सूर्य और चन्द्रमा की गति का वर्णन | soory aur chandrama kee gati ka varnan |

मत्स्य पुराण एक सौ चौबीसवाँ अध्याय

सूर्य और चन्द्रमा की गति का वर्णन

सूत उवाच

अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि सूर्याचन्द्रमसोर्गतिम्।
सूर्याचन्द्रमसावेतौ भ्रमन्तौ यावदेव तु ॥ १

सप्तद्वीपसमुद्राणां द्वीपानां भाति विस्तरः ।
विस्तरार्धं पृथिव्यास्तु भवेदन्यत्र बाह्यतः ॥ २

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! इसके बाद अब मैं सूर्य और चन्द्रमाकी गतिका वर्णन कर रहा हूँ। ये सूर्य और चन्द्रमा सातों द्वीपों एवं सातों समुद्रोंके विस्तारको तथा समग्र भूतलके अर्धभागको और उसके बाहरके अन्य प्रदेशोंको ये अपने प्रकाशसे उद्भासित करते हैं। 

पर्यासपरिमाणं च चन्द्रादित्यौ प्रकाशतः ।
पर्यासपारिमाण्यात्तु भूमेस्तुल्यं दिवः स्मृतम् ॥ ३

भवति त्रीनि माँल्लोकान् सूर्यो यस्मात् परिभ्रमन्।
अव धातुः प्रकाशाख्यो अवनात्तु रविः स्मृतः ॥ ४

अतः परं प्रवक्ष्यामि प्रमाणं चन्द्रसूर्ययोः ।
महितत्वान्महीशब्दो ह्यस्मिन्नर्थे निगद्यते ॥५

अस्य भारतवर्षस्य विष्कम्भं तु सुविस्तरम् ।
मण्डलं भास्करस्याथ योजनैस्तन्निबोधत ।। ६

नवयोजनसाहस्त्रो विस्तारो भास्करस्य तु।
विस्तारात् त्रिगुणश्चापि परिणाहोऽत्र मण्डले ॥ ७

विष्कम्भान्मण्डलाच्चैव भास्कराद् द्विगुणः शशी।
अतः पृथिव्या वक्ष्यामि प्रमाणं योजनैः पुनः ॥ ८

सप्तद्वीपसमुद्राया विस्तारो मण्डलस्य तु ।
इत्येतदिह संख्यातं पुराणे परिमाणतः ॥ ९

ये विश्वकी अन्तिम सीमातक प्रकाश फैलाते हैं। तुलना परिभ्रमणके प्रमाणको लेकर ही विद्वान् लोग आकाशकी करते हैं। सूर्य सामान्यतः तीनों लोकोंमें शीघ्रतापूर्वक भ्रमण करते हैं। 'अन्' धातु रक्षण और प्रकाशार्थक है। प्रकाश फैलाने तथा प्राणियोंकी रक्षा करनेके कारण सूर्यको 'रवि' कहा जाता है। पुनः सूर्य और चन्द्रमाका प्रमाण बतला रहा हूँ। महनीय होनेके कारण पृथ्वीके लिये 'मही' शब्दका प्रयोग किया जाता है। अब भारतवर्षका तथा सूर्य-मण्डलके व्यासका परिमाण योजनोंमें बतला रहा हूँ, उसे सुनिये। सूर्य मण्डलका परिमाण नौ हजार योजन है। इस मण्डलमें परिणाह (घेरा) विस्तारसे तिगुना अर्थात् सत्ताईस हजार योजन है। व्यास और मण्डलकी दृष्टिसे भी सूर्यसे चन्द्रमा बहुत छोटे हैं। पुनः सातों द्वीपों और समुद्रॉसहित पृथ्वीमण्डलके विस्तारका प्रमाण, जिन्हें विद्वानोंने पुराणोंमें बतलाया है, (योजनोंकी संख्यामें) बतला रहा हूँ ॥ ३-९॥

तद्वक्ष्यामि प्रसंख्याय साम्प्रतं चाभिमानिभिः ।
अभिमानिनो हृह्यतीता ये तुल्यास्ते साम्प्रतैस्त्विह ॥ १०

देवा ये वै ह्यतीतास्तु रूपैर्नामभिरेव च। 
तस्माद्वै साम्प्रतैर्देवैर्वक्ष्यामि वसुधातलम् ॥ ११

दिव्यस्य संनिवेशो वै साम्प्रतैरेव कृत्स्रशः ।
शतार्थकोटिविस्तारा पृथिवी कृत्स्त्रशः स्मृता ॥ १२

तस्याश्चार्थप्रमाणं च मेरोर्वै चातुरन्तरम् ।
मेरोर्मध्यात् प्रतिदिशं कोटिरेका तु सा स्मृता ॥ १३

तथा शतसहस्त्राणामेकोननवतिं पुनः ।
पञ्चाशच्च सहस्त्राणि पृथिव्याः स तु विस्तरः ॥ १४

पृथिव्या विस्तरं कृत्स्त्रं योजनैस्तन्निबोधत ।
तिस्त्रः कोट्यस्तु विस्तारात्संख्यातास्तु चतुर्दिशम् ॥ १५

विस्तारं त्रिगुणं चैव पृथिव्यन्तरमण्डलम् ।
गणितं योजनानां तु कोट्यस्त्वेकादश स्मृताः ॥ १६

तथा शतसहस्त्राणां सप्तत्रिंशाधिकास्तु ताः ।
इत्येतद्वै प्रसंख्यातं पृथिव्यन्तरमण्डलम् ॥ १७

तारकासंनिवेशस्य दिवि यावत्तु मण्डलम् ।
पर्यासः संनिवेशस्य भूमेस्तावत्तु मण्डलम् ॥ १८

पर्यासपरिमाणं च भूमेस्तुल्यं दिवः स्मृतम्।
सप्तानामपि लोकानामेतन्मानं प्रकीर्तितम् ॥ १९

