मत्स्य पुराण तैंतालीसवाँ अध्याय
ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंश का वृत्तान्त तथा कार्त वीर्य अर्जुन की कथा
सूत उवाच
इत्येतच्छौनकाद् राजा शतानीको निशम्य तु।
विस्मितः परया प्रीत्या पूर्णचन्द्र इवाबभौ ॥ १
पूजयामास नृपतिर्विधिवच्चाथ शौनकम् ।
रत्रैर्गोभिः सुवर्णैश्च वासोभिर्विविधैस्तथा ॥ २
प्रतिगृह्य ततः सर्वं यद् राज्ञा प्रहितं धनम्।
दत्त्वा च ब्राह्मणेभ्यश्च शौनकोऽन्तरधीयत ।। ३
सूतजी कहते हैं- ऋषियो। राजा शतानीक महर्षि शौनकसे यह सारा वृत्तान्त सुनकर विस्मयाविष्ट हो गये तथा उत्कृष्ट प्रेमके कारण उनका चेहरा पूर्णिमाके चन्द्रमाकी भाँति खिल उठा। तदनन्तर राजाने अनेक प्रकारके रत्न, गौ, सुवर्ण और वस्त्रोंद्वारा महर्षि शौनककी विधिपूर्वक पूजा की। शौनकजीने राजाद्वारा दिये गये उस सारे धनको ग्रहण करके पुनः उसे ब्राह्मणोंको दान कर दिया और स्वयं वहीं अन्तर्हित हो गये ॥ १-३॥
ऋषय ऊचुः
ययातेर्वशमिच्छामः श्रोतुं विस्तरतो वद।
यदुप्रभृतिभिः पुत्रैर्यदा लोके प्रतिष्ठितम् ॥ ४
ऋषियोंने पूछा- सूतजी! अब हमलोग ययातिके वंशका वर्णन सुनना चाहते हैं। जब उनके यदु आदि पुत्र लोकमें प्रतिष्ठित हुए तब फिर आगे चलकर क्या हुआ? इसे विस्तारपूर्वक बतलाइये ॥ ४॥
सूत उवाच
यदोर्वशं प्रवक्ष्यामि ज्येष्ठस्योत्तमतेजसः ।
विस्तरेणानुपूर्व्या च गदतो मे निबोधत ॥ ५
यदोः पुत्रा बभूवुर्हि पञ्च देवसुतोपमाः।
महारथा महेष्वासा नामतस्तान् निबोधत ॥ ६
सहस्त्रजिरथो ज्येष्ठः क्रोष्टुर्नीलोऽन्तिको लघुः ।
सहस्त्रजेस्तु दायादः शतजिर्नाम पार्थिवः ॥ ७
शतजेरपि दायादास्त्रयः परमकीर्तयः ।
हैहयश्च हयश्चैव तथा वेणुहयश्च यः ॥ ८
हैहयस्य तु दायादो धर्मनेत्रः प्रतिश्रुतः ।
धर्मनेत्रस्य कुन्तिस्तु संहतस्तस्य चात्मजः ॥ ९
संहतस्य तु दायादी महिष्मान् नाम पार्थिवः ।
आसीन्महिष्मतः पुत्रो रुद्रश्रेण्यः प्रतापवान् ॥ १०
वाराणस्यामभूद् राजा कथितं पूर्वमेव तु ।
रुद्रश्रेण्यस्य पुत्रोऽभूद् दुर्दमो नाम पार्थिवः ॥ ११
दुर्दमस्य सुतो धीमान् धीमान् कनको नाम वीर्यवान्।
कनकस्य तु दायादाश्चत्वारो लोकविश्रुताः ॥ १२
कृतवीर्यः कृताग्निश्च कृतवर्मा तथैव च।
कृतौजाश्च चतुर्थोऽभूत् कृतवीर्यात् ततोऽर्जुनः ॥ १३
जातः करसहस्त्रेण सप्तद्वीपेश्वरो नृपः ।
वर्षायुतं तपस्तेपे दुश्वरं पृथिवीपतिः ॥ १४
दत्तमाराधयामास कार्तवीर्योऽत्रिसम्भवम् ।
तस्मै दत्ता वरास्तेन चत्वारः पुरुषोत्तमः ॥ १५
पूर्व बाहुसहस्त्रं तु स वने राजसत्तमः ।
अधर्म चरमाणस्य सद्भिश्चापि निवारणम् ॥ १६
युद्धेन पृथिवीं जित्वा धर्मेणैवानुपालनम्।
संग्रामे वर्तमानस्य वधश्चैवाधिकाद् भवेत् ॥ १७
