शुक्र और गुरु की पूजा-विधि | shukr aur guru kee pooja-vidhi |

मत्स्य पुराण तिहत्तरवाँ अध्याय

शुक्र और गुरु की पूजा-विधि

पिप्पलाद उवाच

अधातः शृणु भूपाल प्रतिशुक्रं प्रशान्तये।
यात्रारम्भेऽवसाने च तथा शुक्रोदये त्विह ॥ १

पिप्पलादने कहा- भूपाल! अब मैं विपरीत शुक्रकी शान्तिके लिये विधान बतला रहा हूँ, सुनिये। इस लोक में शुक्र के उदयकालमें यात्राके आरम्भ अथवा समाप्तिके अवसरपर शुक्रकी एक चाँदीकी मूर्ति बनवाये

राजते वाथ सौवर्णे कांस्यपात्रेऽथवा पुनः ।
शुक्लपुष्पाम्बरयुते सिततण्डुलपूरिते । २

विधाय राजतं शुक्रं शुचिमुक्ताफलान्वितम्।
मन्त्रेणानेन तत् सर्व सामगाय निवेदयेत् ॥ ३

नमस्ते सर्वलोकेश नमस्ते भृगुनन्दन।
कवे सर्वार्थसिद्धयर्थं गृहाणाध्यै नमोऽस्तु ते ॥ ४

एवमस्योदये कुर्वन् यात्रादिषु च भारत। 
सर्वान् कामानवाप्नोति विष्णुलोके महीयते ॥ ५

यावच्छुक्क्रस्य न कृता पूजा संमाल्यकैः शुभैः । 
वटकैः पूरिकाभिश्च गोधूमैश्चणकैरपि। 
तावदन्नं न चाश्नीयात् त्रिभिः कामार्थसिद्धये ॥ ६

उसे श्वेत मुक्ताफल (मोती) के साथ श्वेत चावलसे परिपूर्ण सुवर्ण, चाँदी अथवा काँसेके पात्रके ऊपर स्थापित करके श्वेत पुष्प और श्वेत वस्त्रसे आच्छादित कर दे। फिर इस वक्ष्यमाण मन्त्रका उच्चारण कर वह सारा सामान सामवेदके ज्ञाता (सस्वर गान करनेवाले) ब्राह्मणको निवेदित कर दे। (वह मन्त्र इस प्रकार है-) 'सम्पूर्ण लोकोंके अधीश्वर! आपको नमस्कार है। भृगुनन्दन । आपको प्रणाम है। कवे। मैं आपको अभिवादन करता हूँ। आप मेरी समस्त कामनाओंकी पूर्तिके लिये यह अर्घ्य ग्रहण करें।' भारत ! जो मनुष्य शुक्रके विपरीत रहनेपर यात्रा आदि कार्योंमें इस प्रकार विधान करता है, वह समस्त कामनाओंको प्राप्त कर लेता है और अन्त में विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। शुक्रकी वह पूजा जबतक माङ्गलिक पुष्पमाला, बड़ा, पूरी, गेहूँ और चनाद्वारा सम्पन्न न कर ली जाय, तबतक धर्म, अर्थ और कामकी अभिलाषा रखनेवाले व्रतीको अपनी मनोरथ- सिद्धिके लिये भोजन नहीं करना चाहिये ॥-६॥

तद्वद् वाचस्पतेः पूजां प्रवक्ष्यामि युधिष्ठिर। 
सुवर्णपात्रे सौवर्णममरेशपुरोहितम् ॥ ७

पीतपुष्याम्बरयुतं कृत्वा स्त्रात्वाथ सर्षपैः । 
पलाशाश्वत्थयोगेन पञ्चगव्यजलेन च॥ ८

पीताङ्गरागवसनो घृतहोमं तु कारयेत्। 
प्रणम्य च गवा सार्थ ब्राह्मणाय निवेदयेत् ॥ ९

नमस्तेऽङ्गिरसां नाथ वाक्यते च बृहस्पते। 
क्रूरग्रहैः पीडितानाममृताय नमो नमः ॥ १०

संक्रान्तावस्य कौन्तेय यात्रास्वभ्युदयेषु च। 
कुर्वन् बृहस्पतेः पूजां सर्वान् कामान् समश्नुते ॥ ११

युधिष्ठिर। इसी प्रकार मैं बृहस्पतिकी भी पूजा- विधि बतला रहा हूँ। व्रतीको चाहिये कि वह सरसों, पलाश, पीपल और पञ्चगव्यसे युक्त जलसे स्नान करे, पीला वस्त्र पहनकर शरीरमें पीला अङ्गराग, चन्दन आदिका अनुलेप करे और ब्राह्मणद्वारा घीका हवन करावे। तत्पश्चात् मूर्तिको प्रणाम करके गौसहित उसे ब्राह्मणको दान कर दे। (उस समय ऐसी प्रार्थना करे) 'वाणीके अधीश्वर। आप अङ्गिरा-वंशियोंके स्वामी हैं। बृहस्पते! क्रूर ग्रहोंसे पीड़ित प्राणियोंके लिये आप अमृततुल्य फलदाता हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है।' कुन्तीनन्दन। सूर्यकी संक्रान्तिके दिन, यात्राओंमें तथा अन्यान्य आभ्युदयिक कार्योंके अवसरपर बृहस्पतिकी पूजा करनेवाला मनुष्य सभी कामनाओंको प्राप्त कर लेता है॥ ७-११॥

इति श्रीमाल्ये महापुराणे गुरुशुक्रपूजाविधिर्नाम त्रिसमतितमोऽध्यायः ॥ ७३ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें शुक्र-गुरु-पूजाविधि नामक तिहत्तरबाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ७३॥

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