मत्स्य पुराण चौथा अध्याय
पुत्रीकी ओर बार-बार अवलोकन करने से ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
मनुरुवाच
अहो कष्टतरं चैतदङ्गजागमनं विभो।
कथं न दोषमगमत् कर्मणानेन पद्मभूः ॥ १
परस्परं च सम्बन्धः सगोत्राणामभूत् कथम् ।
वैवाहिकस्तत्सुतानां छिन्धि मे संशयं विभो ॥ २
मनुने पूछा- सर्वव्यापी भगवन्! अहो! पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन तो अत्यन्त कष्टका विषय है, परंतु ऐसा कर्म करनेपर भी कमलयोनि ब्रह्मा दोषभागी क्यों नहीं हुए ? तथा उनके सगोत्र पुत्रोंका परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कैसे हुआ? विभो। मेरे इस संशयको दूर कीजिये ॥ १-२॥
मत्स्य उवाच
दिव्येयमादिसृष्टिस्तु रजोगुणसमुद्भवा ।
अतीन्द्रियेन्द्रिया तद्वदतीन्द्रियशरीरिका ॥ ३
दिव्यतेजोमयी भूप दिव्यज्ञानसमुद्भवा ।
न मत्यैरभितः शक्या वक्तुं वै मांसचक्षुभिः ॥ ४
यथा भुजङ्गाः सर्पाणामाकाशं विश्वपक्षिणाम्।
विदन्ति मार्ग दिव्यानां दिव्या एव न मानवाः ॥ ५
कार्याकार्ये न देवानां शुभाशुभफलप्रदे।
यस्मात्तस्मान्न राजेन्द्र तद्विचारो नृणां शुभः ॥ ६
अन्यच्च सर्ववेदानामधिष्ठाता चतुर्मुखः ।
गायत्री ब्रह्मणस्तद्वदङ्गभूता निगद्यते ॥ ७
अमूर्त मूर्तिमद् वापि मिथुनं तत् प्रचक्षते।
विरिञ्चिर्यत्र भगवांस्तत्र देवी सरस्वती ।
भारती यत्र यत्रैव तत्र तत्र प्रजापतिः ॥ ८
यथाऽऽतपो न रहितश्छायया दृश्यते क्वचित् ।
गायत्री ब्रह्मणः पाश्व तथैव न विमुञ्चति ॥ ९
वेदराशिः स्मृतो ब्रह्मा सावित्री तदधिष्ठिता।
तस्मान्न कश्चिद्दोषः स्यात् सावित्रीगमने विभोः ॥ १०
तथापि लज्जावनतः प्रजापतिरभूत् पुरा।
स्वसुतोपगमाद् ब्रह्मा शशाप कुसुमायुधम् ॥ ११
यस्मान्ममापि भवता मनः संक्षोभितं शरैः।
तस्मात्त्वद्देहमचिराद् रुद्रो भस्मीकरिष्यति ॥ १२
ततः प्रसादयामास कामदेवश्चतुर्मुखम् ।
न मामकारणे शप्तुं त्वमिहार्हसि मानद ॥ १३
अहमेवंविधः सृष्टस्त्वयैव चतुरानन।
इन्द्रियक्षोभजनकः सर्वेषामेव देहिनाम् ॥ १४
स्त्रीपुंसोरविचारेण मया सर्वत्र सर्वदा।
क्षोभ्यं मनः प्रयत्नेन त्वयैवोक्तं पुरा विभो ॥ १५
तस्मादनपराधोऽहं त्वया शप्तस्तथा विभो।
कुरु प्रसादं भगवन् स्वशरीराप्तये पुनः ॥ १६
मत्स्यभगवान् कहने लगे- राजन् ! रजोगुणसे उत्पन्न हुई यह शतरूपारूपी आदिसृष्टि दिव्य है। जिस प्रकार इस (मूल प्रकृति) की इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे अतीत हैं, उसी प्रकार इस (शतरूपा, सहस्ररूपा नारी) का शरीर भी इन्द्रियातीत है। यह दिव्य तेजसे सम्पन्न एवं दिव्य ज्ञानसे समुद्भूत है, अतः मांस-पिण्डरूप नेत्रधारी