ज्योतिर्गणप्रचारस्य प्रमाणं परिवक्ष्यते ।
मेरोः प्राच्यां दिशायां तु मानसोत्तरमूर्धनि ॥ २०

वस्वौकसारा माहेन्द्री पुण्या हेमपरिष्कृता।
दक्षिणेन पुनर्मेरोर्मानसस्य तु पृष्ठतः ॥ २१

वैवस्वतो निवसति यमः संयमने पुरे।
प्रतीच्यां तु पुनर्मेरोर्मानसस्य तु मूर्धनि ॥ २२

सुखा नाम पुरी रम्या वरुणस्यापि धीमतः ।
दिश्युत्तरस्यां मेरोस्तु मानसस्यैव मूर्धनि ॥ २३

तुल्या महेन्द्रपुर्यापि सोमस्यापि विभावरी।
मानसोत्तरपृष्ठे तु लोकपालाश्चतुर्दिशम् ॥ २४

स्थिता धर्मव्यवस्थार्थं लोकसंरक्षणाय च।
लोकपालोपरिष्टात् तु सर्वतो दक्षिणायने ॥ २५

पूर्वकालमें जो पुराणोंके ज्ञाता हो चुके हैं, वे भी आजकलके पुराणोंके तुल्य ही थे। पूर्वकालके विद्वान् एवं आधुनिक विद्वान्- दोनोंके मत इस विषयमें समान हैं। अतः वर्तमानकालिक विद्वानोंके अनुसार भूतलका परिमाण बतला रहा हूँ। आधुनिक विद्वानोंने दिव्यलोककी स्थितिको भी पृथ्वीमण्डलके बराबर ही माना है। समूची पृथ्वी पचास करोड़ योजनोंमें विस्तृत मानी गयी है। उसका आधा भाग मेरुपर्वतके उत्तरोत्तर फैला हुआ है और मेरुपर्वतके मध्यभागमें वह चारों ओर एक करोड़ योजन विस्तारवाली कही जाती है। इसी तरह पृथ्वीके अर्धभागका विस्तार नवासी लाख, पचास हजार योजन बतलाया जाता है। अब योजनके परिमाणसे पृथ्वीके समूचे विस्तारको सुनिये। इसका विस्तार चारों दिशाओंमें तीन करोड़ योजन माना गया है। यही सातों द्वीपों और समुद्रोंसे घिरी हुई पृथ्वीका विस्तार है। पृथ्वीका आन्तरिक मण्डल बाह्य मण्डलसे तिगुना अधिक है। 

इस प्रकार उसका परिमाण ग्यारह करोड़ सैंतीस लाख योजन माना गया है। यही पृथ्वीके आन्तरिक मण्डलकी गणना की गयी है। आकाश-मण्डलमें जितने तारागणोंकी स्थिति है, उतना ही समग्र पृथ्वीमण्डलका विस्तार माना गया है। इस प्रकार पृथ्वीमण्डलके परिमाणके बराबर आकाशमण्डल भी है। अब ज्योतिर्गणके प्रचारकी बात सुनिये। मेरुपर्वतको पूर्व दिशामें मानसोत्तर पर्वतके शिखरपर वस्वौकसारा नामकी महेन्द्रकी पुण्यमयी नगरी है, जो सुवर्णसे सुसज्जित है। पुनः मेरुकी दक्षिण दिशामें मानसपर्वतके पृष्ठभागपर संयमनी पुरी है, जिसमें सूर्यके पुत्र यमराज निवास करते हैं। पुनः मेरुकी पश्चिम दिशामें मानसपर्वतके शिखरपर बुद्धिमान् वरुणकी सुखा नामकी रमणीय पुरी है। मेरुकी उत्तर दिशामें मानसपर्वतके शिखरपर महेन्द्रपुरीके समान चन्द्रदेवकी विभावरी पुरी है। उसी मानसोत्तर पर्वतके पृष्ठभागकी चारों दिशाओंमें लोकपालगण धर्मकी व्यवस्था और लोकोंकी रक्षा करनेके लिये स्थित हैं। दक्षिणायनके समय सूर्य उन लोकपालोंसे ऊपर होकर भ्रमण करते हैं॥ १०-२५ ॥

काष्ठागतस्य सूर्यस्य गतिस्तत्र निबोधत।
दक्षिणोपक्रमे सूर्यः क्षिप्तेषुरिव सर्पति ॥ २६

ज्योतिषां चक्रमादाय सततं परिगच्छति । 
मध्यगश्चामरावत्यां यदा भवति भास्करः ॥ २७

वैवस्वते संयमने उद्यन् सूर्यः प्रदृश्यते।
सुखायामर्धरात्रस्तु विभावर्यास्तमेति च ॥ २८

वैवस्वते संयमने मध्याह्ने तु रविर्यदा।
सुखायामथ वारुण्यामुत्तिष्ठन् स तु दृश्यते ॥ २९

विभावर्यामर्धरात्रं माहेन्द्रयामस्तमेव च।
सुखायामध वारुण्यां मध्याह्ने तु रविर्यदा ॥ ३०

विभावर्यां सोमपुर्यामुत्तिष्ठति विभावसुः ।
महेन्द्रस्यामरावत्यामुद्गच्छति दिवाकरः ॥ ३१

सुखायामथ वारुण्यां मध्याह्ने तु रविर्यदा।
स शीघ्रमेव पर्येति भानुरालातचक्रवत् ॥ ३२

