श्री कृष्ण-चरित्र का वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर-संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ | shri krushna-charitra ka varnan, daityonka itihas tatha devasur-sangramke prasangamen vibhinn avantar kathaaen |

मत्स्य पुराण सैंतालीसवाँ अध्याय

श्री कृष्ण-चरित्र का वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर-संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ

सूत उवाच

अथ देवो महादेवः पूर्व कृष्णः प्रजापतिः ।
विहारार्थं स देवेशो मानुषेष्विह जायते ॥ १

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! पूर्व काल में जो प्रजाओं के स्वामी थे, वे ही देवाधिदेव महादेव श्रीकृष्ण लीला-विहार करने के लिये मृत्युलोकमें मानव-योनिमें अवतीर्ण हुए।

देवक्यां वसुदेवस्य तपसा पुष्करेक्षणः।
चतुर्बाहुस्तदा जातो दिव्यरूपो ज्वलश्रिया ॥ २

श्रीवत्सलक्षणं देवं दृष्ट्वा दिव्यैश्च लक्षणैः।
उवाच वसुदेवस्तं रूपं संहर वै प्रभो ॥ ३

भीतोऽहं देव कंसस्य ततस्त्वेतद् ब्रवीमि ते। 
मम पुत्रा हतास्तेन ज्येष्ठास्ते भीमविक्रमाः ॥ ४

वसुदेववचः श्रुत्वा रूपं संहरतेऽच्युतः । 
अनुज्ञाप्य ततः शौरिं नन्दगोपगृहेऽनयत् ॥ ५

दत्त्वैनं नन्दगोपस्य रक्ष्यतामिति चाब्रवीत्। 
अतस्तु सर्वकल्याणं यादवानां भविष्यति । 
अयं तु गर्भो देवक्यां जातः कंसं हनिष्यति ॥ ६

वे वसुदेवजीकी तपस्यासे देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए। उनके नेत्र कमल-सदृश अति रमणीय थे, उनके चार भुजाएँ थीं, उनका दिव्य रूप दिव्य कान्तिसे प्रज्वलित हो रहा था और उनका वक्षःस्थल श्रीवत्सके चिह्नसे विभूषित था। वसुदेवजीने इन दिव्य लक्षणोंसे सम्पन्न श्रीकृष्णको देखकर उनसे कहा-'प्रभो! आप इस रूपको समेट लीजिये। देव! मैं कंससे डरा हुआ हूँ, इसीलिये आपसे ऐसा कह रहा हूँ; क्योंकि उसने मेरे उन अत्यन्त पराक्रमी (छः) पुत्रोंको मार डाला है, जो आपसे ज्येष्ठ थे।' वसुदेवजीकी बात सुनकर अच्युतभगवान्ने शूरनन्दन वसुदेवजीको (अपनेको नन्दके घर पहुँचा देनेकी) आज्ञा देकर उस रूपका संवरण कर लिया। (तब वसुदेवजी उन्हें नन्दगोपके घर ले गये और) उन्हें नन्दगोपके हाथमें समर्पित करके यों बोले- 'सखे ! इस (बालक) की रक्षा करो, इससे यदुवंशियोंका सब प्रकारसे कल्याण होगा। देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुआ यह बालक कंसका वध करेगा ॥१-६॥

ऋषय ऊचुः

क एष वसुदेवस्तु देवकी च यशस्विनी। 
नन्दगोपश्च कस्त्वेष यशोदा च महाव्रता ॥ ७

सूत उवाच

यो विष्णुं जनयामास यं च तातेत्यभाषत । 
या गर्भ जनयामास या चैनं त्वभ्यवर्धयत् ॥ ८ 

ऋषियोंने पूछा- सूतजी। ये वसुदेव कौन थे, जिन्होंने भगवान् विष्णुको पुत्ररूपमें उत्पन्न किया और जिन्हें भगवान् 'तात-पिता' कहकर पुकारते थे तथा यशस्विनी देवकी कौन थीं, जिन्होंने भगवान्‌को अपने गर्भसे जन्म दिया? साथ ही ये नन्दगोप कौन थे तथा महाव्रतपरायणा यशोदा कौन थीं, जिन्होंने बालकरूपमें भगवान्‌का पालन-पोषण किया ? ॥ ७-८ ॥

पुरुषः कश्यपस्त्वासीददितिस्तु प्रिया स्मृता। 
ब्रह्मणः कश्यपस्त्वंशः पृथिव्यास्त्वदितिस्तथा ॥ ९

अथ कामान् महाबाहुर्देवक्याः समपूरयत् ।
ये तया काङ्किता नित्यमजातस्य महात्मनः ॥ १०

सोऽवतीर्णो महीं देवः प्रविष्टो मानुषीं तनुम् । 
मोहयन् सर्वभूतानि योगात्मा योगमायया ॥ १९

नष्ठे धर्मे तथा जज्ञे विष्णुर्वृष्णिकुले प्रभुः । 
कर्तुं धर्मस्य संस्थानमसुराणां प्रणाशनम् ॥ १२

रुक्मिणी सत्यभामा च सत्या नाग्नजिती तथा। 
सुभामा च तथा शैव्या गान्धारी लक्ष्मणा तथा ॥ १३

मित्रविन्दा च कालिन्दी देवी जाम्बवती तथा।
सुशीला च तथा माद्री कौसल्या विजया तथा। 
एवमादीनि देवीनां सहस्त्राणि च षोडश ॥ १४

रुक्मिणी जनयामास पुत्रान् रणविशारदान् । 
चारुदेष्णं रणे शूरं प्रद्युम्नं च महाबलम् ॥ १५

सुचारुं भद्रचारुं च सुदेष्णं भद्रमेव च। 
परशुं चारुगुप्तं च चारुभद्रं सुचारुकम्।
चारुहासं कनिष्ठं च कन्यां चारुमतीं तथा ॥ १६

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। पुरुष (वसुदेवजी) कश्यप हैं और उनकी प्रिय पत्नी देवकी अदिति (प्रकृति) कही गयी हैं। कश्यप ब्रह्माके अंश हैं और अदिति पृथ्वीका। देवकी देवीने अजन्मा एवं महात्मा परमेश्वरसे जो कामनाएँ की थीं, उन सभी कामनाओंको महाबाहु श्रीकृष्णने पूर्ण कर दिया। वे ही योगात्मा भगवान् योगमायाके आश्रयसे समस्त प्राणियोंको मोहित करते हुए मानव शरीर धारण करके भूतलपर अवतीर्ण हुए। उस समय धर्मका ह्रास हो चुका था, अतः धर्मकी स्थापना और असुरोंका विनाश करनेके लिये उन सामर्थ्यशाली विष्णुने वृष्णिकुलमें जन्म धारण किया। रुक्मिणी, सत्यभामा, नग्रजित्‌की कन्या सत्या, सुभामा, शैब्या, गान्धारराजकुमारी लक्ष्मणा, मित्रविन्दा, देवी कालिन्दी, जाम्बवती, सुशीला, मद्रराजकुमारी कौसल्या तथा विजया आदि सोलह हजार देवियाँ श्रीकृष्णकी पत्नियाँ थीं। रुक्मिणीने ग्यारह पुत्रोंको जन्म दिया; जो सभी युद्धकर्ममें निष्णात थे। उनके नाम हैं-महाबली प्रद्युम्न, रणशूर चारुदेष्ण, सुचारु, भद्रचारु, सुदेष्ण, भद्र, परशु, चारुगुप्त, चारुभ्रद, सुचारुक और सबसे छोटा चारुहास। रुक्मिणीसे एक चारुमती नामकी कन्या भी उत्पन्न हुई थी ॥ ९-१६ ॥

जज्ञिरे सत्यभामायां भानुर्धमरतेक्षणः । 
रोहितो दीप्तिमांश्चैव ताम्रश्चक्रो जलंधमः ॥ १७

चतस्त्रो जज्ञिरे तेषां स्वसारस्तु यवीयसीः । 
जाम्बवत्याः सुतो जज्ञे साम्बः समितिशोभनः ॥ १८

मित्रवान् मित्रविन्दश्च मित्रविन्दा वराङ्गना। 
मित्रबाहुः सुनीथश्च नाग्ग्रजित्याः प्रजा हि सा ॥ १९

एवमादीनि पुत्राणां सहस्त्राणि निबोधत। 
शतं शतसहस्त्राणां पुत्राणां तस्य धीमतः ॥ २०

अशीतिश्च सहस्त्राणि वासुदेवसुतास्तथा। 
लक्षमेकं तथा प्रोक्तं पुत्राणां च द्विजोत्तमाः ॥ २१

उपासङ्गस्य तु सुतौ वज्रः संक्षिप्त एव च। 
भूरीन्द्रसेनो भूरिश्च गवेषणसुतावुभौ ॥ २२

प्रद्युम्नस्य तु दायादो वैदर्थ्यां बुद्धिसत्तमः । 
अनिरुद्धो रणेऽरुद्धो जज्ञेऽस्य मृगकेतनः ॥ २३

काश्या सुपार्श्वतनया साम्बाल्लेभे तरस्विनः । 
सत्यप्रकृतयो देवाः पञ्च वीराः प्रकीर्तिताः ॥ २४

तिस्रः कोट्यः प्रवीराणां यादवानां महात्मनाम्। 
षष्टिः शतसहस्त्राणि वीर्यवन्तो महाबलाः ॥ २५

देवांशाः सर्व एवेह ह्युत्पन्नास्ते महौजसः । 
देवासुरे हता ये च त्वसुरा ये महाबलाः ॥ २६

इहोत्पन्ना मनुष्येषु बाधन्ते सर्वमानवान् । 
तेषामुत्सादनार्थाय उत्पन्नो यादवे कुले ॥ २७

कुलानां शतमेकं च यादवानां महात्मनाम्। 
सर्वमेतत् कुलं यावद् वर्तते वैष्णवे कुले ॥ २८

विष्णुस्तेषां प्रणेता च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः । 
निदेशस्थायिनस्तस्य कथ्यन्ते सर्वयादवाः ॥ २९

सत्यभामाके गर्भसे भानु, भ्रमरतेक्षण, रोहित, दीप्तिमान्, ताम्र, चक्र और जलन्ध नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे। इनकी चार छोटी बहनें भी पैदा हुई थीं। जाम्बवतीके संग्रामशोभी साम्ब नामक पुत्र पैदा हुआ। श्रेष्ठ सुन्दरी मित्रविन्दाने मित्रवान् और मित्रविन्दको तथा नाग्रजिती सत्याने मित्रबाहु और सुनीथको पुत्ररूपमें जन्म दिया। इसी प्रकार अन्य पत्नियोंसे भी हजारों पुत्रोंकी उत्पत्ति समझ लीजिये। द्विजवरी! इस प्रकार उन बुद्धिमान् वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके पुत्रोंकी संख्या एक करोड़ एक लाख अस्सी हजार बतलायी गयी है। उपासङ्ग‌के दो पुत्र वज्र और संक्षिप्त थे। भूरीन्द्रसेन और भूरि-ये दोनों गवेषणके पुत्र थे। प्रद्युम्नके विदर्भ-राजकुमारीके गर्भसे अनिरुद्ध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो परम बुद्धिमान् एवं युद्धमें उत्साहपूर्वक लड़नेवाला बीर था। 

अनिरुद्धके पुत्रका नाम मृगकेतन था। पार्श्वनन्दिनी काश्याने साम्बके संयोगसे ऐसे पाँच पुत्रोंको जन्म दिया, जो तरस्वी (एवं फुर्तीले), सत्यवादी, देवोंके समान सौन्दर्यशाली और शूरवीर थे। इस प्रकार प्रबल शूरवीर एवं महात्मा यादवोंकी संख्या तीन करोड़ थी उनमें साठ लाख तो महाबली और महान् पराक्रमी थे। ये सभी महान् ओजस्वी यादव देवताओंके अंशसे ही भूतलपर उत्पन्न हुए थे। देवासुर संग्राममें जो महाबली असुर मारे गये थे, वे ही भूतलपर मानव योनिमें उत्पन्न होकर सभी मानवोंको कष्ट दे रहे थे। उन्हींका संहार करनेके लिये भगवान् यदुकुलमें अवतीर्ण हुए। इन महाभाग यादवोंके एक सौ एक कुल हैं। ये सब- के सब कुल विष्णुसे सम्बन्धित कुलके अंदर ही वर्तमान थे। भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण) उनके नेता और स्वामी थे तथा वे सभी यादव श्रीकृष्णको आज्ञाके अधीन रहते थे ऐसा कहा जाता है॥ १७-२९ ॥

ऋषय ऊचुः

सप्तर्षयः कुबेरश्च यक्षो मणिचरस्तथा। 
शालङ्किर्नारदश्चैव सिद्धो धन्वन्तरिस्तथा ॥ ३०

आदिदेवस्तथा विष्णुरेभिस्तु सहदैवतैः । 
किमर्थे सङ्घशो भूताः स्मृताः सम्भूतयः कति ॥ ३१

भविष्याः कति चैवान्ये प्रादुर्भावा महात्मनः । 
ब्रह्मक्षत्रेषु शान्तेषु किमर्थमिह जायते ॥ ३२

यदर्थमिह सम्भूतो विष्णुर्वृष्ण्यन्धकोत्तमः । 
पुनः पुनर्मनुष्येषु तन्नः प्रब्रूहि पृच्छताम् ॥ ३३

ऋषियोंने पूछा- सूतजी। सप्तर्षि, कुबेर, यक्ष मणिचर (मणिभद्र), शालङ्कि, नारद, सिद्ध, धन्वन्तरि तथा देवसमाज- इन सबके साथ आदिदेव भगवान् विष्णु संघबद्ध होकर किसलिये अवतीर्ण होते हैं? इन महापुरुषके कितने अवतार हो चुके और भविष्यमें कितने अन्य अवतार होनेवाले हैं? ब्राह्मणों और क्षत्रियंकि थक जानेपर ये किस कारण भूतलपर उत्पन्न होते हैं? वृष्णि और अन्धकवंशमें सर्वश्रेष्ठ विष्णु (श्रीकृष्ण) जिस प्रयोजनसे भूतलपर बारंबार मानव योनिमें प्रकट होते हैं, वह सभी कारण हम सब प्रश्नकर्ताओंको बतलाइये ॥३०-३३॥

सूत उवाच

त्यक्त्वा दिव्यां तनुं विष्णुर्मानुषेष्विह जायते। 
युगे त्वथ परावृत्ते काले प्रशिथिले प्रभुः ॥ ३४

देवासुरविमर्देषु जायते हरिरीश्वरः । 
हिरण्यकशिपी दैत्ये त्रैलोक्यं प्राक् प्रशासति ॥ ३५

बलिनाधिष्ठिते चैव पुरा लोकत्रये क्रमात्। 
सख्यमासीत् परमकं देवानामसुरैः सह ॥ ३६

युगाख्यासुरसम्पूर्ण ह्यासीदत्याकुलं जगत्। 
निदेशस्थायिनश्चापि तयोर्देवासुराः समम् ॥ ३७

देवानामसुराणां च घोरः क्षयकरो महान् ॥ ३८

मृधो बलिविमर्दाय सम्प्रवृद्धः सुदारुणः ।
कर्तुं धर्मव्यवस्थानं जायते मानुषेष्विह। 
भृगोः शापनिमित्तं तु देवासुरकृते तदा ॥ ३९

