श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \सातवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में
सूत उवाच
ततो विष्नुः सर्व-जिष्नुः कल्किः कल्क-विनाशनः।
कालयाम् आस तां सेनां करिणीम् इव केसरी॥१
सूत जी बोले- इसके बाद, हथिनी पर हमला करने वाले शेर की भाँति श्री विष्णु-अवतार श्री कल्कि जी ने, जो कि पापों का नाश करने वाले हैं और सब पर विजय पाने वाले हैं, ने उस बौद्ध सेना पर धावा बोल दिया। युद्ध में खून में रंगी हुई, जिस की कमर नंगी हो गई हो, जिसके सुन्दर बाल फैले हुए हों, जो भाग रही हो, बिलख रही हो, जो रतियुद्ध में घायल हो गई हो, ऐसी नायिका की तरह जो सेना हो, उस भागती हुई सेना से सैन्य नायक कल्कि जी बोले- 'हे बौद्ध लोगो ! तुम सब युद्ध के क्षेत्र से मत भागो। लड़ाई के लिए तैयार हो वापस लौटो और अपना बल तथा बहादुरी दिखाने में किसी तरह की कमी न करो।'

कल्कि जी के ये वचन सुन कर वह बलहीन जिन (बौद्धों का नायक) क्रोधित होकर सांड पर सवारी किए चमड़े की (ढाल और) तलवार लेकर लड़ाई के लिए उन के सामने दौड़ा। विविध हथियारों से लैस अनेक प्रकार के युद्ध करने में पारंगत (अत्यन्त दक्ष) वह जिन कल्कि जी के साथ युद्ध करने लगा। युद्ध में उसकी चतुराई देखकर देवतागण भी अचंभे में पड़ गए। उसने भाले से घोड़े को बेधा और बाण से कल्कि जी को बेहोश कर जल्दी ही उन्हें गोदी में उठाने की कोशिश करने लगा, पर किसी भी तरह उन्हें न उठा सका। जिन ने कल्कि जी को संसार का भरण-पोषण करने वाला जानकर, क्रोध पूर्वक देखते हुए उनके साथ दास (बन्दी) का-सा व्यवहार कर उनके कवच और अस्त्र-शस्त्र छिन्न-भिन्न कर डाले। यह देखकर विशाखयूपराज जी ने गदा से जिन को घायल किया और अपनी ही लीला से मूच्छित हुए कल्कि जी को अपने रथ पर चढ़ाकर चल दिए। कल्कि जी, फिर होश में आने पर, भक्तों को उत्साह देने के लिए विशाखयूपराज के रथ से उछल कर पृथ्वी पर कूदकर जिन के सामने चले।
कल्कि जी का अत्यन्त बलवान् घोड़ा भी भालों की चोट की चिन्ता किए बिना, युद्ध भूमि में कूदकर-घूमकर, पैरों की मार से, दाँतों की चोट से, बालों को खींचकर (अथवा, अपने अयाल और बालों से) बौद्ध सेना में स्थित हज़ारों दुश्मनों का क्रोधित होकर नाश करने लगा। (उस) घोड़े की भयंकर सांसों की हवा से उड़कर कोई-कोई वीर तो दूसरे द्वीप में जा गिरे और कोई हाथी-घोड़े रथ आदि से टकराकर युद्धभूमि में ही गिर पड़े। गर्य और उसके साथियों ने थोड़े ही समय में बौद्धों की छः हजार सेना का नाश कर दिया। भार्ग्य (और उसकी सेना) ने एक करोड़ दस हजार सेना को मार गिराया और विशाल तथा उसकी सेना ने पच्चीस हजार शत्रु नष्ट कर दिए। कवि ने अपने दोनों पुत्रों की सहायता से लड़ाई करके शत्रुओं की बीस हजार सेना का नाश किया। इसी प्रकार प्राज्ञ ने दस लाख और सुमंत्रक ने पाँच लाख सेना को हराया।
