श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \तेरहवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में
सूत उवाच
इति भूपः सभायां स कथयित्वा निजाः कथाः।
शशिध्वजः प्रीतमनाः प्राह कल्किं कृताञ्जलिः॥१
सूत जी बोले- राजा शशिध्वज ने प्रसन्न चित्त से सभा में उपस्थित हुए लोगों के सामने अपनी कथा सुनाकर (फिर) हाथ जोड़कर कल्कि जी से कहा- 'हे हरे! आप तीनों लोकों के स्वामी हैं। ये जितने भी राजा है, आपके ही आश्रय में हैं। इन सभी राजाओं और मुझे भी अपनी आज्ञा का पालन करने वाला समझो। अब मैं हरिद्वार, (तीर्थ का नाम) जो कि ऋषि-मुनियों को प्रिय है, तप करने के लिए जाता हूँ। अब जो मेरे ये बेटे-बेटियाँ और उनके भी जो बच्चे हैं अर्थात् मेरे पोते- पोतियाँ हैं, वे आपके ही भरोसे हैं अर्थात् आप इनकी देखभाल कीजिए। हे देवताओं के स्वामी! मेरी इच्छा को तो आप जानते ही हैं। आपने अपने पूर्व जन्म में जाम्बवान और द्विविद नामक बन्दरों का जो नाश किया था, वह भी आपको याद ही है। यह कहकर राजा शशिध्वज अपनी पत्नी के साथ जाने के लिए तैयार हुए और कल्कि जी ने (जैसे) लज्जा से अपना मुँह नीचाकर लिया। राजाओं ने इस बात के कारण को जानने की इच्छा से कहा- 'हे नाथ! राजा शशिध्वज ने कौन-सी ऐसी बात कही, जिसके लिए आपको अपना मुँह नीचे करना पड़ा ? कृपया इस बात को बताकर हमारा संदेह दूर कीजिए।'

कल्कि जी बोले- 'हे राजाओं! आप लोग राजा शशिध्वज से ही इसका कारण पूछें। वे ही आपलोगों के सन्देह को दूर करेंगे। राजा शशिध्वज उत्तम ज्ञानी हैं और मुझमें उनकी गहरी भक्ति है।' कल्कि जी के इन वचनों को सुनकर राजाओं ने उनके कहने के अनुसार ही संशय से भरे मन से राजा शशिध्वज से फिर पूछा- 'हे राजन् (राजा शशिध्वज)! आप बहुत बुद्धिमान राजा हैं। आपने इस समय क्या कहा और आपकी बात सुनकर कल्कि जी ने किस कारण अपना मुँह नीचा कर लिया ?' राजा शशिध्वज बोले- 'पहले जब रामचन्द्र जी ने अवतार ग्रहण किया था, तब लक्ष्मण जी ने इन्द्रजीत का वध किया अतएव कठोर राक्षसी वृत्ति से इन्द्रजीत की मुक्ति हुई। अग्निशाला में (इन्द्रजीत) ब्राह्मण का वध करने से लक्ष्मण जी के शरीर में ऐकाहिक (तेहिया) बुखार प्रवेश कर गया, जिससे लक्ष्मण जी को मोहादि (उपद्रवों) ने घेर लिया।
लक्ष्मण जी की ऐसी व्याकुल (परेशान) हालत देखकर अश्वनी कुमार के वंश में पैदा हुए श्रेष्ठ वैद्य द्विविद नामक वानर ने उनको एक मंत्र सुनाया और वही मंत्र लिखकर श्री रामचन्द्र जी के सामने ऊँची जगह पर रखकर लक्ष्मण को दिखाया। इस (मन्त्र) पत्रक को देखकर लक्ष्मण जी का बुखार जाता रहा और उन्हें फिर शक्ति आ गई (पहले जैसा ही बल प्राप्त हो गया। इसके बाद, लक्ष्मण जी ने उस द्विविद नामक वानर से कहा- हे वानर ! तुम कोई वर माँगो । द्विविद यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और प्रसन्न हो