सूतजी कहते हैं- ऋषियो। युग-युगमें जब लोग धर्मसे विमुख हो जाते हैं तथा शुभ कर्मोंमें विशेषरूपसे शिथिलता आ जाती है, तब भगवान् विष्णु अपने दिव्य शरीरका त्यागकर भूतलपर मानव योनिमें प्रकट होते हैं। पूर्वकालमें दैत्यराज हिरण्यकशिपुके त्रिलोकीका शासन करते समय देवासुर संग्रामके अवसरपर भगवान् श्रीहरि अवतीर्ण हुए थे। इसी प्रकार क्रमशः जब बलि तीनों लोकोंपर अधिष्ठित था, उस समय देवताओंकी असुरोंके साथ प्रगाढ़ मैत्री हो गयी थी। ऐसा समय एक युगतक चलता रहा। उस समय सारा जगत् असुरोंसे व्याप्त होकर अत्यन्त व्याकुल हो उठा था। देवता और असुर दोनों समानरूपसे उसकी आज्ञाके अधीन थे। अन्तमें (बलि-बन्धनके समय) बलिका विमर्दन करनेके लिये देवताओं और असुरोंके बीच अत्यन्त भयंकर एवं महान् विनाशकारी घोर संग्राम प्रारम्भ हो गया। तब भगवान् विष्णु धर्मकी व्यवस्था करनेके लिये तथा देवताओं और असुरोंके प्रति दिये गये भृगुके शापके कारण पृथ्वीपर मानव-योनिमें उत्पन्न हुए ॥ ३४-३९ ॥

ऋषय ऊचुः

कथं देवासुरकृते व्यापारं प्राप्तवान् स्वतः । 
देवासुरं यथा वृत्तं तन्नः प्रब्रूहि पृच्छताम् ॥ ४०

ऋषियोंने पूछा- सूतजी। उस समय भगवान् विष्णु देवताओं और असुरोंके लिये अपने-आप इस अवताररूप कार्यमें कैसे प्रवृत्त हुए थे? तथा वह देवासुरसंग्राम जिस प्रकार हुआ था? वह सब हमलोगोंको बतलाइये ॥ ४० ॥

सूत उवाच

तेषां दायनिमित्तं ते संग्रामास्तु सुदारुणाः । 
वराहाद्या दश द्वौ च शण्डामर्कान्तरे स्मृताः ॥ ४१

सूतजी कहते हैं- ऋषियो ! पूर्वकालमें वराह आदि बारह अत्यन्त भयंकर देवासुर संग्राम भागप्राप्तिके निमित्त हुए थे।॥ ४१

नामतस्तु समासेन शृणु तेषां विवक्षतः । 
प्रथमो नारसिंहस्तु द्वितीयश्चापि वामनः ॥ ४२

देवासुरक्षयकराः प्रजानां तु हिताय वै। 
तृतीयस्तु वराहश्च चतुर्थोऽमृतमन्थनः । 
संग्रामः पञ्चमश्चैव संजातस्तारकामयः ॥ ४३

षष्ठो ह्याडीवकाख्यस्तु सप्तमस्त्रैपुरस्तथा। 
अन्धकाख्योऽष्टमस्तेषां नवमो वृत्रघातकः ।॥ ४४

धात्रश्च दशमश्चैव ततो हालाहलः स्मृतः ।
प्रथितो द्वादशस्तेषां घोरः कोलाहलस्तथा ।। ४५

हिरण्यकशिपुर्दैत्यो नारसिंहेन पातितः। 
वामनेन बलिर्बद्धस्त्रैलोक्याक्रमणे पुरा ॥ ४६

हिरण्याक्षो हतो द्वन्द्वे प्रतिघाते तु दैवतैः । 
दंष्ट्या तु वराहेण समुद्रस्तु द्विधा कृतः ॥ ४७

प्रह्लादो निर्जितो युद्धे इन्द्रेणामृतमन्थने। 
विरोचनस्तु प्राह्वादिर्नित्यमिन्द्रवधोद्यतः ।॥ ४८

इन्द्रेणैव तु विक्रम्य निहतस्तारकामये। 
अशक्नुवन् स देवानां सर्वं सोढुं सदैवतम् ॥ ४९


निहता दानवाः सर्वे त्रैलोक्ये त्र्यम्बकेण तु। 
असुराश्च पिशाचाश्च दानवाश्चान्धकाहवे ॥ ५०

हता देवमनुष्ये स्वे पितृभिश्चैव सर्वशः । 
सम्पृक्तो दानवैर्वृत्रो घोरो हालाहले हतः ॥ ५१

तदा विष्णुसहायेन महेन्द्रेण निवर्तितः ।
हतो ध्वजे महेन्द्रेण मायाच्छन्नस्तु योगवित्। 
ध्वजलक्षणमाविश्य विप्रचित्तिः सहानुजः ॥ ५२

दैत्यांश्च दानवांश्चैव संयतान् किल संयुतान्। 
जयन् कोलाहले सर्वान् देवैः परिवृतो वृषा ॥ ५३

यज्ञस्यावभृथे दृश्यौ शण्डामा तु दैवतैः । 
एते देवासुरे वृत्ताः संग्रामा द्वादशैव तु ॥५४

ये सभी युद्ध शण्डामर्कके पौरोहित्यकालमें घटित हुए बतलाये जाते हैं। मैं संक्षेपमें नामनिर्देशानुसार उनका वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये। प्रथम युद्ध नरसिंह (नृसिंहावतार) में, दूसरा वामन, तीसरा वाराह (वराहावतार) में और चौथा अमृत-मन्थनके अवसरपर हुआ था। पाँचवाँ तारकामय संग्राम घटित हुआ था। इसी प्रकार छठा युद्ध आडीवक, सातवाँ त्रैपुर (त्रिपुरसम्बन्धी), आठवाँ अन्धक, नवाँ वृत्रघातक, दसवाँ धात्र (या वार्त्र), ग्यारहवाँ हालाहल और बारहवाँ भयंकर संग्राम कोलाहलके नामसे विख्यात है। (इन संग्रामोंमें) भगवान् विष्णुने दैत्यराज हिरण्यकशिपुको नृसिंह-रूप धारण करके मार डाला था। पूर्वकालमें त्रिलोकीको नापते समय भगवान्ने वामन-रूपसे बलिको बाँध लिया था। देवताओंके साथ भगवान्ने वराहका रूप धारण करके द्वन्द्व-युद्धमें अपनी दाढ़ोंसे हिरण्याक्षको विदीर्ण कर मार डाला था और समुद्रको दो भागोंमें विभक्त कर दिया था। अमृत-मन्थनके अवसरपर घटित हुए युद्धमें इन्द्रने प्रह्लादको पराजित किया था। उससे अपमानित होकर प्रह्लाद-पुत्र विरोचन नित्य इन्द्रका वध करनेकी ताकमें लगा रहता था। वह पृथक् पृथक् देवोंको तथा पूरे देवसमाजको सहन नहीं कर पाता था, 

किंतु इन्द्रने तारकामय युद्धमें पराक्रम प्रकट करके उसे यमलोकका पथिक बना दिया। त्रिलोकी में जितने दानव, असुर और पिशाच थे, वे सभी शंकरजीद्वारा अन्धक नामक युद्धमें मौतके घाट उतारे गये। उस युद्धमें देवता, मनुष्य और पितृगण भी सब ओरसे सहायक रूपमें उपस्थित थे। दानवोंसे घिरा हुआ भयंकर वृत्रासुर हालाहल युद्धमें मारा गया था। तत्पश्चात् इन्द्रने विष्णुकी सहायतासे विप्रचित्तिको युद्धसे विमुख कर दिया, परंतु योगका ज्ञाता विप्रचित्ति अपनेको मायासे छिपाकर ध्वजरूपमें परिणत कर दिया, फिर भी इन्द्रने ध्वजमें छिपे होनेपर भी अनुज समेत उसका सफाया कर दिया। इस प्रकार देवोंकी सहायतासे इन्द्रने कोलाहल नामक युद्धमें संगठित होकर आये हुए सभी पराक्रमी दानवों और दैत्योंको पराजित किया था। (ऐसा प्रतीत होता है कि युद्धके उपरान्त देवताओंने किसी यज्ञका अनुष्ठान किया था, उस) यज्ञकी समाप्तिके अवसरपर अवभृथ-स्नानके समय शण्ड और अमर्क नामक दोनों दैत्यपुरोहित देवताअंकि दृष्टिगोचर हुए थे। इस प्रकार ये बारह युद्ध देवताओं और असुरोंके बीच घटित हुए थे, जो देवताओं और असुरोंके विनाशक और प्रजाओंके लिये हितकारी थे॥ ४१-५४॥

हिरण्यकशिपू राजा वर्षाणामर्बुदं बभौ ॥ ५५

द्विसप्तति तथान्यानि नियुतान्यधिकानि च। 
अशीतिं च सहस्त्राणि त्रैलोक्यैश्वर्यतां गतः ॥ ५६

पर्यायेण तु राजाभूद् बलिर्वर्घायुतं पुनः । 
षष्टिवर्षसहस्त्राणि नियुतानि च विंशतिः ॥ ५७

बले राज्याधिकारस्तु यावत्कालं बभूव ह। 
तावत्कालं तु प्रह्लादो निवृत्तो हासुरैः सह ॥ ५८

इन्द्रास्त्रयस्ते विज्ञेया असुराणां महौजसः । 
दैत्यसंस्थमिदं सर्वमासीद् दशयुगं पुनः ॥ ५९

त्रैलोक्यमिदमव्यग्रं महेन्द्रेणानुपाल्यते। 
असपत्नमिदं सर्वमासीद् दशयुगं पुनः ॥ ६०

प्रह्लादस्य हते तस्मिस्त्रैलोक्ये कालपर्ययात्।
पर्यायेण तु सम्प्राप्ते त्रैलोक्यं पाकशासने। 
ततोऽसुरान् परित्यज्य शुक्रो देवानगच्छत ॥ ६१

यज्ञे देवानथ गतान् दितिजाः काव्यमाह्वयन् । 
किं त्वं नो मिषतां राज्यं त्यक्त्वा यज्ञं पुनर्गतः ॥ ६२

स्थातुं न शक्नुमो ह्यत्र प्रविशामो रसातलम्। 
एवमुक्तोऽब्रवीद् दैत्यान् विषण्णान् सान्त्वयन् गिरा ।। ६३

मा भैष्ट धारयिष्यामि तेजसा स्वेन वोऽसुराः । 
मन्त्राश्चौषधयश्चैव रसा वसु च यत्परम् ।। ६४

कृत्स्त्रानि मयि तिष्ठन्ति पादस्तेषां सुरेषु वै। 
तत् सर्वं वः प्रदास्यामि युष्मदर्थे धृता मया ॥ ६५

पूर्वकाल में राजा हिरण्यकशिपु एक अरब सात करोड़ बीस लाख अस्सी हजार वर्षोंतक त्रिलोकीके ऐश्वर्यका उपभोग करता हुआ (सिंहासनपर) विराजमान था। तदनन्तर पर्यायक्रमसे बलि राजा हुए। इनका शासनकाल दो करोड़ सत्तर हजार वर्षोंतक था। जितने समयतक बलिका शासनकाल था, उतने कालतक प्रह्लाद अपने अनुयायी असुरोंके साथ निवृत्तिमार्गपर अवलम्बित रहे। इन महान् ओजस्वी तीनों दैत्योंको असुरोंका इन्द्र (अध्यक्ष) जानना चाहिये। इस प्रकार दस युगपर्यन्त यह सारा विश्व दैत्योंके अधीन था। पुनः कालक्रमानुसार गत युद्धमें प्रह्लादके मारे जानेपर पर्याय- क्रमसे त्रिलोकीका राज्य इन्द्रके हाथोंमें आ गया। उस समय दस युगतक यह विश्व शत्रुहीन था, तब इन्द्र निश्चिन्ततापूर्वक त्रिलोकीका पालन कर रहे थे। उसी समय शुक्राचार्य असुरोंका परित्याग कर एक देवयज्ञमें चले आये। इस प्रकार यज्ञके अवसरपर शुक्राचार्यको देवताओंके पक्षमें गया हुआ देखकर दैत्योंने शुक्राचार्यको उपालम्भ देते हुए कहा- 'गुरुदेव! आप हमलोगोंके देखते-देखते हमारे राज्यको छोड़कर देवताओंके यज्ञमें क्यों चले गये? अब हमलोग यहाँ किसी प्रकार ठहर नहीं सकते, अतः रसातलमें प्रवेश कर जायेंगे।' दैत्योंके इस प्रकार गिड़गिड़ानेपर शुक्राचार्य उन दुःखी दैत्योंको मधुर वाणीसे सान्त्वना देते हुए बोले- 'असुरो ! तुमलोग डरो मत, मैं अपने तेजोबलसे पुनः तुमलोगोंको धारण करूँगा अर्थात् अपनाऊँगा; क्योंकि त्रिलोकीमें जितने मन्त्र, ओषधि, रस और धन- सम्पत्ति हैं, वे सब के सब मेरे पास हैं। इनका चतुर्थांश ही देवोंके अधिकारमें है। मैं वह सारा-का- सारा तुमलोगोंको प्रदान कर दूंगा; क्योंकि तुम्हीं लोगोंके लिये ही मैंने उन्हें धारण कर रखा है'॥ ५५-६५ ॥

ततो देवास्तु तान् दृष्ट्वा वृतान् काव्येन धीमता। 
सम्मन्त्रयन्ति देवा वै संविज्ञास्तु जिघृक्षया ॥ ६६

काव्यो होष इदं सर्वं व्यावर्तयति नो बलात् ।
साधु गच्छामहे तूर्णं यावन्नाध्यापयिष्यति ॥ ६७

प्रसह्य हत्वा शिष्टांस्तु पातालं प्रापयामहे।
ततो देवास्तु संरब्धा दानवानुपसृत्य ह ॥ ६८

ततस्ते वध्यमानास्तु काव्यमेवाभिदुद्रुवुः ।
ततः काव्यस्तु तान् दृष्ट्वा तूर्ण देवैरभिद्रुतान् ॥ ६९

रक्षां काव्येन संहत्य देवास्तेऽप्यसुरार्दिताः ।
काव्यं दृष्ट्वा स्थितं देवा निःशङ्कमसुरा जहुः ॥ ७०

ततः काव्योऽनुचिन्त्याथ ब्राह्मणो वचनं हितम्।
तानुवाच ततः काव्यः पूर्व वृत्तमनुस्मरन् ॥ ७१

त्रैलोक्यं वो हृतं सर्वं वामनेन त्रिभिः क्रमैः ।
बलिर्वद्धो हतो जम्भो निहतश्च विरोचनः ॥ ७२

महासुरा द्वादशसु संग्रामेषु शरैर्हताः। 
तैस्तैरुपायैर्भूयिष्ठं निहता वः प्रधानतः ॥ ७३

किञ्चिच्छिष्टास्तु यूयं वै युद्धं मास्त्विति मे मतम्।
नीतयो वोऽभिधास्यामि तिष्ठध्वं कालपर्ययात् ॥ ७४

यास्याम्यहं महादेवं मन्त्रार्थं विजयावहम् ।
अप्रतीपांस्ततो मन्त्रान् देवात् प्राप्य महेश्वरात् ।
युध्यामहे पुनर्देवांस्ततः प्राप्यथ वै जयम् ॥ ७५

तदनन्तर जब देवताओंने देखा कि बुद्धिमान् शुक्राचार्यने पुनः असुरोंका पक्ष ग्रहण कर लिया है, तब विचारशील देवगण समग्र राज्य ग्रहण करनेके विषयमें मन्त्रणा करते हुए कहने लगे भाइयो! ये शुक्राचार्य हमलोगोंके सभी कार्योंको बलपूर्वक उलट-पलट देंगे, अतः ठीक तो यही होगा कि जबतक ये उन असुरोंको सिखा-पढ़ाकर बली नहीं बना देते, उसके पूर्व ही हमलोग यहाँसे शीघ्र चलें और उन्हें बलपूर्वक मार डालें तथा बचे हुए लोगोंको पातालमें भाग जानेके लिये विवश कर दें।' ऐसा परामर्श करके देवगण दानवोंके निकट जाकर उनपर टूट पड़े। इस प्रकार अपना संहार होते देखकर असुरगण शुक्राचार्यकी शरणमें भाग चले। तब शुक्राचार्यने असुरोंको देवताओंद्वारा खदेड़ा गया देखकर तुरंत ही उनकी रक्षाका विधान किया। इससे उलटे देवता ही असुरोंद्वारा पीड़ित किये जाने लगे। तब देवगण वहाँ शुक्राचार्यको निःशङ्क भावसे स्थित देखकर असुरोंके सामनेसे हट गये। तदनन्तर ब्राह्मण शुक्राचार्य पूर्वमें घटित हुए वृत्तान्तका स्मरण करते हुए बहुत सोच-विचारकर असुरोंसे हितकारक वचन बोले- 'असुरो ! वामनद्वारा अपने तीन पगोंसे (बलिद्वारा शासित) सम्पूर्ण त्रिलोकीका राज्य छीन लिया गया, बलि बाँध लिया गया, जम्भासुरका वध हुआ और विरोचनका भी निधन हुआ। 

