दैत्यों और दानवों की युद्धार्थ तैयारी | daityon aur daanavon kee yuddhaarth taiyaaree

मत्स्य पुराण एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय

दैत्यों और दानवों की युद्धार्थ तैयारी

मलय उवाच

ततोऽभयं विष्णुवचः श्रुत्वा दैत्याश्च दानवाः।
उद्योगं विपुलं चकुर्युद्धाय विजयाय च ॥ १

मत्स्यभगवान् ‌बोले- रविनन्दन। तदनन्तर देवताओं के लिये उपयुक्त भगवान् विष्णु के उस अभयदायक वचन को सुनकर दैत्य और दानव युद्ध एवं उसमें विजयप्रासिके लिये महान् उद्योग करने लगे। १

मयस्तु काञ्चनमयं त्रिनल्वायतमक्षयम्।
चतुश्चक्रं सुविपुलं सुकम्पितमहायुगम् ॥ २

किङ्किणीजालनिर्घोषं द्वीपिचर्मपरिष्कृतम।
रुचिरं रत्नजालैश्च हेमजालैश्च शोभितम् ॥ ३

ईहामृगगणाकीर्ण पक्षिपङ्क्तिविराजितम् ।
दिव्यास्त्रतूणीरधरं पयोधरनिनादितम् ॥ ४

स्वक्षं रथवरोदारं सूपस्थं गगनोपमम् । 
गदापरिघसम्पूर्ण मूर्तिमन्तमिवार्णवम् ॥ ५

हैमकेयूरवलयं स्वर्णमण्डलकूबरम् ।
सपताकध्वजोपेतं सादित्यमिव मन्दरम् ॥ ६

गजेन्द्राभोगवपुषं क्वचित् केसरिवर्चसम् । 
युक्तमृक्षसहस्त्रेण समृद्धाम्बुदनादितम् ॥ ७

दीप्तमाकाशगं दिव्यं रथं पररथारुजम् । 
अध्यतिष्ठद्रणाकाङ्क्षी मेरुं दीप्त इर्वाशुमान् ॥ ८

उस समय युद्धाकाडी मय एक ऐसे दिव्य रथपर सवार हुआ, जो सोनेका बना हुआ था। वह अविनाशी रथ तीन नल्व विस्तारवाला अत्यन्त विशाल तथा चार पहियों और परम सुन्दर महान् जुएसे युक्त था। उसमें क्षुद्र घंटिकाओंके रुनझुन शब्द हो रहे थे। वह गैंड़ेके चमड़ेसे आच्छादित, रत्नों और सुवर्णकी सुन्दर जालियोंसे सुशोभित, भेड़ियों और पक्डिबद्ध पक्षियोंकी पच्चीकारीसे समलंकृत तथा दिव्यास्त्र और तरकससे परिपूर्ण था। उससे मेधकी गड़गड़ाहटके समान शब्द निकल रहा था। वह श्रेष्ठ रथ सुन्दर धुरी और सुदृढ़ मध्यभागसे युक्त, आकाशमण्डल-जैसा विस्तृत तथा गदा और परिघसे परिपूर्ण होनेके कारण मूर्तिमान् सागर-सा लग रहा था। उसके केयूर, बलय और कूबर (युगंधर) सोनेके बने हुए थे तथा उसपर पताकाएँ और ध्वज फहरा रहे थे, जिससे वह सूर्ययुक्त मन्दराचलकी भाँति शोभित हो रहा था। उसका ऊपरी भाग कहीं गजेन्द्र-चर्म तो कहीं सिंह-चर्म-जैसा चमक रहा था। उसमें एक हजार रीछ जुते हुए थे, वह घने बादलकी तरह शब्द कर रहा था, शत्रुओंके रथको रौंदनेवाला वह दीतिशाली रथ आकाशगामी था, उसपर बैठा हुआ मय ऐसा लग रहा था मानो दीप्तिमान् सूर्य सुमेरु पर्वतपर विराजमान हों ॥२-८॥

तारमुत्क्रोशविस्तारं सर्वं हेममयं रथम्। 
शैलाकारमसम्बाधं नीलाञ्जनचयोपमम् ॥ ९

कार्णायसमयं दिव्यं लोहेषाबद्धकूबरम्। 
तिमिरोद्‌गारिकिरणं गर्जन्तमिव तोयदम् ॥ १०

लोहजालेन महता सगवाक्षेण दंशितम्।
आयसैः परिधैः पूर्ण क्षेपणीयैश्च मुद्गरैः ॥ ११

प्रासैः पाशैश्च विततैरसंयुक्तश्च कण्टकैः ।
शोभितं त्रासयानैश्च तोमरैश्च परश्वधैः ॥ १२

उद्यन्तं द्विषर्ता हेतोर्द्वितीयमिव मन्दरम्।
युक्तं खरसहस्त्रेण सोऽध्यारोहद्रथोत्तमम् ॥ १३

