श्री कल्कि पुराण पहला अंश \ पहला अध्याय | Shri Kalki Purana first part\first chapter

श्री कल्कि पुराण पहला अंश \ पहला अध्याय हिंदी से संस्कृत में

सेन्द्रा देव-गणा मुनिईश्वर-जना लोकाः सपालाः सदा
स्वं स्वं कर्म सुसिद्धये प्रतिदनं भक्त्या भजन्त्य् उत्तमाः

(यं सर्वअर्थम् उसिद्धये इत्य् एवं सङ्गच्छते)

तं विघ्नेशम् अनन्तम् अच्युतम् अजम् सर्वज्ञ-सर्वआश्रयम् ।
वन्दे वैदिक-तान्त्रिकआदि-विविधैः शास्त्रैः पुरो वन्दितम्॥१

इन्द्र सहित देवतागण, महर्षिगण और लोकपालगण अपने कामों की सफलता के लिए भक्तिपूर्वक जिनकी सदैव उपासना करते हैं, प्राचीन काल से जिनकी वैदिक तथा तान्त्रिक आदि अनेक शास्त्रों द्वारा आराधना की गई है, सब कुछ जानने वाले, सबके आधार, विघ्नों का नाश करने वाले, अनन्त, अच्युत, अजन्मा, उन श्री भगवान् की मैं वन्दना करता हूँ।


बदरिकाश्रम निवासी प्रसिद्ध ऋषि श्री नारायण तथा श्री नर (अन्तर्यामी नारायण स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके नित्य सखा नर श्रेष्ठ अर्जुन), उनकी लीलाओं को प्रकट करने वाली भगवती सरस्वती और उनकी लीलाओं के वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार कर जय- आसुरी शक्तियों का नाश करके अन्तःकरण पर दैवी शक्तियों को विजय प्राप्त कराने वाले अष्टादश पुराण, रामायण और महाभारत आदि जय नाम से व्यपदिष्ट सद्ग्रन्थों का पाठ / वाचन करना चाहिए।

भयंकर अत्याचार से पृथ्वी की शान्ति का नाश करने वाले राजाओं को जो अपनी भयंकर भुजाओं रूपी भुजंगों (साँपों) की विष की ज्वाला से भस्म करेंगे और जिनकी भयंकर तलवार की तेज़ धार से अत्याचारी राजाओं के शरीर कुचले जाएँगे, ऐसे ब्राह्मण वंश में उत्पन्न, घोड़े की सवारी करने वाले, सत्यादि युगों में अवतार लेने वाले व जिन्हें धर्म की प्रवृत्ति प्रिय है, ऐसे भगवान् कल्कि, परमात्मा हरि (अथवा वे भगवान् श्री हरि कल्कि रूप में) हमारी रक्षा करें।
नैमिषारण्य में रहने वाले शौनकादि उदार चरित्र वाले महर्षिगणों ने सूत जी के ये वचन सुनकर उनसे पूछा -'हे सूत जी, सब धर्मों के जानने वाले, लोमहर्षण के पुत्र, तीनों कालों के ज्ञाता, पुराणों को भली प्रकार जानने वाले आप, भगवान् की कथा (हमसे) कहें। हे प्रभु! आप कृपया हमें बताएँ कि कलि कौन हैं? उसने कहाँ जन्म लिया, वह किस तरह संसार का मालिक बन गया और किस प्रकार उसने (कलि ने) नित्यधर्म का नाश किया ?'

