श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \बीसवाँ अध्यारा | Shri Kalki Purana, third part, twentieth chapter

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \बीसवाँ अध्यारा हिंदी से संस्कृत में

शौनक उवाच

हे सूत! सर्व-धर्म-ज्ञ यत् त्वया कथितं पुरा।
गंगां स्तुत्वा सम्-आयाता मुनयः कल्कि-संनिधिम्॥१

शौनक जी बोले- हे सूत जी, आप सभी धर्मों के जानने वाले हैं। आपने पहले कहा था कि मुनिगण गंगा जी की स्तुति कर कल्कि जी के पास पहुँचे थे। वह स्तुति क्या है ? कृपा कर आप बताएँ कि (गंगा की) किस स्तुति के भक्ति सहित पढ़ने तथा सुनने से कल्याण और मोक्ष प्राप्त होते हैं। सूत जी बोले- हे ऋषियो, मैं आप सबको शोक तथा मोह के नाश करने वाले और (अत्यन्त श्रेष्ठ) ऋषि प्रणीत अत्यन्त उत्तम गंगा-स्तोत्र को बताता हूँ। आपलोग सुनिए।


ऋषि बोले- यह देवताओं की नदी, संसार रूपी सागर से तारने वाली, भगवान् विष्णु के कमलरूपी चरणों से निकल कर पृथ्वी पर बह रही है। यह सुमेरु पर्वत की चोटी पर रहने वाली है, इसका अमृत जैसा जल हमेशा प्रिय रहता है अर्थात् इसके जल की शुद्धता अमर है, यह पापों का नाश करने वाली है, संसार के दुःखों को हरने वाली है, यह प्रसन्न वदना है, शुभ अर्थात् भलाई देने वाली है। इस भगवती भागीरथी की सभी प्राणी स्तुति करते हैं। यह भगवती गंगा भगीरथी जी के पीछे-पीछे पृथ्वी पर आई। उन्होंने भगवान् इन्द्र के हाथी ऐरावत का घमंड चूर चूर कर दिया। गंगा जी भगवान् शिव जी के मुकुट की चमक है। हिमालय पर्वत की श्वेत पताका है। इनकी स्तुति ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवताओं, दानवों, मनुष्यों और सर्प आदि सभी ने की है। गंगा जी मुक्ति देने वाली और पापों का नाश करने वाली के रूप में शोभा पाती हैं। ब्रह्मा जी के कमण्डलु से यह गंगा रूपी बेल निकली थी। इस बेल बेल का बीज मुक्ति है। ब्राह्मणगण इसके आल-वाल रूप हैं

(और सुधर्म इसका फल है)। श्रुति, स्मृति आदि धर्म ग्रन्थों ने इसकी स्तुति की है। यह (सुखरूप किसलयों से परिपूर्ण) लता सुमेरु पर्वत के शिखर (चोटी) को फोड़ कर पृथ्वी पर आई है। यह तीनों लोकों में व्याप्त हैं। यह सुधर्म रूपी फल को देने वाली है। इसमें सुख रूपी पत्ते शोभा पा रहे हैं। (ऊपर उड़ती पक्षी पंक्ति के कारण सुन्दर) गंगा जी महाराजा सगर के वंश (राजा सगर के 60,000 पुत्रों का कपिल मुनि के शाप से उद्धार करने के लिए उनके वंश में उत्पन्न हुए महाराज भगीरथ अपनी कठोर तपस्या से गंगा जी को पृथ्वी पर लाए और जहाँ वे सब पुत्र थे, उनके ऊपर से गंगा जी को ले गए, जिससे उनका उद्धार हो गया।) का उद्धार करने वाली हैं, वे (गंगा जी) है, सदा अशुभ का नाश करने वाली हैं। इनको प्रणाम करने, इनके गुणों का बखान करने और इनके पवित्र जल के दर्शन करने से ही (संसार में) आनन्द (और सुख) मिलता है।