रण भूमि
इसके बाद, कल्कि जी हँसकर बौद्धों के सेनानायक जिन से बोले- 'हे दुष्ट बुद्धि वाले ! भागता क्यों है ? सब जगह शुभ और अशुभ फल देने वाले भाग्य स्वरूप मुझको समझकर मेरे सामने आ। मेरे बाणों से घायल होकर अब तुम परलोक चले जाओगे, तब तुम्हारे साथ कोई नहीं होगा। इसलिए इस बीच तुम अपने भाई-बंधुओं का सुन्दर मुख देख लो।' कल्कि जी के ये वचन सुनकर बलवान् जिन (बौद्धों का स्वामी) हँसकर बोला- 'अदृष्ट (दैव या भाग्य) कभी सामने प्रकट नहीं होता। हम सब प्रत्यक्ष (जो सामने दिखाई दे) को छोड़कर और किसी को न मानने वाले यानी प्रत्यक्षवादी बौद्ध हैं। शास्त्र में कहा है कि दैव हमारे द्वारा मारा जाएगा। अतः तुम्हारा श्रम व्यर्थ है। यदि तुम दैवस्वरूप हो तो भी हम सब तुम्हारे सामने मौजूद हैं। यदि तुम बाणों द्वारा हमें मारोगे तो क्या बौद्ध लोग तुम्हें छोड़ देंगे। हमारे लिए जो निन्दा भरे वचन तुमने कहे हैं, वे वचन तुम पर ही लौटेंगे। तुम स्थिर हो जाओ।' बौद्धों के नायक जिन ने ऐसा कह कर तेज बाणों से कल्कि जी को ढक दिया।
जिस प्रकार सूर्य के दर्शन से बर्फ की वर्षा नष्ट हो जाती है, उसी तरह बाणों की वर्षा कल्कि जी पर व्यर्थ सिद्ध हुई। (उनके स्पर्श से क्षीण हो गई।) (जिन द्वारा चलाए गए) ब्रह्मास्त्र, वायव्यास्त्र, आग्नेयास्त्र, मेघास्त्र और अनेक दूसरे अस्त्र (प्राचीन काल में भिन्न-भिन्न अस्त्रों से भिन्न- भिन्न प्रकार का विनाश होता था। जैसे किसी बाण से आग लगती थी, तो किसी से वर्षा होती थी आदि) कल्कि जी को देखते ही थोड़े ही समय में निष्फल हो गए। जिस प्रकार ऊसर धरती में बीज बोने से अनाज पैदा नहीं होता, जिस प्रकार वेद न जानने वाले को दान देने से फल नहीं मिलता, जिस प्रकार भले लोगों की बुराई करके विष्णु भक्ति का पुण्य नहीं मिलता, उसी तरह जिन के द्वारा फेंके गए सारे अस्त्र बेकार होने लगे।
इसके बाद कल्कि जी ने उछल कर सांड पर सवार जिन के बाल पकड़ लिए और दोनों ही पृथ्वी पर गिरकर (अरुण शिखा) मुर्गों की तरह भयंकर लड़ाई लड़ने लगे। पृथ्वी पर गिरने पर जिन ने अपने एक हाथ से कल्कि जी के बाल पकड़े और दूसरे हाथ से उनका हाथ पकड़ लिया। इसके बाद, चाणूर और श्रीकृष्ण की भाँति दोनों ने ही पृथ्वी तल से उठकर एक-दूसरे के बाल और हाथ पकड़ लिए। ये दोनों महा बलशाली बिना शस्त्रों के रीछों की तरह मल्ल युद्ध करने लगे। मस्त हाथी जिस तरह ताड़ के पेड़ को तोड़ डालता है, उसी तरह कल्कि जी ने अपने पैरों की चोट से जिन की कमर तोड़कर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया।
