मत्स्य पुराण दो सौ इक्कीसवाँ अध्याय
दैव और पुरुषार्थ का वर्णन
मनुरुवाच
दैवे पुरुषकारे च किं ज्यायस्तद् ब्रवीहि मे।
अत्र मे संशयो देव छेत्तुमर्हस्यशेषतः ॥ १
मनुने पूछा-देव ! भाग्य और पुरुषार्थ-इन दोनोंमें कौन श्रेष्ठ है? यह मुझे बतलाइये। इस विषयमें मुझे संदेह है, अतः आप उसका सम्पूर्णरूपसे निवारण कीजिये ॥ १॥
मत्स्य उवाच
स्वमेव कर्म दैवाख्यं विद्धि देहान्तरार्जितम्।
तस्मात् पौरुषमेवेह श्रेष्ठमाहुर्मनीषिणः ॥ २
प्रतिकूलं तथा दैवं पौरुषेण विहन्यते।
मङ्गलाचारयुक्तानां नित्यमुत्थानशालिनाम्॥ ३
येषां पूर्वकृतं कर्म सात्त्विकं मनुजोत्तम ।
पौरुषेण विना तेषां केषांचिद् दृश्यते फलम् ॥ ४
कर्मणा प्राप्यते लोके राजसस्य तथा फलम्।
कृच्छ्रेण कर्मणा विद्धि तामसस्य तथा फलम् ॥ ५
मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ! अन्य जन्ममें अपने द्वारा किया गया पुरुषार्थ (कर्म) ही दैव कहा जाता है, इसी कारण इन दोनोंमें मनीषियोंने पौरुषको ही श्रेष्ठ माना है; क्योंकि माङ्गलिक आचरण करनेवाले एवं नित्य-प्रति अभ्युदयशील पुरुषोंका प्रतिकूल दुर्दैव भी पुरुषार्थद्वारा नष्ट हो जाता है। मानवश्रेष्ठ ! जिन्होंने पूर्वजन्ममें सात्त्विक कर्म किया है, उन्होंमें किन्हीं किन्हींको पुरुषार्थके बिना भी अच्छे फलकी प्राप्ति देखी जाती है। लोकमें रजोगुणी पुरुषको कर्म करनेसे फलकी प्राप्ति होती है और तमोगुणी पुरुषको कठिन कर्म करनेसे फलकी प्राप्ति जाननी चाहिये ॥ २-५ ॥
पौरुषेणाप्यते राजन् प्रार्थितव्यं फलं नरैः ।
दैवमेव विजानन्ति नराः पौरुषवर्जिताः ॥ ६
तस्मात् त्रिकालं संयुक्तं दैवं तु सफलं भवेत् ।
पौरुषं दैवसम्पत्त्या काले फलति पार्थिव ॥ ७
दैवं पुरुषकारश्च कालश्च पुरुषोत्तम।
त्रयमेतन्मनुष्यस्य पिण्डितं स्यात् फलावहम् ॥ ८
कृषेर्वृष्टिसमायोगाद् दृश्यन्ते फलसिद्धयः ।
तास्तु काले प्रदृश्यन्ते नैवाकाले कथञ्चन ॥ ९
तस्मात् सदैव कर्तव्यं सधर्म पौरुषं नरैः ।
विपत्तावपि यस्येह परलोके ध्रुवं फलम् ॥ १०
नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान्न च दैवपरायणाः ।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन पौरुषे यत्नमाचरेत् ॥ ११
त्यक्त्वाऽऽलसान् दैवपरान् मनुष्या-नुत्थानयुक्तान् पुरुषान् हि लक्ष्मीः ।
अन्विष्य यत्नादृणुयान्नृपेन्द्र तस्मात् सदोत्थानवता हि भाव्यम् ॥ १२
राजन् ! मनुष्योंको पुरुषार्थद्वारा अभिलषित पदार्थकी प्राप्ति होती है, किंतु जो लोग पुरुषार्थसे हीन हैं, वे दैवको ही सब कुछ मानते हैं। अतः तीनों कालोंमें पुरुषार्थयुक्त दैव ही सफल होता है। राजन्। भाग्ययुक्त मनुष्यका पुरुषार्थ समयपर फल देता है। पुरुषोत्तम । दैव, पुरुषार्थ और काल ये तीनों संयुक्त होकर मनुष्यको फल देनेवाले होते हैं। कृषि और वृष्टिका संयोग होनेसे फलकी सिद्धियाँ देखी जाती हैं, किंतु वे भी समय आनेपर ही दिखायी पड़ती हैं, बिना समयके किसी प्रकार भी नहीं। इसलिये मनुष्यको सर्वदा धर्मयुक्त पुरुषार्थ करना चाहिये। उसके इस लोकमें आपत्तियोंमें पड़ जानेपर भी परलोकमें उसे निश्चय ही फल प्राप्त होगा। आलसी और भाग्यपर निर्भर रहनेवाले पुरुषोंको अर्थोंकी प्राप्ति नहीं होती। इसलिये सभी प्रयत्नोंसे पुरुषार्थ करनेमें तत्पर रहना चाहिये। राजेन्द्र ! लक्ष्मी भाग्यपर भरोसा रखनेवाले एवं आलसी पुरुषोंको छोड़कर पुरुषार्थ करनेवाले पुरुषोंको यत्नपूर्वक ढूँढ़कर वरण करती है, इसलिये सर्वदा पुरुषार्थशील होना चाहिये ॥ ६-१२ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे दैवपुरुषकारवर्णनं नामैकविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२९ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें दैव-पुरुषका वर्णन नामक दो सी इक्कीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २२१ ॥
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