जो गंगा जी महाराजा शान्तनु की रानी बनी थीं। हिमालय की चोटी जिनके स्तन हैं, फेन वाला जल जिनकी हँसी है, सफेद रंग के हंस जिनकी गति (चाल) हैं, सारी तरंगें जिनके हाथ हैं, खिले हुए कमलों की पंक्ति जिनकी माला है, जिनकी गति रस से पूर्ण प्रसन्नता से भरी हुई है और जो समुद्र की ओर जाने की इच्छा वाली हैं, ऐसी गंगा जी शोभायमान हैं। कहीं तो गंगा जी कल कल ध्वनि वाली हैं, कहीं (उनमें) जल के अधीर (विकराल) जीव विचर रहे हैं, कहीं-कहीं मुनिगण उनकी स्तुति कर रहे हैं, कहीं अनंत देव पूजा कर रहे हैं, कहीं भगवान् सूर्य की किरणों से गंगा जी का जल प्रकाशित हो रहा है, कहीं भयंकर नाद करता हुआ पानी गिर रहा है। कहीं लोग स्नान कर रहे हैं। ऐसी गंगा जी की जो कि भीष्म की माता हैं, जय हो। जो लोग भागीरथी यानी गंगा मैया को प्रणाम करते हैं, वे ही कुशल (चतुर) हैं, जो लोग आदरपूर्वक गंगा जी का नाम जपते हैं, वे ही वास्तविक तपस्वी हैं। जो लोग मन्दाकिनी (गंगा जी) का स्मरण करते हैं, वे ही प्राणियों में श्रेष्ठ हैं। जो जीव देवताओं की इस नदी की सेवा करते हैं, वे ही निश्चय विजयी होते हैं और (सम्पूर्ण ऐश्वर्य के) स्वामी हैं।

हे त्रिपथगामिनी, हे भगवती, कब तुम्हारे स्वच्छ जल में मेरा शरीर भासित होगा ? कब मेरे इस मृत शरीर को पक्षी, गीदड़ आदि (पशु) टुकड़े-टुकड़े कर देंगे (और फिर कब) तुम्हारी चंचल लहरों के समूह में डोलता हुआ यह शरीर तुम्हारे किनारे पर स्थित शिवार से कब सजेगा ? कब मैं स्वर्ग लोक को जाऊँगा और कब देवता, मनुष्य व नाग मेरी स्तुति करेंगे ? कब मैं स्वर्ग से अपने मृत शरीर की ऐसी दशा (इस प्रकार का अपना सौभाग्य) देखूँगा? हे माँ गंगे ! कब तुम्हारे किनारे पर रहकर और, तुम्हारे पवित्र जल में स्नान करके तुम्हारे दर्शन करूँगा? कब मैं तुम्हारा नाम स्मरण करूँगा ? कब तुम्हारे पृथ्वी पर उतरने की शुद्ध कथा का कीर्तन करूँगा ? हे देवी, कब तुम्हारी सेवा करने से मेरे मन में प्रेमरस का उदय होगा ? कब लोग मेरा आदर करेंगे? कब मेरे किए हुए पापों का समूह (निस्संदेह) नष्ट हो जाएगा? कब मैं शान्त चित्त होकर पृथ्वी पर घूमूँगा ?

इस अति श्रेष्ठ गंगा स्तोत्र को ऋषियों द्वारा कहा गया था। इस स्तोत्र के पढ़ने और सुनने से स्वर्ग और यश मिलता है और आयु भी बढ़ती है। प्रातःकाल, दोपहर और संध्या के समय इस स्तोत्र का पाठ करने से गंगा जी की समीपता प्राप्त होती है और लोगों के सभी पापों का नाश होता है, उनका बल और आयु भी बढ़ती है। मैंने शुकदेव जी से इस भार्गव कथा को सुना था। इसके पढ़ने तथा सुनने से पुण्य मिलता है और यश एवं धन की वृद्धि होती है। जो लोग महाविष्णु के परम अद्भुत अवतार कल्कि जी की कथा को भक्ति से पढ़ते या सुनते हैं, उनके सब तरह के अमंगल (कष्ट) दूर हो जाते हैं।

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \बीसवाँ अध्यारा संस्कृत में

शौनक उवाच

हे सूत! सर्व-धर्म-ज्ञ यत् त्वया कथितं पुरा।
गंगां स्तुत्वा सम्-आयाता मुनयः कल्कि-संनिधिम्॥१

स्तवं तं वद गंगायाः सर्व-पाप-प्रणाशनम्।
मोक्षदं शुभदं भक्त्या शृण्वतां पठताम् इह॥२