दक्षिण दिशाका आश्रय लेनेपर सूर्यकी जैसी गति होती है, उसे सुनिये। दक्षिणायनकालमें सूर्य छोड़े गये बाणकी तरह शीघ्रगतिसे चलते हैं। वे ज्योतिश्चक्रको सदा साथ लिये रहते हैं। (इस प्रकार भ्रमण करते हुए) जिस समय सूर्य अमरावती पुरीमें पहुँचते हैं, उस समय वे गगनमण्डलके मध्यभागमें रहते हैं अर्थात् मध्याह्न होता है। उसी समय वे यमराजकी संयमनीपुरीमें उदित होते हुए और विभावरी नगरीमें अस्त होते हुए दीखते हैं तथा सुखा नगरीमें आधी रात होती है। इसी प्रकार जब सूर्य मध्याह्नकालमें यमराजकी संयमनी- पुरीमें पहुँचते हैं, तब वरुणकी सुखानगरीमें उगते हुए और महेन्द्रको वस्वौकसारा (अमरावती) पुरीमें अस्त होते हुए दीखते हैं तथा विभावरी पुरीमें आधी रात होती है। जब दोपहरके समय सूर्य वरुणकी सुखानगरी में पहुँचते हैं, तब चन्द्रदेवकी पुरी विभावरीमें उदय होते हैं। जब सूर्य महेन्द्रकी अमरावतीपुरीमें उदय होते हैं, तब वरुणकी सुखानगरीमें अस्त होते (दीखते) हैं और संयमनीपुरी में आधी रात होती है। इस प्रकार सूर्य अलातचक्र (जलती बनेठी) की भाँति बड़ी शीघ्रतासे चक्कर लगाते हैं॥ २६-३२॥

भ्रमन् वै भ्रममाणानि ऋक्षाणि चरते रविः ।
एवं चतुर्षु पाश्चेषु दक्षिणान्तेषु सर्पति ॥ ३३

उदयास्तमये वासावुत्तिष्ठति पुनः पुनः ।
पूर्वाह्न चापराहे च द्वौ द्वौ देवालयौ तु सः ॥ ३४

पतत्येकं तु मध्याले भाभिरेव च रश्मिभिः ।
उदितो वर्धमानाभिर्मध्याह्ने तपसे रविः ।। ३५ 

अतः परं हृसन्तीभिर्गोभिरस्तं स गच्छति ।
उदयास्तमयाभ्यां च स्मृते पूर्वापरे तु वै ॥ ३६

यादृक्युरस्तात्तपति तादृक्यूष्ठे तु पार्श्वयोः । 
यत्रोदयस्तु दृश्येत तेषां स उदयः स्मृतः ॥ ३७

प्रणाशं गच्छते यत्र तेषामस्तः स उच्यते।
सर्वेषामुत्तरे मेरुर्लोकालोकस्तु दक्षिणे ॥ ३८

विदूरभावादर्कस्य भूमेर्लेखावृतस्य च।
ह्रियन्ते रश्मयो यस्मात्तेन रात्रौ न दृश्यते ।। ३९

ऊर्ध्वं शतसहस्त्रांशुः स्थितस्तत्र प्रदृश्यते।
एवं पुष्करमध्ये तु यदा भवति भास्करः ॥ ४०

त्रिंशद्भागं च मेदिन्या मुहूर्तेन स गच्छति।
योजनानां सहस्त्रस्य इमां संख्यां निबोधत ।। ४१

पूर्ण शतसहस्राणामेकत्रिंशच्च सा स्मृता ।
पञ्चाशच्च सहस्त्राणि तथान्यान्यधिकानि च ॥ ४२

इस प्रकार स्वयं भ्रमण करते हुए सूर्य नक्षत्रोंको भी भ्रमण कराते हैं। वे चारों दक्षिणान्त पार्श्व भागोंमें चलते रहते हैं। उदय और अस्तके समय वे पुनः पुनः उदय और अस्त होते रहते हैं और पूर्वाह्न एवं अपराह्नमें दो-दो देवपुरियोंमें तथा मध्याहके समय एक पुरीमें पहुँचते हैं। इस प्रकार सूर्य उदय होकर अपनी बढ़ती हुई तेजस्विनी किरणोंसे दोपहरके समय तपते हैं और उसके बाद धीरे-धीरे हासको प्राप्त होती हुई उन्हीं किरणोंके साथ अस्त हो जाते हैं। सूर्यके इसी उदय और अस्तसे पूर्व और पश्चिम दिशाका ज्ञान होता है। यों तो सूर्य जैसे पूर्व दिशामें तपते हैं, उसी तरह पश्चिम तथा पार्श्वभाग (उत्तर और दक्षिण) में भी प्रकाश फैलाते हैं, परंतु उन दिशाओंमें जहाँ सूर्यका उदय दीखता है, वही उदय-स्थान कहलाता है तथा जिस दिशामें सूर्य अदृश्य हो जाते हैं, उसे अस्त-स्थान कहते हैं। मेरुपर्वत सभी पर्वतोंसे उत्तर तथा लोकालोक पर्वत दक्षिण दिशामें स्थित है, इसलिये सूर्यके बहुत दूर हो जाने तथा पृथ्वीकी छायासे आवृत होनेके कारण उनकी किरणें अवरुद्ध हो जाती हैं, इसी कारण सूर्य रातमें नहीं दीख पड़ते। इस प्रकार एक लाख किरणोंसे सुशोभित सूर्य जब पुष्करद्वीपके मध्यभागमें पहुँचते हैं, तब वहाँ ऊँचाईपर स्थित होनेके कारण दीख पड़ते हैं। सूर्य एक मुहूर्त (दो बड़ी) में पृथ्वीके तीसवें भागतक पहुँच जाते हैं। उनकी गतिका प्रमाण योजनोंके हजारोंकी गणनामें सुनिये। सूर्यकी एक मुहूर्तकी गतिका परिमाण एकतीस लाख पचास हजार योजनसे भी अधिक बतलाया जाता है॥ ३३-४२ ॥

मौहूर्तिकी गतिर्दोषा सूर्यस्य तु विधीयते।
एतेन क्रमयोगेन यदा काष्ठां तु दक्षिणाम् ॥ ४३

परिगच्छति सूर्योऽसौ मासं काष्ठामुदग्दिनात् ।
मध्येन पुष्करस्याथ भ्रमते दक्षिणायने ।। ४४

