मत्स्य पुराण सौवाँ अध्याय
विभूति द्वादशी के प्रसङ्ग में राजा पुष्प वाहन का वृत्तान्त
नन्दिकेश्वर उवाच
पुरा रथन्तरे कल्पे राजाऽऽसीत् पुष्पवाहनः ।
नाम्ना लोकेषु विख्यातस्तेजसा सूर्यसंनिभः ॥ १
नन्दिकेश्वर बोले- नारदजी। बहुत पहले रथन्तरकल्प में पुष्पवाहन नामका एक राजा हुआ था जो सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात तथा तेजमें सूर्यके समान था।
तपसा तस्य तुष्टेन चतुर्वक्कत्रेण नारद।
कमलं काञ्चनं दत्तं यथाकामगमं मुने ॥ २
लोकैः समस्तैर्नगरवासिभिः सहितो नृपः।
द्वीपानि सुरलोकं च यथेष्टं व्यचरत् तदा ॥ ३
कल्पादौ सप्तमं द्वीपं तस्य पुष्करवासिनः ।
लोकेन पूजितं यस्मात् पुष्करद्वीपमुच्यते ॥ ४
देवेन ब्रह्मणा दत्तं यानमस्य यतोऽम्बुजम् ।
पुष्पवाहनमित्याहुस्तस्मात् तं देवदानवाः ॥५
नागम्यमस्यास्ति जगत्त्रयेऽपि ब्रह्माम्बुजस्थस्य तपोऽनुभावात् ।
पत्नी च तस्याप्रतिमा मुनीन्द्र नारीसहस्त्रैरभितोऽभिनन्द्या ।
नाम्रा च लावण्यवती बभूव सा पार्वतीवेष्टतमा भवस्य ।। ६
तस्यात्मजानामयुतं बभूव धर्मात्मनामग्यधनुर्धराणाम् ।
सोऽभ्यागतं वीक्ष्य मुनिप्रवीरं प्राचेतसं वाक्यमिदं बभाषे ॥ ७
मुने। उसकी तपस्यासे संतुष्ट होकर ब्रह्माने उसे एक सोनेका कमल (रूप विमान) प्रदान किया था, जो इच्छानुसार जहाँ-कहीं भी आ-जा सकता था। उसे पाकर उस समय राजा पुष्पवाहन अपने नगर एवं जनपदवासियोंके साथ उसपर आरूढ़ होकर स्वेच्छानुसार देवलोकों तथा सातों द्वीपोंमें विचरण किया करता था। कल्पके आदिमें पुष्करनिवासी उस पुष्पवाहनका सातवें द्वीपपर अधिकार था, इसीलिये लोकमें उसकी प्रतिष्ठा थी और आगे चलकर वह द्वीप पुष्करद्वीप नामसे कहा जाने लगा। चूँकि देवेश्वर ब्रह्माने इसे कमलरूप विमान प्रदान किया था, इसलिये देवता एवं दानव उसे पुष्पवाहन कहा करते थे। तपस्याके प्रभावसे ब्रह्माद्वारा प्रदत्त कमलरूप विमानपर आरूढ़ होनेपर उसके लिये त्रिलोकीमें भी कोई स्थान अगम्य न था। मुनीन्द्र ! उसकी पल्लीका नाम लावण्यवती था। वह अनुपम सुन्दरी थी तथा हजारों नारियोंद्वारा चारों ओरसे समादृत होती रहती थी। वह राजाको उसी प्रकार अत्यन्त प्यारी थी, जैसे शंकरजीको पार्वती परम प्रिय हैं। उसके दस हजार पुत्र थे, जो परम धार्मिक और धनुर्धारियोंमें अग्रगण्य थे। अपनी इन सारी विभूतियोंपर बारम्बार विचारकर राजा पुष्पवाहन विस्मयविमुग्ध हो जाता था। एक बार (प्रचेताके पुत्र) मुनिवर वाल्मीकि राजाके यहाँ पधारे। उन्हें आया देख राजाने उनसे इस प्रकार प्रश्न किया ॥१-७॥
राजीवाच
कस्माद् विभूतिरमलामरमर्त्यपूज्या जाता च सर्वविजितामरसुन्दरीणाम्।