इस प्रकार बारहों युद्धोंमें तुमलोगोंमें जो प्रधान- प्रधान महाबली असुर थे, वे सभी देवताओंद्वारा तरह- तरहके उपायोंका आश्रय लेकर मार डाले गये। अब थोड़ा- बहुत तुमलोग शेष रह गये हो, अतः मेरा विचार है कि अभी तुमलोग युद्ध बंद कर दो और कालके विपर्ययको देखते हुए चुपचाप शान्त हो जाओ। पीछे मैं तुमलोगोंको नीति बतलाऊँगा। मैं आज ही विजय प्रदान करनेवाले मन्त्रकी प्राप्तिके लिये महादेवजीके पास जा रहा हूँ। जब मैं देवाधिदेव महेश्वरसे उन अमोघ मन्त्रोंको प्राप्त करके लौदूँ, तब पुनः मेरे सहयोगसे तुमलोग देवताओंके साथ युद्ध करना, उस समय तुम्हें विजय प्राप्त होगी'- ॥ ६६-७५ ॥

ततस्ते कृतसंवादा देवानूचुस्तदासुराः ।
न्यस्तशस्त्रा वयं सर्वे निः संनाहा रथैर्विना ।। ७६

वयं तपश्चरिष्यामः संवृता बल्कलैर्वने। 
प्रह्लादस्य वचः श्रुत्वा सत्याभिव्याहृतं तु तत् ॥ ७७

ततो देवा न्यवर्तन्त विज्वरा मुदिताश्च ते।
न्यस्तशस्त्रेषु दैत्येषु विनिवृत्तास्तदा सुराः ॥ ७८

ततस्तानब्रवीत् काव्यः कञ्चित्कालमुपास्यथ। 
निरुत्सिक्तास्तपोयुक्ताः कालं कार्यार्थसाधकम् ॥ ७९

पितुर्ममाश्रमस्था वै मां प्रतीक्षथ दानवाः।
तत्संदिश्यासुरान् काव्यो महादेवं प्रपद्यत ॥ ८०

इस प्रकार परस्पर युद्धविषयक परामर्श करके उन असुरोंने देवताओंके पास जाकर कहा- 'देवगण ! इस समय हम सभी लोगोंने अपने शस्त्रास्त्रोंको रख दिया है, कवचोंको उतार दिया है और रथोंको छोड़ दिया है। अब हमलोग वल्कल-वस्त्र धारण करके वनमें छिपकर तपस्या करेंगे।' सत्यवादी प्रह्लादके उस सत्य वचनको सुनकर तथा दैत्योंक शस्त्रास्त्र रख देनेपर देवतालोग प्रसन्न हो गये। उनकी चिन्ता नष्ट हो गयी और वे युद्धसे विरत हो गये। युद्ध बंद हो जानेपर शुक्राचार्यने असुरोंसे कहा- 'दानवो! तुमलोग अपने अभिमान आदि कुप्रवृत्तियोंका त्याग कर तपस्यामें लग जाओ और कुछ कालतक उपासना करो; क्योंकि काल ही अभीष्ट कार्यका साधक होता है। इस प्रकार तुमलोग मेरे पिताजीके आश्रममें निवास करते हुए मेरे लौटनेकी प्रतीक्षा करो।' असुरोंको ऐसी शिक्षा देकर शुक्राचार्य महादेवजीके पास जा पहुँचे (और उनसे निवेदन करने लगे) ॥ ७६-८० ॥

शुक्र उवाच

मन्त्रानिच्छाम्यहं देव ये न सन्ति बृहस्पतौ। 
पराभवाय देवानामसुराणां जयाय च ॥ ८१

एवमुक्तोऽब्रवीद् देवो व्रतं त्वं चर भार्गव।
पूर्ण वर्षसहस्त्रं तु कणधूममवाशिराः । 
यदि पास्यसि भद्रं ते ततो मन्त्रानवाप्स्यसि ॥ ८२

तथेति समनुज्ञाप्य शुक्रस्तु भृगुनन्दनः ।
पादौ संस्पृश्य देवस्य बाढमित्यब्रवीद् वचः । 
व्रतं चराम्यहं देव त्वयाऽऽदिष्टोऽद्य वै प्रभो ॥ ८३

ततोऽनुसृष्टो देवेन कुण्डधारोऽस्य धूमकृत्।
तदा तस्मिन् गते शुक्रे ह्यसुराणां हिताय वै।
मन्त्रार्थ तत्र वसति ब्रह्मचर्यं महेश्वरे ॥ ८४

तद् बुद्ध्वा नीतिपूर्व तु राज्ये न्यस्ते तदा सुरैः ।
अस्मिश्छिद्रे तदामर्षाद् देवास्तान् समुपाद्रवन् ॥ ८५

दंशिताः सायुधाः सर्वे बृहस्पतिपुरःसराः ॥ ८६

शुक्राचार्यने कहा- 'देव! मैं देवताओंके पराभव तथा असुरोंकी विजयके लिये आपसे उन मन्त्रोंको जानना चाहता हूँ, जो बृहस्पतिके पास नहीं हैं।' ऐसा कहे जानेपर महादेवजीने कहा-'भार्गव ! तुम्हारा कल्याण हो। इसके लिये तुम्हें कठोर व्रतका पालन करना पड़ेगा। यदि तुम पूरे एक सहस्र वर्षोंतक नीचा सिर करके कनीके धुएँका पान करोगे, तब कहीं तुम्हें उन मन्त्रोंकी प्राप्ति हो सकेगा। तब भृगुनन्दन शुक्रने महादेवजीकी आज्ञा शिरोधार्य कर उनके चरणोंका स्पर्श किया और कहा-'देव। ठीक है, मैं वैसा ही करूँगा। प्रभो। मैं आजसे ही आपके आदेशानुसार व्रतपालनमें लग रहा हूँ।' इस प्रकार महादेवजीसे विदा होकर शुक्राचार्य धूमको उत्पन्न करनेवाले कुण्डधार यक्षके निकट गये और असुरोंके हितार्थ मन्त्रप्राप्तिके लिये ब्रह्मचर्यपूर्वक महेश्वरके आश्रममें निवास करने लगे। तदनन्तर जब देवताओंको यह ज्ञात हुआ कि असुरोंद्वारा राज्य छोड़नेमें ऐसी कूटनीति और यह छिद्र था, तब वे अमर्षसे भर गये; फिर तो वे संगठित हो कवच धारणकर हथियारोंसे सुसज्जित हो बृहस्पतिजीको आगे करके असुरोंपर टूट पड़े ॥ ८१-८६॥ 

दृष्टवासुरगणा देवान् प्रगृहीतायुधान् पुनः। 
उत्पेतुः सहसा ते वै संत्रस्तास्तान् वचोऽब्रुवन् ॥ ८७

न्यस्ते शस्त्रेऽभये दत्ते आचार्ये व्रतमास्थिते । 
दत्त्वा भवन्तो ह्यभयं सम्प्राप्ता नो जिघांसया ॥ ८८

अनाचार्या वयं देवास्त्यक्तशस्त्रास्त्ववस्थिताः । 
चीरकृष्णाजिनधरा निष्क्रिया निष्परिग्रहाः ॥ ८९

रणे विजेतुं देवांश्च न शक्ष्यामः कथञ्चन। 
अयुद्धेन प्रपत्त्यामः शरणं काव्यमातरम् ॥ ९०

यापयामः कृच्छ्रमिदं यावदभ्येति नो गुरुः । 
निवृत्ते च तथा शुक्ने योत्स्यामो दंशितायुधाः ॥ ९९

एवमुक्त्वासुरान्योऽन्यं शरणं काव्यमातरम् । 
प्रापद्यन्त ततो भीतास्तेभ्योऽदादभयं तु सा ॥ ९२

न भेतव्यं न भेतव्यं भयं त्यजत दानवाः । 
मत्संनिधी वर्ततां वो न भीर्भवितुमर्हति ॥ ९३

इस प्रकार पुनः देवताओंको आयुध धारण करके आक्रमण करते देख असुरगण सहसा भयभीत होकर उठ खड़े हुए और देवताओंसे बोले- 'देवगण! हमलोगोंने शस्त्रास्त्र रख दिया है, आपलोगोंद्वारा हमें अभयदान मिल चुका है, मेरे गुरुदेव इस समय व्रतमें स्थित हैं-ऐसी परिस्थितिमें अभय दान देकर भी आपलोग हमारा वध करनेकी इच्छासे क्यों आये हैं? इस समय हमलोग बिना गुरुके हैं, शस्त्रास्त्रोंका परित्याग करके निहत्थे खड़े हैं, तपस्वियोंकी भाँति चीर और काला मृगचर्म धारण किये हुए हैं, निष्क्रिय और परिग्रहरहित हैं। ऐसी दशामें हम किसी प्रकार भी युद्धमें आप देवताओंको जीतनेमें समर्थ नहीं हैं, अतः बिना युद्ध किये ही काव्यकी माताकी शरणमें जा रहे हैं। वहाँ हमलोग इस विषम संकटके समयको तबतक व्यतीत करेंगे, जबतक हमारे गुरुदेव लौटकर आ नहीं जाते। गुरुदेव शुक्राचार्यके वापस आ जानेपर हमलोग कवच और शस्त्रास्त्रसे लैस होकर आपलोगोंके साथ युद्ध करेंगे।' इस प्रकार भयभीत हुए असुरगण परस्पर परामर्श करके शुक्राचार्यकी माताकी शरणमें चले गये। तब उन्होंने असुरोंको अभयदान देते हुए कहा-'दानवो! मत डरो, मत डरो, भय छोड़ दो। मेरे निकट रहते हुए तुमलोगोंको किसी प्रकारका भय नहीं प्राप्त हो सकता' ॥८७-९३ ॥

तथा चाभ्युपपन्नांस्तान् दृष्ट्वा देवास्ततोऽसुरान् । 
अभिजग्मुः प्रसहीतानविचार्य बलाबलम् ॥ ९४

ततस्तान् बाध्यमानांस्तु देवैर्दृष्ट्वासुरांस्तदा। 
देवी कुद्धान्ब्रवीद् देवाननिन्द्रान् वः करोम्यहम् ॥ ९५

सम्भृत्य सर्वसम्भारानिन्द्रं साभ्यचरत् तदा। 
तस्तम्भ देवी बलवद् योगयुक्ता तपोधना ॥ ९६

ततस्तं स्तम्भितं दृष्ट्वा इन्द्रं देवाश्च मूकवत्। 
प्राद्रवन्त ततो भीता इन्द्रं दृष्ट्वा वशीकृतम् ॥ ९७

गतेषु सुरसंघेषु शक्रं विष्णुरभाषत। 
मां त्वं प्रविश भद्रं ते नयिष्ये त्वां सुरोत्तम ॥ ९८

एवमुक्तस्ततो विष्णुं प्रविवेश पुरंदरः। 
विष्णुना रक्षितं दृष्ट्वा देवी कुद्धा वचोऽब्रवीत् ॥ ९९

एषा त्वां विष्णुना सार्धं दहामि मघवन् बलात् ।
मिषतां सर्वभूतानां दृश्यतां मे तपोबलम् ॥१००

तत्पश्चात् शुक्रमाताद्वारा असुरोंको सुरक्षित देखकर देवताओंने बलाबलका (कौन बलवान् है, कौन दुर्बल है-ऐसा) विचार न करके बलपूर्वक उनपर धावा बोल दिया। उस समय देवताओंद्वारा उन असुरोंको पीड़ित किया जाता हुआ देखकर (शुक्रमाता ख्याति) देवी कुद्ध होकर देवताओंसे बोलीं- 'मैं अभी-अभी तुमलोगोंको इन्द्र-रहित कर देती हूँ।' उस समय उन तपस्विनी एवं योगिनी देवीने सभी सामग्रियोंको एकत्र करके अभिचार- मन्त्रका प्रयोग किया और बलपूर्वक इन्द्रको स्तम्भित कर दिया। अपने स्वामी इन्द्रको स्तम्भित हुआ देखकर देवगण मूक-से हो गये और इन्द्रको असुरोंके वशीभूत हुआ देखकर वहाँसे भाग खड़े हुए। देवगणके भाग जानेपर भगवान् विष्णुने इन्द्रसे कहा- 'सुरश्रेष्ठ ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरे शरीरमें प्रवेश कर जाओ, मैं तुम्हें यहाँसे अन्यत्र पहुँचा दूँगा।' ऐसा कहे जानेपर इन्द्र भगवान् विष्णुके शरीरमें प्रविष्ट हो गये। इस प्रकार भगवान् विष्णुद्वारा इन्द्रको सुरक्षित देखकर (ख्याति) देवी कुपित होकर ऐसा वचन बोली- 'मघवन्। यह मैं सम्पूर्ण प्राणियोंके देखते-देखते विष्णुसहित तुमको बलपूर्वक जलाये देती हूँ। तुम दोनों मेरे तपोबलको देखो' ॥९४-१०० ॥ 

भयाभिभूतौ तौ देवाविन्द्रविष्णू बभूवतुः । 
कथं मुच्येव सहितौ विष्णुरिन्द्रमभाषत ॥ १०१

इन्द्रोऽब्रवीज्जहि होनां यावन्नौ न दहेत् प्रभो। 
विशेषेणाभिभूतोऽस्मि त्वत्तोऽहं जहि मा चिरम् ॥ १०२

ततः समीक्ष्य विष्णुस्तां स्त्रीवधे कृच्छ्रमास्थितः । 
अभिध्याय ततश्चक्रमापदुद्धरणे तु तत् ॥ १०३

ततस्तु त्वरया युक्तः शीघ्रकारी भयान्वितः ।
ज्ञात्वा विष्णुस्ततस्तस्याः कूरं देव्याश्चिकीर्षितम्। 
कुद्धः स्वमस्त्रमादाय शिरश्चिच्छेद वै भिया ॥ १०४

तं दृष्ट्वा स्त्रीवधं घोरं चुक्रोध भृगुरीश्वरः । 
ततोऽभिशप्तो भृगुणा विष्णुर्भार्यावधे तदा ॥ १०५

यस्मात् ते जानतो धर्ममवघ्या स्वी निषूदिता । 
तस्मात् त्वं सप्तकृत्वेह मानुषेषूपपत्स्यसि ॥ १०६

ततस्तेनाभिशापेन नष्टे धर्मे पुनः पुनः। 
लोकस्य च हितार्थाय जायते मानुषेष्विह ॥ १०७

यह सुनकर वे दोनों देवता- इन्द्र और विष्णु भयभीत हो गये। तब विष्णुने इन्द्रसे कहा- 'हम दोनों एक साथ किस प्रकार (इस संकटसे) मुक्त हो सकेंगे ?' यह सुनकर इन्द्र बोले- 'प्रभो! जबतक यह हम दोनोंको जला नहीं देती है, उसके पूर्व ही आप इसे मार डालिये। मैं तो आपके द्वारा विशेषरूपसे अभिभूत हो चुका हूँ, इसलिये आप ही इसका वध कर दीजिये, अब विलम्ब मत कीजिये।' तब भगवान् विष्णु एक ओर उस देवीकी भीषण दुर्भावना- दुश्चेष्टा तथा दूसरी ओर स्त्रीवधरूप घोर पापको देखकर गम्भीर चिन्तामें पड़ गये। फिर उस देवीके क्रूर विचारको जानकर उस आपत्तिसे उद्धार पानेके लिये उन्होंने अपने सुदर्शन चक्रका ध्यान किया। अस्त्रके आ जानेपर शीघ्र ही कार्य सम्पादन करनेमें निपुण एवं भयभीत विष्णु कुद्ध हो उठे और तुरंत ही उन्होंने अपना अस्त्र लेकर (पापसे) डरते-डरते उसके सिरको काट गिराया। इधर ऐश्वर्यशाली भृगु उस भयंकर स्त्री-वधको देख कुपित हो गये और वे उस भार्या-वधको निमित्त बनाकर भगवान् विष्णुको शाप देते हुए बोले- 'विष्णो! चूँकि 'स्त्री अवध्य होती है'- इस धर्मको जानते हुए भी तुमने मेरी भार्याका प्राण हरण किया है, अतः तुम मृत्युलोकमें सात बार मानव योनिमें जन्म धारण करोगे।' उसी शापके कारण धर्मका ह्रास हो जानेपर भगवान् विष्णु लोकके कल्याणके लिये मृत्युलोकमें पुनः पुनः मानव- योनिमें अवतीर्ण होते हैं ॥ १०१-१०७ ॥

