श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \चौथा अध्याय हिंदी से संस्कृत में
रामात् कुसो ऽभूद् अतिथिस् ततो ऽभून् निषधान् नभः।
तस्माद् अभूत् पुण्डरीकः क्षेमधान्व् ऽभवत् ततः॥१
श्री रामचन्द्र जी के पुत्र कुश, कुश के पुत्र अतिथि, अतिथि के पुत्र निषध, निषध के पुत्र नभ, नभ के पुत्र पुण्डरीक और पुण्डरीक के पुत्र क्षेमधन्वा हुए। क्षेमधन्वा के पुत्र देवानीक, देवानीक के पुत्र हीन (या अहीनक), हीन के पुत्र पारिपात्र, पारिपात्र के पुत्र बलाहक (या बलस्थल) बलाहक के पुत्र अर्क और अर्क के पुत्र राजनाभ हुए। राजनाभ के पुत्र खगण, खगण के पुत्र विधृत, विधृत के पुत्र हिरण्यनाभ, हिरण्यनाभ के पुत्र पुष्प, पुष्प के पुत्र ध्रुव, ध्रुव के पुत्र स्यन्दन और स्यन्दन के पुत्र अग्निवर्ण हुए। अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्र (या शीघ्रगन्ता) हुए। वही अतुल वीरता वाले शीघ्र हमारे पिता थे और मैं शीघ्र का पुत्र हूँ। मेरा नाम मरु है। कोई-कोई (लोग) मुझे बुध और कोई सुमित्र भी कहते हैं।

इतने समय तक मैं कलापग्राम में रहकर तप किया करता था। सत्यवती के पुत्र व्यास के मुख से आप के अवतार रूप में प्रकट होने का समाचार कलियुग के लाख वर्ष के समय की प्रतीक्षा करके आपके पास आया हूँ। आप परमात्मा हैं। आपके पास आने से करोड़ों जन्मों के पापों के समूह नष्ट हो जाते हैं और यश और कीर्ति बढ़ती है। सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं।'आपकी वंशावली सुनकर मुझे मालूम हुआ कि आप सूर्यवंश में उत्पन्न हुए राजा हैं। आपके साथ ये दूसरे श्रीमान्, जो कि महापुरुषों के लक्षणों से युक्त हैं, कौन हैं?'
कल्कि जी के ऐसे (मीठे) वचन सुनकर देवापि ने नम्रता पूर्वक मधुर वाणी से कहना शुरू किया - 'प्रलय के अन्त में आप की नाभि के कमल से चारमुख वाले ब्रह्मा जी पैदा हुए थे। ब्रह्मा जी के पुत्र अत्रि, अत्रि के पुत्र चन्द्रमा, चन्द्रमा के पुत्र बुध, बुध के पुत्र पुरुरवा, पुरुरवा के पुत्र नहुष, नहुष के पुत्र ययाति हुए। ययाति के देवयानि से यदु और तुर्वसु नाम के दो पुत्र पैदा हुए। हे सज्जनों के स्वामी ! ययाति ने शर्मिष्ठा से द्रुह्य, अनु और पूरु नाम के तीन पुत्र पैदा किए। सृष्टि के समय जिस प्रकार भूतादि के द्वारा पंचभूत पैदा होते हैं, उसी प्रकार ययाति से पाँच पुत्रों की उत्पत्ति हुई। पुरु के पुत्र जनमेजय (प्रथम), जनमेजय के पुत्र प्रचिन्वान् प्रचिन्वान् के पुत्र प्रवीर, प्रवीर के पुत्र मनस्यु (या नमस्य), मनस्यु के पुत्र अभयदा, अभयदा के पुत्र उरुक्षय, उरुक्षय के पुत्र त्र्यरुणि, त्र्यरुणि के पुत्र पुष्करारुणि, पुष्करारुणि के पुत्र बृहत्क्षेत्र और बृहत्क्षेत्र के पुत्र हस्ती हुए। इन हस्ती राजा के नाम पर ही हस्तिनापुर नाम का नगर स्थापित हुआ था। हस्ती के तीनों पुत्रों के नाम अजमीढ़, अहिमीढ़ और पुरमीढ़ थे। अजमीढ़ के पुत्र ऋक्ष, ऋक्ष के पुत्र संवरण और संवरण के पुत्र कुरु हुए। कुरु के पुत्र परीक्षित, परीक्षित के (तीन) पुत्र सुधनु, जन्हु और निषध हुए। सुधनु के पुत्र सुहोत्र और सुहोत्र के पुत्र च्यवन हुए। च्यवन के पुत्र बृहद्रथ, बृहद्रथ के पुत्र कुशाग्र, कुशाग्र के पुत्र ऋषभ, ऋषभ के पुत्र सत्यजित, सत्यजित के पुत्र पुष्पवान और पुष्पवान के पुत्र नहुष हुए।