भार्या ममाल्पतपसा परितोषितेन दत्तं ममाम्बुजगृहं च मुनीन्द्र धात्रा ॥ ८
यस्मिन् प्रविष्टमपि कोटिशतं नृपाणां सामात्यकुञ्जररथौघजनावृतानाम् ।
नो लभ्यते व गतमम्बरगामिभिश्च तारागणेन्दुरविरश्मिभिरप्यगम्यम् ॥ ९
तस्मात् किमन्यजननीजठरोद्भवेन धर्मादिकं कृतमशेषफलाप्तिहेतुः ।
भगवन् मयाथ तनयैरथवानयापि भद्रं यदेतदखिलं कथय प्रचेतः ॥ १०
राजाने पूछा- मुनीन्द्र! किस कारणसे मुझे यह देवों तथा मानवोंद्वारा पूजनीय निर्मल विभूति तथा अपने सौन्दर्यसे समस्त देवाङ्गनाओंको पराजित कर देनेवाली सुन्दरी भार्या प्राप्त हुई है? मेरे थोड़े से तपसे संतुष्ट होकर ब्रह्माने मुझे ऐसा कमल-गृह क्यों प्रदान किया, जिसमें अमात्य, हाथी, रथसमूह और जनपदवासियोंसहित यदि सौ करोड़ राजा बैठ जायँ तो वे जान नहीं पड़ते कि कहाँ चले गये। वह विमान भी आकाशगामी देवताओंद्वारा केवल चमकीले ताराओंसे घिरे हुए चन्द्रमाकी भाँति दीख पड़ता है। इसलिये इस सम्पूर्ण फलकी प्राप्तिके लिये अन्य माताके उदरसे उत्पन्न होकर अर्थात् पूर्वजन्ममें मैंने अथवा मेरे पुत्रोंने या मेरी इस पत्नीने कौन-सा ऐसा शुभ धर्म आदि कार्य किया है? प्रचेतः ! यह सारा-का-सारा विषय मुझे बतलाइये ॥ ८-१० ॥
मुनिरभ्यधादथ भवान्तरितं समीक्ष्य पृथ्वीपतेः प्रसभमद्भुतहेतुवृत्तम् ।
जन्माभवत् तव तु लुब्धकुलेऽतिघोरे जातस्त्वमप्यनुदिनं किल पापकारी ॥ ११
वपुरप्यभूत् तव पुनः परुषाङ्गसंधि- दुर्गन्धसत्त्वकुनखाभरणं समन्तात् ।
न च ते सुहृन्न सुतबन्धुजनो न तात- स्त्वादृक् स्वसा न जननी च तदाभिशस्ता ॥ १२
अतिसम्मता परमभीष्टतमाभिमुखी जाता महीश तव योषिदियं सुरूपा।
अभूदनावृष्टिरतीव रौद्रा कदाचिदाहारनिमित्तमस्मिन् ।
क्षुत्पीडितेनाथ तदा न किञ्चि- दासादितं वन्यफलादि खाद्यम् ॥ १३
अथाभिदृष्ट महदम्बुजाकां सरोवरं पङ्कजषण्डमण्डितम् ।
पद्यान्यथादाय ततो बहूनि गतः पुरं वैदिशनामधेयम् ॥ १४
तदनन्तर महर्षि वाल्मीकि राजाके इस आकस्मिक एवं अद्भुत प्रभावपूर्ण वृत्तान्तको जन्मान्तरसे सम्बन्धित जानकर इस प्रकार कहने लगे- राजन् । तुम्हारा पूर्वजन्म अत्यन्त भीषण व्याधके कुलमें हुआ था। एक तो तुम उस कुलमें पैदा हुए, फिर दिन-रात पापकर्ममें भी निरत रहते थे। तुम्हारा शरीर भी कठोर अङ्गसंधियुक्त तथा बेडौल था। तुम्हारी त्वचा दुर्गन्धयुक्त और नख बहुत बढ़े हुए थे। उससे दुर्गन्ध निकलती थी और वह बड़ा कुरूप था। उस जन्ममें न तो तुम्हारा कोई हितैषी मित्र था, न पुत्र और भाई-बन्धु ही थे, न पिता माता और बहन ही थी। भूपाल! केवल तुम्हारी यह परम प्रियतमा पत्नी ही तुम्हारी अभीष्ट परमानुकूल संगिनी थी। एक