अनुव्याहृत्य विष्णुं स तदादाय शिरस्त्वरन् । 
समानीय ततः कायमसौ गृह्येदमब्रवीत् ॥ १०८

एषा त्वं विष्णुना देवि हता संजीवयाम्यहम्। 
ततस्तां योज्य शिरसा अभिजीवेति सोऽब्रवीत् ॥ १०९

यदि कृत्स्नो मया धर्मो ज्ञायते चरितोऽपि वा। 
तेन सत्येन जीवस्व यदि सत्यं वदाम्यहम् ॥ ११०

ततस्तां प्रोक्ष्य शीताभिरद्भिर्जीवेति सोऽब्रवीत् । 
ततोऽभिव्याहृते तस्य देवी स जीविता तदा ॥ १११

ततस्तां सर्वभूतानि दृष्ट्वा सुप्तोत्थितामिव ।
साधु साध्विति चक्कुस्ते वचसा सर्वतो दिशम् ॥ ११२

एवं प्रत्याहृता तेन देवी सा भृगुणा तदा।
मिषतां देवतानां हि तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ११३

भगवान् विष्णुको ऐसा शाप देकर भृगुने फिर तुरंत ही (ख्यातिके) उस सिरको उठा लिया और उसे देवीके शरीरके निकट लाकर तथा उस शरीरसे जोड़कर इस प्रकार कहा- 'देवि! यह तुम विष्णुद्वारा मार डाली गयी हो, अब मैं तुम्हें पुनः जिलाये देता हूँ।' यों कहकर उसके शरीरको सिरसे जोड़कर कहा-'जी उठो'। पुनः वे प्रतिज्ञा करते हुए बोले- 'यदि मैं सम्पूर्ण धर्मोको जानता हूँ तथा मेरे द्वारा सम्पूर्ण धर्मोका आचरण भी किया गया हो अथवा यदि मैं सत्यवादी होऊँ तो उस सत्यके प्रभावसे तुम जीवित हो जाओ।' तत्पश्चात् देवीके शरीरका शीतल जलसे प्रोक्षण करके उन्होंने पुनः कहा- 'जीवित हो जाओ।' भृगुके यों कहते ही देवी तुरंत जीवित होकर उठ बैठी। उस देवीको सोकर उठी हुईकी भाँति जीवित देखकर सभी प्राणी 'ठीक है, ठीक है' ऐसा कहने लगे। उनका वह साधुवाद सभी दिशाओंमें गूंज उठा। इस प्रकार महर्षि भूगुने सभी देवताओंके देखते-देखते देवीको पुनः जीवन प्रदान कर दिया, यह एक अद्भुत-सी बात हुई ॥१०८-११३॥

असम्भ्रान्तेन भृगुणा पत्नीं संजीवितां पुनः ।
दृष्ट्वा चेन्द्रो नालभत शर्म काव्यभयात् पुनः ।
प्रजागरे ततश्वेन्द्रो जयन्तीमिदमब्रवीत् ॥ १९४

संचिन्त्य मतिमान् वाक्यं स्वां कन्यां पाकशासनः । 
एष काव्यो ह्यमित्राय व्रतं चरति दारुणम्। 
तेनाहं व्याकुलः पुत्रि कृतो मतिमता भृशम् ॥ ११५

गच्छ संसाधयस्वैनं श्रमापनयनैः शुभैः।
तैस्तैर्मनोऽनुकूलैश्च ह्युपचारैरतन्द्रिता ॥ ११६

काव्यमाराधयस्वैनं यथा तुष्येत स द्विजः । 
गच्छ त्वं तस्य दत्तासि प्रयत्नं कुरु मत्कृते । ११७

तं दृष्ट्वा तु पिबन्तं सा कणधूममवाङ्मुखम् । 
यक्षेण पात्यमानं च कुण्डधारेण पातितम् ॥ ११९

दृष्ट्वा च तं पात्यमानं देवी काव्यमवस्थितम्। 
स्वरूपध्यानशाम्यं तं दुर्बलं भूतिमास्थितम् । 
पित्रा यथोक्तं वाक्यं सा काव्ये कृतवती तदा ॥ १२०

गीर्भिश्चैवानुकूलाभिः स्तुवती वल्गुभाषिणी।
गात्रसंवाहनैः काले सेवमाना त्वचः सुखैः ।
व्रतचर्यानुकूलाभिरुवास बहुलाः समाः ॥ १२१

पूर्णेऽथवा व्रते तस्मिन् घोरे वर्षसहस्रके। 
वरेण च्छन्दयामास काव्यं प्रीतो भवस्तदा ॥ १२२ 

इस प्रकार व्यवस्थित चित्तवाले भूगुद्वारा अपनी पत्नीको जीवित किया हुआ देखकर इन्द्रको शुक्राचार्यके भयसे शान्ति नहीं मिल पा रही थी। वे रातभर जागते ही रहते। अन्तमें बुद्धिमान् इन्द्र बहुत कुछ सोच- विचारकर अपनी कन्या जयन्तीसे यह वचन बोले-बेटी। ये शुक्राचार्य मेरे शत्रुओंके हितार्थ भीषण व्रतका अनुष्ठान कर रहे हैं। इससे बुद्धिमान् काव्य (उन शुक्राचार्य)- ने मुझे अत्यन्त व्याकुल कर दिया है, अतः तुम उनके पास जाओ और मेरा कार्य सिद्ध करो। वहाँ तुम आलस्यरहित होकर थकावटको दूर करनेवाले तथा उनके मनोऽनुकूल विभिन्न प्रकारके शुभ उपचारोंद्वरा शुक्राचार्यकी ऐसी उत्तम आराधना करो, जिससे वे ब्राह्मण प्रसत्र हो जायें। जाओ, आज मैं तुम्हें शुक्राचार्यको समर्पित कर दे रहा हूँ। तुम मेरे कल्याणके लिये प्रयत्न करो।' इन्द्रद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर इन्द्रपुत्री जयन्ती पिताके वचनको अङ्गीकार करके उस स्थानके लिये प्रस्थित हुई, जहाँ बैठकर शुक्राचार्य भीषण तपका अनुष्ठान कर रहे थे। वहाँ जाकर जयन्तीने शुक्राचार्यको नीचे मुख किये हुए कुण्डधार नामक यक्षद्वारा गिराये गये तथा गिराये जाते हुए कण- धूमका पान करते हुए देखा। उनके निकट जाकर जयन्तीने जब यह लक्ष्य किया कि शुक्राचार्य उस गिराये जाते हुए धूमका पान करते हुए अपने स्वरूपके ध्यानमें शान्तभावसे अवस्थित हैं, उनके शरीरपर विभूति लगी है और वे अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं, तब पिताने जैसी सीख दी थी,उसीके अनुसार वह शुक्राचार्यके प्रति व्यवहार करने लगी। मधुर भाषण करनेवाली जयन्ती अनुकूल वचनोंद्वारा शुक्राचार्यकी स्तुति करती थी, समय-समयपर उनके सिर-हाथ-पैर आदि अङ्गोंको दबाकर उनकी सेवा करती थी। इस प्रकार व्रतचर्याके अनुकूल प्रवृत्तियोंद्वारा उनकी सेवा करती हुई वह बहुत वर्षोंतक उनके निकट निवास करती रही। एक सहस्र वर्षकी अवधिवाले उस भयंकर धूमव्रतके पूर्ण होनेपर भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये और शुक्राचार्यको वर प्रदान करते हुए बोले- ॥ ११४-१२२ ॥

महादेव उवाच

एतद् व्रतं त्वयैकेन चीर्ण नान्येन केनचित् । 
तस्माद् वै तपसा बुद्धया श्रुतेन च बलेन च ॥ १२३

तेजसा च सुरान् सर्वांस्त्वमेकोऽभिभविष्यसि । 
यच्चाभिलषितं ब्रह्मन् विद्यते भृगुनन्दन ॥ १२४

प्रपत्स्यसे तु तत् सर्वं नानुवाच्यं तु कस्यचित् । 
सर्वाभिभावी तेन त्वं भविष्यसि द्विजोत्तम । १२५

एतान् दत्त्वा वरांस्तस्मै भार्गवाय भवः पुनः । 
प्रजेशत्वं धनेशत्वमवध्यत्वं च वै ददौ ॥ १२६

एताँल्लब्ध्वा वरान् काव्यः सम्प्रहृष्टतनूरुहः ।
हर्षात् प्रादुर्बभी तस्य दिव्यस्तोत्रं महेश्वरे।
तथा तिर्यक् स्थितश्चैव तुष्टुवे नीललोहितम् ॥ १२७

महादेवजीने कहा- भृगुनन्दन। अबतक एकमात्र तुमने ही इस व्रतका अनुष्ठान किया है, किसी अन्यके द्वारा इस व्रतका पालन नहीं हो सका है; इसलिये तुम अकेले ही अपने तप, बुद्धि, शास्वज्ञान, बल और तेजसे समस्त देवताओंको पराजित कर दोगे। ब्रह्मन् ! तुम्हारी जो कुछ भी अभिलाषा है, वह सारी-की-सारी तुम्हें प्राप्त हो जायगी, किंतु तुम यह मन्त्र किसी दूसरेको मत बतलाना। द्विजोत्तम। इससे तुम सम्पूर्ण शत्रुओंकि दमनकर्ता हो जाओगे।' भृगुनन्दन शुक्राचार्यको इतना वरदान देनेके पश्चात् शंकरजीने पुनः उन्हें प्रजेशत्व (प्रजापति), धनेशत्व (धनाध्यक्ष) और अवध्यत्वका भी वर प्रदान किया। इन वरदानोंको पाकर शुक्राचार्यका शरीर हर्षसे पुलकित हो उठा। उसी हर्षावेगके कारण उनके हृदयमें भगवान् शंकरके प्रति एक दिव्य स्तोत्र प्रादुर्भूत हो गया। तब वे उसी तिर्यक्-अवस्थामें पड़े पड़े नीललोहित शंकरजीकी स्तुति करने लगे ॥ १२३-१२७॥

शुक्र उवाच

नमोऽस्तु शितिकण्ठाय कनिष्ठाय सुवर्चसे।
लेलिहानाय काव्याय वत्सरायान्धसः पते ॥ १२८

कपर्दिने करालाय हर्यक्ष्णे वरदाय च। 
संस्तुताय सुतीर्थाय देवदेवाय रंहसे ॥ १२९

उष्णीषिणे सुवक्त्राय बहुरूपाय वेधसे। 
वसुरेताय रुद्राय तपसे चित्रवाससे ॥ १३०

ह्रस्वाय मुक्तकेशाय सेनान्ये रोहिताय च। 
कवये राजवृक्षाय तक्षकक्रीडनाय च ॥ १३१

सहस्त्रशिरसे चैव सहस्राक्षाय मीदुषे। 
वराय भव्यरूपाय श्वेताय पुरुषाय च ॥ १३२

गिरिशाय नमोऽर्काय बलिने आज्यपाय च।
सुतृप्ताय सुवस्त्राय धन्विने भार्गवाय च ॥ १३३

निषङ्गिणे च ताराय स्वक्षाय क्षपणाय च। 
ताम्नाय चैव भीमाय उग्राय च शिवाय च ॥ १३४

शुक्राचार्यंने कहा- प्रभो! आप शितिकण्ठ- जगत्‌की रक्षाके लिये हालाहल विपका पान करके उसके नील चिह्नको कण्ठमें धारण करनेवाले (अथवा कर्पूर- गौरकण्ठवाले), कनिष्ठ - ब्रह्माके पुत्रोंमें सबसे छोटे रुद्र या अदितिके छोटे पुत्ररूप, सुवर्चा- अध्ययन एवं तप आदिसे उत्पन्न हुए सुन्दर तेजवाले, लेलिहान- प्रलय- कालमें त्रिलोकीके संहारार्थ बारंबार जीभ लपलपानेवाले, काव्य-कवि या पण्डितके लक्षणोंसे सम्पन्न, बत्सर- संवत्सररूप, अन्धस्पति- सोमलताके अथवा सभी अन्नोंके स्वामी, कपर्दी- जटाजूटधारी, कराल- भीषण रूपधारी, हर्यक्ष-पीले नेत्रोंवाले, बरद- वरप्रदाता, संस्तुत- पूर्णरूपसे प्रशंसित, सुतीर्थ- महान् गुरुस्वरूप अथवा उत्तम तीर्थस्वरूप, देवदेव देवताओंके अधीश्वर, रंहस- वेगशाली, उष्णीषी- सिरपर पगड़ी धारण करनेवाले, सुवक्त्र- सुन्दर मुखवाले, बहुरूप- एकादश रुद्रोंमेंसे एक, वेधा-विधानकर्ता, वसुरेता अग्निरूप, रुद्र- समस्त प्राणियोंके प्राणस्वरूप, तपः तपः-स्वरूप, चित्रवासा- चित्र-विचित्र वस्त्रधारी, ह्रस्व- बौना, मुक्तकेश-खुली हुई जटाओंवाले, सेनानी सेनापति, रोहित- मृगरूपधारी, कवि अतीन्द्रिय विषयोंके ज्ञाता, राजवृक्ष- रुद्राक्ष वृक्षस्वरूप, तक्षकक्रीडन- नागराज तक्षकके साथ क्रीडा करनेवाले, सहस्त्रशिरा- हजारों मस्तकोंवाले, सहस्त्राक्ष- सहस्र नेत्रधारी, मीबुष- सेक्ता अथवा स्तुतिकी वृद्धि करनेवाले, वर-वरण करनेयोग्य, वरस्वरूप, भव्यरूप- सौन्दर्यशाली, श्वेत- गौरवर्णवाले,पुरुष- आत्मनिष्ठ, गिरिश- कैलासपर्वतपर शयनकर्ता, अर्क-सबकी उत्पत्तिके हेतुभूत सूर्य, बली- बलसम्पन्न, आज्यप - घृतपायी, सुतृप्त- परम संतुष्ट, सुवस्त्र- सुन्दर वस्त्र पहननेवाले, धन्वी धनुर्धर, भार्गव - परशुरामस्वरूप, निषङ्गी- तूणीरधारी, तार- विश्वके रक्षक, स्वक्ष- सुशोभन नेत्रोंसे युक्त, क्षपण- भिक्षुकस्वरूप, ताम्र- अरुण अधरोंवाले, भीम- एकादश रुद्रोंमें एक रुद्र, संहारक होनेके कारण भयंकर, उग्र- एकादश रुद्रोंमें एक रुद्र, निष्ठर तथा शिव- कल्याणस्वरूपको नमस्कार है ॥१२८-१३४॥

महादेवाय शर्वाय विश्वरूपशिवाय च। 
हिरण्याय वरिष्ठाय ज्येष्ठाय मध्यमाय च ॥ १३५

वास्तोष्पते पिनाकाय मुक्तये केवलाय च।
मृगव्याधाय दक्षाय स्थाणवे भीषणाय च ॥ १३६

बहुनेत्राय धुर्याय त्रिनेत्रायेश्वराय च। 
कपालिने च वीराय मृत्यवे त्र्यम्बकाय च ॥ १३७

