श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \पाँचवाँ अध्याय | Shri Kalki Purana Second Part \Fifth Chapter

श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \पाँचवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में

सूत उवाच

उपविष्ते तदा हंसे भिक्षां कृत्वा यथोचिताम्।
ततः प्राहुर् अनन्तस्य शरीरारोग्यकाम्यया॥१

सूत जी बोले- परमहंस (संन्यासी) यथोचित (जैसी उचित हो) भिक्षा पाकर बैठ गए। इसके बाद पुरुषोत्तम निवासी ब्राह्मण ने पूछा- 'अनन्त किस प्रकार स्वस्थ होंगे ?' परमहंस संन्यासी उनकी बात समझ गए और मुझे सामने देखकर मेरी ओर देखकर बोले- 'हे अनन्त ! तुम चारुमती नाम की अपनी स्त्री, बुध आदि बेटों, धनरत्न से भरे-पूरे सुन्दर भवनों तथा महलों को छोड़कर यहाँ पर कब आए हो ? क्या आज तुम्हारे पुत्र के विवाह का दिन है? आज भी तुम्हें मैंने समुद्र तट पर घूमते हुए देखा है। वहाँ के सभी धार्मिक लोग तुम्हारा सम्मान करते हैं। मुझे भी निमन्त्रण देकर तुम शोक से व्याकुल हुए अपनी नगरी से यहाँ क्यों आ गए?



हे अनन्त ! मैंने तुम्हें (वहाँ उस समय) सत्तर वर्ष की आयु का वृद्ध देखा था, परन्तु इस समय यहाँ तुम तीस साल के जवान क्यों दिखाई देते हो ? मुझे अत्यन्त संभ्रम है। मैं देखता हूँ कि यह स्त्री तुम्हारी सहायिका पत्नी है, परन्तु वहाँ मैंने इसे पहले नहीं देखा था। (यह कहाँ से आई है?) (मैं यह भी नहीं जानता कि मैं भी कहाँ से, किस तरह और किस जगह पर आया हूँ तथा कौन मुझे यहाँ लाया ?) तुम क्या वही अनन्त हो ? अथवा और कोई हो ? मैं भी क्या वही भिक्षुक हूँ अथवा अन्य कोई हूँ ? मेरा और तुम्हारा दोनों का इस स्थान पर मिलना इन्द्रजाल जैसा मालूम पड़ता है। तुम अपने धर्म में लगे हुए गृहस्थ हो और मैं परमार्थ (आध्यात्मिक) चिन्ता में लगा हुआ भिक्षुक ब्राह्मण हूँ। यहाँ पर हम दोनों की बातचीत बालक और एक उन्मत्त की बातचीत के समान निरर्थक जान पड़ती है। हे द्विज ! (ब्राह्मण दो बार जन्म लेने के कारण द्विज कहलाते हैं- एक बार माता के गर्भ से और दूसरी बार यज्ञोपवीत अर्थात् विद्यारंभ से जन्म माना जाता है) मुझे जान पड़ता है कि यह परमेश्वर की माया है। इसी कारण तीनों लोकों के प्राणी मोहित हुए जान पड़ते हैं। साधारण ज्ञान से इसका रहस्य समझ नहीं आता। अद्वैत ज्ञान (जब आत्मा और परमात्मा का भेद मिट जाता है) होने पर यह माया पूरी तरह समझ में आ जाती है।

महान् संन्यासी भिक्षुक इस तरह भौंचक्का हुए (मुझसे इतना ही कहा, फिर पास खड़े एक साधु से) बोले- हे महाभाग, मार्कण्डेय! मैं तुम्हें भविष्य की कथा बताता हूँ। सुनो - तुमने देखा कि प्रलय के समय भगवान् विष्णु के उदर का आश्रय लेकर जल में सब को मोहित करने वाली माया ऐसे रहती है, जैसे राजमार्ग में स्थित वेश्या। यही माया तीनों लोकों में व्याप्त होकर रहती है। यही माया तमोगुण (काम, क्रोध आदि दुर्गुण) धारण कर सब को उस झूठे संसार में चलाती है।