बार कभी बड़ी भयंकर अनावृष्टि हुई, जिसके कारण अकाल पड़ गया। उस समय भूखसे पीड़ित होकर तुम आहारकी खोजमें निकले, परंतु तुम्हें कोई जंगली (कन्दमूल) फल आदि कुछ भी खाद्य वस्तु प्राप्त न हुई। इतनेमें ही तुम्हारी दृष्टि एक सरोवरपर पड़ी, जो कमलसमूहसे मण्डित था। उसमें बड़े-बड़े कमल खिले हुए थे। तब तुम उसमें प्रविष्ट होकर बहुसंख्यक कमल पुष्पोंको लेकर वैदिश नामक नगर (विदिशा नगरी) में चले गये ॥ ११-१४॥
तन्मूल्यलाभाय पुरं समस्तं भ्रान्तं त्वयाशेषमहस्तदासीत् ।
क्रेता न कश्चित् कमलेषु जातः क्लान्तो भृशं क्षुत्परिपीडितश्च ॥ १५
उपविष्टस्त्वमेकस्मिन् सभार्यों भवनाङ्गणे।
अथ मङ्गलशब्दश्च त्वया रात्रौ महाश्रुतः ॥ १६
सभार्यस्तत्र गतवान् यत्रासौ मङ्गलध्वनिः ।
तत्र मण्डपमध्यस्था विष्णोरर्चा विलोकिता ॥ १७
वेश्यानङ्गवती नाम विभूतिद्वादशीव्रतम् ।
समाप्तौ माघमासस्य लवणाचलमुत्तमम् ॥ १८
निवेदयन्ती गुरवे शय्यां चोपस्करान्विताम्।
अलङ्कृत्य हृषीकेशं सौवर्णामरपादपम् ॥ १९
तां तु दृष्ट्वा ततस्ताभ्यामिदं च परिचिन्तितम् ।
किमेभिः कमलैः कार्यं वरं विष्णुरलङ्कृतः ॥ २०
इति भक्तिस्तदा जाता दम्पत्योस्तु नराधिप।
तत्प्रसङ्गात् समभ्यर्च्य केशवं लवणाचलम्।
शय्या च पुष्पप्रकरैः पूजिताभूच्य सर्वतः ॥ २१
वहाँ तुमने उन कमल पुष्पोंको बेचकर मूल्य- प्राप्तिके हेतु पूरे नगरमें चक्कर लगाया। सारा दिन बीत गया, पर उन कमल पुष्पोंका कोई खरीददार न मिला। उस समय तुम भूखसे अत्यन्त व्याकुल और थकावटसे अतिशय क्लान्त चूर होकर पत्नीसहित एक महलके प्राङ्गणमें बैठ गये। वहाँ रात्रिमें तुम्हें महान् मङ्गल शब्द सुनायी पड़ा। उसे सुनकर तुम पत्नीसहित उस स्थानपर गये, जहाँ वह मङ्गल शब्द हो रहा था। वहाँ मण्डपके मध्यभागमें भगवान् विष्णुको पूजा हो रही थी। तुमने उसका अवलोकन किया। वहाँ अनङ्गवती नामकी वेश्या माधमासकी विभूतिद्वादशी व्रतकी समाप्ति कर अपने गुरुको भगवान् हृषीकेशका विधिवत् श्रृङ्गार कर स्वर्णमय कल्पवृक्ष, श्रेष्ठ लवणाचल और समस्त उपकरणॉसहित शय्याका दान कर रही थी। इस प्रकार पूजा करती हुई अनङ्गवतीको देखकर तुम दोनोंके मनमें यह विचार जाग्रत् हुआ कि इन कमलपुष्पोंसे क्या लेना है। अच्छा तो यह होता कि इनसे भगवान् विष्णुका शृङ्गार किया जाता। नरेश्वर! उस समय तुम दोनों पति-पत्नीके मनमें ऐसी भक्ति उत्पन्न हुई और इसी अचर्चाक प्रसङ्गमें तुम्हारे उन पुष्पोंसे भगवान् केशव और लवणाचलकी अर्चना सम्पन्न हुई तथा शेष पुष्प-समूहोंसे तुम दोनोंद्वारा शय्याको भी सब ओरसे सुसज्जित किया गया ॥ १५-२१॥
अथानङ्गवती तुष्टा तयोर्धनशतत्रयम् ।