बभ्रवे च पिशङ्गाय पिङ्गलायारुणाय च। 
पिनाकिने चेषुमते चित्राय रोहिताय च ॥ १३८

दुन्दुभ्यायैकपादाय अजाय बुद्धिदाय च। 
आरण्याय गृहस्थाय यतये ब्रह्मचारिणे ॥ १३९

सांख्याय चैव योगाय व्यापिने दीक्षिताय च। 
अनाहताय शर्वाय भव्येशाय यमाय च ॥ १४०

रोधसे चेकितानाय ब्रह्मिष्ठाय महर्षये। 
चतुष्पदाय मेध्याय रक्षिणे शीघ्रगाय च ॥ १४१

शिखण्डिने करालाय दंष्ट्रिणे विश्ववेधसे। 
भास्वराय प्रतीताय सुदीप्ताय सुमेधसे ॥ १४२

महादेव-देवताओंके भी पूज्य, शर्व- प्रलयकालमें सबके संहारक, विश्वरूप शिव- विश्वरूप धारण करके जीवोंके कल्याणकर्ता, हिरण्य- सुवर्णकी उत्पत्तिके मूल कारण, वरिष्ठ- सर्वश्रेष्ठ, ज्येष्ठ आदिदेव, मध्यम- मध्यस्थ, वास्तोष्पति- गृहक्षेत्रके पालक, पिनाक- पिनाक नामक धनुषके स्वामी, मुक्ति-मुक्तिदाता, केवल असाधारण पुरुष, मृगव्याध- मृगरूपधारी यज्ञके लिये व्याधस्वरूप, दक्ष उत्साही, स्थाणु- गृहके आधारभूत स्तम्भके समान जगत्‌के आधारस्तम्भ, भीषण अमङ्गल वेषधारी, बहुनेत्र- सर्वद्रष्टा, धुर्य अग्रगण्य, त्रिनेत्र- सोम-सूर्य-अग्रिरूप त्रिनेत्रधारी, ईश्वर- सबके शासक, कपाली- चौथे हाथमें कपालधारी, बीर- शूरवीर, मृत्यु - संहारकर्ता, त्र्यम्बक- त्रिनेत्रधारी, एकादश रुद्रोंमें अन्यतम, बभ्रु-विष्णुस्वरूप, पिशङ्ग भूरे रंगवाले, पिङ्गल- नौल-पीतमिश्रित वर्णवाले, अरुण- आदित्यरूप, पिनाकी- पिनाक नामक धनुष या त्रिशूल धारण करनेवाले, ईघुमान्- बाणधारी, चित्र अद्भुत रूपधारी, रोहित- लाल रंगका मृगविशेष, दुन्दुभ्य- दुन्दुभिके शब्दोंको सुनकर प्रसन्न होनेवाले, एकपाद- एकादश रुद्रोंमें एक रुद्र, एकमात्र शरण लेने योग्य, अज- एकादश रुद्रोंमें एक रुद्र, अजन्मा, बुद्धिद-बुद्धिदाता, आरण्य- अरण्यनिवासी, गृहस्थ- गृहमें निवास करनेवाले, यति- संन्यासी, ब्रह्मचारी- ब्रह्मनिष्ठ, सांख्य- आत्मानात्मविवेकशील, योग- चित्तवृत्तियोंके निरोधस्वरूप अथवा निर्बीज समाधिस्वरूप, व्यापी - सर्वव्यापक, दीक्षित- अष्ट मूर्तियों में एक मूर्ति, सोमयागके विशिष्ट यागकर्ता, अनाहत - हृदयस्थित द्वादशदल कमलरूप चक्रके निवासी, शर्व- दारुकावनमें स्थित मुनियोंको मोहित करनेवाले, भव्येश- पार्वती के प्राणपति, यम- संहारकालमें यमस्वरूप, रोधा- समुद्र तटकी भाँति धर्म-हासके निरोधक, चेकितान-अतिशय ज्ञानसम्पन्न, ब्रह्मिष्ठ-वेदोंक पारंगत विद्वानु, महर्षि-वसिष्ठ आदि, चतुष्पाद विश्व, तैजस, प्राज्ञ और शिव- ध्यानरूप चार पार्दोवाले, मेध्य पवित्रस्वरूप, रक्षी- रक्षक, शीघ्रग- शीघ्रगामी, शिखण्डी- जटाके ऊपर जटाग्र-गुच्छको धारण करनेवाले, कराल भयानक, दंष्टी-दाढ़वाले, विश्ववेधा- विश्वके सृष्टिकर्ता, भास्वर-दीप्तिमान् स्वरूप- वाले, प्रतीत- विख्यात, सुदीम- परम प्रकाशमान तथा सुमेधा - उत्कृष्ट बुद्धिसम्पन्नको नमस्कार है॥ १३५-१४२॥ 

क्रूरायाविकृतायैव भीषणाय शिवाय च।
सौम्याय चैव मुख्याय धार्मिकाय शुभाय च ॥ १४३

अवध्यायामृतायैव नित्याय शाश्वताय च। 
व्यापृताय विशिष्टाय भरताय च साक्षिणे ॥ १४४

क्षेमाय सहमानाय सत्याय चामृताय च। 
कर्जे परशवे चैव शूलिने दिव्यचक्षुषे ॥ १४५

सोमपायाज्यपायैव धूमपायोष्मपाय च। 
शुचये परिधानाय सद्योजाताय मृत्यवे ॥ १४६

पिशिताशाय शर्वाय मेघाय वैद्युताय च। 
व्यावृत्ताय वरिष्ठाय भरिताय तरक्षवे ॥ १४७

त्रिपुरघ्नाय तीर्थायावक्राय रोमशाय च। 
तिग्मायुधाय व्याख्याय सुसिद्धाय पुलस्तये ॥ १४८

रोचमानाय चण्डाय स्फीताय ऋषभाय च। 
व्रतिने युञ्जमानाय शुचये चोर्ध्वरेतसे ॥ १४९

असुरघ्नाय स्वाघ्नाय मृत्युघ्ने यज्ञियाय च। 
कृशानवे प्रचेताय वह्नये निर्मलाय च ॥ १५०

क्रूर-निर्दयी, अविकृत- सम्पूर्ण विपरीत क्रियाओंसे रहित, भीषण- भयंकर, शिव धर्मचिन्तारहित, सौम्य -शान्तस्वरूप, मुख्य- सर्वश्रेष्ठ, धार्मिक धर्मका आचरण करनेवाले, शुभ- मङ्गलस्वरूप, अवध्य- वधके अयोग्य, अमृत- मृत्युरहित, नित्य अविनाशी, शाश्वत - सनातन स्थायी, व्यापृत- कर्मसचिव, विशिष्ट- सर्वश्रेष्ठ, भरत- लोकोंका भरण-पोषण करनेवाले, साक्षी- जीवोंके शुभाशुभ कर्मकि साक्षीरूप, क्षेम- मोक्षस्वरूप, सहमान सहनशील,सत्य- सत्यस्वरूप, अमृत धन्वन्तरिस्वरूप, कर्ता- सबके उत्पादक, परशु- परशुधारी, शूली- त्रिशूलधारी, दिव्यचक्षु - दिव्य नेत्रोंवाले, सोमप- सोमरसका पान करनेवाले, आज्यप-घृतपायी अथवा एक विशिष्ट पितरस्वरूप, धूमप - धूमपान करनेवाले, ऊष्मप- एक विशिष्ट पितरस्वरूप, ऊष्माको पी जानेवाले, शुचि - सर्वथा शुद्ध, परिधान- ताण्डवके समय साज-सज्जासे विभूषित,सद्योजात-पञ्च मूर्तियोंमेंसे एक मूर्ति, तत्काल प्रकट होने वाले, मृत्यु- कालस्वरूप, पिशिताश- फलका गूदा खानेवाले, सर्व-विश्वात्मा होने के कारण सर्वस्वरूप, मेघ- बादलकी भाँति दाता, विद्युत्- विजलीकी तरह दीप्तिमान्, व्यावृत्त- गजचर्म या व्याघ्रचर्मसे आवृत, सबसे अलग मुक्तस्वरूप, वरिष्ठ- सर्वश्रेष्ठ, भरित परिपूर्ण, तरक्षु - व्याघ्रविशेष, त्रिपुरश्न- त्रिपुरासुरके वधकर्ता, तीर्थ- महान् गुरुस्वरूप, अवक्र- सौम्य स्वभाववाले, रोमश- लम्बी जटाओंवाले, तिग्मायुध- तीखे हथियारोंवाले, व्याख्य- विशेषरूपसे व्याख्येय या प्रशंसित, सुसिद्ध-परम सिद्धिसम्पन्न, पुलस्ति- पुलस्त्य ऋषिरूप, रोचमान- आनन्दप्रद, चण्ड- अत्यन्त क्रोधी, स्फीत वृद्धिंगत, ऋषभ - सर्वोत्कृष्ट, व्रती व्रतपरायण, युञ्जमान- सर्वदा कार्यरत, शुचि-निर्मलचित्त, ऊध्र्वरता अखण्डित ब्रह्मचर्यवाले, असुरन - राक्षसोंके विनाशक, स्वान- निजजनोंके रक्षक, मृत्युन्न-मृत्यु-संकटको टालनेवाले, यज्ञिय-यज्ञके लिये हितकारी, कृशानु- अपने तेजसे तृण-काष्ठादि वस्तुओंको सूक्ष्म कर देनेवाले, प्रचेता- उत्कृष्ट चेतनावाले, वह्नि- अग्निस्वरूप और निर्मल- जागतिक मलोंसे रहितको नमस्कार है॥१४३-१५०॥

रक्षोघ्नाय पशुघ्नायाविघ्नाय श्वसिताय च। 
विभ्रान्ताय महान्ताय अत्यन्तं दुर्गमाय च ॥ १५१

कृष्णाय च जयन्ताय लोकानामीश्वराय च। 
अनाश्रिताय वेध्याय समत्वाधिष्ठिताय च ॥ १५२

हिरण्यबाहवे चैव व्याप्ताय च महाय च। 
सुकर्मणे प्रसह्याय चेशानाय सुचक्षुषे ॥ १५३

क्षिप्रेषवे सदश्वाय शिवाय मोक्षदाय च। 
कपिलाय पिशङ्गाय महादेवाय धीमते ॥ १५४

महाकल्पाय दीप्ताय रोदनाय हसाय च। 
दृढधन्विने कवचिने रथिने च वरूथिने ॥ १५५

भृगुनाथाय शुक्राय गह्वरेष्ठाय वेधसे। 
अमोधाय प्रशान्ताय सुमेधाय वृषाय च ॥ १५६

नमोऽस्तु तुभ्यं भगवन् विश्वाय कृत्तिवाससे। 
पशूनां पतये तुभ्यं भूतानां पतये नमः ॥ १५७

रक्षोघ्र - राक्षसोंके संहारकर्ता, पशुघ्र- जीवोंके संहारक, अविघ्न- विघ्नरहित, श्वसित- ताण्डवकालमें ऊँची श्वास लेनेवाले, विभ्रान्त- भ्रान्तिहीन, महान्त- विशाल मर्यादावाले, अत्यन्त दुर्गम परम दुष्प्राप्य, कृष्ण- सच्चिदानन्दस्वरूप, जयन्त- बारंबार शत्रुओंपर विजय पानेवाले, लोकानामीश्वर- समस्त लोकोंके स्वामी, अनाश्रित- स्वतन्त्र, वेध्य- भक्तोंद्वारा प्राप्त करनेके लिये लक्ष्यस्वरूप, समत्वाधिष्ठित - समतासम्पन्न, हिरण्यबाहु- सुनहरी कान्तिवाली सुन्दर भुजाओंसे सुशोभित, व्याप्त- सर्वव्यापी, मह- दीप्तिशाली, सुकर्मा - उत्तम कर्मवाले, प्रसह्य- विशेषरूपसे सहन करनेयोग्य, ईशान- नियन्ता, सुचक्षुः सुशोभन नेत्रोंसे युक्त, क्षिप्रेषु - शीघ्रतापूर्वक बाण चलानेवाले, सदश्व- उच्चैःश्रवा आदि उत्तम अश्वरूप, शिव- निरुपाधि, मोक्षद- मोक्षदाता, कपिल-कपिल वर्ण, पिशङ्ग- कनक सदृश कान्तिमान्, महादेव - ब्रह्मादि देवताओंके तथा ब्रह्मवादी मुनियोंके देवता, धीमान्- उत्तम बुद्धिसम्पत्र, महाकल्प- महाप्रलय- कालमें विशाल शरीर धारण करनेवाले, दीप्त- अत्यन्त तेजस्वी, रोदन रुलानेवाले, हस-हसनशील, दृढधन्वा - सुदृढ़ धनुषवाले, कवची- कवचधारी, रथी - रथके स्वामी, वरूथी- भूतों एवं पिशाचोंकी सेनावाले, भृगुनाथ- महर्षि भृगुके रक्षक, शुक्र- अग्निस्वरूप, गह्वरेष्ठ- निकुञ्जप्रिय, वेधा- ब्रह्मस्वरूप, अमोघ - निष्फलतारहित, प्रशान्त शान्तचित्त, सुमेध सुन्दर बुद्धिवाले और वृष-धर्मस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। भगवन्! आप विश्व- विश्वस्वरूप, कृत्तिवासा- गजासुरके चर्मको धारण करनेवाले, पशुपति - पशुओंके स्वामी और भूतपति- भूत-प्रेतोंके अधीश्वर हैं, आपको बारंबार प्रणाम है ॥ १५१-१५७॥

प्रणवे ऋग्यजुःसाम्ने स्वाहाय च स्वधाय च। 
वषट्‌कारात्मने चैव तुभ्यं मन्त्रात्मने नमः ॥ १५८

त्वष्टे धात्रे तथा कर्जे चक्षुः श्रोत्रमयाय च। 
भूतभव्यभवेशाय तुभ्यं कर्मात्मने नमः ॥ १५९

वसवे चैव साध्याय रुद्रादित्यसुराय च। 
विश्वाय मारुतायैव तुभ्यं देवात्मने नमः ॥ १६०

अग्नीषोमविधिज्ञाय पशुमन्त्रौषधाय च। 
स्वयम्भुवे ह्यजायैव अपूर्वप्रथमाय च।
प्रजानां पतये चैव तुभ्यं ब्रह्मात्मने नमः ॥ १६१

आत्मेशायात्मवश्याय सर्वेशातिशयाय च।
सर्वभूताङ्गभूताय तुभ्यं भूतात्मने नमः ॥ १६२

आप प्रणव - ॐ कारस्वरूप एवं ऋग्यजुःसाम- वेदत्रयीरूप हैं, स्वाहा, स्वधा, वषट्‌कार- ये तीनों आपके स्वरूप हैं तथा मन्त्रात्मा मन्त्रोंके आत्मा आप ही हैं, आपको अभिवादन है। आप त्वष्टा- प्रजापति विश्वकर्मा, धाता- सबको धारण करनेवाले, कर्ता - कर्मनिष्ठ, चक्षुः श्रोत्रमय- दिव्य नेत्र एवं दिव्य श्रोत्रसे युक्त, भूतभव्यभवेश- भूत, भविष्य और वर्तमानके ज्ञाता और कर्मात्मा कर्मस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। आप वसु-आठ वसुओंमें एक वसु, साध्य- गणदेवोंकी एक कोटि, रुद्र- दुःखोंके विनाशक, आदित्य- अदितिपुत्र सुर- देवरूप, विश्व- विश्वेदेवतारूप, मारुत- वायुस्वरूप एवं देवात्मा- देवताओंके आत्मस्वरूप हैं, आपको प्रणाम है। आप अग्नीषोमविधिज्ञ- अग्रीषोम नामक यज्ञको विधिके ज्ञाता, पशुमन्त्रौषध - यज्ञमें प्रयुक्त होनेवाले पशु,मन्त्र और औषधके निर्णेता, स्वयम्भू-स्वयं उत्पन्न होनेवाले, अज- जन्मरहित, अपूर्वप्रथम आद्यन्तस्वरूप, प्रजापति- प्रजाओंके स्वामी और ब्रह्मात्मा - ब्रह्मस्वरूप हैं, आपको अभिवादन है। आप आत्मेश मनके स्वामी, आत्मवश्य- मनको वशमें रखनेवाले, सर्वेशातिशय- समस्त ईश्वरोंमें सबसे बढ़कर, सर्वभूताङ्गभूत- सम्पूर्ण जीवोंके अङ्गभूत तथा भूतात्मा- समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं, आपको नमस्कार है ॥ १५८-१६२॥