सूत उवाच

श्रुणुध्वम् ऋषयः सर्वे गंगा-स्तवम् अनुत्तमम्।
शोक-मोह-हरं पुंसाम् र्षिभिः परि-कीर्तितम्॥३

ऋषय ऊचुः

इयं सुरतरंगिणी भवनवारिधेस्तारिणी स्तुता हरि-पदाम्बुजाद् उपगता जगत्-संसदः।
सुमेरु-शिखरअमर-प्रिय-जला मलक्षालनी प्रसन्नवदना शुभा भवभयस्य विद्राविणी॥४

भगीरथमथानुगा सुरकरींद्र-दर्पअपहा महेश-मुकुट-प्रभा गिरिशिरः-पताका सिता।
सुरअसुर-नरो’रगैर् अज-भवअच्युतैः संस्तुता विमुक्ति-फल-शालिनी कलुष-नाशिनी राजते॥५

पितामह-कमण्डलु-प्रभव-मुक्ति-बीजालता श्रुति-स्मृति-गण-स्तुता-द्विजकुलआलवालआवृता।
सुमेरु-शिखराभिदा निपतिता त्रिलोकआवृता सुधर्म-फलशालिनी सुखपलाशिनी राजते॥६

चरद्विहगमालिनी सगर-वंश-मुक्ति-प्रदा मुनिइंद्र-वर-नन्दिनी दिवि मता च मन्दाकिनी।
सदा दुरित-नाशिनी विमल-वारि-संदर्शन-प्रणाम-गुण-कीर्तनादिषु जगत्सु संराजते॥७

महाभिधसुताङ्गना हिम-गिरीशकूटस्तनी स-फेन-जल-हासिनीसितमरालसंचारिणी।
चलल्लहरिसत्करा वर-सरोज-मालाधरा रसोल्लसितगामिनी जलधिकामिनी राजते॥८

क्वचित् कल-कल-स्वना क्वचिद् अधीर-यादो-गणा क्वचिन् मुनि-गणैः स्तुता क्वचिद् अनन्त-संपूजिता।
क्वचिद् रविकरोज्ज्वला क्वचिद् उदग्रपाताकुला क्वचिज् जन-विगाहिता जयति भीष्म-माता सती॥९

स एव कुशलो जनः प्रणमतीह भगीरथीं स एव तपसां निधिर् जपति जाह्नवीमादरात्।
स एव पुरुषोत्तमः स्मरति साधु मन्दाकिनीं स एव विजयी प्रभुः सुर-तरंगिणीं सेवते॥१०

तवअमल-जलाचितं खग-शृगाल-मीनक्षतं चलल् लहरिलोलितं रुचिर-तीर-जम्बालितम्।
कदा निज-वपुर् मुदा सुर-नरो’रगैः संस्तुतो’ऽप्य् अहं त्रिपथगामिनि! प्रियमतीव पश्याम्य् अहो॥११

त्वत् तीरे वसतिं तवअमल-जल-स्नानं तव प्रेक्षणं त्वन् नाम-स्मरणं तवउदय-कथा-संलापनं पावनम्।
गंगे मे तव सेवनैकनिपुणो ऽप्यानन्दितश् चआदृतः स्तुत्वा त्वद् गतपातचो भुवि कदा शान्तश् चरिष्याम्य् अहम्॥१२

इत्य् एतद् र्षिभिः प्रोक्तं गंगा-स्तवम् अनुत्तमम्।
स्वर्ग्यं यशस्यम् आयुष्यं पठनाच् छ्रवणाद् अपि॥१३

सर्व-पाप-हरं पुसां बलम् आयुर् विवर्धनम्।
प्रातर्-मध्याह्न-सायाह्ने गंगा-सान्निध्यता भवेत्॥१४

इत्य् एतद् भार्गवाख्यानं शुकदेवान् मया श्रुतम्।
पठितं श्रावितं चआतृ पुण्यं धन्यं यशस्करम्॥१५

अवतारं महाविष्नोः कल्केः परमम् अद्भुतम्।
पठतां शृण्वतां भक्त्या सर्वअशुभ-विनाशनम्॥१६

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे गंगा-स्तवो नाम विंशतितमो ऽध्यायः॥२०

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