यही माया उस दुःख का कारण है, जो अनन्त है। यह माया अक्षरी है अर्थात् इसका नाश कोई नहीं कर सकता। प्रलय काल में जब तीनों लोकों का नाश हो जाता है, जब प्रकाश न होने से सब ओर अँधेरा हो जाता है, जब दिशाओं, काल आदि का कोई चिह्न नहीं रहता, तब परमब्रह्म सृष्टि बनाने की इच्छा करके तन्मात्रा रूप (शब्द, रस, स्पर्श, रूप और गन्ध यानी सूक्ष्म और मूल तत्व) में प्रकट होते हैं। सबसे पहले ब्रह्म अपनी शक्ति से पुरुष और प्रकृति इन दो भागों में बँटे, फिर काल की सहायता से पुरुष और प्रकृति का संयोग हुआ, जिससे महत् तत्व पैदा हुआ। काल, स्वभाव और कर्म से युक्त यह महत् तत्त्व ही अहंकार रूप में परिणत हुआ। यह अहंकार गुण भेद से सत्व, रज, तम के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव के रूप में परिणत होता है। सबसे पहले अहंकार तत्व से त्रिगुण वाले पंचतन्मात्र यानी शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध पैदा होते हैं। इन पंचतन्मात्र से पाँच महाभूत पैदा होते हैं। प्रकृति में ब्रह्म के स्थित होने से इस तरह सृष्टि बनती है। इसके बाद देवता, असुर, मनुष्य और इस ब्रह्माण्ड रूपी बरतन के पेट में जितने भी जीव-जन्तु और पदार्थ हैं, जो उत्पन्न और नष्ट होते हैं, वे सब पैदा होते हैं। परमात्मा की माया से ये सभी जीव ढके रहते हैं, जिससे ये संसार में फँसे और दुनियादारी के कामों में बँधे रहते हैं। (इसीलिए) ये अपने उद्धार का कोई भी उपाय नहीं सोच पाते। कैसा आश्चर्य है! माया कैसी बल वाली यानी सामर्थ्य वाली है। ब्रह्मा आदि देवतागण भी इसी माया के वश में हो जाने के कारण ऐसे ले जाए जाते हैं, जैसे नकेल से बँधा बैल या डोर से बँधा पंछी खिंचे चले जाते हैं। जो मुनियों में श्रेष्ठ लोग इस प्रकार की वासना रूपी मगरमच्छों से भरी नदी को, यानी उस नदी को जो कि गुणमयी माया है, पार करने की इच्छा करते हैं, उनका जन्म ही संसार में सार्थक है, (क्योंकि ऐसे लोग) तत्वज्ञानी हैं।'

शौनक जी ने कहा- 'मार्कण्ड, वशिष्ठ, वामदेव तथा दूसरे मुनियों ने ये आश्चर्यजनक वचन सुनकर क्या कहा ? अनन्त की बात सुनने वाले राजाओं ने अनन्त के मुख से अमृत के समान मधुर वाक्य सुन कर क्या कहा ? हे सूत जी! वे सभी भविष्य की बातें बताइए।' सूत जी ने शौनक जी की प्रशंसा करते हुए शोक और मोह को नाश करने वाली तत्वज्ञान की पूरी बात विस्तार से सुनानी आरंभ की। सूत जी बोले- इसके बाद राजाओं ने आदरपूर्वक अनन्त जी से पूछा। अनन्त जी ने मायामोह को तप से कैसे नष्ट किया जाए और इन्द्रियों को कैसे वश में किया जाए - यह सब बताया।

अनन्त जी बोले- 'इसके बाद मैंने वन में जाकर विधिपूर्वक तप करना शुरू किया, परन्तु किसी भी तरह इन्द्रिय और मन को वश में न कर सका। मैं वन में बैठ कर जब कभी भगवान् का ध्यान करता था, उसी समय मैं बराबर स्त्री, पुत्र, धन और दूसरी सभी बातें याद करने लगा। उनकी (स्त्री, पुत्र, ऐश्वर्य आदि की) याद आते ही मेरे मन में ध्यान को नाश करने वाले दुःख, शोक, डर आदि पैदा होकर ध्यान में विघ्न डालने लगे। इसके बाद मैंने इन्द्रियों के निग्रह करने का संकल्प किया। मैंने सोचा कि इन्द्रियों को वश में करने से निश्चय ही मन को वश में कर लूँगा। मैं जब इस तरह से निश्चय कर इन्द्रियों को वश में करने लगा, तब इन्द्रियों के स्वामी देवतागण मेरी ओर देखने लगे।

