेसे अपनी दाहिनी ओर रख ले। इस प्रकार सभी आवश्यक सामग्रियोंको एकत्र करके घरके दरवाजेपर गोबरसे लिपी हुई भूमिपर अपसव्य होकर गोमूत्रसे मण्डलकी रचना करे और पुष्पसहित अक्षतोंद्वारा उसकी भी पूजा करे। तत्पश्चात् बारम्बार ब्राह्मणोंका अभिनन्दन करते हुए उनका पाद-प्रक्षालन करे। पुनः उन ब्राह्मणोंको कुशनिर्मित आसनोंपर बैठाकर विधिपूर्वक उन्हें आचमन या जलपान करावे। तदनन्तर उनसे बाद्धके लिये सम्मति ले ॥ १९-२९॥
उपस्पृष्टोदकान् विप्रानुपवेश्यानुमन्त्रयेत् ।
द्वौ दैवे पितृकृत्ये त्रीनेकैकमुभयत्र च ॥ ३०
भोजयेदीश्वरोऽपीह न कुर्याद् विस्तरं बुधः ।
दैवपूर्व नियोज्याथ विप्रानर्व्यादिना बुधः ॥ ३१
अग्नौ कुर्यादनुज्ञातो विप्रैर्विप्रो यथाविधि।
स्वगृह्योक्तविधानेन कांस्ये कृत्वा चरुं ततः ॥ ३२
अग्नीषोमयमानां तु कुर्यादाप्यायनं बुधः ।
दक्षिणाग्री प्रतीते वा य एकाग्निर्द्विजोत्तमः ॥ ३३
यज्ञोपवीती निर्वत्र्त्य ततः पर्युक्षणादिकम् ।
प्राचीनावीतिना कार्यमतः सर्व विजानता ॥ ३४
षट् च तस्माद्धविःशेषात् कृत्वा ततोदकम्।
दद्यादुदकपात्रैस्तु सतिलं सव्यपाणिना ॥ ३५
जान्वाच्य सव्यं यत्नेन दर्भयुक्तो विमत्सरः ।
विधाय लेखां यत्नेन निर्वापेष्ववनेजनम् ॥ ३६
दक्षिणाभिमुखः कुर्यात् करे दर्दी निधाय वै।
निधाय पिण्डमेकैकं सर्वदर्भेष्वनुक्रमात् ॥ ३७
निनयेदथ दर्भेषु नामगोत्रानुकीर्तनैः ।
तेषु तं हस्तं विमृज्याल्लेपभागिनाम् ॥ ३८
तथैव च ततः कुर्यात् पुनः प्रत्यवनेजनम्।
षडप्युतून् नमस्कृत्य गन्धधूपार्हणादिभिः ॥ ३९
एवमावाह्य तत् सर्वं वेदमन्त्रैर्यथोदितैः ।
एकाग्रेरेक एव स्यान्निर्वापो दर्विका तथा ॥ ४०
ततः कृत्वान्तरे दद्यात् पत्नीभ्योऽन्नं कुशेषु सः ।
तद्वत् पिण्डादिके कुर्यादावाहनविसर्जनम् ॥ ४१
ततो गृहीत्वा पिण्डेभ्यो मात्राः सर्वाः क्रमेण तु।
तानेव विप्रान् प्रथमं प्राशयेद् यत्नतो नरः ॥ ४२
बुद्धिमान् पुरुषको देवकार्यमें दो एवं पितृकार्यमें तीन अथवा दोनों कार्योंमें एक एक ही ब्राह्मणको भोजन कराना चाहिये। धन-सम्पत्तिसे सम्पन्न होनेपर भी पार्वण श्राद्धमें विस्तार करना उचित नहीं है। पहले विश्वेदेवको अर्घ्य आदि समर्पित करके तत्पश्चात् ब्राह्मणोंकी अर्घ्य आदि द्वारा पूजा करे। पुनः श्राद्धकर्ता ब्राह्मणको चाहिये कि वह उन ब्राह्मणोंकी आज्ञा लेकर चरुको काँसेके बर्तनमें रखकर अपने गृह्योक्तके विधानानुसार विधिपूर्वक अग्निमें हवन करे, फिर बुद्धिमान् पुरुषको अग्नि, सोम और यमका तर्पण करना चाहिये। इस प्रकार एक अग्निका उपासक यज्ञोपवीत धारी श्रेष्ठ ब्राह्मण 'दक्षिण' नामक अग्निके प्रज्वलित हो जानेपर श्राद्धकर्म सम्पन्न करे। तदनन्तर पर्युक्षण आदिसे निवृत्त होकर उपर्युक्त सारी विधियोंको समझ ले और प्राचीनावीती (अपसव्य) होकर सारा कार्य सम्पन्न करे।