बृहद्रथ की दूसरी पत्नी से शत्रुओं को संताप देने वाले जरासन्ध पैदा हुए। जरासन्ध के पुत्र सहदेव, सहदेव के पुत्र सोमापि और सोमापि के पुत्र श्रुतश्रवा हुए। श्रुतश्रवा के पुत्र सुरथ, सुरथ के पुत्र विदूरथ, विदूरथ के पुत्र सार्वभौम, सार्वभौम के पुत्र जयसेन, जयसेन के पुत्र रथानीक और रथानीक से क्रोधी युतायु का जन्म हुआ। युतायु के पुत्र देवातिथि, देवातिथि के पुत्र ऋक्ष, ऋक्ष के पुत्र दिलीप और दिलीप के पुत्र प्रतीपक हुए। हे प्रभो ! मैं प्रतीपक का पुत्र देवापि हूँ। मैं शान्तनु को अपना राज्य देकर कलापग्राम में रहकर दत्तचित्त से तप कर रहा था। अब आपके दर्शनों की इच्छा से मैं यहाँ आया हूँ। मैंने मरु और मुनियों के साथ (यहाँ आकर) आपके कमल रूपी चरणों को प्राप्त किया है। इसलिए अब हमें काल के भयानक गाल में नहीं जाना पड़ेगा और हमें ब्रह्मज्ञानियों (आत्मतत्वज्ञों) का पद प्राप्त होगा।'
मरु और देवापि के ऐसे वचन सुनकर कमल के समान आँखों वाले कल्कि जी प्रसन्न हुए और उन्हें आश्वासन देकर कहने लगे- 'मैं जानता हूँ कि आप दोनों महान् धर्म के जानने वाले राजा हैं। इस समय आप लोग हमारी आज्ञा के अनुसार राजा बनकर अपने-अपने राज्य का पालन कीजिए। हे मरु ! मैं अब प्रजा का पीड़न व प्राणियों की हिंसा करने वाले अधर्मी म्लेच्छों का नाश करके आपको आपकी राजधानी अयोध्यापुरी में राजगद्दी पर बैठाऊँगा। हे राजर्षि देवापि ! मैं युद्ध क्षेत्र में पुक्कसों (नीच अथवा वर्णसंकरों) का नाश करके आपको आपकी राजधानी हस्तिनापुरी में राजगद्दी पर बैठाऊँगा। मैं मथुरा नगरी में रहकर आपका डर दूर करूँगा। शय्याकरण, उष्ट्रमुख और विनोदा आदि एकजंघ का विनाश कर सत्युग की स्थापना कर प्रजा का पालन करूँगा। आप सब भी तपस्वियों के वेश और व्रत को छोड़कर उत्तम रथ पर सवार हो जाइए। आप दोनों ही लोग शस्त्र और अस्त्र चलाने में प्रवीण हैं और महारथी हैं, इसलिए आप दोनों मेरे साथ- साथ घूमना।
हे मरु ! विशाखयूप नाम के राजा परम सुन्दरी, शीलवती और सुन्दर अंगों (नेत्रों) वाली अपनी कन्या विवाह में आप को देंगे। हे मरु ! आप संसार की भलाई के लिए राजा बनकर मेरे वचनों का पालन कीजिए। हे देवापि ! आप भी रुचिराश्व की शान्ता नामक पुत्री से विवाह कीजिए।' कल्कि जी के इस प्रकार के आश्वासन से भरे वचन सुनकर मुनियों सहित देवापि (और मरु) अत्यन्त विस्मित हुए और संदेह त्याग कर यह मान लिया कि ये (कल्कि जी) ही साक्षात हरि और ईश्वर हैं।