दस इन्द्रियों के स्वामी देवताओं ने अपने रूप सहित प्रकट होकर मुझसे कहा- 'हे अनन्त ! हम दिशा, वात, सूर्य, प्रचेता, दो अश्विनी कुमार, अग्नि, इन्द्र, उपेन्द्र और मित्र हैं।' दस इन्द्रियों के हम दस अधिष्ठता देवता हैं। हम तुम्हारे शरीर में मौजूद हैं। हमें नाखून के अगले भाग से छिन्न-भिन्न करना तथा नष्ट करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। क्या इस तरह से मन को वश में करके तुम अपना कल्याण कर सकोगे ? कभी नहीं। इन्द्रियों को नष्ट-भ्रष्ट करने से तुम्हारे मर्म (प्राणों) को चोट पहुँचने पर तुम मर जाओगे। हम देखते हैं कि अन्धे, बहरे, और विकलांग (लंगड़े-लूले अथवा विकल अंग वाले) जीव जब निर्जन वन में वास करते हैं, तब भी उनका मन विषय-भोग में ललचाया रहता है। जीव रूपी गृहस्थ का यह शरीर घर है और मन के पीछे चलने वाली बुद्धि इसकी स्त्री है और हम सब लोग बुद्धि रूपी स्त्री के पीछे चलने वाले सेवक हैं। जीवगण अपने-अपने कर्मों के अधीन हैं। मुक्ति और संसार (बंधन) का कारण मन है। परमात्मा की माया के अनुगत हुआ मन ही लालची प्राणी (जीव) को संसार रूपी चक्र में घुमाया करता है। इसलिए तुम मन को वश में करने के लिए अपने मन को भगवान् विष्णु की भक्ति में लगाओ। भगवान् विष्णु की भक्ति ही सदैव सभी कर्मों का नाश करके सुख और मोक्ष देने वाली है। श्री विष्णु भगवान् की भक्ति से द्वैत और अद्वैत का ज्ञान हो जाता है। वह भक्ति आनन्द के समूह को देने वाली है। हे उत्तम बुद्धि वाले ! हरि की भक्ति से ही जीव कोष का नाश होगा। इस समय कल्कि जी के दर्शन से तुम परम निर्वाण अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर सकोगे।'

परमहंस संन्यासी के इस उपदेश को सुनकर मैं भक्तिपूर्वक केशव जी की पूजा करके कलिकुल के नाश करने वाले कल्कि जी के दर्शन करने इस स्थान पर आया हूँ। इस स्थान पर अरूप अर्थात् निराकार ईश्वर के रूप का दर्शन कर पाया। पदहीन (जिनके पैर नहीं हैं ईश्वर के कोंपल के समान चरण को छू कर मैं कृतार्थ (धन्य) हो गया। वाणीरहित जगत्पति की बातें सुनीं। यह कहकर प्रसन्न चित्त अनन्त मुनि अपने ईश्वर, कमल के समान नेत्रों वाले, लक्ष्मी जी के स्वामी कल्कि जी को प्रणाम करके चले गए। इस प्रकार मुनि के वचन सुनकर राजागण ने ऋषियों की तरह व्रत, नियमादि का अनुष्ठान करते हुए विधिपूर्वक कल्कि जी व पद्मा जी की पूजा कर मुक्ति प्राप्ति की।

शुक ने कहा- 'अनन्त जी की इस कथा को पढ़ने और सुनने से संसार की माया छूट जाती है, अज्ञान रूपी अँधेरा दूर हो जाता है और संसार के बन्धन से यानी जन्म- मरण से मुक्ति हो जाती है। जो धर्मात्मा वैष्णव लोग भगवान् विष्णु की सेवा में लगे रहने पर भी भोग-विलास की इच्छा से दुनिया रूपी सागर में फँसे रहते हैं, वे इस कथा के द्वारा भेद से रहित ज्ञानोल्लास की तेज तलवार को लेकर सुन्दर भक्ति रूपी दुर्ग (किले) के आश्रय में रह कर शरीर में रहने वाले छः शत्रुओं- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर्य (ईर्ष्या, द्वेष) को पराजित करेंगे यानी इन पर विजय पा लेंगे।'

श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \पाँचवाँ अध्याय संस्कृत में 