मानसोत्तरमेरोस्तु अन्तरं त्रिगुणं स्मृतम्।
सर्वतो दक्षिणां तु काष्ठायां तन्निबोधत ॥ ४५

नव कोट्यः प्रसंख्याता योजनैः परिमण्डलम् ।
तथा शतसहस्त्राणि चत्वारिंशच्च पञ्च च ॥ ४६

अहोरात्रात् पतङ्गस्य गतिरेषा विधीयते।
दक्षिणादिनिवृत्तोऽसौ विषुवस्थो यदा रविः ॥ ४७

क्षीरोदस्य समुद्रस्योत्तरतोऽपि दिशं चरन्। 
मण्डलं विषुवच्चापि योजनैस्तन्निबोधत ।। ४८

तिस्त्रः कोट्यस्तु सम्पूर्णा विषुवस्यापि मण्डलम् ।
तथा शतसहस्त्राणि विंशत्येकाधिकानि तु ॥ ४९

श्रवणे चोत्तरां काष्ठां चित्रभानुर्यदा भवेत्।
गोमेदस्य परे द्वीपे उत्तरां च दिशं चरन् ॥ ५०

उत्तरायाः प्रमाणं तु काष्ठाया मण्डलस्य तु।
दक्षिणोत्तरमध्यानि तानि विद्याद् यथाक्रमम् ॥ ५१

स्थानं जरद्रवं मध्ये तथैरावतमुत्तरम् ।
वैश्वानरं दक्षिणतो निर्दिष्टमिह तत्त्वतः ॥ ५२

इसी क्रमसे जब सूर्य दक्षिण दिशामें जाते हैं, तब (वहाँ छः महीनेतक भ्रमण करनेके पश्चात् पुनः) सातवें मासमें उत्तर दिशाकी ओर लौटते हैं। दक्षिणायनके समय सूर्य पुष्करद्वीपके मध्यमें भ्रमण करते हैं। मानसोत्तर और मेरु पर्वतके बीचमें पुष्करद्वीपसे तिगुना अन्तर है। अब दक्षिण दिशामें सूर्यको गतिका परिमाण सुनिये। यह (दक्षिणायन) मण्डल नौ करोड़ पैंतालीस लाख योजन विस्तृत बतलाया गया है। यह सूर्यकी एक दिन-रातकी गति है। दक्षिणायनसे निवृत्त होकर जब सूर्य विषुव (खगोलीय विषुववृत्त और क्रान्तिवृत्तका कटान- बिन्दु) स्थानपर स्थित होते हैं, तब वे क्षीरसागरकी उत्तर दिशामें भ्रमण करते हैं। अब विषुवन्मण्डलका परिमाण योजनोंमें सुनिये। वह विषुवन्मण्डल तीन करोड़ इक्कीस लाख योजनके परिमाणवाला है। श्रवणनक्षत्रमें जब सूर्य उत्तर दिशामें चले जाते हैं, तब वे गोमेदद्वीपके बादवाले द्वीपकी उत्तर दिशामें भ्रमण करते हैं। अब उत्तर दिशाके मण्डलका तथा दक्षिण और उत्तरके मध्यभागका प्रमाण क्रमशः सुनिये। इनके मध्यमें जरद्रव, उत्तरमें ऐरावत और दक्षिणमें वैश्वानर नामक स्थान सिद्धान्ततः निर्दिष्ट किये गये हैं। उत्तर दिशामें सूर्यके मार्गको नागवीथी तथा दक्षिणदिशाके मार्गको अजवीथी कहते है॥ ४३-५२॥

नागवीथ्युत्तरा वीथी ह्यजवीथिस्तु दक्षिणा।
उभे आषाढमूलं तु अजवीथ्युदयास्त्रयः ॥ ५३

अभिजित्पूर्वतः स्वातिं नागवीथ्युदयास्त्रयः ।
अश्विनी कृत्तिका याम्या नागवीथ्यस्त्रयः स्मृताः ॥ ५४

रोहिण्यार्द्रा मृगशिरो नागवीथिरिति स्मृता।
पुष्यश्लेषापुनर्वस्वां वीथी चैरावती स्मृता ।। ५५

तिस्त्रस्तु वीथयो होता उत्तरो मार्ग उच्यते।
पूर्वउत्तरफाल्गुन्यौ मघा चैवार्षभी भवेत् ॥ ५६

पूर्वोत्तरप्रोष्ठपदौ गोवीथी रेवती स्मृता ।
श्रवणं च धनिष्ठा च वारणं च जरद्रवम् ।। ५७

एतास्तु वीथयस्तिस्त्रो मध्यमो मार्ग उच्यते।
हस्तश्चित्रा तथा स्वाती ह्यजवीथिरिति स्मृता ॥ ५८

ज्येष्ठा विशाखा मैत्रं च मृगवीथी तथोच्यते।
मूलं पूर्वोत्तराषाढे वीथी वैश्वानरी भवेत् ॥ ५९

स्मृतास्तिस्त्रस्तु वीथ्यस्ता मार्गे वै दक्षिणे पुनः ।
काष्ठयोरन्तरं चैतद् वक्ष्यते योजनैः पुनः ॥ ६०

एतच्छतसहस्त्राणामेकत्रिंशत्तु वै स्मृतम् ।
शतानि त्रीणि चान्यानि त्रयस्त्रिंशत्तथैव च ॥ ६१

काष्ठयोरन्तरं होतद् योजनानां प्रकीर्तितम् ।
काष्ठयोर्लेखयोश्चैव अयने दक्षिणोत्तरे ॥ ६२

ते वक्ष्यामि प्रसंख्याय योजनैस्तु निबोधत ।
एकैकमन्तरं तस्या नियुतान्येकसप्ततिः ॥ ६३

सहस्त्राण्यतिरिक्ता च ततोऽन्या पञ्चविंशतिः ।
लेखयोः काष्ठयोश्चैव बाह्याभ्यन्तरयोश्चरन् ।। ६४