निर्गुणाय गुणज्ञाय व्याकृतायामृताय च। 
निरुपाख्याय मित्राय तुभ्यं योगात्मने नमः ॥ १६३

पृथिव्यै चान्तरिक्षाय महसे त्रिदिवाय च। 
जनस्तपाय सत्याय तुभ्यं लोकात्मने नमः ॥ १६४

अव्यक्ताय च महते भूतादेरिन्द्रियाय च।
आत्मज्ञाय विशेषाय तुभ्यं सर्वात्मने नमः ॥ १६५

नित्याय चात्मलिङ्गाय सूक्ष्मायैवेतराय च। 
शुद्धाय विभवे चैव तुभ्यं मोक्षात्मने नमः ॥ १६६

नमस्ते त्रिषु लोकेषु नमस्ते परतस्त्रिषु। 
सत्यान्तेषु महाद्येषु चतुर्षु च नमोऽस्तु ते ॥ १६७

नमः स्तोत्रे मया ह्यस्मिन् सदसद् व्याहृतं विभो। 
मद्भक्त इति ब्रह्मण्य तत् सर्वं क्षन्तुमर्हसि ॥ १६८

आप निर्गुण- सत्त्व, रजस्, तमस् तीनों गुणोंसे परे, गुणज्ञ तीनों गुणोंके रहस्यके ज्ञाता, व्याकृत- रूपान्तरित, अमृत- अमृतस्वरूप, निरुपाख्य- अदृश्य, मित्र- जीवोंके हितैषी और योगात्मा - योगस्वरूप हैं, आपको प्रणाम है। आप पृथिवी मृत्युलोक, अन्तरिक्ष- अन्तरिक्षलोक, मह- महर्लोक, त्रिदिव्य- स्वर्गलोक, जन-जनलोक, तपः तपोलोक, सत्य- सत्यलोक हैं, इस प्रकार लोकात्मा - सातों लोकस्वरूप आपको अभिवादन है। आप अव्यक्त- निराकाररूप महान् - पूज्य, भूतादि- समस्त प्राणियोंके आदिभूत, इन्द्रिय- इन्द्रियस्वरूप, आत्मज्ञ आत्मतत्त्वके ज्ञाता, विशेष- सर्वाधिक और सर्वात्मा- सम्पूर्ण जीवोंके आत्मस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। आप नित्य- सनातन, आत्मलिङ्ग- स्वप्रमाणस्वरूप, सूक्ष्म अणुसे भी अणु, इतर महान्से भी महान्, शुद्ध- शुद्धज्ञानसम्मत्र, विभु- सर्वव्यापक और मोक्षात्मा- मोक्षरूप हैं, आपको प्रणाम है। यहाँ तीनों लोकोंमें आपके लिये मेरा नमस्कार है तथा इनके अतिरिक्त (अन्य) तीन परलोकोंमें भी मैं आपको प्रणाम करता हूँ। इसी प्रकार महलोंकसे लेकर सत्यलोकपर्यन्त चारों लोकोंमें मैं आपको अभिवादन करता हूँ। ब्राह्मणवत्सल विभो! इस स्तोत्रमें मेरे द्वारा जो कुछ उचित अनुचित कहा गया, उसे 'यह मेरा भक्त है' ऐसा जानकर आप क्षमा कर दें॥ १६३-१६८ ॥

सूत उवाच

एवमाभाष्य देवेशमीश्वरं नीललोहितम्। 
प्रह्लोऽभिप्रणतस्तस्मै प्राञ्जलिर्वाग्यतोऽभवत् ।। १६९

काव्यस्य गात्रं संस्पृश्य हस्तेन प्रीतिमान् भवः । 
निकामं दर्शनं दत्त्वा तत्रैवान्तरधीयत ॥ १७०

ततः सोऽन्तर्हिते तस्मिन् देवेशेऽनुचरीं तदा। 
तिष्ठन्तीं पार्श्वतो दृष्ट्वा जयन्तीमिदमब्रवीत् ॥ १७१

कस्य त्वं सुभगे का वा दुःखिते मयि दुःखिता । 
महता तपसा युक्ता किमर्थ मां निषेवसे ॥ १७२

अनया संस्तुतो भक्त्या प्रश्रयेण दमेन च। 
स्नेहेन चैव सुश्रोणि प्रीतोऽस्मि वरवर्णिनि ॥ १७३

किमिच्छसि वरारोहे कस्ते कामः समृद्धयताम् ।
तं ते सम्पादयाम्यद्य यद्यपि स्यात् सुदुष्करः ॥ १७४ 

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! तदनन्तर शुक्राचार्य देवाधिदेव नीललोहित भगवान् शंकरसे इस प्रकार प्रार्थना करके हाथ जोड़कर उनके चरणोंमें लोट गये और पुनः विनम्र होकर उनके समक्ष चुपचाप खड़े हो गये। तब शिवजीने हर्षपूर्वक अपने हाथसे शुक्राचार्यक शरीरको सहलाते हुए उन्हें यथेष्ट दर्शन दिया और वे वहीं अन्तर्हित हो गये। उन देवेश्वरके अन्तर्हित हो जानेपर शुक्राचार्य अपने पार्श्व भागमें खड़ी हुई सेविका जयन्तीको देखकर उससे इस प्रकार बोले- 'सुभगे ! तुम कौन हो अथवा किसकी पुत्री हो, जो मेरे तपस्यामें निरत होनेपर तुम भी कष्ट झेल रही हो? इस प्रकार यह घोर तप करती हुई तुम किसलिये. मेरी सेवा कर रही हो? सुश्रोणि! मैं तुम्हारी इस उत्कृष्ट भक्ति, विनम्रता, इन्द्रियनिग्रह और प्रेमसे परम प्रसन्न हूँ। वरवर्णिनि! तुम मुझसे क्या प्राप्त करना चाहती हो? वरारोहे! तुम्हारी क्या अभिलाषा है? उसे तुम अवश्य बतलाओ। मैं आज उसे अवश्य पूर्ण करूँगा, चाहे वह कितना ही दुष्कर क्यों न हो' ॥ १६९-१७४ ॥ 

एवमुक्ताब्रवीदेनं तपसा ज्ञातुमर्हसि। 
चिकीर्षितं हि मे ब्रहांस्त्वं हि वेत्थ यथातथम् ॥ १७५

एवमुक्तोऽब्रवीदेनां दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा। 
मया सह त्वं सुश्रोणि दश वर्षाणि भामिनि ॥ १७६

देवि चेन्दीवरश्यामे वराहें वामलोचने।
 एवं वृणोषि कामं त्वं मत्तो वै वल्गुभाषिणि ॥ १७७

एवं भवतु गच्छामो गृहान्नो मत्तकाशिनि। 
ततः स्वगृहमागत्य जयन्त्याः पाणिमुद्वहन् ॥ १७८

तया सहावसद् देव्या दश वर्षाणि भार्गवः । 
अदृश्यः सर्वभूतानां मायया संवृतः प्रभुः ॥ १७९

कृतार्थमागतं दृष्ट्वा काव्यं सर्वे दितेः सुताः । 
अभिजग्मुर्गृहं तस्य मुदितास्ते दिदृक्षवः ॥ १८०

यदा गता न पश्यन्ति मायया संवृतं गुरुम्।
लक्षणं तस्य तद् बुद्ध्वा प्रतिजग्मुर्यथागतम् ॥ १८१

शुक्राचार्यके यों कहनेपर जयन्तीने उनसे कहा- 'ब्रह्मन्। आप अपने तपोबलसे मेरे मनोरथको भली- भौति जान सकते हैं; क्योंकि आपको तो सबका यथार्थ ज्ञान है। ऐसा कहे जानेपर शुक्राचार्यने अपनी दिव्य दृष्टिद्वारा जयन्तीके मनोरथको जानकर उससे कहा- 'सुन्दर भावोंवाली सुश्रोणि। इन्दीवर कमलके सदृश तुम्हारा वर्ण श्याम है, देवि। तुम्हारे नेत्र अत्यन्त रमणीय हैं तथा तुम्हारा भाषण अतिशय मधुर है। वराहें। तुम दस वर्षांतक मेरे साथ रहनेका जो मुझसे वर चाह रही हो, वह वैसा ही हो। मत्तकाशिनि! आओ, अब हमलोग अपने घर चलें।' तब अपने घर आकर शुक्राचार्यने जयन्तीका पाणिग्रहण किया। फिर तपोबलसम्पत्र शुक्राचार्यन मायाका आवरण डाल दिया, जिससे सभी प्राणियोंसे अदृश्य होकर वे दस वर्षीतक जयन्तीके साथ निवास करते रहे। इसी बीच जब दितिके पुत्रोंको यह ज्ञात हुआ कि शुक्राचार्य सफलमनोरथ होकर घर लौट आये हैं, तब वे सभी हर्षपूर्वक उन्हें देखनेको अभिलाषासे उनके घरकी ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचनेपर जब उन्हें मायासे छिपे हुए गुरुदेव शुक्राचार्य नहीं दीख पड़े, तब वे उनके उस लक्षणको समझकर जैसे आये थे, वैसे ही वापस चले गये ॥ १७५-१८१ ॥ 

बृहस्पतिस्तु संरुद्धं काव्यं ज्ञात्वा वरेण तु। 
तुट्यर्थं दश वर्षाणि जयन्त्या हितकाम्यया ॥ १८२

बुद्ध्वा तदन्तरं सोऽपि दैत्यानामिन्द्रनोदितः ।
काव्यस्य रूपमास्थाय असुरान् समुपाह्वयत् ॥ १८३

ततस्तानागतान् दृष्ट्वा बृहस्पतिरुवाच ह। 
स्वागतं मम याज्यानां प्राप्तोऽहं वो हिताय च ॥ १८४

अहं वोऽध्यापयिष्यामि विद्याः प्राप्तास्तु या मया।
ततस्ते हृष्टमनसो विद्यार्थमुपपेदिरे ।। १८५

पूर्णे काव्यस्तदा तस्मिन् समये दशवार्षिके ।
समयान्ते देवयानी तदोत्पन्ना इति श्रुतिः ।
बुद्धिं चक्रे ततः सोऽथ याज्यानां प्रत्यवेक्षणे ॥ १८६

देवि गच्छाम्यहं द्रष्टुं तव याज्याञ् शुचिस्मिते।
विभ्रान्तवीक्षिते साध्वि विवर्णायतलोचने ॥ १८७

एवमुक्ताब्रवीदेनं भज भक्तान् महाव्रत। 
एष धर्मः सतां ब्रह्मन् न धर्म लोपयामि ते ॥ १८८

इधर बृहस्पतिको जब यह ज्ञात हुआ कि शुक्राचार्य जयन्तीकी हित-कामनासे उसे संतुष्ट करनेके लिये दस वर्षीतक वरदानके बन्धनसे बंध चुके हैं, तब इसे दैत्योंका महान् छिद्र जानकर इन्द्रकी प्रेरणासे उन्होंने शुक्राचार्यका रूप धारणकर असुरोंको बुलाया। उन्हें आया देखकर (शुक्ररूपधारी) बृहस्पतिने उनसे कहा- 'मेरे यजमानो! तुम्हारा स्वागत है। मैं तुमलोगोंके कल्याणके लिये तपोवनसे लौट आया हूँ। वहाँ मुझे जो विद्याएँ प्राप्त हुई हैं. उन्हें में तुमलोगोंको पढ़ाऊँगा।' यह सुनकर वे सभी प्रसन्नमनसे विद्या- प्राप्तिके लिये वहाँ एकत्र हो गये। उधर जब वह दस वर्षका निश्चित समय पूर्ण हो गया, तब शुक्राचार्यने अपने यजमानोंकी खोज खबर लेनेका विचार किया। इसी समयकी समाप्तिपर (जयन्तीके गर्भसे) देवयानी उत्पन्न हुई थी-ऐसा सुना जाता है। (तब वे जयन्तीसे बोले- 'पावन मुसकानवाली देवि ! तुम्हारे नेत्र तो विभ्रान्त-से एवं बड़े हैं तथा तुम्हारी दृष्टि चञ्चल है, साध्वि। अब मैं तुम्हारे यजमानोंकी देखभाल करनेके लिये जा रहा हूँ।' यों कहे जानेपर जयन्तीने शुक्राचार्यसे कहा-'महाव्रत! आप अपने भक्तोंका अवश्य भला कीजिये: क्योंकि यही सत्पुरुषोंका धर्म है। ब्रह्मन् ! मैं आपके धर्मका लोप नहीं करना चाहती ॥ १८२-१८८॥

ततो गत्वासुरान् दृष्ट्वा देवाचार्येण धीमता।
वञ्चितान् काव्यरूपेण ततः काव्योऽब्रवीत्तु तान् ॥ १८९

काव्यं मां वो विजानीध्वं तोषितो गिरिशो विभुः ।
वञ्चिता बत यूयं वै सर्वे शृणुत दानवाः ॥ १९०

श्रुत्वा तथा बुवाणं तं सम्भ्रान्तास्ते तदाभवन् ।
प्रेक्षन्तस्तावुभौ तत्र स्थितासीनी सुविस्मिताः ॥ १९९

सम्प्रमूढास्ततः सर्वे न प्राबुध्यन्त किंचन।
अब्रवीत् सम्प्रमूढेषु काव्यस्तानसुरांस्तदा ॥ १९२

आचार्यों वो ह्यहं काव्यो देवाचार्योऽयमङ्गिराः ।
अनुगच्छत मां दैत्यास्त्यजतैनं बृहस्पतिम् ॥ १९३

इत्युक्ता हासुरास्तेन तावुभौ समवेक्ष्य च।
यदासुरा विशेषं तु न जानन्त्युभयोस्तयोः ॥ १९४

बृहस्पतिरुवाचैनानसम्भ्रान्तस्तपोधनः।
काव्यो वोऽहं गुरुर्दैत्या मद्रूपोऽयं बृहस्पतिः ॥ १९५

तदनन्तर असुरोंके निकट पहुँचकर शुक्राचार्यने जब यह देखा कि बुद्धिमान् देवाचार्य बृहस्पतिने मेरा रूप धारणकर असुरोंको ठग लिया है, तब वे असुरोंसे बोले- 'दानवो! तुमलोग ध्यानपूर्वक सुन लो। अपनी तपस्याद्वारा भगवान् शंकरको प्रसन्न करनेवाला शुक्राचार्य मैं हूँ। मुझे ही तुमलोग अपना गुरुदेव शुक्राचार्य समझो। बृहस्पतिद्वारा तुम सब लोग ठग लिये गये हो।' शुक्राचार्यको वैसा कहते हुए सुनकर उस समय वे सभी अत्यन्त भ्रममें पड़ गये और आश्चर्यचकित हो वहाँ बैठे हुए उन दोनोंकी ओर निहारते ही रह गये। वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे। उस समय उनकी समझमें कुछ भी नहीं आ रहा था। इस प्रकार उनके किंकर्तव्यविमूढ़ हो जानेपर शुक्राचार्यने उन असुरोंसे कहा- 'असुरो ! तुमलोगोंका आचार्य शुक्राचार्य में हूँ और ये देवताओंके आचार्य बृहस्पति हैं। इसलिये तुमलोग इन बृहस्पतिका त्याग कर दो और मेरा अनुगमन करो।' शुक्राचार्यके यों समझानेपर असुरगण उन दोनोंकी और ध्यानपूर्वक निहारने लगे, परंतु जब उन्हें उन दोनोंमें कोई विशेषता नहीं प्रतीत हुई, तब तपस्वी बृहस्पति धैर्यपूर्वक उन असुरोंसे बोले- 'दैत्यो ! तुमलोगोंका गुरु शुक्राचार्य मैं हूँ और मेरा रूप धारण करनेवाले ये बृहस्पति हैं। असुरो। ये मेरा रूप धारणकर तुमलोगोंको मोहमें डाल रहे हैं' ॥ १८९-१९५॥