सूत उवाच

उपविष्ते तदा हंसे भिक्षां कृत्वा यथोचिताम्।
ततः प्राहुर् अनन्तस्य शरीरारोग्यकाम्यया॥१

हंसस् तेषां मतं ज्ञात्वा प्राह मां पुरतः स्थितम्।
तव चारुमती भार्या पुत्राः पञ्च बुधादयः॥२

धन-रत्नअन्वितं सद्म सम्बाधं सौधसंकुलम्।
त्यक्त्वा कदागतो ऽसिइह पुत्रो’द्वाह-दिने न तु॥३

समुद्र-तीरसञ्चारः पुराद् धर्मजनादृतः।
निमन्तृय मामिहायातः शोकसंविग्नमानसः॥४

त्वञ् च सप्तति वर्षीयस् तत्र दृष्तो मया प्रभो!।
त्रिंशद् वर्षीय-वत् कस्माद् इति मे संभ्रमो महान्॥५

इयं भार्या सहाया ते न तत्रालोकिता क्वचित्।
अहं वा क्व कुतस् तस्मात् कथं वा केन काशितः॥६

स एव वा न वापि त्वं नाहं वा भिक्षुर् एव सः।
आवयोर् इह संयोगश् चे’न्द्रजाल य्वा’भवत्॥७

त्वं ग्रहस्थः स्वधर्मज्ञो भिक्षुको ऽहं परात्मकः।
आवयोर् इह संवादो बालको’न्मत्तयोर् इव॥८

तस्माद् ईशस्य मायेयं त्रिजगन्-मोहकारिणी।
ज्ञानाप्राप्याद्वात-लभ्या मन्ये ऽहम् इति बो द्विज!॥९

इति भिक्षुः समाश्राव्य यद् अन्यत् प्राह विस्मितः।
मार्कण्देय! महाभाग! भविष्यं कथयामि ते॥१०

प्रलये या त्वया दृष्टा पुरुषस्यो’दराम्भसि।
सा माया मोहजनिका पन्थानं गणिका यथा॥११

तमो ह्य् अनन्त-सन्तापा नोदनोद्यतम् अक्षरी।
यये’दम् अखिलं लोकम् आवृत्यावस्थयास्थितम्॥१२

लये लीने त्रिजगति ब्रह्मतन्मात्रतां गतः।
निरुपाधौ निरालोके सिसृक्षुर् अभवत् परः॥१३

ब्रह्मण्य् ऽपि द्विधाभूतो पुरुष-प्रकृती स्वया।
भासा संजनयाम् आस महान्तं कालयोगतः॥१४

कालस्वभावकर्मात्मा सोऽहङ्-कारस् ततो ऽभवत्।
त्रिवृद्-विष्णु-शिव-ब्रह्म-मयः संसार-कारणम्॥१५

तन्मात्राणि ततः पञ्च जज्ञिरे गुणवन्ति च।
महाभूतान्य् अपि ततः प्रकृतौ ब्रह्मसंश्रयात्॥१६

जाता देवअसुर_नरा ये चअन्ये जीव-जातयः।
ब्रह्माण्ड-भाण्ड-संभार-जन्म-नाश-क्रियात्मिकाः॥१७

मायया मायया जीव-पुरुषः परमात्मनः।
संसारशरणव्यग्रो न वेदात्मगतिं क्वचित्॥१८

अहो बलवती माया ब्रह्माद्या यद् वशे स्थिताः।
गावो यथा नसि प्रोता गुणबद्धाः खगा इव॥१९

तां मायां गुणमय्यां ये तितीर्षन्ति मुनीश्वराः।
स्रवन्तीं वासनानक्रां त एवार्थविदो भुवि॥२०

शौनक उवाच

मार्कण्देयो वशिष्ठश् च वामदेवादयो ऽपरे।
श्रुत्वा गुरुवचो भूयः किम् आहुः श्रवणादृताः॥२१

राजानो ऽनन्त-वचनम् इति श्रुत्वा सुधोपमम्।
किं वा प्राहुर् अहो सूत! भविष्यम् इह वर्णय॥२२

इति तद् वच आश्रुत्य सूतः सत्कृत्य तं पुनः।
कथयाम् आस कार्त्स्न्येन कार्त्स्न्येन शोक-मोह-विघातकम्॥२३

सूत उवाच

तत्रअनन्तो भूप-गणैः पृष्तः प्राह कृतादरः।
तपसा मोहनिधनम् इन्द्रियाणाञ् च निग्रहम्॥२४