अभ्यन्तरं स पर्येति मण्डलान्युत्तरायणे ।
बाह्यतो दक्षिणेनैव सततं सूर्यमण्डलम् ॥ ६५

चरन्नसावुदीच्यां च ह्यशीत्या मण्डलाच्छतम् । 
अभ्यन्तरं स पर्येति क्रमते मण्डलानि तु ॥ ६६

दोनों आषाढ़ अर्थात् पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़ और मूल- ये तीनों अजवीथी हैं। अभिजितु, श्रवण और स्वाती ये तीनों नागवीथी हैं। अश्विनी, भरणी और कृत्तिका-ये तीनों नागवीथी नामसे प्रसिद्ध हैं। रोहिणी, आर्द्रा और मृगशिरा भी नागवीथी कहलाते हैं। पुष्य, श्लेषा और पुनर्वसु ये तीनों ऐरावती वीथी कहे जाते हैं। ये तीनों वीथियाँ उत्तर दिशाका मार्ग कहलाती हैं। पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी और मथा ये तीनों 'आर्षभी' वीथी हैं। पूर्वभाद्रपद, उत्तरभाद्रपद और रेवती- ये तीनों 'गोवीथी' नामसे पुकारे जाते हैं। श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा- ये तीनों 'जरद्रववीथी' हैं। ये तीनों वीथियाँ मध्यम मार्ग कहलाती हैं। 

हस्त, चित्रा और स्वाती- ये तीनों' अजवीथी' कहलाते हैं। ज्येष्ठा, विशाखा और अनुराधा-ये 'मृगवोथी' कहलाते हैं। मूल, पूर्वाषाढ़ और उत्तराषाढ़-ये 'वैश्वानर' वीथी हैं। ये तीनों वीथियाँ दक्षिण-मार्गमें बतलायी गयी हैं। अब उत्तर और दक्षिण दोनों दिशाओंका अन्तर योजनोंमें बतला रहा हूँ। इन दोनों दिशाओंका अन्तर एकतीस लाख तीन हजार छः सौ योजन बतलाया जाता है। अब उत्तरायण और दक्षिणायन-कालमें दोनों दिशाओं और दोनों रेखाओंका अन्तर योजनोंमें परिगणित करके बतला रहा हूँ, सुनिये। उनमें एकसे दूसरीका अन्तर एकहत्तर लाख पचीस हजार योजन है। सूर्य दोनों दिशाओं और रेखाओंके बाहरी और भीतरी भागमें चक्कर लगाते हैं। यह सूर्यमण्डल सदा उत्तरायणमें मण्डलोंके भीतर और दक्षिणायनमें बाहरसे चक्कर लगाता है। उत्तर दिशामें विचरते हुए सूर्य एक सौ अस्सी मण्डलोंके भीतरसे गुजरते हुए उन्हें पार करते हैं॥ ५३-६६ ॥

प्रमाणं मण्डलस्यापि योजनानां निबोधत। 
योजनानां सहस्त्राणि दश चाष्टौ तथा स्मृतम् ॥ ६७

अधिकान्यष्टपञ्चाशद्योजनानि तु वै पुनः।
विष्कम्भो मण्डलस्यैव तिर्यक् स तु विधीयते ॥ ६८

अहस्तु चरते नाभेः सूर्यो वै मण्डलं क्रमात्। 
कुलालचक्रपर्यन्तो यथा चन्द्रो रविस्तथा ॥ ६९

दक्षिणे चक्रवत्सूर्यस्तथा शीघ्रं निवर्तते। 
तस्मात् प्रकृष्टां भूमिं तु कालेनाल्पेन गच्छति ॥ ७०

सूर्यो द्वादशभिः शीघ्रं मुहूर्तेर्दक्षिणायने। 
त्रयोदशार्धमृक्षाणां मध्ये चरति मण्डलम् ॥ ७१

मुहूर्तेस्तानि ऋक्षाणि नक्तमष्टादशैश्चरन् । 
कुलालचक्रमध्यस्थो यथा मन्दं प्रसर्पति ॥ ७२

उदग्याने तथा सूर्यः सर्पते मन्दविक्रमः । 
तस्माद् दीर्घेण कालेन भूमिं सोऽल्पां प्रसर्पति ।। ७३

सूर्योऽष्टादशभिरह्नो मुहूर्तरुदगायने ।
त्रयोदशानां मध्ये तु ऋक्षाणां चरते रविः।
मुहूर्तस्तानि ऋक्षाणि रात्रौ द्वादशभिश्चरन् ।। ७४

ततो मन्दतरं ताभ्यां चक्रं तु भ्रमते पुनः। 
मृत्पिण्ड इव मध्यस्थो भ्रमतेऽसौ ध्रुवस्तथा ॥ ७५

मुहूर्तस्त्रिंशता तावदहोरात्रं ध्रुवो भ्रमन् । 
उभयोः काष्ठयोर्मध्ये भ्रमते मण्डलानि तु ॥ ७६