मानवोंद्वारा इसका भलीभाँति वर्णन नहीं किया जा सकता। जैसे सर्पोके मार्गको सर्प तथा सम्पूर्ण पक्षियोंके मार्गको आकाशचारी पक्षी ही जान सकते हैं, वैसे ही (शतरूपा आदि) दिव्य जीवोंके (अचिन्त्य) मार्गको दिव्य जीव ही समझ सकते हैं, मानव कदापि नहीं जान सकते। राजेन्द्र ! चूँकि देवताओंके कार्य (करनेयोग्य अर्थात् उचित) तथा अकार्य (न करनेयोग्य अर्थात् अनुचित) शुभ एवं अशुभ फल देनेवाले नहीं होते, इसलिये उनके विषयमें विचार करना मानवोंके लिये श्रेयस्कर नहीं है। दूसरा कारण यह है कि जिस प्रकार ब्रह्मा सारे वेदोंके अधिष्ठाता हैं, उसी प्रकार (शतरूपारूपी) गायत्री ब्रह्माके अङ्गसे उत्पन्न हुई बतलायी जाती हैं। इसलिये यह मिथुनरूप (जोड़ा) अमूर्त (अव्यक्त) या मूर्तिमान् (व्यक्त) दोनों ही रूपोंमें कहा जाता है। यहाँतक कि जहाँ- जहाँ भगवान् ब्रह्मा हैं, वहाँ-वहाँ (गायत्रीरूपी) सरस्वती देवी भी हैं और जहाँ-जहाँ सरस्वती देवी हैं, वहीं-वहीं ब्रह्मा भी हैं। जिस प्रकार धूप (सूर्य) छायासे विलग होकर कहीं भी दिखायी नहीं पड़ते, उसी प्रकार गायत्री भी ब्रह्माके सामीप्यको नहीं छोड़ती हैं। यद्यपि ब्रह्मा वेदसमूहरूप हैं और सावित्री (या सरस्वती) उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं, इसलिये ब्रह्माको सावित्रीपर कुदृष्टि डालनेसे कोई दोष नहीं लगा, तथापि उस समय अपने उस कुकर्मसे प्रजापति ब्रह्मा लज्जासे अभिभूत हो गये और कामदेवको शाप देते हुए यों बोले- 'चूँकि तुमने अपने बाणोंद्वारा मेरे भी मनको भलीभाँति क्षुब्ध कर दिया है, इसलिये भगवान् रुद्र शीघ्र ही तुम्हारे शरीरको भस्म कर डालेंगे।' तदनन्तर कामदेवने बड़ी अनुनय-विनयसे ब्रह्माको प्रसन्न किया। वह बोला- 'मानद। इस विषयमें आपका मुझे निष्कारण ही शाप देना उचित नहीं है। चतुरानन। आपने ही तो मुझे इस प्रकार सम्पूर्ण देहधारियोंकी इन्द्रियोंको क्षुब्ध करनेके लिये पैदा किया है। विभो। आपने ही पहले मुझे ऐसी आज्ञा दी है कि स्त्री-पुरुषका कोई विचार न करके तुम प्रयत्नपूर्वक सर्वत्र सर्वदा उनके मनको क्षुब्ध किया करो। इसलिये विभो! मैं निरपराध हूँ, तथापि आपने मुझे वैसा शाप दे डाला है; अतः भगवन् ! मुझपर कृपा कीजिये, जिससे मैं पुनः अपने पूर्वशरीरको प्राप्त कर सकूँ' ॥ ३-१६ ॥
ब्रह्मोवाच
वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते यादवान्वयसम्भवः ।
रामो नाम यदा मर्यो मत्सत्त्वबलमाश्रितः ॥ १७
अवतीर्यासुरध्वंसी द्वारकामधिवत्स्यति ।
तद्भातुस्तत्समस्य त्वं तदा पुत्रत्वमेष्यसि ॥ १८
एवं शरीरमासाद्य भुक्त्वा भोगानशेषतः ।