अनन्त उवाच

अतो ऽहं वनमासाद्य तपः कृत्वा विधानतः।
ने’न्द्रियाणां न मनसो निग्रहो ऽभूत् कदाचन॥२५

वने ब्रह्म ध्यायतो मे भार्या-पुत्र-धनादिकम्।
विषयञ् चअन्तरा शश्वत् संस्मारयति मे मनः॥२६

तेषां स्मरणमात्रेण दुःख-शोक-भयआदयः।
प्रतुदन्ति मम प्राणान् धारणा-ध्यान-नाशकाः॥२७

ततो ऽहं निश्चितमतिर् इन्द्रियाणाञ् च घातने।
मनसो निग्रहस् तेन भविष्यति न संशयः॥२८

अतो माम् इन्द्रियाणान् च निग्रह-व्यग्र-चेतसम्।
तद् अधिष्थातृ-देवाश् च दृष्ट्वा मामीयुरञ्जसा॥२९

रूपिणो माम् अथो’चुस् ते भो ऽनन्त! इति ते दश।
दिग्-वातअर्क-प्रचेतो ऽश्वि-वह्निइन्द्रो’पेन्द्र-मित्रकाः॥३०

इन्द्रियाणां वयं देवास्तव देहे प्रतिष्ठिताः।
नखाग्रकाण्डसंभिन्नान् नास्मान् कर्तुम् इहअर्हसि॥३१

न श्रेयो हि तवअनन्त! मनो-निग्रह-कर्मणि।
छेदने भेदने ऽस्माकं भिन्न-मर्मा मरिष्यसि॥३२

अन्धानां बधिराणाञ् च विकलेन्द्रियजीविनाम्।
वने ऽपि विषयव्यग्रं मानसं लक्षयाम् अहो॥३३

जीवस्यअपि गृहस्थस्य देहो गेहं मनो ऽनुगः।
बुद्धिर् भार्या तद् अनुगा वयम् इत्य् अवधारय॥३४

कर्मायत् तस्य जीवस्य मनो बन्ध-विमुक्ति-कृत्।
संसारयति लुब्धस्य ब्रह्मणो यस्य मायया॥३५

तस्मान् मनोनिग्रहार्थं विष्णु-भक्तिं समाचर।
सुख-मोक्ष-प्रदा नित्यं दाहिका सर्व-कर्मणाम्॥३६

द्वैतअद्वैत-प्रदआनन्द-सन्दोहा हरि-भक्तिका।
हरि-भक्त्या जीव-कोष-विनाशान्ते महामते!॥३७

परं प्राप्स्यसि निर्वाणं कल्केर् आलोकनात् त्वया।
इत्य् अहं बोधितस् तेन भक्त्या संपूज्य केशव्म्॥३८

कल्किं दिदृक्षुर् आयातः कृष्णं कलि-कुला’न्तकम्॥३९

दृष्तं रूपम् अरूपस्य स्पृष्टस् तत्पद-पल्लवः।
अपदस्य श्रुतं वाक्यम् अवाच्यस्य परात्मनः॥४०

इत्य् अनन्तः प्रमुदितः पद्मानाथं निजेश्वरम्।
कल्किं कमलपत्राक्षं नमस्कृत्य ययौ मुनिः॥४१

राजानो मुनि-वाक्येन निर्वाण-पदवीं गताः।
कल्किम् अभ्यर्च्य पद्माञ् च नमस्चृत्य मुनिव्रताः॥४२

शुक उवाच

अनन्तस्य कथाम् एताम् अज्ञानध्वान्त-नाशिनीम्।
माया-नियन्त्रीं प्रपठञ् छृण्वन् बन्धाद् विमुच्यते॥४३

संसाराब्धि-विलासलालसमतिः श्री-विष्णु-सेवादरो।
भक्त्य्-आख्यानम् इदं स्वभेद-रहितं निर्माय धर्मात्मना।

ज्ञानो’ल्लास-निशात-खङ्गमुदितः सद्-भक्ति-दुर्गआश्रयः।
षड्वर्गं जयताद् अशेष-जगताम् आत्मस्थितं वैष्णवः॥४४

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये द्वितीयअंशे अनन्त-मायानिरसनं नाम पञ्चमो’ध्यायः॥५

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