हे ब्राह्मणों! जिन को भूमि पर गिरा हुआ देख कर बौद्ध लोग हाहाकार करने लगे और शत्रु की मृत्यु देखकर (कल्कि जी की) सेना बहुत प्रसन्न हुई। जिन को रणभूमि में गिरा हुआ देखकर उसका भाई अत्यन्त बलवान् शुद्धोधन गदा लेकर कल्कि जी को मारने के लिए पैदल ही शीघ्रता से दौड़ा। हाथी पर सवार, शत्रु की सेना का नाश करने वाले कवि ने शुद्धोधन पर बाणों की बौछार की। उसे बाणों से ढक दिया और (हाथी को दबा लेने वाले) शेर के समान गरजने लगा। धर्म के जानने वाले कवि ने गदा धारण करने वाले शुद्धोधन को पैदल चलते देखा, तब वे स्वयं भी गदा लेकर पैदल ही शुद्धोधन के सामने खड़े हो गए। जिस तरह हाथी शत्रु-हाथी से दाँतों से लड़ाई करता है, उसी तरह गदा- युद्ध में चतुर, अत्यन्त वीर कवि और महा बलवान शुद्धोधन आपस में गदायुद्ध करने लगे।
लड़ाई के नशे में चूर दोनों वीर भयंकर आवाज करके गदा द्वारा एक-दूसरे पर किए जाने वाले वार से अपने-अपने को बचाने लगे। इसके बाद, कवि ने शेर जैसी गर्जना करते हुए अपनी कठोर गदा की चोट से शुद्धोधन की गदा को भूमि पर गिराकर जल्दी ही उसके हृदय पर गदा का वार किया। गदा की चोट लगते ही वीर शुद्धोधन भूमि पर गिर पड़ा, लेकिन सहसा उठ कर उसने फिर कवि पर गदा का प्रहार किया। गदा की चोट से कवि भूमि पर तो नहीं गिरे पर उनकी इन्द्रियाँ नाकारा-सी हो गईं और बेहोश होकर वे खंभे से खड़े रहे। शुद्धोधन महाबली, पराक्रमी और हजारों रथ चालकों के साथ कवि को देखकर माया देवी को बुलाने के लिए चल पड़ा।
जिस माया देवी को देखते ही देवता, राक्षस, मनुष्य तथा तीनों लोकों के सभी प्राणी प्राणरहित मूर्ति की तरह बेबस हो जाते हैं, शुद्धोधन आदि बौद्ध लोग उसी माया देवी को सामने लाकर लाखों-करोड़ों की संख्या में म्लेच्छ सेनापतियों सहित युद्ध के लिए तैयार हो गए। माया देवी के रथ पर सिंहध्वज (जिस झंडे पर शेर बना हो) सुशोभित था, उस पर चढ़कर उन्होंने अनेक अस्त्र-शस्त्र पैदा किए। उस माया देवी को चारों ओर से कौओं, गीदड़ों आदि ने घेर लिया और काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि षड् वर्ग (अवगुण) उसकी सेवा करने लगे। अनेक रूप धारण करने वाली बलवती त्रिगुणात्मिका माया देवी को सामने देखकर कल्कि जी की सेना भाग खड़ी हुई। (माया देवी को देखकर) शस्त्र धारण करने वाले सारे योद्धा तेजहीन मूर्ति की तरह शक्तिहीन हो गए।
इसके बाद प्रभु कल्कि जी अपने भाई, जाति और मित्रों आदि को अपनी माया रूपी पत्नी से लाचार और जीर्ण होते देख उसके पास पहुँचे। सुन्दर शरीर वाली, लक्ष्मी के से रूप वाली माया की ओर जैसे ही श्रीहरि (कल्कि) भगवान् ने देखा, वह प्यारी पत्नी के समान उनके शरीर में प्रविष्ट हो गई। अपनी माता माया को न देख पाने पर मुख्य बौद्ध लोग बल और पुरुषार्थ से हीन हो गए। वे सैकड़ों की संख्या में इकट्ठे होकर रोने-चिल्लाने लगे। अचरज से भरे चित्त वाले वे लोग कहने लगे- 'कहाँ चली गई ?'