सम्मोहयति रूपेण मामकेनैष वोऽसुराः ।
श्रुत्वा तस्य ततस्ते वै समेत्य तु ततोऽब्रुवन् ॥ १९६

अयं नो दशवर्षाणि सततं शास्ति वै प्रभुः ।
एष वै गुरुरस्माकमन्तरे स्फुरयन् द्विजः ॥ १९७

ततस्ते दानवाः सर्वे प्रणिपत्याभिनन्द्य च। 
वचनं जगृहुस्तस्य चिराभ्यासेन मोहिताः ॥ १९८

ऊचुस्तमसुराः सर्वे क्रोधसंरक्तलोचनाः । 
अयं गुरुर्हितोऽस्माकं गच्छ त्वं नासि नो गुरुः ॥ १९९

भार्गवो वाङ्गिरा वापि भगवानेष नो गुरुः । 
स्थिता वयं निदेशेऽस्य साधु त्वं गच्छ मा चिरम् ॥ २००

एवमुक्त्वासुराः सर्वे प्रापद्यन्त बृहस्पतिम्। 
यदा न प्रत्यपद्यन्त काव्येनोक्तं महद्धितम् ॥ २०१

चुकोप भार्गवस्तेषामवलेपेन तेन तु। 
बोधिता हि मया यस्मान्न मां भजथ दानवाः ॥ २०२

तस्मात् प्रनष्टसंज्ञा वै पराभवमवाप्स्यथ। 
इति व्याहृत्य तान् काव्यो जगामाथ यथागतम् ॥ २०३

बृहस्पतिकी बात सुनकर वे सभी एकत्र हो इस प्रकार बोले 'ये सामर्थ्यशाली ब्राह्मणदेवता हमारे अन्तःकरणमें स्फुरित होते हुए दस वर्षोंसे लगातार हमलोगोंको शिक्षा दे रहे हैं, अतः ये ही हमारे गुरु हैं।' ऐसा कहकर चिरकालके अभ्याससे मोहित हुए उन सभी दानवोंने बृहस्पतिको प्रणाम करके उनका अभिनन्दन किया और उन्हींक वचनोंको अङ्गीकार किया। तत्पश्चात् क्रोधसे आँखें लाल करके उन सभी असुरोंने शुक्राचार्यसे कहा- 'ये ही हमलोगोंके हितैषी गुरुदेव हैं, आप हमारे गुरु नहीं हैं, अतः आप यहाँसे चले जाइये। ये चाहे शुक्राचार्य हों अथवा बृहस्पति ही क्यों न हों, ये ही हमारे ऐश्वर्यशाली गुरुदेव हैं। हमलोग इन्हींकी आज्ञामें स्थित है। अतः आपके लिये यही अच्छा होगा कि आप यहाँसे शीघ्र चले जाइये, विलम्ब मत कीजिये।' ऐसा कहकर सभी असुर बृहस्पतिके निकट चले आये। इधर जब असुरोंने शुक्राचार्यद्वारा कहे गये महान् हितकारक वचनोंपर कुछ ध्यान नहीं दिया, तब उनके उस गर्वसे शुक्राचार्य कुपित हो उठे (और शाप देते हुए बोले-) 'दानवो। चूंकि मेरे समझानेपर भी तुमलोगोंने मेरी बात नहीं मानी है, इसलिये (भावी संग्राममें) तुम्हारी चेतना नष्ट हो जायगी और तुमलोग पराभवको प्राप्त करोगे।' इस प्रकार असुरोंको शाप देकर शुक्राचार्य जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये ॥ १९६-२०३॥

शप्तांस्तानसुराज्ञात्वा काव्येन स बृहस्पतिः । 
कृतार्थः स तदा हृष्टः स्वरूपं प्रत्यपद्यत ॥ २०४

बुद्धयासुरान् हताञ्ज्ञात्वा कृतार्थोऽन्तरधीयत। 
ततः प्रनष्टे तस्मिस्तु विभ्रान्ता दानवाभवन् ॥ २०५

अहो विवञ्चिताः स्मेति परस्परमथाब्रुवन्। 
पृष्ठतोऽभिमुखाश्चैव ताडिताङ्गिरसेन तु ॥ २०६

वञ्चिताः सोपधानेन स्वे स्वे वस्तुनि मायया।
ततस्त्वपरितुष्टास्ते तमेव त्वरिता ययुः ।
प्रह्लादमग्रतः कृत्वा काव्यस्यानुपदं पुनः ॥ २०७

ततः काव्यं समासाद्य उपतस्थुरवाड्मुखाः । 
समागतान् पुनर्दृष्ट्वा काव्यो याज्यानुवाच ह ।॥ २०८

मया सम्बोधिताः सर्वे यस्मान्मां नाभिनन्दथ। 
ततस्तेनावमानेन गता यूयं पराभवम् ॥ २०९

एवं ब्रुवाणं शुक्रं तु बाष्पसंदिग्धया गिरा। 
प्रह्लादस्तं तदोवाच मा नस्त्वं त्यज भार्गव ॥ २१०

स्वाश्रयान् भजमानांश्च भक्तांस्त्वं भज भार्गव।
त्वव्यदृष्टे वयं तेन देवाचार्येण मोहिताः।
भक्तानर्हसि वै ज्ञातुं तपोदीर्घेण चक्षुषा ॥ २११

यदि नस्त्वं न कुरुषे प्रसादं भृगुनन्दन।
अपध्यातास्त्वया ह्यद्य प्रविशामो रसातलम् ॥ २१२

इधर जब बृहस्पतिको यह ज्ञात हुआ कि शुक्राचार्यने असुरोंको शाप दे दिया, तब वे प्रसन्नतासे खिल उठे; क्योंकि उनका प्रयोजन सिद्ध हो चुका था। तत्पश्चात् वे तुरंत अपने वास्तविक बृहस्पतिरूपमें प्रकट हो गये और अपने बुद्धिबलसे असुरोंको मरा हुआ जानकर सफलमनोरथ हो अन्तर्हित हो गये। बृहस्पतिके आँखोंसे ओझल हो जानेपर दानवगण विशेषरूपसे भ्रममें पड़ गये और परस्पर यों कहने लगे- 'अहो! हमलोग तो विशेषरूपसे ठग लिये गये। बृहस्पतिने हमलोगोंको आगे और पीछे अर्थात् प्रत्यक्ष और परोक्ष- दोनों ओरसे व्यथित कर दिया। उन्होंने अपनी मायाद्वारा सहायकसहित हमलोगोंको अपनी-अपनी वस्तुओंसे वञ्चित कर दिया।' इस प्रकार असंतुष्ट हुए वे सभी दानव प्रादको आगे कर पुनः उन्हीं शुक्राचार्यका अनुगमन करने के लिये तुरंत प्रस्थित हुए 

और शुक्राचार्यके निकट पहुँचकर नीचे मुख किये हुए उन्हें घेरकर खड़े हो गये। तब अपने यजमानोंको पुनः आया देखकर शुक्राचार्यने उनसे कहा- 'दानवो! ट्रैक मेरे द्वारा भलीभाँति समझाये जानेपर भी तुम सब लोगनि मेरा अभिनन्दन नहीं किया, इसलिये मेरे प्रति किये हुए उस अपमानके कारण तुमलोग पराभवको प्राप्त हुए हो।' शुक्राचार्यके यों कहनेपर प्रह्लादकी आँखोंमें आँसू उमड़ आये। तब वे गद्गद वाणीद्वारा उनसे प्रार्थना करते हुए बोले- 'भृगुनन्दन! आप हमलोगोंका परित्याग न करें। भार्गव! हमलोग आपके आश्रित,सेवक और भक्त हैं, इसलिये आप हमें अपनाइये। आपके अदृष्ट हो जानेपर देवाचार्य बृहस्पतिने हमलोगोंको मोहमें डाल दिया था। आप अपनी दीर्घकालिक तपस्याद्वारा अर्जित दिव्यदृष्टिद्वारा स्वयं अपने भक्तोंको जान सकते हैं। भृगुनन्दन। यदि आप हमलोगोंपर कृपा नहीं करेंगे और हमलोगोंका अनिष्ट-चिन्तन ही करते रहेंगे तो हमलोग आज ही रसातलमें प्रवेश कर जायेंगे' ॥ २०४-२१२॥

ज्ञात्वा काव्यो यथातत्त्वं कारुण्यादनुकम्पया।
एवं प्रत्यनुनीतो वै ततः कोपं नियम्य सः ।
उवाचैतान् न भेतव्यं न गन्तव्यं रसातलम् ॥ २१३

अवश्यं भाविनो हृार्थाः प्राप्तव्या मयि जाग्रति।
न शक्यमन्यथा कर्तुं दिष्टं हि बलवत्तरम् ॥ २१४

संज्ञा प्रणष्टा या वोऽद्य कामं तां प्रतिपत्स्यथ ।
देवाञ्जित्वा सकृच्चापि पातालं प्रतिपत्स्यथ ।। २१५

प्राप्ते पर्यायकाले च हीति ब्रह्माभ्यभाषत।
मत्प्रसादाच्च त्रैलोक्यं भुक्तं युष्माभिरूर्जितम् ॥२१६

युगाख्या दश सम्पूर्णा देवानाक्रम्य मूर्धनि।
एतावन्तं च कालं वै ब्रह्मा राज्यमभाषत ।। २१७

राज्यं सावर्णिके तुभ्यं पुनः किल भविष्यति।
लोकानामीश्वरो भाव्यस्तव पौत्रः पुनर्बलिः ॥ २१८

एवं किल मिथः प्रोक्तः पौत्रस्ते विष्णुना स्वयम्।
वाचा हृतेषु लोकेषु तास्तास्तस्याभवन् किल ॥ २१९

यस्मात् प्रवृत्तयश्चास्य सकाशादभिसंधिताः ।
तस्माद् वृत्तेन प्रीतेन तुभ्यं दत्तं स्वयम्भुवा ॥ २२०

देवराज्ये बलिर्भाव्य इति मामीश्वरोऽब्रवीत् ।
तस्माददृश्यो भूतानां कालापेक्षः स तिष्ठति ॥ २२१

प्रीतेन चापरो दत्तो बरस्तुभ्यं स्वयम्भुवा।
तस्मान्निरुत्सुकस्त्वं वै पर्यायं सहितोऽसुरैः ॥ २२२

न हि शक्यं मया तुभ्यं पुरस्ताद् विप्रभाषितुम् ।
ब्रह्मणा प्रतिषिद्धोऽहं भविष्यं जानता विभो ॥ २२३

इमौ च शिष्यौ द्वौ महां समावेतौ बृहस्पतेः । 
दैवतैः सह संसृष्टान् सर्वान् वो धारयिष्यतः ॥ २२४

इस प्रकार अनुनय-विनय किये जानेपर शुक्राचार्यने दिव्यदृष्टिद्वारा यथार्थ तत्त्वको समझ लिया, तब उनके हृदयमें करुणा एवं अनुकम्पा उमड़ आयी और वे उमड़े हुए क्रोधको रोककर उन असुरोंसे इस प्रकार बोले- 'प्रह्लाद ! न तो तुमलोग डरो और न रसातलको ही जाओ। यों तो जो अवश्यम्भावी इष्ट-अनिष्ट कार्य हैं, वे तो मेरे जागरूक रहनेपर भी तुमलोगोंको प्राप्त होंगे ही, उन्हें अन्यथा नहीं किया जा सकता; क्योंकि दैवका विधान सबसे बलवान् होता है। मेरे शापानुसार तुमलोगोंकी जो चेतना नष्ट हो गयी है, उसे तो तुमलोग आज ही प्राप्त कर लोगे। साथ ही विपरीत समय आनेपर तुमलोगोंको देवताओंपर विजय पा लेनेपर भी एक बार पातालमें जाना पड़ेगा; क्योंकि ब्रह्माने पहले ही ऐसा बतलाया है। मेरी ही कृपासे तुमलोगोंने देवताओंके मस्तकपर पैर रखकर समूचे दस युगपर्यन्त त्रिलोकीके ऊर्जस्वी राज्यका उपभोग किया है। इतने ही दिनोंतक ब्रह्माने तुमलोगोंका राज्यकाल बतलाया था। सावर्णि-मन्वन्तरमें पुनः तुमलोगोंका राज्य होगा। उस समय तुम्हारा पौत्र बलि त्रिलोकीका अधीश्वर होगा। ऐसा स्वयं भगवान् विष्णुने वाणीद्वारा त्रिलोकीके अपहरण कर लेनेपर तुम्हारे पौत्रसे परस्पर वार्तालापके प्रसङ्गमें कहा था। 

वे सारी बातें अब उसके लिये घटित होंगी। चूँकि इसकी प्रवृत्तियाँ दस वर्षांतक उत्तम बनी रहीं, इसलिये इसके व्यवहारसे प्रसन्न होकर स्वयम्भूने तुम्हें यह राज्य प्रदान किया है। देवराज्यपर बलि अधिष्ठित होगा ऐसा मुझसे भगवान् शंकरने भी कहा था। इसी कारण वह कालकी प्रतीक्षा करता हुआ जीवोंके नेत्रोंक अगोचर होकर अवस्थित है। उस समय प्रसन्न हुए स्वयम्भूने तुम्हें एक दूसरा वरदान भी दिया था, इसलिये तुम असुरोंसहित निरुत्सुक रहकर कालकी प्रतीक्षा करो। विभो ! यद्यपि मैं भविष्यकी सारी बातें जानता हूँ, तथापि मैं पहले ही तुमसे उन घटनाओंका वर्णन नहीं कर सकता; क्योंकि ब्रह्माजीने मुझे मना कर दिया है। मेरे ये दोनों शिष्य (शण्ड और अमर्क), जो बृहस्पतिके समान प्रभावशाली हैं, देवताओंके साथ ही उत्पन्न हुए तुम सब लोगोंकी रक्षा करेंगे'॥ २१३-२२४॥

इत्युक्ता हासुराः सर्वे काव्येनाक्लिष्टकर्मणा।
हृष्टास्तेन ययुः सार्धं प्रह्लादेन महात्मना ॥ २२५

अवश्यं भाव्यमर्थ तु श्रुत्वा शुक्रेण भाषितम्।
सकृदाशंसमानास्तु जयं शुक्रेण भाषितम्। 
दंशिताः सायुधाः सर्वे ततो देवान् समाह्वयन् ॥ २२६

देवास्तदासुरान् दृष्ट्वा संग्रामे समुपस्थितान् । 
सर्वे सम्भृतसम्भारा देवास्तान् समयोधयन् ॥ २२७

देवासुरे तदा तस्मिन् वर्तमाने शतं समाः । 
अजयन्नसुरा देवांस्ततो देवा ह्यमन्त्रयन् ॥ २२८

यज्ञेनोपाह्वयामस्तौ ततो जेष्यामहेऽसुरान् । 
तदोपामन्त्रयन् देवाः शण्डामर्को तु तावुभौ ॥ २२९

यज्ञे चाहूय तौ प्रोक्तौ त्यजेतामसुरान् द्विजौ। 
वयं युवां भजिष्यामः सह जित्वा तु दानवान् ॥ २३०

एवं कृताभिसंधी तौ शण्डामर्को सुरास्तथा। 
ततो देवा जयं प्रापुर्दानवाश्च पराजिताः ॥ २३१

शण्डामर्कपरित्यक्ता दानवा ह्यबलास्तथा। 
एवं दैत्याः पुरा काव्यशापेनाभिहतास्तदा ॥ २३२

काव्यशापाभिभूतास्ते निराधाराश्च सर्वशः । 
निरस्यमाना देवैश्च विविशुस्ते रसातलम् ॥ २३३