लक्ष्मण जी से बोला- मैं प्रार्थना करता हूँ कि आपके हाथ से मेरा वध हो और मैं (इस प्रकार) वानर योनि से छूट जाऊँ। फिर लक्ष्मण जी बोले- मैं अगले जन्म में बलदेव के रूप में अवतार लूँगा और उस समय मेरे ही हाथ से तुम्हारी यह वानर योनि छूट जाएगी। (वह मंत्र था) समुद्रस्योत्तरे तीरे द्विविदो नाम वानर, जिसे लिखकर (लिखा हुआ) देखने से ऐकाहिक (तेहिया) बुखार नष्ट हो जाता है। (ऊपर बताए गए) इस मंत्र के अक्षर तालपत्र पर लिखकर द्वार पर देखने से ऐकाहिक बुखार छूट जाता है।
इस प्रकार लक्ष्मण जी से वर पाकर द्विविद नाम का वानर स्वस्थ शरीर से बहुत समय तक जीवित रहा। बहुत समय के बाद बलदेव जी के अस्त्र से उसने प्राण त्यागे और मोक्ष अभयात्मिका पद को प्राप्त हुआ। ऐसे ही आपकी इच्छानुसार सूत पुत्र लोमहर्षण की नैमिषारण्य में बलदेव जी के अस्त्र से मृत्यु हुई थी। हे राजागण! वामनावतार के समय जब वामन जी ने तीन पग भूमि से समस्त लोकों को नाप डाला था, उस समय जाम्बवान् ने उनके ऊपर लोक में पहुँचे चरण की प्रदक्षिणा की थी। वामन जी ने देखा कि जाम्बवान्त मन के समान बहुत शीघ्र गति वाले हैं तो वे भौंचक्के होकर बोले- हे अत्यन्त बलशाली, रीक्षों के स्वामी, मुझसे वर माँगो। वामन जी के ये वचन सुनकर ब्रह्मांश से पैदा हुए जाम्बवान ने प्रसन्न मुख से कहा- मुझे यह वर दीजिए कि आपके (सुदर्शन) चक्र से मेरी मृत्यु हो। यह सुनकर वामन जी ने कहा- जब मैं कृष्ण रूप में अवतार लूँगा, तब मेरे चक्र (सुदर्शन) से तुम्हारा सिर काटा जाएगा। उस समय ही तुम्हें मुक्ति मिलेगी।
फिर जब कृष्णावतार हुआ था, तब मैं सत्राजित नाम का राजा था। मैं सूर्य की पूजा किया करता था। उस समय एक मणि के कारण दुर्वाद उत्पन्न हो गया (मेरे द्वारा अपराध हुआ)। मेरे छोटे भाई का नाम प्रसेन था। एक सिंह ने मणि के लिए मेरे छोटे भाई को मार डाला था। बाद में यह सिंह भी इसी मणि के कारण जाम्बवान् द्वारा मारा गया। असीम तेजस्वी कृष्ण जी कलंक के डर से मणि को ढूँढ़ने लगे। फिर एक गुफा में जाम्बवान् के साथ उनकी लड़ाई हुई। जाम्बवान ने अपने ईश (स्वामी या प्रभु) को पहचान लिया। कृष्ण जी ने अपने चक्र से उनका सिर काट डाला। लक्ष्मण युक्त (सहित) श्री कृष्ण जी का दर्शन प्राप्त कर जाम्बवान ने अपने प्राण त्याग दिए। रीछों के स्वामी ने, नई दूब के समान श्री कृष्ण जी की श्याम वर्ण की मूर्ति के दर्शन करके उनको मणि के साथ-साथ अपनी जाम्बवती नामक कन्या भी दान में दे दी।
