अद्भुत उत्पात के लक्षण तथा उनकी शान्ति के उपाय | adbhut utpaat ke lakshan tatha unakee shaanti ke upaay

मत्स्य पुराण दो सौ तीसवाँ अध्याय

अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्ति के उपाय

गर्ग उवाच

देवतार्चाः प्रनृत्यन्ति वेपन्ते प्रज्वलन्ति च। 
वमन्त्यग्निं तथा धूमं स्नेहं रक्तं तथा वसाम् ॥ १

आरटन्ति रुदन्त्येताः प्रस्विद्यन्ति हसन्ति च। 
उत्तिष्ठन्ति निषीदन्ति प्रधावन्ति धमन्ति च ॥ २

भुञ्जते विक्षिपन्ते वा कोशप्रहरणध्वजान् । 
अवाङ्मुखा वा तिष्ठन्ति स्थानात् स्थानं भ्रमन्ति च ॥ ३

एवमाद्या हि दृश्यन्ते विकाराः सहसोत्थिताः । 
लिङ्गायतनविप्रेषु तत्र वासं न रोचयेत् ॥ ४

राज्ञो वा व्यसनं तत्र स च देशो विनश्यति । 
देवयात्रासु चोत्पातान् दृष्ट्वा देशभयं वदेत् ॥ ५ 

गर्गजी बोले- जब देव-मूर्तियाँ नाचने लगती हैं, काँपती हैं, जल उठती हैं, अग्नि, धूआँ, तेल, रक्त और चर्बी उगलने लगती हैं, जोर-जोरसे चिल्लाती हैं, रोती हैं,पसीना बहाने लगती हैं, हँसती हैं, उठती हैं, बैठती हैं, दौड़ने लगती हैं, मुँह बजाने लगती हैं, खाती हैं, कोश,अस्त्र और ध्वजाओंको फेंकने लगती हैं, नीचे मुख किये बैठी रहती हैं अथवा एक स्थानसे दूसरे स्थानपर भ्रमण करने लगती हैं- इस प्रकारके सहसा उत्पन्न हुए उत्पात यदि शिव-लिङ्ग, देव मन्दिर तथा ब्राह्मणोंके पुरमें दिखायी पड़ें तो उस स्थानपर निवास नहीं करना चाहिये। ऐसे उत्पातोंके होनेपर या तो राजापर कोई बड़ी आपत्ति आती है अथवा उस देशका विनाश होता है। देवताके दर्शनके लिये जाते समय यदि उपर्युक्त उत्पात दिखायी पड़ें तो उस देशको भय बतलाना चाहिये ॥ १-५॥

पितामहस्य हम्र्येषु तत्र वासं न रोचयेत्। 
पशूनां रुद्रजं ज्ञेयं नृपाणां लोकपालजम् ॥ ६

ज्ञेयं सेनापतीनां तु यत् स्यात् स्कन्दविशाखजम्। 
लोकानां विष्णुवस्विन्द्रविश्वकर्मसमुद्भवम् ॥ ७

विनायकोद्भवं ज्ञेयं गणानां ये तु नायकाः। 
देवप्रेष्यान् नृपप्रेष्या देवस्त्रीभिर्नृपस्त्रियः ॥ ८

वासुदेवोद्भवं ज्ञेयं ग्रहाणामेव नान्यथा। 
देवतानां विकारेषु श्रुतिवेत्ता पुरोहितः ॥ ९

देवतार्चा तु गत्वा वै स्नानमाच्छाद्य भूषयेत् । 
पूजयेच्च महाभाग गन्धमाल्यान्नसम्पदा ॥ १०

मधुपर्केण विधिवदुपतिष्ठेदनन्तरम् ।
तल्लिङ्गेन च मन्त्रेण स्थालीपाकं यथाविधि।
पुरोधा जुहुयाद् वह्नौ सप्तरात्रमतन्द्रितः ॥ ११

विप्राश्च पूज्या मधुरान्नपानैः सदक्षिणं सप्तदिनं नरेन्द्र ।
प्राप्तेऽष्टमेऽह्नि क्षितिगोप्रदानैः सकाञ्चनैः शान्तिमुपैति पापम् ॥ १२

गृहसम्बन्धी उत्पातोंको ब्रह्मासे सम्बद्ध जानना चाहिये, अतः वहाँ निवास न करे। पशुओंके उत्पातोंको रुद्रसे उत्पन्न और राजाओंके उत्पातोंको लोकपालसे उत्पन्न जानना चाहिये। सेनापतियोंके उत्पातोंको स्कन्द तथा विशाखसे उत्पन्न तथा लोकोंके उत्पातोंको विष्णु, वसु, इन्द्र और विश्वकर्मासे उद्भूत समझना चाहिये। जो गणोंके नायक हैं, उनपर घटित होनेवाला उत्पात विनायकसे उद्भूत जानना चाहिये। देवदूतोंकी अप्रसन्नतासे राजदूतोंपर तथा देवाङ्गनाओंके द्वारा राजपत्नियोंपर उत्पात घटित होते हैं। ग्रहोंके उपद्रवको भगवान् वासुदेवसे उत्पन्न हुआ समझना चाहिये। महाभाग ! देवताओं में उपर्युक्त विकारोंके उत्पन्न होनेपर वेदज्ञ पुरोहित देवमूर्तिके पास जाकर उसे स्नान कराये, वस्त्रादिसे अलंकृत करे तथा चन्दन, पुष्पमाला और भक्ष्यपदार्थसे उसकी पूजा करे। तदनन्तर विधिपूर्वक मधुपर्क निवेदित करे। फिर वह पुरोहित ब्राह्मण सावधानीपूर्वक उक्त प्रतिमाके मन्त्रसे स्थालीपाकद्वारा सात दिनोंतक विधिपूर्वक अग्निमें आहुति डाले। नरेन्द्र ! उक्त सातों दिनोंतक मधुर अन्न-पानादि सामग्रियोंद्वारा तथा उत्तम दक्षिणा देकर ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये। आठवें दिन पृथ्वी, सुवर्ण तथा गौका दान करनेसे पाप शान्त हो जाता है॥ ६-१२॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽद्भुतशान्तावर्चाधिकारो नाम त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३० ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके अद्भुत शान्तिके प्रसङ्गमें पूजाधिकार नामक दो सौ तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २३० ॥

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