विरोचनस्तु संकुद्धो गदापाणिरवस्थितः ।
प्रमुखे तस्य सैन्यस्य दीप्तशृङ्ग इवाचलः ॥ १४

युक्तं रथसहस्त्रेण हयग्रीवस्तु दानवः। 
स्यन्दनं वाहयामास सपत्नानीकमर्दनः ॥ १५

व्यायतं किष्कुसाहस्रं धनुर्विस्फारयन् महत्। 
वाराहः प्रमुखै तस्थौ सप्ररोह इवाचलः ॥ १६

खरस्तु विक्षरन् दन्त्रित्राभ्यां रोषजं जलम् । 
स्फुरद्दन्तोष्ठनयनं संग्रामं सोऽभ्यकाङ्क्षत ॥ १७

इसी प्रकार जो अत्यन्त ऊँचा और दूरतक शब्द करनेवाला था, जिसके सभी अङ्ग स्वर्णमय थे, जो आकारमें पर्वतके समान और नीलाञ्जनकी राशि-सा दीख रहा था, काले लोहेका बना हुआ था, जिसके लोहेके हरसेमें कूबर बँधा हुआ था, जिसमें कहीं-कहीं अंधकारको फाड़कर किरणें चमक रही थीं, जो बादलकी तरह गर्जना कर रहा था, लोहेकी विशाल जाली और झरोखोंसे सुशोभित था, लोहनिर्मित परिघ, क्षेपणीय (बेलवाँस) और मुद्ररोंसे परिपूर्ण था, भाला, पाश, बड़े-बड़े शङ्क, कण्टक, भयदायक तोमर और कुठारोंसे सुशोभित था, शत्रुओंसे युद्ध करनेके लिये उद्यत दूसरे मन्दराचलकी भाँति दीख रहा था तथा जिसमें एक हजार गधे जुते हुए थे, ऐसे उत्तम दिव्य रथपर तारकासुर सवार हुआ। क्रोधसे भरा हुआ विरोचन हाथमें गदा लिये हुए उस सेनाके मुहानेपर खड़ा हुआ। वह देदीप्यमान शिखरवाले पर्वतके समान लग रहा था। शत्रुसेनाका मर्दन करनेवाले दानवश्रेष्ठ हयग्रीवने एक हजार रथके साथ अपने रथको आगे बढ़ाया। वाराह नामक दानव अपने एक हजार किष्कु लम्बे विशाल धनुषका टंकार करते हुए सेनाके अग्रभागमें स्थित हुआ, जो वृक्षोंसहित पर्वत-सा दीख रहा था। खर नामक दैत्य अभिमानवश नेत्रोंसे रोषजनित जल गिराता हुआ संग्रामके लिये उद्यत हुआ, उस समय उसके दाँत, होंठ और नेत्र फड़क रहे थे ॥ ९-१७॥

त्वष्टा त्वष्टगजं घोरं यानमास्थाय दानवः । 
व्यूहितुं दानवव्यूहं परिचक्राम वीर्यवान् ॥ १८

विप्रचित्तिसुतः श्वेतः श्वेतकुण्डलभूषणः ।
श्वेतशैलप्रतीकाशो युद्धायाभिमुखे स्थितः ॥ १९

अरिष्टो बलिपुत्रश्च वरिष्ठोऽद्रिशिलायुधः ।
युद्धायाभिमुखस्तस्थौ धराधरविकम्पनः ॥ २०

किशोरस्त्वभिसंहर्षात्किशोर इति चोदितः ।
सबला दानवाश्चैव सन्त्रान्ते यथाक्रमम् ॥ २१

अभवद् दैत्यसैन्यस्य मध्ये रविरिवोदितः ।
लम्बस्तु नवमेधाभः प्रलम्बाम्बरभूषणः ॥ २२

दैत्यव्यूहगतो भाति सनीहार इवांशुमान्। 
स्वर्भानुरास्ययोधी तु दशनोष्ठेक्षणायुधः ॥ २३

हसंस्तिष्ठति दैत्यानां प्रमुखे स महाग्रहः । 
अन्ये हयगतास्तत्र गजस्कन्धगताः परे ॥ २४

सिंहव्याघ्घ्रगताश्चान्ये वराहक्षेषु चापरे। 
केचित्खरोष्ट्रयातारः केचिच्छ्‌वापदवाहनाः ॥ २५ 