जब कल्कि जी इस प्रकार के अभय देने वाले वचन कह रहे थे, तभी आकाशमार्ग से इच्छानुसार चलने वाले दो रथ उतरे। ये दोनों रथ अनेक प्रकार के रत्नों से बने थे। उनकी चमक सूर्य जैसी थी। इन रथों में दिव्य अस्त्र और शस्त्र भरे हुए थे। सभा में बैठे हुए मुनि और राजा आदि सभी विश्वकर्मा के बनाए हुए रथ को सभा में आया देखकर 'यह क्या है?' हर्ष में कहते हुए अचम्भा प्रकट करने लगे। कल्कि जी बोले- 'सभी जानते हैं कि आप दोनों राजा, संसार की रक्षा और पालन करने के लिए, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, यम और कुबेर के अंश से अवतरित हुए हैं। इतने दिनों तक आप दोनों लोग अपने आप को छिपाए हुए थे। अब मुझे मिलने के लिए यहाँ आए हैं। इसलिए अब आप मेरी आज्ञानुसार इन्द्र जी के द्वारा दिए गए इन रथों पर चढ़ें।"
पद्मा जी के स्वामी, संसार के ईश्वर कल्कि जी जब इस प्रकार के वचन कह रहे थे, तभी देवतागण फूलों की वर्षा करने लगे और मुनि सामने आकर स्तोत्र-पाठ करने लगे। हवा मन्द मन्द चलने लगी। शिवजी की जटाओं में गंगा जल के मिलने से विभूति गीली हो गई। धीमे बहने वाली हवा ने महादेव जी की उस विभूति के पराग को उड़ाकर भगवती पार्वती जी के अंग का स्पर्श करके शुभगुण का संकेत दिया।उसी समय सनक मुनि के समान, परम तेजस्वी दण्डधारी एक ब्रह्मचारी वहाँ पर आए। उनका शरीर तपे हुए सोने की तरह चमक रहा था। (ऐसा लगता था, मानों) उनमें धर्म का निवास है। सुन्दर जटा और वल्कलधारी ये ब्रह्मचारी हाथ में दण्ड लिए हुए थे। कमल के जैसे सुन्दर नेत्रों वाले अद्भुत उन महापुरुष के शरीर से कभी नष्ट न होने वाले आनन्द का भाव प्रकट हो रहा था। तेज के समूह से युक्त उनकी देह के छूने से संसार के पापों के समूह दूर हो रहे थे।
श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \चौथा अध्याय संस्कृत में
रामात् कुसो ऽभूद् अतिथिस् ततो ऽभून् निषधान् नभः।
तस्माद् अभूत् पुण्डरीकः क्षेमधान्व् ऽभवत् ततः॥१
देवानीकस् ततो हीनः पारिपात्रो ऽथ हीनतः।
बलाहकस् ततो ऽर्कश् च रजनाभस् ततो ऽभवत्॥२
खाणाद् विधृतस् तस्माद् धिरण्यनाभ-सङितः ।
ततः पुष्पाद् ध्रुवस् तस्मात् स्यन्दनो ऽथअग्निवर्णकः॥३
तस्माच् छीघ्रो ऽभवत् पुत्रः पिता मे ऽतुल-विक्रमः।
तस्मान् मरुं मां के ऽपिइह बुधञ् चअपि सुमित्रकम्॥४
कलाप-ग्रामम् आसाद्य विद्धि सत्तपसि स्थितम् ।
तवअवतारं विज्ञाय व्यासात् सत्यवती-सुतात्॥५
प्रतीक्ष्य कालं लक्षाब्दं कलेः प्राप्तस्तवान्तिकम्।
जन्म-कोट्यंहसां राशेर् नाशनं धर्म-शासनम्।
यशः-कीर्ति-करं सर्व-काम-पूरं परात्मनः॥६
कल्किर् उवाच
ज्ञातस् तवअन्वयस् त्वञ् च सूर्य-वंश-समुद्भवः।
द्वितीयः को ऽपरः श्रीमान्-महापुरुष-लक्षणः॥७
इति कल्कि-वचः श्रुत्वा देवापिर् मधुराक्षराम्।
वाणीं विनय-सम्पन्नः प्रवक्तुम् उपचक्रमे॥८
देवापिर् उवाच
प्रलयान्ते नाभि-पद्मात् तवअभूच् चतुराननः।
तद् ईय-तनयाद् अत्रेश् चन्द्रस् तस्मात् ततो बुधः॥९
तस्मात् पुरूरउआ जज्ञे ययातिर् नहुषस् ततः।
देवयान्यां ययातिस् तु यदुं तुर्वसुम् एव च॥१०
शर्मिष्थायां तथा द्रुह्युञ् चअनुं पूरुञ् च सत्पते ।
जनयाम् आस भूतआदिर् भूतानिइव सिसृक्षया॥११
पूरोर् जन्मेजयस् तस्मात् प्रचिन्वान् अभवत् ततः।
प्रवीरस् तन् मनस्युर् वैं तस्माच् चअभयदो ऽभवत्॥१२
उरुक्षयाच् च तृयरुणिस् ततो ऽभूत् पुष्करारुणिः।
बृहत्क्षेत्राद् अभूद् धस्ती यन् नाम्ना हस्तिनापुरम्॥१३