ततो भरतवंशान्ते भूत्वा वत्सनृपात्मजः ॥ १९
विद्याधराधिपत्यं च यावदाभूतसम्प्लवम्।
सुखानि धर्मतः प्राप्य मत्समीपं गमिष्यसि ॥ २०
एवं शापप्रसादाभ्यामुपेतः कुसुमायुधः ।
शोकप्रमोदाभियुतो जगाम स यथागतम् ॥ २१
ब्रह्माने कहा- कामदेव! वैवस्वत मन्वन्तरके प्राप्त होनेपर असुरोंके विनाशक श्रीराम जब मेरे बल- पराक्रमसे सम्पन्न होकर मानव-रूपमें यदुवंशमें (बलरामरूपसे) अवतीर्ण होंगे और द्वारकाको अपना निवासस्थान बनायेंगे, उस समय तुम उन्हींके समान बल पराक्रमशाली उनके भ्राता (श्रीकृष्ण) के पुत्ररूपमें उत्पन्न होगे। इस प्रकार शरीरको प्राप्तकर (द्वारकामें) सम्पूर्ण भोगोंका भोग करनेके उपरान्त तुम भरत-वंशमें महाराज वत्सके पुत्र होंगे। तत्पश्चात् विद्याधरोंके अधिपति होकर महाप्रलयपर्यन्त धर्मपूर्वक सुखोंका उपभोग करके मेरे समीप वापस आ जाओगे। इस प्रकार शाप और कृपासे संयुक्त कामदेव शोक और आनन्दसे अभिभूत होकर जैसे आया था, वैसे ही चला गया ॥ १७-२१॥
मनुरुवाच
कोऽसौ यदुरिति प्रोक्तो यद्वंशे कामसम्भवः ।
कथं च दग्धो रुद्रेण किमर्थं कुसुमायुधः ॥ २२
भरतस्यान्वये कस्य का च सृष्टिः पुराभवत् ।
एतत् सर्व समाचक्ष्व मूलतः संशयो हि मे ॥ २३
मनुने पूछा- भगवन्! आपने जिनके वंशमें कामदेवकी उत्पत्ति बतलायी है, वे यदु कौन हैं? भगवान् रुद्रने कामदेवको किसलिये और कैसे जलाया तथा भरतवंशमें पहले किसकी और कौन-सी सुष्टि हुई थी ? (इन बातोंको सुनकर) मेरे मनमें महान् संदेह उत्पन्न हो गया है; अतः आप प्रारम्भसे ही इन सबका वर्णन कीजिये ॥ २२-२३ ॥
मत्स्य उवाच
या सा देहार्थसम्भूता गायत्री ब्रह्मवादिनी।
जननी या मनोर्देवी शतरूपा शतेन्द्रिया ॥ २४
रतिर्मनस्तपोबुद्धिर्महान्दिक्सम्भ्रमस्तथा।
ततः स शतरूपायां सप्तापत्यान्यजीजनत् ॥ २५
ये मरीच्यादयः पुत्रा मानसास्तस्य धीमतः ।
तेषामयमभूल्लोकः सर्वज्ञानात्मकः पुरा ।। २६
ततोऽसृजद् वामदेवं त्रिशूलवरधारिणम्।
सनत्कुमारं च विभुं पूर्वेषामपि पूर्वजम् ॥ २७
वामदेवस्तु भगवानसृजन्मुखतो द्विजान् ।
राजन्यानसृजद् बाह्वोर्विट् शूद्रानूरुपादयोः ॥ २८
विद्युतोऽशनिमेघांश्च रोहितेन्द्रधनूंषि च।
छन्दांसि च ससर्जादौ पर्जन्यं च ततः परम् ॥ २९
ततः साध्यगणानीशस्त्रिनेत्रानसृजत् पुनः ।
कोटीश्च चतुराशीतिर्जरामरणवर्जिताः ॥ ३०
वामोऽसृजन्मत्यर्त्यांस्तान् ब्रह्मणा विनिवारितः।
नैवंविधा भवेत् सृष्टिर्जरामरणवर्जिता ॥ ३१
शुभाशुभात्मिका या तु सैव सृष्टिः प्रशस्यते।
एवं स्थितः स तेनादौ सृष्टेः स्थाणुरतोऽभवत् ॥ ३२