अब मण्डलका प्रमाण योजनोंकी गणनामें सुनिये। इसका परिमाण अठारह हजार अट्ठावन योजन बतलाया जाता है। इस मण्डलका व्यास तिरछा जानना चाहिये। सूर्य दिनभर कुम्हारके चाककी तरह नाभिमण्डलपर चक्कर लगाते हैं। सूर्यकी भाँति चन्द्रमा भी वैसा ही भ्रमण करते हैं। उसी प्रकार दक्षिणायनमें भी सूर्य चाककी तरह शीघ्रतापूर्वक चलते हुए उसे पार करते हैं। इसी कारण वे इतनी विस्तृत भूमिको थोड़े ही समयमें पार कर जाते हैं। दक्षिणायनके समय सूर्य साढ़े तेरह नक्षत्रोंके मण्डलको शीघ्रतापूर्वक मध्यभागसे गुजरते हुए बारह मुहूतोंमें पार करते हैं, किंतु रातके समय उन्हीं नक्षत्रोंको पार करनेमें उन्हें अठारह मुहूर्त लगता है। जैसे कुम्हारके चाकके मध्यभागमें स्थित वस्तुकी गति मन्द हो जाती है, वैसे ही उत्तरायणके समय सूर्य मन्दगतिसे चलते हैं। इसी कारण थोड़ी-सी भूमि पार करनेमें उन्हें अधिक समय लगाना पड़ता है। उत्तरायणके समय सूर्य दिनके अठारह मुहूर्तमेिं तेरह नक्षत्रोंके मध्यमें विचरते हैं, किंतु रातमें उन्हीं नक्षत्रोंको पार करनेमें उन्हें बारह मुहूर्त लगते हैं। वह चक्र उन दोनों गतियोंसे मन्दतर गतिमें घूमता है। चाकके मध्यभागमें रखे हुए मृत्पिण्डकी तरह ध्रुव भी उस चक्रके मध्यमें स्थित होकर घूमते रहते हैं। ध्रुव तीस मुहूर्त अर्थात् दिन-रातभरमें दोनों दिशाओंके मध्यवर्ती मण्डलोंमें भ्रमण करते हैं॥ ६७-७६ ॥

उत्तरक्रमणेऽर्कस्य दिवा मन्दगतिः स्मृता।
तस्यैव तु पुनर्नक्तं शीघ्रा सूर्यस्य वै गतिः ॥ ७७

दक्षिणप्रक्रमे वापि दिवा शीघ्रं विधीयते।
गतिः सूर्यस्य वै नक्तं मन्दा चापि विधीयते ।। ७८

एवं गतिविशेषेण विभजन् रात्र्यहानि तु। 
अजवीथ्यां दक्षिणायां लोकालोकस्य चोत्तरम् ।। ७९

लोकसंतानतो होष वैश्वानरपथाद् बहिः। 
व्युष्टिर्यावत्प्रभा सौरी पुष्करात् सम्प्रवर्तते ॥ ८०

पार्श्वेभ्यो बाह्यतस्तावल्लोकालोकश्च पर्वतः । 
योजनानां सहस्त्राणि दशोध्र्ध्वं चोच्छितो गिरिः ॥ ८१

प्रकाशश्चाप्रकाशश्च पर्वतः परिमण्डलः । 
नक्षत्रचन्द्रसूर्याश्च ग्रहास्तारागणैः सह ॥ ८२

अभ्यन्तरे प्रकाशन्ते लोकालोकस्य वै गिरेः ।
एतावानेव लोकस्तु निरालोकस्ततः परम् ॥ ८३

लोक आलोकने धातुर्निरालोकस्त्वलोकता। 
लोकालोकौ तु संधत्ते तस्मात्सूर्यः परिभ्रमन् ॥ ८४

तस्मात् संध्येति तामाहुरुषाव्युष्टैर्यथान्तरम् । 
उषा रात्रिः स्मृता विप्रैर्युष्टिश्चापि अहः स्मृतम् ॥ ८५

उत्तरायणके समय दिनमें सूर्यकी गति मन्द और रात्रिके समय उन्हीं सूर्यकी गति तेज बतलायी गयी है। उसी तरह दक्षिणायन-कालमें सूर्यकी गति दिनमें तेज और रात्रिमें मन्द कही गयी है। इस प्रकार अपनी विशेष गतिसे रात-दिनका विभाजन करते हुए सूर्य दक्षिण दिशामें अजवीथीसे गुजरते हुए लौकालोक पर्वतकी उत्तर दिशामें पहुँचते हैं। वहाँसे लोक-संतानक और वैश्वानर नामक पर्वतोंके बाहरी मार्गसे चलते हुए वे पुष्करद्वीपपर पहुँचते हैं। वहाँ सूर्यकी प्रभातकालिकी प्रभा होती है। इस मार्गक पार्श्वभागमें लोकालोक पर्वत पड़ता है, जो दस हजार योजन ऊँचा है। यह पर्वत मण्डलाकार है और इसका एक भाग प्रकाशयुक्त एवं दूसरा भाग तिमिराच्छन रहता है। इस लोकालोक पर्वतके भीतर सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र और तारागणोंके साथ सभी ग्रह प्रकाशित होते हैं। इस प्रकार जहाँतक प्रकाश होता है, उतनेको ही लोक माना गया है और शेष भाग निरालोक (तमसाच्छत्र) है। 'लोकृ' धातुका अर्थ दर्शन अर्थात् आलोकन है, इसलिये जो आलोक दृष्टिपथसे दूर है, वह अनालोकता है। सूर्य परिभ्रमण करते हुए जिस समय लोकालोकपर्वत (प्रकाशित और अप्रकाशित प्रदेशको संधि) पर पहुँचते हैं, उस समयको संध्या कहते हैं। उषःकाल और व्युष्टिमें अन्तर है। ब्राह्मणोंने उषःकालको रात्रिमें और व्युष्टिको दिनमें परिगणित किया है॥ ७७-८५ ॥

त्रिंशत्कलो मुहूर्तस्तु अहस्ते दश पञ्च च। 
ह्रासो वृद्धिरहर्भागैर्दिवसानां यथा तु वै॥ ८६

संध्यामुहूर्तमात्रायां ह्रासवृद्धी तु ते स्मृते। 
लेखाप्रभृत्यथादित्ये त्रिमुहूर्तागते तु वै ॥ ८७

प्रातः स्मृतस्ततः कालो भागांश्चाहुश्च पञ्च च। 
तस्मात् प्रातर्गतात् कालान्मुहूर्ताः सङ्गवस्त्रयः ।। ८८

मध्याह्नस्त्रिमुहूर्तस्तु तस्मात् कालादनन्तरम्। 
तस्मान्मध्यंदिनात् कालादपराह्न इति स्मृतः ॥ ८९