फिर उस बचे हुए हविसे छः पिण्ड बनाकर उनपर बायें हाथसे अपने जलपात्रद्वारा तिलसहित जल गिराये और ईर्ष्या द्वेषरहित होकर हाथमें कुश लेकर बायाँ घुटना मोड़कर प्रयत्नपूर्वक (वेदीपर) रेखा बनाये (एवं रेखाओंपर कुश बिछाये।) तथा दक्षिण दिशाकी ओर मुख करके पिण्ड रखनेके लिये बिछाये गये कुशोंपर अवनेजन (श्राद्ध-वेदीपर बिछे हुए कुशोंपर जल सींचनेका संस्कार) करे। फिर हाथमें करछुल लेकर तथा क्रमशः एक-एक पिण्ड उठाकर पितरोंके गोत्र एवं नामोंका उच्चारण करके उन सभी बिछाये गये कुशोंपर एक-एक करके रख दे और लेपभागी पितरोंकी तृप्तिके लिये उन कुशोंके मूलभागमें अपने उस हाथको पोंछ दे। तत्पश्चात् पुनः पूर्ववत् उन पिण्डोंपर प्रत्यवनेजन जल उन छहों पितरोंका पूजन करके उन्हें नमस्कार करे और फिर यथोक्त वेद-मन्त्रोंद्वारा उनका आवाहन करे। एकाग्रिक छोड़े। तदुपरान्त गन्ध, धूप आदि पूजन-सामग्रियोंद्वारा ब्राह्मणके लिये एक ही निर्वाप और एक ही करछुलका विधान है। यह सब सम्पन्न कर लेनेके पश्चात् श्राद्धकर्ता कुशोंपर पितरोंकी पत्नियोंके लिये अन्न प्रदान करे और पिण्डोंपर आवाहन एवं विसर्जन आदि क्रिया पूर्ववत् करे। तत्पश्चात् श्राद्धकर्ता उन सभी पिण्डोंमेंसे थोड़ा- थोड़ा अंश लेकर उन्हें सर्वप्रथम प्रयत्नपूर्वक उन निमन्त्रित ब्राह्मणोंको खिलावे ॥ ३०-४२ ॥
यस्मादन्नाद्धृता मात्रा भक्षयन्ति द्विजातयः ।
अन्वाहार्यकमित्युक्तं तस्मात् तच्चन्द्रसंक्षये ॥ ४३
पूर्व दत्त्वा तु तद्धस्ते सपवित्रं तिलोदकम् ।
तत्पिण्डाद्यं प्रयच्छेत स्वधैषामस्त्विति बुवन् ॥ ४४
वर्णयन् भोजयेदन्नं मिष्टं पूतं च सर्वदा।
वर्जयेत् क्रोधपरतां स्मरन् नारायणं हरिम् ॥ ४५
तृप्ता ज्ञात्वा ततः कुर्याद् विकिरन् सार्ववर्णिकम् ।
सोदकं चान्नमुद्धृत्य सलिलं प्रक्षिपेद् भुवि ॥ ४६
आचान्तेषु पुनर्दद्याज्जलपुष्पाक्षतोदकम् ।
स्वस्तिवाचनके सर्व पिण्डोपरि समाहरेत् ॥ ४७
देवायत्तं प्रकुर्वीत श्राद्धनाशोऽन्यथा भवेत्।
विसृज्य ब्राह्मणांस्तद्वत् तेषां कृत्वा प्रदक्षिणम् ॥ ४८
दक्षिणां दिशमाकाङ्क्षन् पितृन् याचेत मानवः ।
दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदाः संततिरेव च ॥ ४९
श्रद्धा च नो मा व्यगमद् बहु देयं च नोऽस्त्विति।
अन्नं च नो बहु भवेदतिर्थीश्च लभेमहि ॥ ५०
याचितारश्च नः सन्तु मा च याचिष्म कञ्चन ।
एतदस्त्विति तत्प्रोक्तमन्वाहार्य तु पार्वणम् ॥ ५१
यथेन्दुसंक्षये तद्वदन्यत्रापि निगद्यते।
पिण्डांस्तु गोऽजविप्रेभ्यो दद्यादन्नौ जलेऽपि वा ॥ ५२
विप्राग्रतो वा विकिरेद् वयोभिरभिवाशयेत् ।
पत्नी तु मध्यमं पिण्डं प्राशयेद् विनयान्विता ॥ ५३
आधत्त पितरो गर्भमत्र संतानवर्धनम्।
तावदुच्छेषणं तिष्ठेद् यावद् विप्रा विसर्जिताः ॥ ५४
वैश्वदेवं ततः कुर्यान्निवृत्ते पितृकर्मणि।
इष्टः सह ततः शान्तो भुञ्जीत पितृसेवितम् ॥ ५५
चूँकि पिण्डान्नसे निकाले गये अंशको अमावास्याके दिन ब्राह्मणलोग खाते हैं, इसीलिये इस श्राद्धको 'अन्वाहार्यक' कहा जाता है। श्राद्धकर्ता पहले पवित्रकसहित तिल और जलको उस ब्राह्मणके हाथमें देकर तत्पश्चात् पिण्डांशको समर्पित करे और 'यह हमारे पितरोंके लिये स्वधा हो' यों कहते हुए भोजन कराये। उस ब्राह्मणको चाहिये कि वह क्रोधका परित्याग करके भगवान् नारायणका स्मरण करते हुए 'यह बहुत मीठा है', 'यह परम पवित्र