मत्स्यभगवान् कहने लगे- राजन् । ब्रह्माके शरीरके आधे भागसे जो ब्रह्मवादिनी गायत्री उत्पन्न हुई थी और जो मनुकी माता थी तथा जिसे शतरूपा और शतेन्द्रिया नामसे भी जाना जाता था, उसी शतरूपाके गर्भसे ब्रह्माजीने रति, मन, तप, बुद्धि, महान्, दिक् तथा सम्भ्रम-इन सात संतानोंको जन्म दिया। तथा उन बुद्धिमान् ब्रह्माके पहले जो मरीचि आदि दस मानस-पुत्र हुए थे, उन्होंके द्वारा इस सम्पूर्ण ज्ञानात्मक संसारकी रचना हुई। तदनन्तर ब्रह्माने श्रेष्ठ त्रिशूलधारी वामदेवकी और पुनः पूर्वजोंके भी पूर्वज शक्तिशाली सनत्कुमारकी रचना की। भगवान् वामदेव (शिव) ने अपने मुखसे ब्राह्मणोंकी, बाहुओंसे क्षत्रियोंकी, ऊरुओंसे वैश्योंकी और पैरोंसे शूद्रोंकी उत्पत्ति की। तदुपरान्त उन्होंने क्रमशः बिजली, वज्र, मेघ, रंग-बिरंगा इन्द्रधनुष और छन्दकी रचना की। उसके बाद मेघकी सृष्टि की। तत्पश्चात् उन शक्तिशाली वामदेवने जरा-मरणरहित एवं त्रिनेत्रधारी चौरासी करोड़ साध्यगणोंको उत्पन्न किया। चूँकि वामदेवने उन्हें जरा- मरणरहित रचा था, इसलिये ब्रह्माने उन्हें सृष्टि रचनेसे मना कर दिया (और कहा कि) इस प्रकार जरा- मरणसे विवर्जित सृष्टि नहीं होती, अपितु जो सृष्टि शुभ और अशुभसे युक्त होती है, वही प्रशंसनीय है। ब्रह्माके ऐसा कहनेपर वामदेव सृष्टिकार्यसे निवृत्त होकर स्थाणुकी भाँति स्थित हो गये ॥ २४-३२ ॥
स्वायम्भुवो मनुर्धीमांस्तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम्।
पत्त्रीमवाप रूपाळ्यामनन्तीं नाम नामतः ॥ ३३
प्रियव्रतोत्तानपादौ मनुस्तस्यामजीजनत् ।
धर्मस्य कन्या चतुरा सूनृता नाम भामिनी ॥ ३४
उत्तानपादात्तनयान् प्राप मन्थरगामिनी।
अपस्यतिमपस्यन्तं कीर्तिमन्तं ध्रुवं तथा ।। ३५
उत्तानपादोऽजनयत् सूनृतायां प्रजापतिः ।
ध्रुवो वर्षसहस्त्राणि त्रीणि कृत्वा तपः पुरा ॥ ३६
दिव्यमाप ततः स्थानमचलं ब्रह्मणो वरात्।
तमेव पुरतः कृत्वा ध्रुवं सप्तर्षयः स्थिताः ॥ ३७
धन्या नाम मनोः कन्या धुवाच्छिष्टमजीजनत् ।
अग्निकन्या तु सुच्छाया शिष्टात्मा सुषुवे सुतान् ॥ ३८
कृपं रिपुञ्जयं वृत्तं वृकं च वृकतेजसम्।
चक्षुषं ब्रह्मदौहित्र्यां वीरिण्यां स रिपुञ्जयः ॥ ३९
वीरणस्यात्मजायां तु चक्षुर्मनुमजीजनत् ।
मनुवै राजकन्यायां नड्वलायां स चाक्षुषः ॥ ४०
जनयामास तनयान् दश शूरानकल्मषान् ।
ऊरुः पूरुः शतद्युम्नस्तपस्वी सत्यवाग्घविः ॥ ४१
अग्निष्ठदतिरात्रश्च सुद्युम्नश्चापराजितः ।
अभिमन्युस्तु दशमो नड्वलायामजायत ।। ४२
ऊरोरजनयत् पुत्रान् षडाग्नेयी तु सुप्रभान्।
अग्निं सुमनसं ख्यातिं क्रतुमङ्गिरसं गयम् ॥ ४३
पितृकन्या सुनीथा तु वेनमङ्गादजीजनत्।
वेनमन्यायिनं विप्रा ममन्युस्तत्करादभूत् ।
पृथुर्नाम महातेजाः स पुत्रौ द्वावजीजनत् ॥ ४४