सूतजी कहते हैं- ऋषियो। अब मैं ययातिके ज्येष्ठ पुत्र परम तेजस्वी यदुके वंशका क्रमसे एवं विस्तारपूर्वक वर्णन कर रहा हूँ, आपलोग मेरे कथनानुसार उसे ध्यानपूर्वक सुनिये। यदुके पाँच पुत्र हुए जो सभी देवपुत्र-सदृश तेजस्वी, महारथी और महान् धनुर्धर थे। उन्हें नामनिर्देशानुसार यों जानिये- उनमें ज्येष्ठका नाम सहस्त्रजि था, शेष चारोंका नाम क्रमशः क्रोष्टु, नील, अन्तिक और लघु था। सहस्रजिका पुत्र राजा शतजि हुआ। शतजिके हैहय, हय और वेणुहय नामक परम यशस्वी तीन पुत्र हुए। हैहयका विश्वविख्यात पुत्र धर्मनेत्र हुआ। धर्मनेत्रका पुत्र कुन्ति और उसका पुत्र संहत हुआ। संहतका पुत्र राजा महिष्मान् हुआ। महिष्मान्का पुत्र प्रतापी रुद्रश्रेण्य था, जो वाराणसी नगरीका राजा हुआ। इसका वृत्तान्त पहले ही कहा जा चुका है।
रुद्रश्रेण्यका पुत्र दुर्दम नामका राजा हुआ। दुर्दमका पुत्र परम बुद्धिमान् एवं पराक्रमी कनक था। कनकके चार विश्वविख्यात पुत्र हुए, जिनके नाम हैं-कृतवीर्य, कृताग्रि, कृतवर्मा और चौथा कृतौजा। इनमें कृतवीर्यसे अर्जुनका जन्म हुआ, जो सहस्र भुजाधारी (होनेके कारण सहस्रार्जुन नामसे प्रसिद्ध था) तथा सातों द्वीपोंका अधीश्वर था। पुरुषश्रेष्ठ कृतवीर्यनन्दन राजा सहस्रार्जुनने दस हजार वर्षोंतक घोर तपस्या करते हुए महर्षि अत्रिके पुत्र दत्तात्रेयकी आराधना की। उससे प्रसन्न होकर दत्तात्रेयने उसे चार वर प्रदान किये। उनमें प्रथम वरके रूपमें राजश्रेष्ठ अर्जुनने अपने लिये एक हजार भुजाएँ माँगीं। दूसरे बरसे सत्पुरुषोंके साथ अधर्म करनेवालोंके निवारणका अधिकार माँगा। तीसरे वरसे युद्धद्वारा सारी पृथ्वीको जीतकर धर्मानुसार उसका पालन करना था और चौथा वर यह माँगा कि रणभूमिमें युद्ध करते समय मुझसे अधिक बलवान्के हाथों मेरा वध हो ॥ ५-१७ ॥
तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।
सप्तोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता ॥ १८
जज्ञे बाहुसहस्त्रं वै इच्छतस्तस्य धीमतः ।
रथो ध्वजश्च सञ्जज्ञे इत्येवमनुशुश्रुमः ॥ १९
दशयज्ञसहस्त्राणि राज्ञा द्वीपेषु वै तदा।
निरर्गलानि वृत्तानि श्रूयन्ते तस्य धीमतः ॥ २०
सर्वे यज्ञा महाराज्ञस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः ।
सर्वे काञ्चनयूपास्ते सर्वाः काञ्चनवेदिकाः ॥ २१
सर्वे देवैः समं प्राप्तैर्विमानस्थैरलङ्कृताः ।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः ॥ २२
तस्य यज्ञे जगौ गार्धा गन्धर्वो नारदस्तथा।
कार्तवीर्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य सः ॥ २३
न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवः ।
यज्ञैर्दानैस्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च ॥ २४
स हि सप्तसु द्वीपेषु खङ्गी चक्री शरासनी।
रथी द्वीपान्यनुचरन् योगी पश्यति तस्करान् ॥ २५
पञ्चाशीतिसहस्त्राणि वर्षाणां स नराधिपः ।
स सर्वरत्नसम्पूर्णश्चक्रवर्ती बभूव ह ॥ २६
स एव पशुपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव हि।
स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्जुनोऽभवत् ॥ २७
योऽसौ बाहुसहस्त्रेण ज्याघातकठिनत्वचा।
भाति रश्मिसहस्त्रेण शारदेनैव भास्करः ॥ २८