इथर कल्कि जी ने अपनी सेना पर दृष्टि डाल उसको उठाया और म्लेच्छों (विधर्मियों) के नाश करने की इच्छा से तेज तलवार लेकर घोड़े पर सवार हो गए और तलवार की मूठ को जोर से पकड़ा। बाणों से भरे तरकस, सुन्दर धनुष, कवच और अंगुलि त्राण (उंगलियों को बचाने के लिए पहनी गई चमड़े की पट्टी) से उनके शरीर की शोभा बढ़ रही थी। कवच के ऊपरी भाग में सोने की बनी बिंदियाँ जड़ी हुई थीं, जो ऐसी चमक रही थीं, मानों नीचे बादलों के समूह में तारों की शोभा हो। मुकुट के अगले भाग में लगी हुई तरह-तरह की मणियाँ शोभा बढ़ा रही थीं। सुन्दरियों के नयनों को सुख देने वाले रस के मन्दिर कल्कि जी शत्रुओं के पक्ष को विक्षिप्त करने (पागल बनाने या गड़बड़ी पैदा करने के लिए रूखी टेढ़ी नजर से देखने लगे। भक्त जनों का मन कल्कि जी के कमल रूपी चरणों को देखकर प्रसन्न हुआ और धर्म की निन्दा करने वाले बौद्ध लोग डर गए। आकाश में देवतागण यह कहकर बहुत प्रसन्न हुए कि यज्ञ की अग्नि में अब फिर आहुति दी जाएगी।
जो सजी हुई सेना के समूह को इकट्ठा कर सभी शत्रुओं का नाश करने के इच्छुक हैं, जो युद्ध करने में लीला दिखा रहे हैं और जो साधुओं का सम्मान करने वाले हैं, जो अपने जनों के दुःख हरने वाले हैं और सभी जीवों का भरण-पोषण करने वाले हैं, ऐसे वे सज्जनों की इच्छा पूरी करने के लिए अवतार धारण करने वाले कल्कि भगवान् (हमारा) कल्याण करें।
श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \सातवाँ अध्याय संस्कृत में
सूत उवाच
ततो विष्नुः सर्व-जिष्नुः कल्किः कल्क-विनाशनः।
कालयाम् आस तां सेनां करिणीम् इव केसरी॥१
सेनाङ्गनां तां रतिसङ्गरक्षतीं रक्ताक्तवस्त्रां विवृतोरुमध्याम्।
पलायतीं चारुविकीर्णकेशां विकूजतीं प्राह स कल्किनायकः॥२
रे बौद्धा! मा पलायध्वं निवर्तध्वं रणाङ्गणे।
युध्यध्वं पारुषं साधु दर्शयध्वं पुनर् मम॥३
जिनो हीन-बलः कोपात् कल्केर् आकर्ण्य तद् वचः।
प्रतियोद्धुं वृषारूढः खड्ग-चर्म-धरो ययौ॥४
नाना-प्रहरणो’पेतो नानाआयुध-विशारदः।
कल्किना युयुधे धीरो देवानां विस्मयावहः॥५
शुलेन तुरगं विद्ध्वा कल्किं बाणेन मोहयन् ।
क्रोडीकृत्य द्रुतं भूमेर् नअशकत् तोलना’दृतः॥६
जिनो विश्वंभरं ज्ञात्वा क्रोधाकुलितलोचनः।
चिच्छेदास्य तनु-त्राणं कल्केः शस्त्रञ् च दासवत्॥७
विशाखयूपो ऽपि तथा निहत्य गदया जिनम्।