महर्षिगण के इस तरह के वचन सुनकर सूत जी ने भगवान् श्री हरि का ध्यान किया। विष्णु भगवान् का स्मरण करते ही वे पुलकित शरीर वाले उन मुनियों से (अथवा पुलकित अंग होकर) बोले-'प्राचीन समय में ब्रह्मा जी ने नारद जी के पूछने पर इस अद्भुत भविष्य-आख्यान को बतलाया था। आप लोग उसी आख्यान को मुझसे सुनिए। पहले असीम तेजस्वी व्यास जी को श्री नारद जी ने यह आख्यान सुनाया था। बाद में उन्हीं व्यास जी ने अपने बुद्धिमान पुत्र ब्रह्मरात (शुकदेव) जी से यह आख्यान कहा। ब्रह्मरात जी ने अभिमन्यु के पुत्र श्री विष्णुरात (परीक्षित) की सभा में उसी भागवत धर्म को 18,000 श्लोकों में सुनाया। उस समय, एक सप्ताह बीतने पर प्रश्न पूरे भी न हो पाये थे कि विष्णुरात जी ने अपनी लोकयात्रा पूरी की। उसके बाद मार्कण्डेय आदि महर्षियों के पूछने पर पुण्याश्रम में भगवान् शुकदेव ने भागवत धर्म के शेष अंश को बताया। पुण्याश्रम में मैंने जो भावी उपाख्यान (श्री शुकदेव जी के श्रीमुख से) सुना, उसी भगवान् की पुण्यप्रद (व) कल्याणकारिणी कथा को (मैं) कहता हूँ।

हे महाभाग ! भगवान् श्री कृष्ण के अपने वैकुण्ठ धाम चले जाने पर, कलि की उत्पत्ति जिस प्रकार हुई, (उस सबको मैं कहता हूँ) आप लोग निरन्तर सावधान हो कर उसे सुनें। जगत् के बनाने वाले, लोक के पितामह ब्रह्मा जी ने प्रलय काल के अन्त में अपनी पीठ से घोर मलिन पातक को पैदा किया। उनकी पीठ से पैदा हुआ पातक 'अधर्म' नाम से प्रसिद्ध हुआ। उस अधर्म वंश के श्रवण, कीर्तन (अथवा रहस्य जानने से) और स्मरण करने से सभी प्राणी समस्त पापों से मुक्ति पाते हैं। तदन्तर बिल्ली के जैसी आँखों वाली (और) अत्यन्त लुभाने वाली 'मिथ्या' नाम की (नारी) उस अधर्म की पत्नी हुई। इस दम्पति का अत्यन्त तेजस्वी और महाक्रोधी 'दम्भ' नाम का पुत्र पैदा हुआ। उसी अधर्म और मिथ्या से 'माया' नाम की एक पुत्री भी पैदा हुई। सगर्भा माया और दम्भ के संयोग से 'लोभ' नाम का पुत्र और निकृति नाम की पुत्री पैदा हुई। फिर इसके बाद लोभ व निकृति के संयोग से 'क्रोध' नाम का एक पुत्र पैदा हुआ। उसी क्रोध की हिंसा नाम की सगर्भा जन्मी। हिंसा और क्रोध के संयोग से 'कलि' का जन्म हुआ। कलि ने बाएँ हाथ में उपस्थ को धारण किया। तेल मिले काजल के समान इस कलि के शरीर की चमकती काली कान्ति थी।

कौवे के से पेट वाले, विकराल और चंचल जीभ वाले तथा भयानक दुर्गंधयुक्त शरीर वाले इस कलि का निवास जुआ, शराब, स्त्री और सोने में हुआ। कलि की दुरुक्ति नामक भगनी हुई। कलि ने दुरुक्ति के गर्भ से भय नाम का पुत्र और मृत्यु नाम की पुत्री पैदा की। मृत्यु ने भय (अथवा सभय या भयानक) के वीर्य से निरय नाम का पुत्र पैदा किया। भय और मृत्यु की एक पुत्री पैदा हुई, जिसका नाम यातना था। निरय ने इसी यातना के गर्भ से हज़ारों पुत्र पैदा किए। इस प्रकार कलि के कुल में बहुत-से धर्म निन्दकों का जन्म हुआ। धर्म की निन्दा करने वाले ये लोग मानसिक व शारीरिक रोग, बुढ़ापे, ग्लानि, दुःख, शोक और भय का सहारा लेकर यज्ञ, स्वाध्याय, दानादि, वेद तथा तंत्र आदि का विनाश करने वाले हुए। कलिराज के ये अनुयायी, संसार का नाश करने वाले झुंड-के-झुंड लोगों ने चंचल, क्षणभंगुर और कामुक मनुष्यों का शरीर धारण किया।