इसी प्रकार पराक्रमी दानवराज त्वष्टा, जिसमें आठ हाथी जुते हुए थे, ऐसे भयंकर रथपर बैठकर दानवसेनाको व्यूहबद्ध करनेका प्रयत्न करने लगा। विप्रचित्तिका पुत्र श्वेत, जो श्वेत पर्वतके समान विशालकाय और श्वेत कुण्डलोंसे विभूषित था, युद्धके लिये सेनाके अग्रभागमें स्थित हुआ। बलिका पुत्र अरिष्ट, जो महान् बलसम्पन्न और पर्वतको कैंपा देनेवाला था तथा पर्वत-शिलाएँ जिसकी आयुधभूता थीं, युद्धको कामनासे सेनाके सम्मुख खड़ा हुआ। किशोर नामक दैत्य प्रेरित किये गये सिंह-किशोरकी तरह अत्यन्त हर्षके साथ दैत्य-सेनाके मध्यभागमें उपस्थित हुआ, जो उदय कालीन सूर्य-सा प्रतीत हो रहा था। नवीन मेधकी-सी कान्तिवाला लम्ब नामक दानव, जो लम्बे क्खों और आभूषणों से विभूषित था, दैत्यसेनामें पहुँचकर कुहासेसे घिरे हुए सूर्यकी तरह शोभा पा रहा था। महान् ग्रह राहु, जो मुख, दाँत, होंठ और नेत्रोंसे युद्ध करनेवाला था, हँसते हुए दैत्योंके आगे खड़ा हुआ। इस प्रकार अन्यान्य दानव भी क्रमशः सेनासहित कवच धारण करके युद्धके लिये प्रस्थित हुए। उनमें कुछ लोग घोड़ोंपर सवार थे तो कुछ लोग गजराजोंके कंधोंपर बैठे थे। दूसरे कुछ लोग सिंह, व्याघ्र, वराह और रीछोंपर सवार थे। कुछ गधे और ऊँटोंपर चढ़कर चल रहे थे तो किन्हींके वाहन चीते थे ॥ १८-२५॥

पत्तिनस्त्वपरे दैत्या भीषणा विकृताननाः। 
एकपादार्थपादाश्च ननृतुर्युद्धकाङ्गिणः ॥ २६

आस्फोटयन्तो बहवः ध्वेडन्तश्च तथापरे। 
हृष्टशार्दूलनिर्घोषा नेदुर्दानवपुङ्गवाः ।॥ २७

ते गदापरिघैरुग्रैः शिलामुसलपाणयः ।
बाहुभिः परिघाकारैस्तर्जयन्ति स्म देवताः ॥ २८

पाशैः प्रासैश्च परिधैस्तोमराङ्कुशपट्टिशैः । 
चिक्रीडुस्ते शतघ्नीभिः शतधारैश्च मुद्गरैः ॥ २९

गण्डशैलैश्च शैलैश्च परिषैश्चोत्तमायसैः ।
 चक्रैश्च दैत्यप्रवराश्चकुरानन्दितं बलम् ॥ ३०

एतद्दानवसैन्यं तत् सर्व युद्धमदोत्कटम्। 
देवानभिमुखे तस्थौ मेघानीकमिवोद्धतम् ॥ ३१ 

तदद्भुतं दैत्यसहस्त्रगाढं वाय्वग्निशैलाम्बुदतोयकल्पम् ।
बलं रणौघाभ्युदयेऽभ्युदीर्ण युयुत्सयोन्मत्तमिवावभासे ॥ ३२

दूसरे भीषण दैत्य, जिनमें कुछके मुख टेढ़े थे, किन्होंके एक पैर तथा किन्हींके आधा पैर ही था, युद्धकी अभिलाषासे पैदल ही नाचते हुए चल रहे थे। उन दानवश्रेष्ठोंमें कुछ ताल ठोंक रहे थे, बहुतेरे उछल-कूद रहे थे और कुछ हर्षित होकर सिंहनाद कर रहे थे। इस प्रकार वे दानवगण हाथोंमें भयंकर गदा, परिष, शिला और मुसल धारण करके अपनी परिधाकार भुजाओंसे देवताओंको धमका रहे थे। उस समय श्रेष्ठ दैत्यगण पाश, भाला, परिघ, तोमर (लकड़ी का बना गोलाकार अस्त्र), अङ्कुश, पट्टिश, शतघ्नी (तोप), शतधार, मुद्रर, गण्डशैल, शैल, उत्तम लोहेके बने हुए परिष और चक्रोंसे क्रीडा करते हुए दैत्यसेनाको आनन्दित करने लगे। इस प्रकार दानवोंकी वह सारी सेना युद्धके मदसे उन्मत्त हो देवताओंके सम्मुख खड़ी हुई, जो उमड़े हुए मेघोंकी सेना-सौ प्रतीत हो रही थी। दानवोंकी वह अद्भुत एवं प्रचण्ड सेना, जो हजारों प्रधान दैत्योंसे भरी हुई तथा वायु, अग्नि, पर्वत और मेघके समान भीषण दीख रही थी, युद्धकी तैयारीके समय युद्धकी इच्छासे उन्मत्त हुई-सी शोभा पा रही थी ॥ २६-३२ ॥

इति श्रीमात्ये महापुराणे तारकामयसंग्रामे त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७३ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके तारकामय-संग्राममें एक सौ तिहत्तराँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १७३ ॥ 

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