उस वरदानके प्रभावसे कार्तवीर्य अर्जुनने क्षात्र- धर्मानुसार सातों समुद्रोंसे परिवेष्टित पर्वतोंसहित सातों द्वीपोंकी समग्र पृथ्वीको जीत लिया; क्योंकि उस बुद्धिमान् अर्जुनके इच्छा करते ही एक हजार भुजाएँ निकल आयर्थी तथा उसी प्रकार रथ और ध्वज भी प्रकट हो गये-ऐसा हमलोगोंके सुननेमें आया है। साथ ही उस बुद्धिमान् अर्जुनके विषयमें यह भी सुना जाता है कि उसने सातों द्वीपोंमें दस सहस्र यज्ञोंका अनुष्ठान निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्न किया था। उस राजराजेश्वरके सभी यज्ञोंमें प्रचुर दक्षिणाएँ बाँटी गयी थीं। उनमें गड़े हुए यूप (यज्ञस्तम्भ) स्वर्णनिर्मित थे। सभी वेदिकाएँ सुवर्णकी बनी हुई थीं। वे सभी यज्ञ अपना-अपना भाग लेनेके लिये आये हुए विमानारूढ़ देवोंद्वारा सुशोभित थे। गन्धर्व और अप्सराएँ भी नित्य आकर उनकी शोभा बढ़ाती थीं।
राजर्षि कार्तवीर्यक महत्त्वको देखकर नारदनामक गन्धर्वने उनके यज्ञमें ऐसी गाथा गायी थी- भावी क्षत्रिय नरेश निश्चय ही यज्ञ, दान, तप, पराक्रम और शास्त्रज्ञानके द्वारा कार्तवीर्यकी समकक्षताको नहीं प्राप्त होंगे।' योगी अर्जुन रथपर आरूढ़ हो हाथमें खङ्ग, चक्र और धनुष धारण करके सातों द्वीपोंमें भ्रमण करता हुआ चोरों डाकुओंपर कड़ी दृष्टि रखता था। राजा अर्जुन पचासी हजार वर्षांतक भूतलपर शासन करके समस्त रत्नोंसे परिपूर्ण हो चक्रवर्ती सम्राट् बना रहा। राजा अर्जुन ही अपने योगबलसे पशुओंका पालक था, वही खेतोंका भी रक्षक था और वही समयानुसार मेघ बनकर वृष्टि भी करता था। प्रत्यञ्चाके आघातसे कठोर हुई त्वचाओंवाली अपनी सहस्रों भुजाओंसे वह उसी प्रकार शोभा पाता था, जिस प्रकार सहस्रों किरणोंसे युक्त शारदीय सूर्य शोभित होते हैं॥ १८-२८॥
एष नागं मनुष्येषु माहिष्मत्यां महाद्युतिः ।
कर्कोटकसुतं जित्वा पुर्या तत्र न्यवेशयत् ॥ २९
एष वेगं समुद्रस्य प्रावृट्काले भजेत वै।
क्रीडन्नेव सुखोद्भिन्नः प्रतिस्त्रोतो महीपतिः ॥ ३०
ललनाः क्रीडता तेन प्रतिस्त्रग्दाममालिनीः ।
ऊर्मिभुकुटिसंत्रासाच्चकिताभ्येति नर्मदा ॥ ३१
एको बाहुसहस्त्रेण वगाहे स महार्णवः ।
करोत्युवृत्तवेगां तु नर्मदां प्रावृड्डुद्धताम् ॥ ३२
तस्य बाहुसहस्त्रेण क्षोभ्यमाणे महोदधौ।
भवन्त्यतीव निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः ॥ ३३
चूर्णीकृतमहावीचिलीनमीनमहातिमिम् ।
मारुताविद्धफेनौघमावर्ताक्षिप्तदुः सहम् ॥ ३४
करोत्यालोडयन्नेव दोः सहस्त्रेण सागरम् ।
मन्दरक्षोभचकिता हामृतोत्पादशङ्किताः ।। ३५
तदा निश्चलमूर्धानो भवन्ति च महोरगाः।
सायाले कदलीखण्डा निर्वातस्तिमिता इव ॥ ३६
एवं बद्ध्वा धनुर्व्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः ।
लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात् ॥ ३७
निर्जित्य बद्ध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु हार्जुनः सम्प्रसादयत् ॥ ३८
मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।
तस्य बाहुसहस्त्रेण बभूव ज्यातलस्वनः ॥ ३९
युगान्ताभ्रसहस्त्रस्य आस्फोटस्त्वशनेरिव ।