इसके बाद, श्री कृष्ण जी ने द्वारकापुरी में आकर सभा में मुझे बुलाया और उस समय वह मणि, जो ऋषियों को भी मिलनी कठिन है, उन्होंने मुझे दे दी। उस समय मैंने अत्यन्त लज्जित होकर वह मणि और सत्यभामा नामक कन्या कृष्ण जी को दान कर दी। कृष्ण जी ने दोनों की ही सुन्दरता देखकर दोनों को स्वीकार कर लिया। कुछ समय पीछे कृष्ण जी मेरे पास मणि रखकर सत्यभामा को साथ ले द्वारका से हस्तिनापुर चले गए। जब कृष्ण जी हस्तिनापुर चले गए, तब शतधन्वा नामक राजा ने मेरा संहार करके मणि को ले लिया। इस प्रकार पिछले जन्म में कल्कि जी ने जो कुछ किया था, वह मैं जानता हूँ। मैंने श्री कृष्ण जी पर मिथ्या कलंक लगाया, इसलिए उस जन्म में मेरी मुक्ति नहीं हुई। इसी कारण इस जन्म में कल्कि रूप परमात्मा श्री कृष्ण जी को रमा रूपिणी सत्यभामा कन्या देकर श्रेष्ठ गति को प्राप्त हो रहा हूँ। लड़ाई के मैदान में मृत्यु होने से मुक्ति होगी, इसीलिए मैंने कामना की थी कि सुदर्शन चक्र से ही मेरी मृत्यु हो। संसार के अधिपति प्रभु कल्कि जी ने इस प्रकार अपने श्वसुर के वध को याद किया और धर्म-भय और लज्जा से मुँह नीचाकर लिया। अत्यन्त आश्चर्य से पूर्ण तथा अद्भुत सुन्दर, इस कथा को सुनकर सभा में उपस्थित राजा लोग अचंभे में पड़ गए। सभासदों को भी आनन्द मिला। मुनिलोग श्री कल्कि जी के गुणों पर मुग्ध हो गए। श्रीमान् राजा शशिध्वज द्वारा कहे गए इस आख्यान को जो सुनता है, वह सुखी, धन्य, अत्यन्त यशस्वी होता है, मोक्ष पाता है और फिर उसे जन्म-मरण का महान् दुःख नहीं सहना पड़ता।
श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \तेरहवाँ अध्याय संस्कृत में
सूत उवाच
इति भूपः सभायां स कथयित्वा निजाः कथाः।
शशिध्वजः प्रीतमनाः प्राह कल्किं कृताञ्जलिः॥१
शशिध्वज उवाच
त्वं हि नाथ त्रिलोकेश एते भूपास् त्वद् आश्रयाः।
मां तथा विद्धि राजानं त्वन् नि-देशकरं हरे॥२
तपस् तप्तुं यामि कामं हरिध्वारं मुनिप्रियम्।
एते मत् पुत्र-पौत्राश् च पालनीयास् त्वद् आश्रयाः॥३
ममअपि कामं जानासि पुरा जाम्बवतो यथा।
निधनं द्विविदस्यअपि तदा सर्वं सुरेश्वर॥४
इत्य् उक्त्वा गन्तुम् उद्युक्तं भार्यया सइतं नृपम्।
लज्जयाधोमुखं कल्किं प्राहुर् भूपाः किम् इत्य् उत॥५
हे नाथ किम् अनेनउक्तं यच् छ्रुत्वा त्वम् अधोमुखः।
कथं तद् ब्रूहि कामं नः किं वा नः शाधि संशयात्॥६
कल्किर् उवाच
अमुं पृच्छत वो भूपा युष्माकं संशयच्छिदम्।
शशिध्वजं महा-प्राज्ञं मद् भक्ति-कृत-निश्चयम्॥७
इति कल्केर् वचः श्रुत्वा ते भूपाः प्रोक्त-कारिणः।
राजानं तं पुनः प्राहुः संशयआपन्न-मानसाः॥८
नृपा ऊचुः
किं त्वया कथितं राजञ् छशिध्वज महा-मते।
कथं कल्किस् तद्वद् इदं श्रुत्वाएवअभूद् अधोमुखः॥९
शशिध्वज उवाच
पुरा रामअवतारेण लक्ष्मणाद् इन्द्रजिद्-वधम्।
मोक्षञ् चआलक्ष्य द्विविदो राक्षसत्वात् स दारुणात्॥१०
अग्न्यागारे ब्रह्म-वीर-वधेनअइकाहिको ज्वरः ।
लक्ष्मणस्य शरीरेण प्रविष्तो मोह-कारकः॥११
तं व्याकुलम् अभिप्रेक्ष्य द्विविदो भिषजां वरः।
अश्वि-वंशेन संजातः ख्यापयाम् आस लक्ष्मणम्॥१२
लिखित्वा रामभद्रस्य संज्ञा-पत्रीम् अ-तन्द्रितः।
लक्ष्मणं दर्शयाम् आस ऊर्ध्व-तिष्ठन् महाभुजः॥१३
लक्ष्मणो वीक्ष्य तां पत्रीं वि-ज्वरो बलवान् अभूत्।
स ततो द्विविदं प्राह वरं वरय वानर॥१४