(अब मैथुनी सृष्टिका वर्णन करते हैं- परम बुद्धिमान् स्वायम्भुव मनुने कठोर तपस्या करके अनन्ती नामवाली एक सुन्दरी कन्याको पत्नीरूपमें प्राप्त किया। मनुने उसके गर्भसे प्रियव्रत और उत्तानपाद नामके दो पुत्र उत्पन्न किये। पुनः धर्मकी कन्या सूनृताने, जो परम सुन्दरी, मन्थरगतिसे चलनेवाली और चतुर थी, उत्तानपादके सम्पर्कसे पुत्रोंको प्राप्त किया। उस समय प्रजापति उत्तानपादने सूनुताके गर्भसे अपस्यति, अपस्यन्त, कीर्तिमान् तथा ध्रुव (इन चार पुत्रों) को उत्पन्न किया। उनमें ध्रुवने पूर्वकालमें तीन सहस्र वर्षोंतक तप करके ब्रह्माके वरदानसे दिव्य एवं अटल स्थानको प्राप्त किया। आज भी उन्हीं ध्रुवको आगे करके सप्तर्षिमण्डल स्थित है। उन्हीं ध्रुवके संयोगसे मनुकी कन्या धन्याने शिष्टको जन्म दिया। शिष्टके सम्पर्कसे अग्नि-कन्या सुच्छायाने कृप, रिपुञ्जय, वृत्त, वृक, वृकतेजस् और चक्षुष् नामक पुत्रोंको पैदा किया। उनमें रिपुञ्जयने ब्रह्माकी दौहित्री एवं वीरणकी कन्या वीरणीके गर्भसे चाक्षुष मनुको उत्पन्न किया। चाक्षुष मनुने राजपुत्री नड्वलाके गर्भसे ऊरु, पूरु, तपस्वी शतद्युम्न, सत्यवाक, हवि, अग्रिष्टुत्, अतिरात्र, सुद्युम्न, अपराजित और दसवाँ अभिमन्यु- इन दस निष्पाप एवं शूरवीर पुत्रोंको पैदा किया। आग्नेयीने ऊरुके संयोगसे अग्नि, सुमनस्, ख्याति, क्रतु, अङ्गिरस् और गय-इन छः परम कान्तिमान् पुत्रोंको जन्म दिया। पितरोंकी कन्या सुनीथाने अङ्गके सम्पर्कसे वेनको उत्पन्न किया। (वेन अत्यन्त अन्यायी था। जब वह विप्रशापसे मृत्युको प्राप्त हो गया, तब) ब्राह्मणोंने उस अन्यायी वेनके हाथका मन्थन किया। उससे महातेजस्वी पृथु नामका पुत्र प्रकट हुआ। उनके (अन्तर्धान और हविर्धान नामक) दो पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें अन्तर्धानने शिखण्डिनीके गर्भसे मारीच नामक पुत्र पैदा किया ॥ ३३-४४॥
अन्तर्धानस्तु मारीचं शिखण्डिन्यामजीजनत् ।
हविर्धानात् षडाग्नेयी धिषणाजनयत् सुतान्।
प्राचीनवर्हिषं साङ्गं यर्म शुक्रं बलं शुभम् ॥ ४५
प्राचीनबर्हिर्भगवान् महानासीत् प्रजापतिः ।
हविर्धानाः प्रजास्तेन बहवः सम्प्रवर्तिताः ॥ ४६
सवर्णायां तु सामुद्रयां दशाधत्त सुतान् प्रभुः ।
सर्वे प्रचेतसो नाम धनुर्वेदस्य पारगाः ॥ ४७
तत्तपोरक्षिता वृक्षा बभुर्लोके समन्ततः ।
देवादेशाच्च तानग्रिरदहद् रविनन्दन ॥ ४८
सोमकन्याभवत् पत्नी मारीषा नाम विश्रुता।
तेभ्यस्तु दक्षमेकं सा पुत्रमग्रयमजीजनत् ॥ ४९
दक्षादनन्तरं वृक्षानौषधानि च सर्वशः।
अजीजनत् सोमकन्या नदीं चन्द्रवतीं तथा ॥ ५०
सोमांशस्य च तस्यापि दक्षस्याशीतिकोटयः ।