ये लोग बहुत घमंडी, दुराचारी, माँ-बाप की हिंसा करने वाले ब्राह्मण योनि में जन्म लेकर भी वेद-विहीन व दीन और सदैव शूद्रों की सेवा करने वाले हुए। ये मनुष्य धर्म, वेद, बहुत रस (शराब) और मांस बेचने वाले संस्कारहीन, क्रूर व कुतर्क करने वाले तथा काम-वासना और पेट के गुलाम, अलमस्त (मतवाले) और परस्त्रीगामी एवं नीच, वर्ण-संकर पैदा करने वाले हुए। ये (कलि के सेवकगण मनुष्य) बौने, पाप में डूबे, दुष्ट, मठों में रहने वाले तथा सोलह साल तक की आयु वाले व अपने सालों को सगा बन्धु मानने वाले और नीचों की संगति करने वाले हुए। बहस और झगड़ों में क्षुब्ध (दुःखी), केश-वेष को ही आभूषण के रूप में सजाने वाले (अथवा केशविन्यास में आसक्त), धनी व ब्याज लेने वाले और कुलीन कहलाने वाले ब्राह्मण कलियुग में पूजनीय समझे गए। संन्यासी लोग घर गृहस्थी के अनुरागी, गृहस्थ लोग अच्छे-बुरे के ज्ञान से रहित, शिष्यगण गुरुओं की निन्दा करने वाले और धर्म की ध्वजा उठाने वाले साधु भले लोगों को ठगने वाले हुए। कलियुग में शूद्र लोग दान लेने वाले और दूसरों का सर्वस्व छीन लेने वाले हुए। स्त्री-पुरुष की सम्मति ही विवाह समझा जाने लगा।

दुष्टों की मित्रता अच्छी समझी जाने लगी (अथवा, मित्र ही शठ हुए)। दान के बदले दान को दानशीलता समझा जाने लगा। न्यायकर्त्ता अपराधियों को दण्ड देने में असमर्थ होकर क्षमाशील हुए। दुर्बल के प्रति उदासीनता दिखाई जाने लगी। बहुत बोलने वाले ही पण्डित कहे जाने लगे। यश पाने की इच्छा से ही लोग धर्म प्रचार (अथवा धर्म का सेवन) करने लगे। धनवान् लोगों को ही सज्जन समझा जाने लगा, दूरदेश का जल ही तीर्थ हो गया, केवल जनेऊ पहन लेने से ब्राह्मणत्व माना जाने लगा और संन्यासी का चिह्न (लक्षण) दण्ड- धारण मात्र रह गया। धरती कम अनाज पैदा करने लगी, नदी किनारे (अथवा अपना किनारा) छोड़कर दूसरे स्थान पर बहने लगी। स्त्रियाँ वेश्याओं जैसी बातचीत में सुख समझने लगीं और उनका अपने पतियों से प्रेम जाता रहा। दूसरों के अन्न के लालची ब्राह्मण लोग चण्डालों के घरों में यज्ञ कराने लगे। सधवा स्त्रियाँ (अथवा विधवा वैधव्य का आचरण त्यागकर) मनमाना आचरण करने लगीं।