एवं निरुद्यमा देवैः कृताः कृच्छ्रेण दानवाः ।
ततः प्रभृति शापेन भृगोर्नैमित्तिकेन तु ॥ २३४

जज्ञे पुनः पुनर्विष्णुर्धर्मे प्रशिथिले प्रभुः।
कुर्वन् धर्मव्यवस्थानमसुराणां प्रणाशनम् ॥ २३५

सरलता पूर्वक कार्यको सम्पन्न करनेवाले शुक्राचार्य के द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर असुरगण उन महात्मा प्रह्लादके साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने वासस्थानको चले गये। उस समय उनके मनमें शुक्राचार्यद्वारा कथित यह विचार कि 'अवश्यम्भावी कार्य तो होगा ही' गूंज रहा था। कुछ दिन व्यतीत होनेपर उन्होंने सोचा कि शुक्राचार्यके कथनानुसार एक बार विजय तो होगी ही, अतः सभी असुरोंने विजयको आशासे अपना-अपना कवच धारण कर लिया और शस्त्रास्त्रसे लैस हो देवताओंके निकट जाकर उन्हें ललकारा।देवताओंने जब यह देखा कि असुरगण सेनासहित रणभूमिमें आ डटे हैं, तब देवगण भी संगठित एवं युद्ध-सामग्री से सुसज्जित हो असुरोंके साथ युद्ध करने लगे। वह देवासुर- संग्राम सौ वर्षोंतक चलता रहा। उसमें असुरोंने देवताओंको पराजित किया। तब देवताओंने परस्पर मन्त्रणा करके यह निश्चय किया कि जब हमलोग यज्ञके निमित्तसे उन दोनों (शण्ड और अमर्क) को अपने यहाँ बुलायेंगे तभी असुरोंपर विजय पा सकेंगे। 

ऐसा परामर्श करके देवताओंने उन शण्ड और अमर्क-दोनोंको आमन्त्रित किया और अपने यज्ञमें बुलाकर उनसे कहा- 'द्विजवरो ! आपलोग असुरोंका पक्ष छोड़ दें। हमलोग आप दोनोंके सहयोगसे दानवोंको पराजित कर आपकी सेवा करेंगे।' इस प्रकार जब देवताओंके तथा शण्ड अमर्क-दोनों दैत्याचार्योंके बीच संधि हो गयी, तब रणभूमिमें देवताओंको विजय प्राप्त हुई और दानवगण पराजित हो गये; क्योंकि शण्ड-अमर्कद्वारा परित्याग कर दिये जानेपर दानववृन्द बलहीन हो गये थे। इस प्रकार पूर्वकालमें शुक्राचार्यद्वारा दिये गये शापके कारण उस समय दैत्यगण मारे गये। अवशिष्ट दैत्यगण शुक्राचार्यके शापसे अभिभूत होनेके कारण जब सब ओरसे निराधार हो गये, साथ ही देवताओंने उन्हें खदेड़ना आरम्भ किया, तब वे विवश होकर रसातलमें प्रविष्ट हो गये। इस प्रकार देवगण दानवोंको बड़ी कठिनाईसे उद्यमहीन अर्थात् युद्धविमुख कर पाये। तभीसे शुक्राचार्यके नैमित्तिक शापके कारण धर्मका विशेषरूपसे हास हो जानेपर धर्मकी पुनः स्थापना और असुरोंका विनाश करनेके लिये भगवान् विष्णु बारंबार अवतीर्ण होते रहे ॥२२५-२३५ ॥

प्रह्लादस्य निदेशे तु न स्थास्यन्त्यसुराश्च ये।
मनुष्यवध्यास्ते सर्वे ब्रह्मेति व्याहरत् प्रभुः ॥ २३६

धर्मान्नारायणस्यांशः सम्भूतश्चाक्षुषेऽन्तरे।
यज्ञं प्रवर्तयामासदेवो वैवस्वतेऽन्तरे ॥ २३७

प्रादुर्भावे ततस्तस्य ब्रह्मा ह्यासीत् पुरोहितः ।
युगाख्यायां चतुर्थ्यां तु आपन्नेषु सुरेषु वै ॥ २३८

सम्भूतस्तु समुद्रान्ते हिरण्यकशिपोर्वधे। 
द्वितीये नरसिंहाख्ये रुद्रो ह्यासीत् पुरोहितः ॥ २३९

बलिसंस्थेषु लोकेषु त्रेतायां सप्तमं प्रति। 
दैत्यैस्त्रैलोक्य आक्रान्ते तृतीयो वामनोऽभवत् ॥ २४०

एतास्तिस्त्रः स्मृतास्तस्य दिव्याः सम्भूतयो द्विजाः ।
मानुषाः सप्त यान्यास्तु शापतस्ता निबोधत ॥ २४१

त्रेतायुगे तु प्रथमे दत्तात्रेयो बभूव ह। 
नष्टे धर्मे चतुर्थांशे मार्कण्डेयपुरःसरः ॥ २४२

पञ्चमः पञ्चदश्यां च त्रेतायां सम्बभूव ह।
मान्धाता चक्रवर्ती तु तस्थौतथ्यपुरःसरः ॥ २४३

एकोनविंश्यां त्रेतायां सर्वक्षत्रान्तकृट् विभुः ।
जामदग्न्यस्तथा षष्ठो विश्वामित्रपुरःसरः ॥ २४४

चतुर्विशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा। 
सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः ॥ २४५

अष्टमे द्वापरे विष्णुरष्टाविंशे पराशरात्।
वेदव्यासस्तथा जज्ञे जातूकण्र्ण्यपुरःसरः ॥ २४६

पूर्वकालमें सामर्थ्यशाली ब्रह्माने प्रसङ्गवश ऐसा कहा था कि जो असुर प्रह्लादकी आज्ञाके वशीभूत नहीं रहेंगे, वे सभी मनुष्योंके हाथों मारे जायेंगे। चाक्षुष- मन्वन्तरमें धर्मके अंशसे साक्षात् भगवान् नारायणका अवतार हुआ था। अपने प्रादुर्भावके पश्चात् वैवस्वत- मन्वन्तरमें उन्होंने एक यज्ञानुष्ठान प्रवर्तित किया था; उस यज्ञके पुरोहित ब्रह्मा थे। चौघे तामस मन्वन्तरमें देवताओंके विपत्तिग्रस्त हो जानेपर हिरण्यकशिपुका वध करनेके लिये समुद्रतटपर नृसिंहका अवतार हुआ था। इस द्वितीय नृसिंहावतारमें रुद्र पुरोहित-पदपर आसीन थे। सातवें वैवस्वत मन्वन्तरके त्रेतायुगमें, जब त्रिलोकीपर बलिका अधिकार था, उस समय तीसरा वामन अवतार हुआ था। 

उस कार्यकालमें धर्म पुरोहितका पद संभाल रहे थे।) द्विजवरी। भगवान् विष्णुकी ये तीन दिव्य उत्पत्तियाँ बतलायी गयी हैं। अब अन्य सात सम्भूतियाँ, जो भृगुके शापवश मानव योनिमें हुई हैं, उन्हें सुनिये। प्रथम त्रेतायुगमें, जब धर्मका चतुर्थांश नष्ट हो गया था, भगवान् मार्कण्डेयको पुरोहित बनाकर दत्तात्रेयके रूपमें अवतीर्ण हुए थे। पंद्रहवें त्रेतायुगमें चक्रवर्ती मान्धाताके रूपमें पाँचवाँ अवतार हुआ था। उस समय पुरोहितका पद महर्षि तथ्य (उत्तथ्य) को मिला था। उन्नीसवें त्रेतायुगमें छठा अवतार जमदग्रिनन्दन महाबली परशुरामके रूपमें हुआ था, जो सम्पूर्ण क्षत्रिय वंशके संहारक थे। उस समय महर्षि विश्वामित्र आदि सहायक बने थे। चौबीसवें त्रेतायुगमें सातवें अवतारके रूपमें रावणका वध करनेके लिये भगवान् श्रीराम महाराज दशरथके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए थे। उस समय महर्षि वसिष्ठ पुरोहित थे। अट्ठाईसवें द्वापरयुगमें आठवें अवतारमें भगवान् विष्णु महर्षि पराशरसे वेदव्यासके रूपमें अवतीर्ण हुए। उस समय जातूकण्र्थने पुरोहित-पदको सुशोभित किया ॥ २३६-२४६ ॥

कर्तुं धर्मव्यवस्थानमसुराणां प्रणाशनम् ।
बुद्धो नवमको जज्ञे तपसा पुष्करेक्षणः ।
देवसुन्दररूपेण द्वैपायनपुरःसरः ॥ २४७

तस्मिन्नेव युगे क्षीणे संध्याशिष्टे भविष्यति।
कल्की तु विष्णुयशसः पाराशर्यपुरःसरः ।
दशमो भाव्यसम्भूतो याज्ञवल्क्यपुरःसरः ॥ २४८

सर्वांश्च भूतान् स्तिमितान् पाषण्डांश्चैव सर्वशः ।
प्रगृहीतायुधैर्विप्रैर्वृतः शतसहस्रशः ।। २४९

निःशेषः क्षुद्रराज्ञस्तु तदा स तु करिष्यति। 
ब्रह्मद्विषः सपत्नांस्तु संहत्यैव च तद्वपुः ।। २५०

अष्टाविंशे स्थितः कल्किश्चरितार्थः ससैनिकः । 
शूद्रान् संशोधयित्वा तु समुद्रान्तं च वै स्वयम् ॥ २५१

प्रवृत्तचक्रो बलवान् संहारं तु करिष्यति। 
उत्सादयित्वा वृषलान् प्रायशस्तानधार्मिकान् ।। २५२

ततस्तदा स वै कल्किश्चरितार्थः ससैनिकः ।
प्रजास्तं साधयित्वा तु समृद्धास्तेन वै स्वयम् ॥ २५३

अकस्मात् कोषितान्योऽन्यं भविष्यन्तीह मोहिताः । 
क्षपयित्वा तु तेऽन्योऽन्यं भाविनार्थेन चोदिताः ।। २५४

धर्म की विशेषरूप से स्थापना और असुरोंका विनाश करनेके निमित्त नवें अवतारमें बुद्ध अवतीर्ण हुए। सुन्दर (सौन्दरानन्दके नायक) उनके सहचर रूपवाले थे। उनके नेत्र कमल सरीखे थे। उनके पुरोहित महर्षि द्वैपायन थे। इसी युगकी समाप्तिके समय, जब संध्यामात्र अवशिष्ट रह जायगी, विष्णुवशके पुत्ररूपमें कल्किका अवतार होगा। इसी भावी दसवें अवतारमें पराशर-पुत्र व्यास और याज्ञवल्क्य पुरोहितका कार्यभार सँभालेंगे। उस समय भगवान् कल्कि आयुधधारी सैकड़ों एवं सहस्रों विप्रोंको साथ लेकर चारों ओरसे धर्मविमुख जीवों, पाखण्डों और शूद्रवंशी राजाओंका सर्वथा विनाश कर डालेंगे; क्योंकि ब्रह्मद्वेषी शत्रुओंका संहार करनेके हेतु ही कल्कि अवतार होता है। इस अड्डाईसवें युगमें भगवान् कल्कि सेनासहित सफलमनोरथ हो विराजमान रहेंगे। उस समय वे बलशाली भगवान् उन धर्महीन शूद्रोंका समूल विनाश करके अपने राज्यचक्रका विस्तार करते हुए पापियोंका संहार कर डालेंगे। तदुपरान्त कल्कि अपना कार्य पूरा करके सेनासहित विश्राम-लाभ करेंगे। उस समय सारी प्रजाएँ उनके प्रभावसे समृद्धिशालिनी होकर उनकी सेवामें लग जायेंगी। तत्पश्चात् भावी कार्यसे प्रेरित हुई प्रजाएँ मोहित होकर अकस्मात् एक-दूसरेपर कुपित हो जायेंगी और परस्पर लड़कर एक-दूसरेको मार डालेंगी। उस समय कार्यकाल समाप्त हो जानेपर भगवान् कल्कि भी अन्तर्हित हो जायेंगे ॥ २४७- २५४ ॥

ततः काले व्यतीते तु स देवोऽन्तरधीयत। 
नृपेष्वथ प्रणष्टेषु प्रजानां संग्रहात् तदा ।। २५५

रक्षणे विनिवृत्ते तु हत्वा चान्योऽन्यमाहवे। 
परस्परं निहत्वा तु निराक्रन्दाः सुदुःखिताः ॥ २५६

पुराणि हित्वा ग्रामांश्च तुल्यत्वे निष्परिग्रहाः । 
प्रणष्टाश्रमधर्माश्च नष्टवर्णाश्रमास्तथा ॥ २५७

अट्टशूला जानपदाः शिवशूलाश्चतुष्पथाः । 
प्रमदाः केशशूलिन्यो भविष्यन्ति युगक्षये ॥ २५८

ह्रस्वदेहायुषश्चैव भविष्यन्ति वनौकसः । 
सरित्पर्वतवासिन्यो मूलपत्रफलाशनाः ।। २५९

चीरचर्माजिनधराः संकरं घोरमाश्रिताः । 
उत्पातदुःखाः स्वल्पार्था बहुबाधाश्च ताः प्रजाः ।। २६०

एवं कष्टमनुप्राप्ताः काले संध्यंशके तदा। 
ततः क्षयं गमिष्यन्ति सार्ध कलियुगेन तु ॥ २६१

क्षीणे कलियुगे तस्मिस्ततः कृतमवर्तत। 
इत्येतत् कीर्तितं सम्यग् देवासुरविचेष्टितम् ॥ २६२

यदुवंशप्रसङ्गेन समासाद् वैष्णवं यशः । 
तुर्वसोस्तु प्रवक्ष्यामि पूरोहुँह्योस्तथा हानोः ॥ २६३

इस प्रकार प्रजाओंके संगठनसे राजाओंके नष्ट हो युद्धभूमिमें एक-दूसरेको मार डालेंगी। यों परस्पर मार- पीट कर वे आक्रन्दनरहित एवं अत्यन्त दुःखित हो जायेंगी। फिर तो वे परिवारहीन होकर समानरूपसे ग्रामों एवं नगरोंको छोड़कर वनकी राह लेंगी। उनके वर्ण-धर्म तथा आश्रम-धर्म नष्ट हो जायेंगे। कलियुगकी समाप्तिके समय देशवासी अन्न बेचने लगेंगे, चौराहोंपर शिवकी मूर्तियाँ बिकने लगेंगी और स्त्रियाँ अपने शीलका विक्रय करेंगी अर्थात् वेश्या-कर्ममें प्रवृत्त हो जायेंगी। लोगोंके कद छोटे होंगे। उनकी आयु स्वल्प होगी। वे वनमें तथा नदीतट और पर्वतोंपर निवास करेंगे। कन्द- मूल, पत्तियाँ और फल ही उनके भोजन होंगे। वल्कल, पशुचर्म और मृगचर्म ही उनके वस्त्र होंगे। वे सभी भयंकर वर्णसंकरत्वके आश्रित हो जायेंगे। तरह-तरहके उपद्रवोंसे दुःखी रहेंगे। उनकी धन-सम्पत्ति घट जायगी और वे अनेकों बाधाओंसे घिरे रहेंगे। इस प्रकार कष्टका अनुभव करती हुई वे सारी प्रजाएँ उस संध्यांशके समय कलियुगके साथ ही नष्ट हो जायेंगी। इस कलियुगके व्यतीत हो जानेपर कृतयुगका प्रारम्भ होगा। इस प्रकार मैंने पूर्णरूपसे देवताओं और असुरोंकी चेष्टाका तथा यदुवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें संक्षेपरूपसे भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण) के यशका वर्णन कर दिया। अब मैं तुर्वसु, पूरु, हुए और अनुके वंशका क्रमशः वर्णन करूँगा ॥ २५५-२६३॥

इति श्रीमाल्ये महापुराणेऽसुरशापो नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणर्म असुर-शाप नामक सैंतालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ४७ ॥

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