तासां तु विस्तरं वक्ष्ये लोके यः सुप्रतिष्ठितः ॥ ५१
द्विपदश्चाभवन् केचित् केचिद् बहुपदा नराः ।
वलीमुखाः शङ्कुकर्णाः कर्णप्रावरणास्तथा ॥ ५२
अश्वऋक्षमुखाः केचित् केचित् सिंहाननास्तथा।
श्वसूकरमुखाः केचित् केचिदुष्टमुखास्तथा ॥ ५३
जनयामास धर्मात्मा म्लेच्छान् सर्वाननेकशः ।
स सृष्ट्वा मनसा दक्षः स्त्रियः पश्चादजीजनत् ॥ ५४
ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश।
सप्तविंशति सोमाय ददौ नक्षत्रसंज्ञिताः ।
देवासुरमनुष्यादि ताभ्यः सर्वमभूज्जगत् ॥ ५५
अग्नि-कन्या धिषणाने हविर्धानके संयोगसे प्राचीन- बर्हिष्, साङ्ग, यम, शुक्र, बल और शुभ- इन छः पुत्रोंको जन्म दिया। इनमें महान् ऐश्वर्यशाली प्राचीनवर्हि प्रजापति थे। उन्होंने हविर्धान नामसे विख्यात बहुत-सी प्रजाओंका विस्तार किया तथा समुद्र-कन्या सवर्णाके गर्भसे दस पुत्रोंको जन्म दिया। वे सभी धनुर्वेदके पारगामी विद्वान् थे तथा प्रचेता नामसे विख्यात हुए। रविनन्दन । इन्हीं प्रचेताओंके तपसे सुरक्षित रहकर वृक्षजगत्में चारों ओर शोभा पा रहे थे, परंतु इन्द्रदेवके आदेशसे अग्रिने उन्हें जलाकर भस्म कर दिया। तत्पश्चात् चन्द्रमाकी कन्या, जो मारिषा नामसे विख्यात थी, उन प्रचेताओंकी पत्नी हुई। उसने उनके संयोगसे एक दक्ष नामक श्रेष्ठ पुत्रको जन्म दिया। दक्षकी उत्पत्तिके पश्चात् उस सोमकन्याने समस्त वृक्षों और ओषधियोंको तथा चन्द्रवती नामकी नदीको उत्पन्न किया। चन्द्रमाके अंशसे उत्पन्न हुए उस दक्ष प्रजापतिकी अस्सी करोड़ संतानें हुईं, जो इस समय लोकमें सर्वत्र फैली हुई हैं और जिनका विस्तार मैं आगे वर्णन करूँगा। उनमेंसे किन्हींके दो पैर थे तो किन्हींके अनेकों पैर थे। किन्हींक मुखख टेढ़े- मेढ़े थे तो किन्होंके कान खुटे-जैसे थे तथा किन्हींके कान (बालोंसे) आच्छादित थे। किन्हींके मुख घोड़े और रीछके सदृश थे तथा कोई सिंहके समान मुखवाले थे। कुछ लोग कुत्ते और सुअरके सदृश मुखवाले थे तो किन्हींका मुख ऊँटके समान था। इस प्रकार धर्मात्मा दक्षने अपने मनसे अनेकों प्रकारके सभी म्लेच्छोंकी सृष्टि की, तत्पश्चात् स्त्रियोंको उत्पन्न किया। उनमेंसे उन्होंने दस धर्मको, तेरह कश्यपको तथा नक्षत्र नामवाली सत्ताईस स्त्रियोंको चन्द्रमाको प्रदान किया। उन्हीं कन्याओंसे देवता, असुर और मानव आदिसे परिपूर्ण यह सारा जगत् प्रादुर्भूत हुआ है।॥ ४५-५५ ॥
इति श्रीमालये महापुराणे आदिसर्गे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके आदिसर्गमें चौथा अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ४॥
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