बादलों ने खण्ड वर्षा बरसानी शुरू की, धरती कम अनाज पैदा करने वाली हो गई। राजा लोग प्रजा को ही खाने लगे और प्रजा करों के बोझ से परेशान हो गई। अभागी प्रजा कष्ट से अत्यन्त क्षुब्ध (दुःखी) होकर कन्धे पर बोझ और हाथ (गोद) में पुत्र लेकर पर्वत और गहन वनों का आश्रय लेने लगी। और भी सुनो शराब, माँस, मूल व फलों का आहार जीवन का आधार हुआ। वे लोग भगवान् श्री कृष्ण की निन्दा करने वाले हो गए। कलियुग के प्रथम चरण में लोगों की यह दशा हुई। कलि के दूसरे चरण में लोग भगवान् (श्री कृष्ण) का नाम तक नहीं लेते, तीसरे चरण में वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति हुई और चौथे चरण में तो सभी वर्ण समाप्त होकर लोग एक ही वर्ण के रह गए। (जाति-पाँति ही कुछ न रही)। लोग (सत्कर्म और) ईश्वर (की आराधना) को भी भूल गए। स्वाध्याय, स्वधा, स्वाहा, वषट् तथा ओंकारादि के लुप्त होने पर सभी निराहार देवतागण ब्रह्मा जी की शरण में गए। देवतागण क्षीण, दीन और चिन्ताशील पृथ्वी को आगे करके ब्रह्मलोक में गए। उन्होंने ब्रह्मलोक को वेद ध्वनि से गूंजता हुआ पाया।

यज्ञ के धुएँ से भरे, मुनिश्रेष्ठों से सेवित, सोने की बनी वेदी में प्रज्ज्वलित दक्षिणाग्नि, यज्ञ के खंभों से सजे हुए और वन के फूलों और फलों से परिपूर्ण उद्यान, जहाँ सरोवर में वायु के झकोरों से चंचल बेलों के बीच फूलों पर बैठे भौंरों (तथा सारस और हंसों) द्वारा मधुर स्वर से मानों प्रणाम, आह्वान या सत्कार द्वारा पथिकों का स्वागत किया जा रहा है। वहाँ से शोकाकुल देवतागण अपने स्वामी इन्द्र के साथ अपने कार्य यानी कलि द्वारा पैदा किए अपने दुःखों को बताने (निवेदन करने) के लिए ब्रह्मसदन के अन्दर गए। वहाँ पहुँच कर सब देवताओं ने सनक, सनंदन तथा सनातन आदि सिद्धों द्वारा पदकमल सेवित (एवं) सदासन पर विराजमान तीनों लोकों के स्वामी भगवान् ब्रह्मा जी को प्रणाम किया।"

श्रीः कल्किपुराणम् \ प्रथमअंश-प्रथमअध्याय संस्कृत में

सेन्द्रा देव-गणा मुनिईश्वर-जना लोकाः सपालाः सदा
स्वं स्वं कर्म सुसिद्धये प्रतिदनं भक्त्या भजन्त्य् उत्तमाः

(यं सर्वअर्थम् उसिद्धये इत्य् एवं सङ्गच्छते)

तं विघ्नेशम् अनन्तम् अच्युतम् अजम् सर्वज्ञ-सर्वआश्रयम् ।
वन्दे वैदिक-तान्त्रिकआदि-विविधैः शास्त्रैः पुरो वन्दितम्॥१

नारायणं नमस्कृत्य नरञ् चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीञ् चैव ततो जयम् उदीरयेत्॥२

यद्दोर्दण्डकरालसर्पकवलज्वालाज्वालद्विग्रहाः ।
तेनुःसत्करवालदण्ड-दलिता भूपाः क्षिति-क्षोभकाः
शश्वत् सैन्धववाहनो द्विज जनिः कल्किः परात्मा हरिः ।
पायात् सत्य-युगआदिकृत्स भगवान् धर्म-प्रवृत्ति-प्रियः॥३

इति सूत-वचः श्रुत्वा नैमिषारण्यवासिनः ।
शौनकाद्या महाभागाः पप्रच्छुस् तं कथाम् इमाम्॥४

हे सूत! सर्व-धर्म-ज्ञ! लोम-हर्षण-पुत्रक ।
त्रि-काल-ज्ञ! पुराणज्ञ! वद भागवतीं कथाम्॥५