अहो बत विधेर्वीर्य भार्गवोऽयं यदाच्छिनत् ॥ ४०
तद् वै सहस्त्रं बाहूनां हेमतालवनं यथा।
यत्रापवस्तु संकुद्धो हार्जुनं शप्तवान् प्रभुः ॥ ४१
यस्माद् वनं प्रदग्धं वै विश्रुतं मम हैहय।
तस्मात् ते दुष्करं कर्म कृतमन्यो हरिष्यति ॥ ४२
छित्त्वा बाहुसहस्त्रं ते प्रथमं तरसा बली।
तपस्वी ब्राह्मणश्च त्वां स वधिष्यति भार्गवः ॥ ४३
मनुष्यों में महान् तेजस्वी अर्जुनने कर्कोटक नागके पुत्रको जीतकर अपनी माहिष्मती पुरीमें बाँध रखा था। भूपाल अर्जुन वर्षा ऋतुमें प्रवाहके सम्मुख सुखपूर्वक क्रीडा करते हुए ही समुद्रके वेगको रोक देता था। ललनाओंके साथ जलविहार करते समय उसके गलेसे टूटकर गिरी हुई मालाओंको धारण करनेवाली तथा लहररूपी धुकुटियोंके व्याजसे भयभीत-सी हुई नर्मदा चकित होकर उसके निकट आ जाती थी। वह अकेला ही अपनी सहस्र भुजाओंसे अगाध समुद्रको विलोडित कर देता था एवं वर्षाकालमें वेगसे बहती हुई नर्मदाको और भी उद्धत वेगवाली बना देता था। उसकी हजारों भुजाओंद्वारा विलोडन करनेसे महासागरके क्षुब्ध हो जानेपर पातालनिवासी बड़े-बड़े असुर अत्यन्त निश्चेष्ट हो जाते थे। अपनी सहस्र भुजाओंसे महासागरका विलोडन करते समय वह समुद्रकी उठती हुई विशाल लहरोंके मध्य आयी हुई मछलियों और बड़े-बड़े तिमिङ्गिलोंके चूर्णसे उसे व्याप्त कर देता था तथा वायुके झकोरेसे उठे हुए फेनसमूहसे फेनिल और भँवरोंके चपेटसे दुःसह बना देता था। उस समय पूर्वकालमें मन्दराचलके मन्थनके विक्षोभसे चकित एवं पुनः अमृतोत्पादनकी आशङ्कासे सशङ्कित-से हुए बड़े-बड़े नागोंके मस्तक इस प्रकार निश्चल हो जाते थे, जैसे सायंकाल वायुके स्थगित हो जानेपर केलेके पत्ते प्रशान्त हो जाते हैं।
इसी प्रकार अर्जुनने एक बार लंकामें जाकर अपने पाँच बाणोंद्वारा सेनासहित रावणको मोहित कर दिया और उसे बलपूर्वक जीतकर अपने धनुषकी प्रत्यञ्चामें बाँध लिया, फिर माहिष्मती पुरीमें लाकर उसे बंदी बना लिया। यह सुनकर महर्षि पुलस्त्यने माहिष्मतीपुरीमें जाकर अर्जुनको अनेकों प्रकारसे समझा-बुझाकर प्रसन्न किया। तब अर्जुनने महर्षि पुलस्त्यद्वारा सान्त्वना दिये जानेपर उस पुलस्त्य-पौत्र राक्षसराज रावणको बन्धनमुक्त कर दिया। उसकी हजारों भुजाओंद्वारा धनुषकी प्रत्यञ्ज्ञा खींचनेपर ऐसा भयंकर शब्द होता था, मानो प्रलयकालीन सहस्रों बादलोंकी घटाके मध्य वज्रकी गड़गड़ाहट हो रही हो; परंतु विधिका पराक्रम धन्य है जो भृगुकुलोत्पन्न परशुरामजीने उसकी हजारों भुजाओंको हेमतालके वनकी भाँति काटकर छिन्न- भित्र कर दिया। इसका कारण यह है कि एक बार अर्जुनको शाप देते हुए कहा था-'हैहय ! चूँकि तुमने मेरे लोकप्रसिद्ध वनको जलाकर भस्म कर दिया है, इसलिये तुम्हारे द्वारा किये गये इस दुष्कर कर्मका फल कोई दूसरा सामर्थ्यशाली महर्षि आपव (वसिष्ठ) ने क्क्रुद्ध होकर हरण कर लेगा। भृगुकुलमें उत्पन एक तपस्वी एवं बलवान् ब्राह्मण पहले तुम्हारी सहस्रों भुजाओंको काटकर फिर तुम्हारा वध कर देगा' ॥ २९-४३ ॥
