मत्स्य पुराण उनसठवाँ अध्याय
वृक्ष लगाने की विधि
ऋषय ऊचुः
पादपानां विधिं सूत यथावद् विस्तराद् वद।
विधिना केन कर्तव्यं पादपोद्यापनं बुधैः ।
ये च लोकाः स्मृतास्तेषां तानिदानीं वदस्व नः ॥ १
ऋषियोंने पूछा- सूतजी। अब आप हमें विस्तारके साथ वृक्ष लगानेकी यथार्थ विधि बतलाइये। विद्वानोंको किस विधि से वृक्ष लगाने चाहिये तथा वृक्षारोपण करने वालों के लिये जिन लोकों की प्राप्ति बतलायी गयी है, उन्हें भी आप इस समय हम लोगों को बतलाइये ॥ १॥
सूत उवाच
पादपानां विधिं वक्ष्ये तथैवोद्यानभूमिषु।
तडागविधिवत् सर्वमासाद्य जगदीश्वर ॥ २
ऋत्विमण्डपसम्भारमाचार्यं चैव तद्विधम् ।
पूजयेद् ब्राह्मणांस्तद्वद्धेमवस्त्रानुलेपनैः ॥ ३
सर्वोषध्युदकैः सिक्तान् दध्यक्षतविभूषितान्।
वृक्षान् माल्यैरलङ्कृत्य वासोभिरभिवेष्टयेत् ॥ ४
सूच्या सौवर्णया कार्यं सर्वेषां कर्णवेधनम्।
अञ्जनं चापि दातव्यं तद्वद्धेमशलाकया ॥ ५
फलानि सप्त चाष्टौ वा कलधौतानि कारयेत्।
प्रत्येकं सर्ववृक्षाणां वेद्यां तान्यधिवासयेत् ॥ ६
धूपोऽत्र गुग्गुलः श्रेष्ठस्ताम्म्रपान्त्रैरधिष्ठितान् ।
सर्वान् धान्यस्थितान् कृत्वा वस्त्रगन्धानुलेपनैः ॥ ७
कुम्भान् सर्वेषु वृक्षेषु स्थापयित्वा नरेश्वर।
सहिरण्यानशेषांस्तान् कृत्वा बलिनिवेदनम् ॥ ८
यथास्वं लोकपालानामिन्द्रादीनां विशेषतः ।
वनस्पतेश्च विद्वद्धिहोंमः कार्यों द्विजातिभिः ॥ ९
ततः शुक्लाम्बरधरां सौवर्णकृतभूषणाम्।
सकांस्यदोहां सौवर्णशृङ्गाभ्यामतिशालिनीम् ।
पयस्विनीं वृक्षमध्यादुत्सृजेद् गामुदङ्मुखीम् ॥ १०
ततोऽभिषेकमन्त्रेण वाद्यमङ्गलगीतकैः ।
ऋग्यजुःसाममन्त्रैश्च वारुणैरभितस्तथा।
तैरेव कुम्भैः स्त्रपनं कुर्युर्ब्राह्मण पुङ्गवाः ॥ ११
स्रातः शुक्लाम्बरस्तद्वद् यजमानोऽभिपूजयेत् ।
गोभिर्विभवतः सर्वानृत्विजस्तान् समाहितः ॥ १२
हेमसूत्रैः सकटकैरङ्गुलीयपवित्रकैः ।
वासोभिः शयनीयैश्च तथोपस्करपादुकैः ।
क्षीरेण भोजनं दद्याद् यावद्दिनचतुष्टयम् ॥ १३
होमश्च सर्षपैः कार्यों यवैः कृष्णतिलैस्तथा।
पलाशसमिधः शस्ताश्चतुर्थेऽह्नि तथोत्सवः ।
दक्षिणा च पुनस्तद्वद् देया तत्रापि शक्तितः ॥ १४
यद् यदिष्टतमं किञ्चित् तत्तद् दद्यादमत्सरी।
आचार्ये द्विगुणं दद्यात् प्रणिपत्य विसर्जयेत् ॥ १५
सूतजी कहते हैं- [यही प्रश्न जब मनुने मत्स्य- भगवान्से किया था तो इसे उनसे मत्स्य (भगवान्)- ने कहा था।] जगदीश्वर! मैं बगीचेमें वृक्षोंके लगानेकी विधि तुम्हें बतलाता हूँ। तड़ागकी प्रतिष्ठाके विषय में जो विधान बतलाया गया है, उसीके समान सारी विधि समझनी चाहिये। इसमें भी ऋत्विज, मण्डप, सामग्री और आचार्यको पूर्ववत् रखे। उसी प्रकार सुवर्ण, वस्त्र और चन्दनद्वारा ब्राहाणोंकी पूजा भी करनी चाहिये। रोपे गये पौधोंको सर्वोषधिमिश्रित जलसे सींचे। फिर उनके ऊपर दही और अक्षत छोड़े। उसके बाद उन्हें पुष्पमालाओंसे अलंकृत कर वस्त्रोंसे परिवेष्टित कर दे। सोनेकी सूईसे सबका कर्णवेध करे। उसी प्रकार सोनेकी सलाईसे अञ्जन भी लगाना चाहिये। सात अथवा आठ सुवर्णके फल बनवावे, फिर इन फलोंके साथ सभी वृक्षोंको वेदीपर स्थापित कर दे। वहाँ गुग्गुलका धूप देना श्रेष्ठ माना गया है। वृक्षोंको पृथक् पृथक् ताम्रपात्रमें रखकर उन्हें सप्तधान्यसे आवृत करे तथा उनके ऊपर वस्त्र और चन्दन चढ़ाये। नरेश्वर। फिर प्रत्येक वृक्षके पास कलश स्थापन करके उन सभी कलशोंमें स्वर्ण- खण्ड डाले, फिर बलि प्रदान करके उनकी पूजा करे।