द्विविदस् तद् वचः श्रुत्वा लक्ष्मणं प्राह हृष्टवत्।
त्वत्तो मे मरणं प्रार्थ्यं वानरत्वाच् च मोचनम्॥१५
पुनस् तं लक्ष्मणः प्राह मम जन्मअन्तरे तव।
मोचनं भविता कीश बलराम-शरीरिणः॥१६
समुद्रस्यउत्तरे तीरे द्विविदो नाम वानरः।
ऐकाहिकं ज्वरं हन्ति लिखितं यस् तु पश्यति॥१७
इति मन्त्रअक्षरं द्वारि लिखित्वा ताल-पत्रके।
यस् तु पश्यति तस्यअपि नश्यत्य् ऐकाहिक-ज्वरः॥१८
इति तस्य वरं लब्ध्वा चिरआयुः सुस्थ-वानरः।
बलरामअस्त्र-भिन्नआत्मा मोक्षम् आपाकुतोभयम्॥१९
तथा क्षेत्रे सूत-पुत्रो निहतो लोमहर्स्,अणः।
बलरामअस्त्र-युक्तामा नैमिषे ऽभूत् स्व-वाञ्छया॥२०
जाम्बवांश् च पुरा भूपा वामनत्वं गते हरौ।
तस्यअप्य् ऊर्ध्व-गतं पादं तत्र चक्रे प्रदक्षिणम्॥२१
मनोजवं तं निरीक्ष्य वामनः प्राह विस्मितः।
मत्तो वृणु वरं कामम् ऋक्षअधीश महा-बल॥२२
इति तं हृष्ट-वदनो ब्रह्मअंशो जाम्बवान् मुदा।
प्राह भो चक्र-दहनान् मम मृत्युर् भविष्यति॥२३
इत्य् उक्ते वामनः प्राह कृष्ण-जन्मनि मे तव।
मोक्षश् चक्रेण संभिन्न-शिरसः संभविष्यति॥२४
मम कृषन्अवतारे तु सूर्य-भक्तस्य भूपतेः।
सत्राजितस् तु मण्य्-अर्थे दुर्वादः समजायत॥२५
प्रसेनस्य मम भ्रातुर् वधस् तु मणि-हेतुकः।
सिंहात् तस्यअपि मण्य्-अर्थे वधो जाम्बवता कृतः॥२६
दुर्वाद-भय-भीतस्य कृष्णस्यअमिततेजसः।
मण्य्-अन्वेषण-चित्तस्य र्क्षेणअभूद् रणो बिले॥२७
स निजईशं परिज्ञाय तच् चक्र-ग्रस्त-बन्धनम्
मुक्तो बभूव सहसा कृषन्ं पश्यन् स-लक्ष्मणम्॥२८
नवदूर्वादल-श्यामं दृष्ट्वा प्रादान् निजआत्मजाम्
तदा जाम्बवतीं कन्यां प्रगृह्य मणिना सह॥२९
द्वारकां पुरम् आगत्य सभायां माम् उपअह्वयत्।
आहूय मह्यं प्रददौ मणिं मुनि-गणअर्चितम्॥३०
सो ऽहं तां लज्जया तेन मणिना कन्यकां स्वकाम्।
विवाहेन ददाव् अस्मै लावण्याज् जगृहे मणिम्॥३१
तां सत्यभामाम् आदाय मणिं मय्य् अर्प्य स प्रभुः।
द्वारकाम् आगत्य पुनर् गजाह्वयम् अगाद् विभुः॥३२
गते कृष्ने मां निहत्य शतधन्वाअग्रहीन् मणिम्।
अतो ऽहम् इह जानामि पूर्व-जन्मनि यत् कृतम्॥३३
मिथ्याअभिशापात् कृष्णस्य नएवअभून् मोचनं मम।
अतो ऽहं कल्कि-रूपाय कृष्नाय परमात्मने।
दत्त्वा रमां सत्यभामा-रूपिणीं यामि सद्गतिम्॥३४
सुदर्शनअस्त्र-घातेन मरणं मम काङ्क्षितम्।
मरणे ऽभूद् इति ज्ञात्वा रणे वाञ्छामि मोचनम्॥३५
इत्य् असौ जगताम् ईशः कल्किः श्वशुर-घातनम्।
श्रुत्वाएवअधोमुखस् तस्थौ ह्रिया धर्म-भिया प्रभुः॥३६
अत्य्-आश्चर्यम् अपूर्वम् उत्तमम् इदं श्रुत्वा नृपा विस्मिता।
लोकाः संसदि हर्षिता मुनि-गणाः कल्केर् गुणआकर्षिताः।
आख्यानं परमादरेण सुखदं धन्यं यशस्यं परं ।
श्रीमद्-भूप-शशिध्वजे’रित-वचो मोक्ष-प्रदं चअभवन्॥३७
इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे शशिध्वजे’रित-चक्र-मरणआख्यानं नाम त्रयोदशो ऽध्यायः॥१३
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