कः कलिः? कुत्र वा जातो जगताम् ईश्वरः प्रभुः ।
कथं वा नित्यधर्मस्य विनाशः कलिना कृतः?॥६

इति तेषां वचं श्रुत्वा सूतो ध्यात्वा हरिं प्रभुम् ।
सहर्षपुलकोद्भिन्न-सर्वाङ्गः प्राह तान् मुनीन्॥७

सूत उवाच)

शृणुध्वम् इदम् आख्यानं भविष्यं परमअद्भुतम् ।
काथितं ब्रह्मणा पूर्वं नारदाय विपृच्छते॥८

नारदः प्राह मुनये व्यासायअमित-तेजसे ।
स व्यासो निज-पुत्राय ब्रह्मराताय धीमते॥९

स च अभिमन्यु-पुत्राय विष्णुराताय संसदि ।
प्राह भागवतान् धर्मान् अष्टा-दश-सहस्रकान्॥१०

तदा नृपे लयं प्राप्ते सप्ताहे प्रश्नशोषितम् ।
मार्कण्देयआदिभिः पृष्तः प्राह पुण्यआश्रमे शुकः॥११

तत्रा’हं तद् अनुज्ञातः श्रुतवान् अस्मि याः कथाः ।
भविष्याः कथयामिइह पुण्या भागवतीः शुभाः॥१२

ताः शृणुध्वम् महा-भागाः समाहितधियो’निशम् ।
गते कृष्ने स्वनिलयम् प्रादुर्-भूतो यथा कलिः॥१३

प्रलयान्ते जगत्स्रष्टा ब्रह्मा लोक-पितामहः ।
ससर्ज घोरं मलिनं पृष्ठदेशात् स्वपातकम्॥१४

स च अधर्म इति ख्यातस् तस्य वंशा’नुकीर्तिताम्
श्रवणात् स्मरणाल् लोकः सर्व-पापैः प्रमुच्यते॥१५

अधर्मस्य प्रिया रम्या मिथ्या मार्जार-लोचना ।
तस्य पुत्रो’ति-तेजस्वी दम्भः परमकोपनः॥१६

स मायायां भगिन्यान्तु लोभं पुत्रञ् च कन्यकाम् ।
निकृतिं जनयाम् आस तयोः क्रोधः सुतो’भवत्॥१७

स हिंसायां बगिन्यान्तु जनयाम् आस तं कलिम् ।
वाम-हस्त-धृतोपस्थं तैला’भ्यक्ता’ञ्जन-प्रभम्॥१८

काकोदरं करालास्यं लोलजिह्वं भयानकम्  ।
पूतिगन्धं द्यूतमद्यस्त्रीसुवर्णकृताश्रयम्॥१९

भगिन्यान्तु दुरुक्यां स भयं पुत्रञ् च कन्यकाम् ।
मृत्युं स जनयामास तयोश् च निरयो’भवत्॥२०

यातनायां भगिन्यान्तु लेभे पुत्रायुतायुतम् ।
इत्थं कलिकुले जाता बहवो धर्मनिन्दकाः॥२१

यज्नाध्ययनदानादि वेद-तन्त्र-विनाशकाः ।
आधिव्याधिजराग्लानि दुःख-शोक-भयाश्रयाः॥२२

कलिराजानुगाश्चेरुर्यूथशो लोक-नाशकाः ।
बभूवुः कालविभ्रष्ताः क्षणिकाः कामुका नराः॥२३

दम्भाचार-दुराचारा स्तातमातृविहिंसकाः ।
वेदहीना द्विजा दीनाः शूद्रसेवापराः सदा॥२४

कुतकर्वादबहुला धर्मविक्रयि,ञो’धमाः ।
वेदविक्रयिणो व्रात्या रसविक्रयिणस् तथा॥२५

मांसविक्रयिणः क्रूराः शिश्नोदरपरायणाः ।
परदाररता मत्ता वर्णसङ्करकारकाः॥२६

ह्रस्वाकाराः पाप-साराः शठा मठनिवासिनः शठ ।
षोडशाब्दायुषः श्याल-बान्धवा नीचसङ्गमाः॥२७