रात में विद्वान् द्विजातियोंद्वारा इन्द्रादि लोकपालों तथा वनस्पतिके निमित्त वित्तानुसार हवन कराये। तदनन्तर दूध देनेवाली एक गौको लाकर उसे श्वेत वस्त्र ओढ़ाये। उसके मस्तकपर सोनेकी कैलगी लगाये, सींगोंको सोनेसे मँढ़ा दे। उसको दूहनेके लिये काँसेकी दोहनी प्रस्तुत करे। इस प्रकार अत्यन्त शोभासम्पन्न उस गौको उत्तराभिमुख खड़ी करके वृक्षोंके बीचसे छोड़े। तत्पश्चात् श्रेष्ठ ब्राह्मण बाजों और मङ्गलगीतोंकी ध्वनिके साथ अभिषेकके मन्त्र-तीनों वेदोंकी वरुणसम्बन्धिनी ऋचाएँ पढ़ते हुए उक्त कलशोंके जलसे यजमानका अभिषेक करें। अभिषेकके पश्चात् यज्ञकर्ता पुरुष श्वेत वस्त्र धारण करे और अपनी सामर्थ्यके अनुसार सावधानीपूर्वक गौ, सोनेकी जंजीर, कड़े, अँगूठी, पवित्री, वस्त्र, शय्या शय्योपयोगी सामान तथा चरणपादुका देकर सम्पूर्ण ऋत्विजोंका पूजन करे। इसके बाद चार दिनोंतक उन्हें दूधके साथ भोजन कराये तथा सरसोंके दाने, जौ और काले तिलोंसे होम कराये। होममें पलाश (ढाक) की लकड़ी उत्तम मानी गयी है। वृक्षारोपणके पश्चात् चौथे दिन विशेष उत्सव करे। उसमें भी अपनी शक्तिके अनुसार पुनः उसी प्रकार दक्षिणा दे। जो-जो वस्तु अपनेको अधिक प्रिय हो, ईर्ष्या छोड़कर उस-उसका दान करे। आचार्यको दूनी दक्षिणा दे तथा प्रणाम करके यज्ञकी समाप्ति करे ॥२-१५॥
अनेन विधिना यस्तु कुर्याद् वृक्षोत्सवं बुधः ।
सर्वान् कामानवाप्नोति फलं चानन्त्यमश्नुते ॥ १६
यश्चैकमपि राजेन्द्र वृक्षं संस्थापयेन्नरः ।
सोऽपि स्वर्गे वसेद् राजन् यावदिन्द्रायुतत्रयम् ॥ १७
भूतान् भव्यांश्च मनुजांस्तारयेद् द्रुमसम्मितान् ।
परमां सिद्धिमाप्नोति पुनरावृत्तिदुर्लभाम् ॥ १८
य इदं शृणुयान्नित्यं आवयेद् वापि मानवः ।
सोऽपि सम्पूजितो देवैर्ब्रह्मलोके महीयते ॥ १९
जो विद्वान् उपर्युक्त विधिसे वृक्षारोपणका उत्सव करता है, उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण होती हैं तथा वह अक्षय फलका भागी होता है। राजेन्द्र ! जो मनुष्य इस प्रकार एक भी वृक्षकी स्थापना करता है, राजन् । वह भी जबतक तीस इन्द्र समाप्त हो जाते हैं, तबतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। वह जितने वृक्षोंका रोपण करता है, अपने पहले और पीछेकी उतनी ही पीढ़ियोंका वह उद्धार कर देता है तथा उसे पुनरावृत्तिसे रहित परम सिद्धि प्राप्त होती है। जो मनुष्य प्रतिदिन इस प्रसङ्गको सुनता या सुनाता है, वह भी देवताओंद्वारा सम्मानित और ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥१६-१९॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे वृक्षोत्सवो नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें मुक्षोत्सव नामक उनसठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ५९ ॥
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