दीयतामादिदेशाथ कलधौतशतत्रयम् ॥ २२
न गृहीतं ततस्ताभ्यां महासत्त्वावलम्बनात् ।
अनङ्गवत्या च पुनस्तयोरन्त्रं चतुर्विधम् ।
आनीय व्याहृतं चात्र भुज्यतामिति भूपते ॥ २३
ताभ्यां तु तदपि त्यक्तं भोक्ष्यावः श्वो वरानने।
प्रसङ्गादुपवासेन तवाद्य सुखमावयोः ॥ २४
जन्मप्रभृति पापिष्ठौ कुकर्माणौ दृढव्रते।
प्रसङ्गात् तव सुश्रोणि धर्मलेशोस्तु नाविह ॥ २५
इति जागरणं ताभ्यां तत्प्रसङ्गादनुष्ठितम् ।
प्रभाते च तया दत्ता शय्या सलवणाचला ॥ २६
ग्रामाश्च गुरवे भक्त्या विप्रेभ्यो द्वादशैव तु।
वस्त्रालङ्कारसंयुक्ता गावश्च कनकान्विताः ॥ २७
भोजनं च सुहृन्मित्रदीनान्धकृपणैः समम् ।
तच्च लुब्धकदाम्पत्यं पूजयित्वा विसर्जितम् ॥ २८
तुम्हारी इस क्रियासे अनङ्गवती बहुत प्रसन्न हुई। उस समय उसने तुम दोनोंको इसके बदले तीन सौ अशर्फियाँ देनेका आदेश दिया, पर तुम दोनोंने बड़ी दृढ़तासे उस धन राशिको अस्वीकार कर दिया नहीं लिया। भूपते। तब अनङ्गवतीने तुम्हें (भक्ष्य, भोज्य, लेहा, चोष्य) चार प्रकारका अन्न लाकर दिया और कहा- 'इसे भोजन कीजिये', किंतु तुम दोनोंने उसका भी त्याग कर दिया और कहा- 'वरानने। हमलोग कल भोजन कर लेंगे। दृढव्रते! हम दोनों जन्मसे ही पापपरायण और कुकर्म करनेवाले हैं; पर इस समय तुम्हारे उपवासके प्रसङ्गसे हम दोनोंको भी विशेष आनन्द प्राप्त हो रहा है।' उसी प्रसङ्गमें तुम दोनोंको धर्मका लेशांश प्राप्त हुआ था और उसी प्रसङ्गमें तुम दोनोंने रातभर जागरण भी किया। (दूसरे दिन) प्रातःकाल अनङ्गवतीने भक्तिपूर्वक अपने गुरुको लवणाचलसहित शय्या और अनेकों गाँव प्रदान किये। उसी प्रकार उसने अन्य बारह ब्राह्मणोंको भी सुवर्ण, वस्त्र, अलंकारादि सहित बारह गायें प्रदान कीं। तदनन्तर सुहृद्, मित्र, दीन, अन्धे और दरिद्रोंके साथ तुम लुब्धक दम्पतिको भोजन कराया और विशेष आदर-सत्कारके साथ तुम्हें विदा किया ॥ २२-२८॥
स भर्वांल्लुब्धको जातः सपत्नीको नृपेश्वरः ।
पुष्करप्रकरात् तस्मात् केशवस्य च पूजनात् ॥ २९
विनष्टाशेषपापस्य तव पुष्करमन्दिरम्।
तस्य सत्त्वस्य माहात्म्यादलोभतपसा नृप ॥ ३०
प्रादात्तु कामगं यानं लोकनाथश्चतुर्मुखः ।
संतुष्टस्तव राजेन्द्र ब्रह्मरूपी जनार्दनः ॥ ३१
साप्यनङ्गवती वेश्या कामदेवस्य साम्प्रतम् ।
पत्नी सपत्नी संजाता रत्याः प्रीतिरिति श्रुता।
लोकेष्वानन्दजननी सकलामरपूजिता ॥ ३२
तस्मादुत्सृज्य राजेन्द्र पुष्करं तन्महीतले।
गङ्गातटं समाश्रित्य विभूतिद्वादशीव्रतम् ।
कुरु राजेन्द्र निर्वाणमवश्यं समवाप्स्यसि ॥ ३३