मूर्च्छितं कल्किम् आदाय लीलया रथम् आरुहत्॥८
लब्धसंज्ञस् तथा कल्किः सेवको’त्साह-दायकः।
समुत्पत्य रथात् तस्य नृपस्य जिनम् आययौ॥९
शूल-व्यथां विहायाजौ महासत्त्वस् तुरङ्गमः।
भ्रमजैः पादविक्षेपहननैर् मुहुः॥१०
दण्दाघातैः सटाक्षेपैर् बौद्ध-सेना-गणअन्तरे।
निजघान रिपून् कोपाच् छतशो ऽथ सहस्रशः॥११
नि-श्वासवातैर् उड्दीय केचिद् द्वीपअन्तरे ऽपतन्।
हस्त्यश्व-रथ-संबाधाः पतिता रण-मूर्धनि॥१२
गर्गा जघ्नुः षष्टिशतं गर्गः कोटिशतायुतम्।
विशालास् तु सहस्राणां पञ्चविंशं रणे त्वरन्॥१३
अयुते द्वे जघानाजौ पुत्राभ्यां सहितः कविः।
दशलक्षं तथा प्राज्ञः पञ्चलक्षं सुमन्त्रकः॥१४
जिनं प्राह हसन् कल्किस् तिष्थाग्रे मम दुर्मते।
दैवं मां विद्धि सर्वत्र शुभअशुभ-फल-प्रदम्॥१५
मद् बाण-जाल-भिन्नअङ्गो निःसङ्गो यास्यसि क्षयम्।
न यावत् पश्य तावत्त्वं बन्धूनां ललितं मुखम्॥१६
कल्केर् इतिईरितं श्रुत्वा जिनः प्राह हसन् बली।
दैवं त्व् अदृश्यं शास्त्रे ते वधो ऽयमुररीकृतः।
प्रत्यक्ष-वादिनो बौद्धा वयं यूयं वृथाश्रमाः॥१७
यदि वा दैवरूपस् त्वं तथाअप्य् अग्रे स्थिता वयम्।
यदि भेत्तअसि बाणौघैस् तदा बौद्धैः किम् अत्र ते॥१८
सो’पालभ्यं त्वया ख्यातं त्वय्य् एवअस्तु स्थिरो भव।
इति क्रोधाद् बाणजालैः कल्किं घोरैः समावृणोत्॥१९
स तु बाणमयं वर्षं क्षयं निन्ये ऽर्कवद् धिमम्॥२०
ब्राह्मं वायव्यम् आग्नेयं पार्जन्यं चअन्यद् आयुधम्।
कल्केर् दर्शन-मात्रेण निष्फला न्य् अभवन् क्षणात्॥२१
यथो’षरे बीजम् उप्तं दानम् अश्रोत्रिये यथा।
यथा विष्णौ सतां द्वेषाद् भक्तिर् येन कृता’प्य् अहो॥२२
कल्किस् तु तं वृषारूढम् अवप्लुत्य कचे ऽग्रहीत्।
ततस् तौ पेततुर् भूमौ ताम्रचूडाव् इव क्रुधा॥२३
पतित्वा स कल्कि-कचं जग्राह तत्-करं करे॥२४
ततः समुत्थितौ व्यग्रौ यथा चाणूर-केशवौ ।
धृत-हस्तौ धृत-कचौ र्क्षाव् इव महाबलौ।
युयुधाते महावीरौ जिन-कल्की निर्-आयुधौ॥२५
ततः कल्की महायोगी पदाघातेन तत्-कटिम्।
विभज्य पातयाम् आस तालं मत्तगजो यथा॥२६
जिने निपतिते भ्राता तस्य शुद्धोदनो बली।
पादचारी गदापाणिः कल्किं हन्तुं द्रुतं ययौ॥२८
कविस् तु तं बाण-वर्षैः परिवार्य समन्ततः
जगर्ज परवीरघ्नो गजम् आवृत्य सिंहवत्॥२९
गदाहस्तं तम् आलोक्य पतिं स धर्मवित्-कविः।
पदातिगो गदापाणिस् तस्थौ शुद्धोदना’ग्रतख्॥३०