त्रय एव मुहूर्तास्तु काल एष स्मृतो बुधैः। 
अपराह्नव्यतीताच्च कालः सायं स उच्यते ॥ ९०

दश पञ्च मुहूर्ताह्रो मुहूर्तास्त्रय एव च।
दश पञ्चमुहूर्त वै अहस्तु विषुवे स्मृतम् ॥ ९१

वर्धत्यतो हृसत्येव अयने दक्षिणोत्तरे।
अहस्तु ग्रसते रात्रिं रात्रिस्तु ग्रसते अहः ॥ ९२

शरद्वसन्तयोर्मध्यं विषुवं तु विधीयते। 
आलोकान्तः स्मृतो लोको लोकाच्चालोक उच्यते ॥ ९३

लोकपालाः स्थितास्तत्र लोकालोकस्य मध्यतः । 
चत्वारस्ते महात्मानस्तिष्ठन्त्याभूतसम्प्लवम् ।। ९४

सुधामा चैव वैराजः कर्दमश्च प्रजापतिः । 
हिरण्यरोमा पर्जन्यः केतुमान् राजसश्च सः ॥ ९५

निर्द्वन्द्वा निरभिमाना निस्तन्द्रा निष्परिग्रहाः । 
लोकपालाः स्थितास्त्वेते लोकालोके चतुर्दिशम् ।। ९६

तीस कलाका एक मुहूर्त होता है और एक दिनमें पंद्रह मुहूर्त होते हैं। जिस प्रकार अहर्गणके हिसाबसे दिनोंकी हास-वृद्धि होती है, उसी तरह संध्याके मुहूर्तमें भी ह्रास वृद्धि माने गये हैं। तीन-तीन मुहूतोंके हिसाबसे दिनके पाँच भाग माने गये हैं। सूर्योदय होनेके पश्चात् तीन मुहूर्ततकका काल प्रातः काल कहा जाता है। उस प्रातः कालके व्यतीत होनेपर तीन मुहूर्ततकका समय संगवकाल कहलाता है। उस संगवकालके बाद तीन मुहूर्ततक मध्याह्न नामसे अभिहित होता है। उस मध्याह्नकालके बादका समय अपराह्न कहा जाता है। इसका भी समय विद्वानोंने तीन मुहूर्त ही माना है। अपराह्नके बीत जानेके बादका काल सायं कहलाता है। 

इस प्रकार पंद्रह मुहूर्तीका दिन तीन- तीन मुहूर्तकि हिसाबसे पाँच भागोंमें विभक्त है। इसी प्रकार (रातमें भी १५ मुहूर्त होती है) दोनों विषुवोंमें (ठीक) पंद्रह मुहूर्तका दिन होता है- शरद् और वसन्त ऋतुओंके मध्य (मेष-तुलासंक्रान्ति) का समय विषुव कहलाता है, उत्तरायणमें दिन रात्रिको दक्षिणायनमें रात्रि दिनको ग्रसती है। जहाँतक सूर्यका प्रकाश पहुँचता है, उसे लोक कहते हैं और उस लोकके बाद जो तमसाच्छन्न प्रदेश है, उसे अलोक कहा जाता है। इसी लोक और अलोकके मध्यमें स्थित (लोकालोक) पर्वतपर चारों लोकपाल महाप्रलयपर्यन्त निवास करते हैं। उनके नाम हैं-वैराज सुधामा, प्रजापति कर्दम, पर्जन्य हिरण्यरोमा और राजस केतुमान्। ये सभी लोकपाल सुख-दुःख आदि द्वन्द्व, अभिमान, आलस्य और परिग्रहसे रहित होकर लोकालोकके चारों दिशाओंमें स्थित हैं॥ ८६-९६ ॥

उत्तरं यदगस्त्यस्य शृङ्गं देवर्षिसेवितम् । 
पितृयाणः स्मृतः पन्था वैश्वानरपथाद् बहिः ॥ ९७

तत्रासते प्रजाकामा ऋषयो येऽग्निहोत्रिणः । 
लोकस्य संतानकराः पितृयाणे पथि स्थिताः ॥ ९८

भूतारम्भकृतं कर्म आशिषश्च विशाम्पते। 
प्रारभन्ते लोककास्मैतेषां पन्थाः स दक्षिणः ॥ ९९

चलितं ते पुनर्धर्म स्थापयन्ति युगे युगे। 
संतप्ततपसा चैव मर्यादाभिः श्रुतेन च ॥ १००

जायमानास्तु पूर्वे वै पश्चिमानां गृहेषु ते। 
पश्चिमाश्चैव पूर्वेषां जायन्ते निधनेष्विह ।। १०१

एवमावर्तमानास्ते वर्तन्त्याभूतसम्प्लवम् । 
अष्टाशीतिसहस्त्राणि ऋषीणां गृहमेधिनाम् ॥ १०२

सवितुर्दक्षिणं मार्गमाश्रित्याभूतसम्प्लवम् ।
क्रियावतां प्रसंख्यैषा ये श्मशानानि भेजिरे ॥ १०३

लोकसंव्यवहारार्थं भूतारम्भकृतेन च। 
इच्छाद्वेषरताच्चैव मैथुनोपगमाच्च वै ॥ १०४

तथा कामकृतेनेह सेवनाद् विषयस्य च। 
इत्येतैः कारणैः सिद्धाः श्मशानानीह भेजिरे ॥ १०५