राजेन्द्र ! वह सपत्नीक लुब्धक तुम्हीं थे, जो इस समय राजराजेश्वरके रूपमें उत्पन्न हुए हो। उस कमल- समूहसे भगवान् केशवका पूजन होनेके कारण तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो गये तथा दृढ़ त्याग, तप एवं निर्लोभिताके कारण तुम्हें इस कमलमन्दिरकी भी प्राप्ति हुई है। राजन् तुम्हारी उसी सात्त्विक भावनाके माहात्म्यसे, तुम्हारे थोड़े- से ही तपसे ब्रह्मरूपी भगवान् जनार्दन तथा लोकेश्वर ब्रह्मा भी संतुष्ट हुए हैं। इसीसे तुम्हारा पुष्कर-मन्दिर स्वेच्छानुसार जहाँ-कहीं भी जानेकी शक्तिसे युक्त है। वह अनङ्गवती वेश्या भी इस समय कामदेवकी पत्नी रति के सौतरूपमें उत्पन्न हुई है। यह इस समय प्रीति नामसे विख्यात है और समस्त लोकोंमें सबको आनन्द प्रदान करती तथा सम्पूर्ण देवताओंद्वारा सत्कृत है। इसलिये राजराजेश्वर। तुम उस पुष्कर-गृहको भूतलपर छोड़ दो और गङ्गातटका आश्रय लेकर विभूतिद्वादशी व्रतका अनुष्ठान करो। उससे तुम्हें निश्चय ही मोक्षकी प्राप्ति हो जायगी ॥ २९-३३॥
नन्दिकेश्वर उवाच
इत्युक्त्वा स मुनिर्ब्रहांस्तत्रैवान्तरधीयत।
राजा यथोक्तं च पुनरकरोत् पुष्पवाहनः ।। ३४
इदमाचरतो ब्रह्मन्नखण्डव्रतमाचरेत् ।
यथाकथञ्चित् कमलैर्द्वादश द्वादशीर्मुने ॥ ३५
कर्तव्याः शक्तितो देया विप्रेभ्यो दक्षिणानघ।
न वित्तशाठ्यं कुर्वीत भक्त्या तुष्यति केशवः ॥ ३६
इति कलुषविदारणं जनाना- मपि पठतीह शृणोति चाथ भक्त्या।
मतिमपि च ददाति देवलोके वसति स कोटिशतानि वत्सराणाम् ॥ ३७
नन्दिकेश्वर बोले- ब्रह्मन् ! ऐसा कहकर प्रचेता मुनि वहीं अन्तर्हित हो गये। तब राजा पुष्पवाहनने मुनिके कथनानुसार सारा कार्य सम्पन्न किया। ब्रह्मन् ! इस विभूतिद्वादशी व्रतका अनुष्ठान करते समय अखण्ड व्रतका पालन करना आवश्यक है। मुने। जिस किसी भी प्रकारसे हो सके, बारहों द्वादशियोंका व्रत कमलपुष्पोंद्वारा सम्पन्न करना चाहिये। अनघ। अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणोंको दक्षिणा भी देनेका विधान है। इसमें कृपणता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि भक्तिसे ही भगवान् केशव प्रसन्न होते हैं। जो मनुष्य लोगोंके पापोंको विदीर्ण करनेवाले इस व्रतको पढ़ता या श्रवण करता है, अथवा इसे करनेके लिये सम्मति प्रदान करता है वह भी सौ करोड़ वर्षीतक देवलोकमें निवास करता है ॥३४-३७॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे विभूतिद्वादशीव्रतं नाम शततमोऽध्यायः ॥ १०० ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें विभूतिद्वादशी व्रत नामक सौवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १०० ॥
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