विवादकलहक्षुब्धाः केशवेशविभूषणाः ।
कलौ कुलिना धनिनः पूज्या वार्धुषिका द्विजाः॥२८

सन्यासिनो गृहासक्ता ग्रहस्थास्त्वविवेकिनः ।
गुरुनिन्दापरा धर्मध्वजिनः साधुवञ्चकाः॥२९

प्रतिग्रहरताः शूद्राः परस्वहरणादराः।
द्वयोः स्वीकारम्-उद्वाहः शठे मैत्री वदान्यता॥३०

प्रतिदाने क्षमाशच्तौ विरक्तिकरणाक्षमे प्रतिदाने क्षमाशच्तौ विरक्तिकरणाक्षमे ।
वाचालत्वञ् च पाण्दित्ये यशो’र्थे धर्म-सेवनम्॥३१

धनाढ्यत्वञ् च साधुत्वे दूरे नीरे च तीर्थता।
सूत्रमात्रेण विप्रत्वं दण्डमात्रेण मस्करी॥३२

अल्पशस्या वसुमती नदीतीरे’वरोपिता।
स्त्रियो वेश्यालापसुखाः स्वपुंसा त्यक्त मानसाः॥३३

परान्नलोलुपा विप्राश् चण्दाल-गृहयाजकाः।
स्त्रियो वैधव्यहीनाश् च स्वच्छन्दाचरणप्रियाः॥३४

चित्र-वृष्टिकरा मेघा मन्दशस्या च मेदिनी।
प्रजाभक्षा नृपा लोकाः करपीडाप्रपीडिताः॥३५

स्कन्धे भारं करे पुत्रं कृत्वा क्षुब्धाः प्रजाजनाः।
गिरिदुर्गं वनं घोरम् आश्रयिष्यन्ति दुर्भगाः॥३६

मधु-मांसैर्-मूल-फलैर्-आहारैः प्राणधारिणः।
एवं तु प्रथमे पादे कलेः कृष्णविनिन्दकाः॥३७

द्वितीये तन्-नाम-हीनास् तृतीये वर्ण-सङ्कराः।
एक-वर्णाश् च तुर्थे च विस्मृतअच्युत-सत्च्रियाः॥३८

निःस्वाध्याय-स्वधा-स्वाहा-वौषड्-ओं-कार-वर्जिताः।
देवाः सर्वे निराहाराः ब्रह्माणं शरणं ययुः॥३९

धरित्रीमग्रतः कृत्वा क्षीणां दीनां मनस्विनीम्।
ददृशुर् ब्रह्मणो लोकं वेदध्वनिनिनादितम्॥४०

यज्ञ-धूमैः समाकीर्णं मुनि-वर्य-निषेवितम्।
सुवर्ण-वेदिकामध्ये दक्षिणावर्तम्-उज्ज्वलम्॥४१

वह्नि यूपाङ्क्वितोद्यान-वन-पुष्प-फलअन्वितम्।
सरोभिः सारसैर् हंसैर् आह्वयन्तम् इवातिथिम्॥४२

वायुलोललताजाल कुसुमालिकुलाकुलैः।
प्रणाम् आह्वान-सत्कार-मधुरालापवीक्षणैः॥४३

तद् ब्रह्म-सदनं देवाः सेश्वराः क्लिन्न-मानसाः।
विविशुस् तद् अनुज्ञाता निजकार्यं निवेदितुम्॥४४

त्रिभुवन-जकं सदासनस्थं सनक-सनन्दन-सनातनैश् च सिद्धैः।
परिसेवितपादकमलं ब्रह्माण देवता नेमुः॥४५

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये कलि-विवरणं नाम प्रथमो ध्यायः॥१

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