स तु शुद्धोदनस् तेन युयुधे भीम-विक्रमः।
गजः प्रति गजेने’व दन्ताभ्यां सगदाव् उभौ॥३१
युयुधाते महावीरौ गदाआयुद्ध-विशारदौ।
कृत-प्रति-कृतौ मत्तौ नदन्तौ भैरवान् रवान्॥३२
कविस् तु गदया गुर्व्या शुद्धोदन-गदां नदन्।
करादपास्याशु तया स्वया वक्षस्यताडयत्॥३३
गदाघातेन निहतो वीरः शुद्धोदनो भुवि।
पतित्वा सहसो’त्थाय तं जघ्ने गदया पुनः॥३४
संताडितेन तेनअपि शिरसा स्तम्भितः कविः।
न पपात स्थितस् तत्र स्थाणुवद् विह्वलेन्द्यृयः॥३५
शुद्धोदनस् तम् आलोक्य महासारं रथअयुतैः।
प्रावृतं तरसा माया-देवीम् आनेतुम् आययाव्॥३६
यस्या दर्शन-मात्रेण देवअसुर-नर-आदयः।
निःसाराः प्रतिमाकारा भवन्ति भुवनाश्रयः॥३७
बौद्ध शौद्धोदनआद्यग्रे कृत्वा ताम् अग्रतः पुनः।
योद्धुं समागता म्लेच्छ-कोटि-लक्ष-शतैर् वृताः॥३८
सिंह-ध्वजो’त्थित-रथां फेरु-काक-गणावृताम्।
सर्वअस्त्र-शस्त्र-जननीं षड्-वर्ग-परिसेविताम्॥३९
नानारूपां बलवतीं त्रि-गुण-व्यक्ति-लक्षिताम्।
मायां निरीक्ष्य पुरतः कल्कि-सेना समापतत्॥४०
कल्किस् तान् आलोक्य निजान् भ्रातृ-ज्ञाति-सुहृज्-जनान्।
मायया जायया जीर्णान् विभुर् आसीत् तद् अग्रतः॥४२
ताम् आलोक्य वरारोहां श्री-रूपां हरिर् ईश्वरः।
सा प्रियेव तम् आलोक्य प्रविष्टा तस्य विग्रहे॥४३
ताम् अनालोक्य ते बौद्धा मातरं कतिधा वराः।
रुरुदुः संघशो दीना हीन-स्व-बल-पौरुषाः॥४४
विस्मयाविष्ट-मनसः क्व गते’यम् अथअब्रुवन्।
कल्किः समालोकनेन समुत्थाप्य निजाञ् जनान्॥४५
निशातम् असिम् आदाय म्लेच्छान् हन्तुं मनो दधे।
सन्नद्धं तुरगा’रूढं दृढ-हस्त-धृतत् सरुम्॥४६
धनुर् निषङ्गमनिशं बाणजाल-प्रकाशितम्।
धृत-हस्त-तनुत्राण-गोधअङ्गुलि-विराजितम्॥४७
मेघो’पर्युप्तताराभं दशन-स्वर्ण-बिन्दुकम्।
किरीट-कोटि-विन्यस्त-मणिराजि-विराजित,म्॥४८
कामिनी-नयनआनन्द-सन्दोह-रस-मन्दिरम्।
विपक्ष-पक्ष-विक्षेप-क्षिप्त-रूक्ष-कटाक्षकम्॥४९
निज-भक्त-जनो’ल्लास-संवास-चरणअम्बुजम्।
निरीक्ष्य कल्किं ते बौद्धास् तत्रसुर् धर्म-निन्दकाः॥५०
जहृषुः सुर-संघाः खे याग्-आहुति-हुताशनाः॥५१
सु-बल-मिलन-हर्षः शत्रु-नाशैकतर्षःसमरवरविलासः साधु-सत्कारकाशः।
स्व-जन-दुरित-हर्ता जीवजातस्य भर्ता रचयतु कुशलं वः काम-पूरअवतारः॥५२
इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये द्वितीयअंशे बौद्ध-युद्धो नाम सप्तमो ऽध्यायः॥७
टिप्पणियाँ