सूत उवाच
तस्य रामस्तदा त्वासीन्मृत्युः शापेन धीमतः ।
वरश्चैवं तु राजर्षेः स्वयमेव वृतः पुरा ॥ ४४
तस्य पुत्रशतं त्वासीत् पञ्च तत्र महारथाः ।
कृतास्त्रा बलिनः शूरा धर्मात्मानो महाबलाः ॥ ४५
शूरसेनश्च शूरश्च धृष्टः क्रोष्टुस्तथैव च।
जयध्वजश्च वैकर्ता अवन्तिश्च विशांपते ॥ ४६
जयध्वजस्य पुत्रस्तु तालजङ्गो महाबलः ।
तस्य पुत्रशतान्येव तालजङ्घा इति श्रुताः ॥ ४७
तेषां पञ्च कुलाः ख्याता हैहयानां महात्मनाम् ।
वीतिहोत्राश्च शार्याता भोजाश्चावन्तयस्तथा ।। ४८
कुण्डिकेराश्च विक्रान्तास्तालजङ्घास्तथैव च।
वीतिहोत्रसुतश्चापि आनर्ती नाम वीर्यवान्।
दुर्जेयस्तस्य पुत्रस्तु बभूवामित्रकर्शनः ॥ ४९
सद्भावेन महाप्राज्ञः प्रजा धर्मेण पालयन्।
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्त्रवान् ॥ ५०
येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही।
यस्तस्य कीर्तयेन्नाम कल्यमुत्थाय मानवः ॥ ५१
न तस्य वित्तनाशः स्यान्त्रष्टं च लभते पुनः ।
कार्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदिह धीमतः ।
यथावत् स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोके महीयते ॥ ५२
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! इस प्रकार उस शापके कारण परशुरामजी उसकी मृत्युके कारण तो अवश्य हुए, परंतु पूर्वकालमें उस राजर्षिने स्वयं ही ऐसे वरका वरण किया था। राजन्। सहस्रार्जुनके पुत्र तो एक सौ हुए, परंतु उनमें पाँच महारथी थे। उनके अतिरिक्त शूरसेन, शूर, धृष्ट, क्रोष्टु, जयध्वज, वैकर्ता और अवन्ति- ये सातों अस्त्रविद्यामें निपुण, बलवान्, शूरवीर, धर्मात्मा और महान् पराक्रमशाली थे। जयध्वजका पुत्र महाबली तालजङ्घ हुआ। उसके एक सौ पुत्र हुए जो तालजङ्घके नामसे विख्यात हुए। हैहयवंशी इन महात्मा नरेशोंका कुल विभक्त होकर पाँच भागोंमें विख्यात हुआ। उनके नाम हैं-वीतिहोत्र, शार्यात, भोज, आवन्ति तथा पराक्रमी कुण्डिकेर। ये ही तालजङ्घके भी नामसे प्रसिद्ध थे। वीतिहोत्रका पुत्र प्रतापी आनर्त (गुजरातका शासक) हुआ। उसका पुत्र दुर्जेय हुआ जो शत्रुओंका विनाशक था। अमित बुद्धिसम्फन एवं सहस्रभुजाधारी कृतवीर्य- नन्दन राजा अर्जुन सद्भावना एवं धर्मपूर्वक प्रजाओंका पालन करता था। उसने अपने धनुषके बलसे सागरपर्यन्त पृथ्वीपर विजय पायी थी। जो मानव प्रातःकाल उठकर उसका नाम स्मरण करता है उसके धनका नाश नहीं होता और यदि नष्ट हो गया है तो पुनः प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य कार्तवीर्य अर्जुनके जन्म-वृत्तान्तको कहता है उसका आत्मा यथार्थरूपसे पवित्र हो जाता है और वह स्वर्गलोकमें प्रशंसित होता है ॥४४-५२॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे सोमवंशे सहस्त्रार्जुनचरिते त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सोम-वंश-वर्णन प्रसङ्गमें सहस्रार्जुनचरित नामक तैंतालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ४३ ॥
टिप्पणियाँ