है'-यों कहते हुए भोजन करे। उन ब्राह्मणोंको तृप्त जानकर तत्पश्चात् सभी वर्णोंके लिये विकिराकी क्रिया करनी चाहिये। उस समय जलसहित अन लेकर पृथ्वीपर जल गिरा दे। पुनः उन ब्राह्मणोंके आचमन कर लेनेपर जल, पुष्प, अक्षत आदि सभी सामग्री स्वस्तिवाचनपूर्वक पिण्डोंके ऊपर डाल दे। फिर इस श्राद्धफलको भगवान्को अर्पित कर दे, अन्यथा श्राद्ध नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार उन ब्राह्मणोंकी प्रदक्षिणा करके उन्हें विदा करे।
उस समय श्राद्धकर्ता दक्षिण दिशाकी और मुखकरके पितरोंसे अभिलाषापूर्तिके निमित्त याचना करते हुए यों कहे- पितृगण। हमारे दाताओं, वेदों (वेदज्ञान) और संतानोंकी वृद्धि हो, हमारी ब्रद्धा कभी न घंटे, देनेके लिये हमारे पास प्रचुर सम्पत्ति हो, हमारे अधिक-से-अधिक अन उत्पन्न हों, हमारे घरपर अतिथियोंका जमघट लगा रहे। हमसे माँगनेवाले बहुत हों, परंतु हम किसीसे याचना न करें।' उस समय ब्राह्मणलोग कहें- 'ऐसा ही हो।' इस प्रकार अन्वाहार्यक नामक पार्वण श्राद्ध जिस प्रकार अमावास्या तिथिको बतलाया गया है, उसी प्रकार अन्य तिथियोंमें भी किया जा सकता है। श्राद्ध समाप्तिके पश्चात् उन पिण्डोंको गौ, बकरी या ब्राह्मणको दे दे अथवा अग्नि या जलमें भी डाल दे अथवा ब्राह्मणके सामने ही पक्षियोंके लिये छींट दे। उनमें मझले पिण्डको (श्राद्धकर्ताकी) पत्नी 'पितृगण मेरे उदरमें संतानकी वृद्धि करनेवाले गर्भकी स्थापना करायें' यों याचना करती हुई विनयपूर्वक स्वयं खा जाय। यह पिण्ड तबतक उच्छिष्ट बना रहता है, जबतक ब्राह्मण विदा नहीं कर दिये जाते। इस प्रकार पितृकर्मक समाप्त हो जानेपर वैश्वदेवका पूजन करना चाहिये। तत्पश्चात् अपने इष्ट मित्रोंसहित शान्तिपूर्वक उस पितृसेवित अन्नका स्वयं भोजन करना चाहिये ॥ ४३-५५॥
पुनर्भोजनमध्वानं यानमायासमैथुनम् ।
श्राद्धकृच्छ्राद्धभुक्नैव सर्वमेतद् विवर्जयेत् ॥ ५६
स्वाध्यायं कलहं चैव दिवास्वप्नं च सर्वदा।
अनेन विधिना श्राद्धं निरुद्वास्येह निर्वपेत् ॥ ५७
कन्याकुम्भवृषस्थेऽकै कृष्णपक्षेषु सर्वदा।
यत्र यत्र प्रदातव्यं सपिण्डीकरणात् परम्।
तन्त्रानेन विधानेन देयमग्निमता सदा ॥ ५८
श्राद्धकर्ता और ब्राद्धभोक्ता दोनोंको श्राद्धमें भोजन करनेके पश्चात् पुनः भोजन करना, मार्गगमन, सवारीपर चढ़ना, परिश्रमका काम करना, मैथुन, स्वाध्याय, कलह और दिनमें शयन-इन सबका उस दिन परित्याग कर देना चाहिये। इस प्रकार उपर्युक्त विधिसे जमुहाई आदि न लेकर श्रद्ध-कर्म सम्मान करना चाहिये। सपिण्डीकरणके पश्चात् कन्या, कुम्भ और वृष राशिपर सूर्यक स्थित रहनेपर कृष्णपक्षमें जहाँ-जहाँ पिण्डदान करे, वहाँ-वहाँ अग्रिहोत्री श्राद्धकर्ताको सदा इसी विधिसे पिण्डदान करना चाहिये ॥ ५६-५८॥
इति श्रीमात्यये महापुराणेऽग्रिमच्छ्राद्धे आद्धकल्पो नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें अग्रिमच्छ्राद्धविषयक श्राद्धकल्प नामक सोलहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १६॥
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