लोकालोक पर्वतका जो उत्तरी शिखर है, वह अगस्त्यशिखर कहलाता है। देवर्षिगण उसका सेवन करते हैं। वह वैश्वानर-मार्गसे बाहर है और पितृयाण-मार्गके नामसे प्रसिद्ध है। उस पितृयाण मार्गपर प्रजाभिलाषी अग्निहोत्री तथा लोगोंको संतान प्रदान करनेवाले ऋषिगण निवास करते हैं। राजन् । लौकिक कामनाओंसे युक्त वे ऋषिगण अपने आशीर्वादके प्रयोगसे प्राणियोंद्वारा आरम्भ किये गये कर्मको सफल बनाते हैं। उनका मार्ग दक्षिणायनमें है। वे प्रत्येक युगमें अपनी उग्र तपस्या तथा धर्मशास्त्रकी मर्यादाद्वारा मर्यादासे स्खलित हुए धर्मकी पुनः स्थापना करते हैं। इनमें जो पहले उत्पन्न हुए थे, वे अपनेसे पीछे उत्पन्न होनेवालोंके घरोंमें जन्म लेते हैं और पीछे उत्पन्न होनेवाले मृत्युके पश्चात् पूर्वजोंके गृहोंमें चले जाते हैं। इस प्रकार वे प्रलयपर्यन्त आवागमनके चक्करमें पड़े रहते हैं। इन क्रियानिष्ठ गृहस्थ ऋषियोंकी संख्या अठासी हजार है। ये सूर्यके दक्षिण मार्गका आश्रय लेकर प्रलयपर्यन्त स्थित रहते हैं। उन्हें श्मशानकी शरण लेनी पड़ती है अर्थात् ये मृत्युभागी होते हैं। लोक-व्यवहारकी रक्षाके लिये प्राणियोंद्वारा आरम्भ किये गये कर्मोंकी पूर्ति, इच्छा, द्वेषपरता, स्त्री- सहवास तथा स्वेच्छापूर्वक सांसारिक विषयभोगोंका सेवन-इन्हीं कारणोंसे उन ऋषियोंको इस लोकमें सिद्ध होते हुए भी श्मशानमें जाना पड़ता है ॥ ९७-१०५ ॥

प्रजैषिणः सप्तर्षयो द्वापरेष्विह जज्ञिरे। 
संततिं ते जुगुप्सन्ते तस्मान्मृत्युजितस्तु तैः ॥ १०६

अष्टाशीतिसहस्त्राणि तेषामप्यूर्ध्वरेतसाम् ।
उदक्पन्थानमाश्रित्य तिष्ठन्त्याभूतसम्प्लवम् ॥ १०७

ते सम्प्रयोगाल्लोकस्य मिथुनस्य च वर्जनात् ।
ईर्ष्याद्वेषनिवृत्त्या च भूतारम्भविवर्जनात् ॥ १०८

इत्येतैः कारणैः शुद्धैस्तेऽमृतत्वं हि भेजिरे ॥ १०९

ततोऽन्यकामसंयोगशब्दादेदर्दोषदर्शनात् ।
आभूतसम्प्लवस्थानाममृतत्वं विभाव्यते। 
त्रैलोक्यस्थितिकालो हि न पुनर्मारगामिणाम् ॥ ११०

ब्रह्महत्याश्वमेधाभ्यां पुण्यपापकृतोऽपरम्। 
आभूतसम्प्लवान्ते तु क्षीयन्ते चोवरतसः ॥ १११

ऊध्र्वोत्तरमृषिभ्यस्तु ध्रुवो यत्रानुसंस्थितः ।
एतद् विष्णुपदं दिव्यं तृतीयं व्योग्नि भास्वरम् ॥ ११२

यत्र गत्वा न शोचन्ति तद्विष्णोः परमं पदम् ।
धर्मे ध्रुवस्य तिष्ठन्ति ये तु लोकस्य का‌ङ्क्षिणः ॥ ११३

द्वापरयुगमें प्रजाभिलाषी सात ऋषि इस मृत्युलोकमें उत्पन्न हुए थे, किंतु आगे चलकर उन्हें संततिसे घृणा हो गयी, जिससे उन्होंने मृत्युको जीत लिया। इन ऊर्ध्वरता ऋषियोंकी संख्या अठासी हजार है। ये सूर्यके उत्तर मार्गका आश्रय लेकर प्रलयपर्यन्त विद्यमान रहते हैं। वे लोक-कल्याणकर्ता, स्त्री-पुरुष सम्पर्करहित, ईर्ष्या, द्वेष आदिसे निवृत्त, प्राणियोंद्वारा आरम्भ किये गये कर्मोके त्यागी तथा अन्यान्य कामसम्बन्धी वासनामय शब्दोंमें दोषदर्शी होते हैं। इन शुद्ध कारणोंसे सम्पन्न होनेके कारण उन्हें अमरताकी प्राप्ति हुई। प्रलयपर्यन्त स्थित रहनेवाले नैष्ठिक ऋषियोंका त्रिलोकीकी स्थितितक वर्तमान रहना अमरत्व कहलाता है। 

यह कामासक्त व्यक्तियोंको नहीं प्राप्त होता। ब्रह्महत्याजन्य पाप और अश्वमेधजन्य पुण्यसे ही इनमें अन्तर आता है। (भाव यह कि जैसे घोर पाप और महान् पुण्य प्रलयपर्यन्त जीवात्माके साथ लगे रहते हैं, बीचमें नष्ट नहीं होते, वैसे ही ऊज्वरताका शरीर भी तबतक स्थित रहता है।) सप्तर्षिमण्डलके ऊपर उत्तर दिशामें जहाँ ध्रुवका निवास है, वहीं भगवान् विष्णुका तीसरा दिव्य पद स्थित हुआ था, जो (अब भी) आकाशमें उद्भासित होता रहता है। भगवान् विष्णुके उस परमपदको प्राप्त कर लेनेपर जीवोंको शोक नहीं करना पड़ता। इसलिये जिन्हें ध्रुवलोक प्राप्त करनेकी आकाङ्क्षा होती है, वे सदा धर्म-सम्पादनमें ही लगे रहते हैं॥ १०६-११३॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे भुवनकोशे चन्द्रसूर्यभुवनविस्तारो नाम चतुर्विशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२४॥

इस प्रकार श्रीमत्स्य महा पुराण के भुवनकोश-वर्णन-प्रसङ्गमें चन्द्र-सूर्य-भुवन-विस्तार नामक एक सौ चौबीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १२४॥

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