अजमीढो द्विमीढश् च पुरमीढस् तु तत् सुताः ।
अजमीढाद् अभूद् ऋक्षस् तस्मात् संवरणात् कुरुः॥१४
कुरोः परिक्षित् सुधनुर् जह्नुर् निषध एव च ।
सुहोत्रो ऽभूत् सुधनुषश् च्यवनाच् च ततः कृती॥१५
ततो बृहद्रथस् तस्मात् कुशाग्राद् ऋषबो ऽभवत्।
ततः सत्यजितः पुत्रः पुष्पवान् नहुषस् ततः॥१६
बृहद्रथअन्य-भर्यायां जरासन्धः परन्तपः।
सहदेवस् ततस् तस्मात् सोमापिर् यच् छ्रुतश्रवाः ॥१७
सुरथाद् विदूरथस् तस्मात् सार्वभौमो ऽभवत् ततः ।
जयसेनाद् रथानीको ऽभूद् युतआयुश् च कोपनः॥१८
तस्माद् देवातिथिस् तस्माद् दृक्षस् तस्माद् दिलीपकः।
तस्मात् प्रतीपकस् तस्य देवापिर् अहम् ईश्वर!॥१९
राज्यं शान्तनवे दत्त्वा तपस्य् एकधिया चिरम्।
कलाप-ग्रामम् आसाद्य त्वां दिदृक्षुर् इहअगतः॥२०
मरुणा ऽनेन मुनिबिर् एबिः प्राप्य पदाम्बुजम्
तव काल-करालअस्याद् यास्याम्य् आत्मवतां पदम्॥२१
तयोर् एवं वचः श्रुत्वा कल्किः कमल-लोचनः।
प्रहस्य मरु-देवापि समाश्वास्य समब्रवीत्॥२२
कल्किर् उवाच
युवां परम-धर्मज्ञौ राजानौ विदिताव् उभौ।
मद् आदेश-करौ भूत्वा निज-राज्यं भरिष्यथः॥२३
मरो त्वाम् अभिषेक्ष्यामि निजअयोध्या-पुरे ऽधुना।
हत्वा म्लेच्छान् अधर्मिष्थान् प्रजा-भूत-विहिंसकान्॥२४
देवापे तव राज्ये त्वां हस्तिनापुरपत्तने।
अभिषेक्ष्यामि राजर्षे हत्वा पुक्कसकान् रणे॥२५
मथुराअयाम् अहं स्थित्वा हरिष्यामि तु वो भयम्।
शय्याकर्णान् उष्ट्रमुखान् एक-जङ्/घान् विनोदरान्॥२६
हत्वा कृतं युगं कृत्वा पालयिष्याम्य् अहं प्रजाः।
तपो-वेशं व्रतं त्यक्त्वा समारुह्य रथोत्तमम्॥२७
युवां शस्त्रअस्त्र-कुशलौ सेना-गण-परिच्छदौ ।
भूत्वा महारथौ लोके मया सह चरिष्यथः॥२८
विशाखयूप-भूपालस् तनयां विनयान्विताम्।
विवाहे रुचिरापाङ्गीं सुन्दरीं त्वां प्रदास्यति॥२९
साधो भूपाल लोकानां स्वस्तये कुरु मे वचः ।
रुचिराश्व-सुतां शान्तां देवापे त्वं समुद्वह॥३०
इत्य् आश्वासकथाः कल्केः श्रुत्वा तौ मुनिभिः सह।
विस्मया-विष्ट-हृदयौ मेनाते हरिम् ईश्वरम्॥३१
इति ब्रुवत्य् अभयदे आकाशात् सूर्य-सन्निभौ।
रथौ नाना-मणि-व्रात-घटितौ कामगौ पुरः।
समायातौ ज्वलद्-दिव्य-शस्त्रअस्त्रैः परिवारितौ॥३२
ददृशुस् ते सदोमध्ये विश्व-कर्म-विनिर्मितौ।
भूपा मुनि-गणाः सभ्याः सहर्षाः किम् इतिइरिताः॥३३
कल्किर् उवाच
युवाम् आदित्य-सोमे’न्द्र-यमैवश्रवणाङ्गजौ।
राजानौ लोक-रक्षअर्थम् आविर्भूतौ विदन्त्यमी॥३४
कालेनाच्छादिताकारौ मम सङ्गादिहोदितौ।
युवां रथाव् आरुहतां शक्र-दत्तं ममआज्ञया॥३५
एवं वदति विश्वे’शे पद्मनाथे सनातने।
देवा ववर्षुः कुसुमैस्) तुष्टुवुर् मुनयो ऽग्रतः॥३६
गङ्गावारिपरिक्लिन्न-शिरोभूति-परागवान्।
शनैः पर्वतजा-सङ्ग-शिववत् पवनो ववौ॥३७
तत्रायातः प्रमुदित-तनुस्-तप्त-चामीकरआभो।
धर्मावासः सु-रुचिर-जटाचीरभृद्-दण्ड-हस्तः।
लोकातीतो निज-तनु-मरुन् नाशिता ऽधर्म-संघस्।
तेजोराशिः सनक-सदृशो मस्करी पुष्कराक्षः॥३८
इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे चन्द्र-वंशअनुकीर्तनं नाम चतुर्थो ऽध्यायः॥४
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