मत्स्य पुराण दो सौ पचीसवाँ अध्याय
दण्ड नीति का वर्णन
मत्स्य उवाच
न शक्या ये वशे कर्तुमुपायत्रितयेन तु।
दण्डेन तान् वशीकुर्याद् दण्डो हि वशकृन्नृणाम् ॥ १
मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ! जो (पूर्वोक्त सामादि) तीनों उपायोंके द्वारा वशमें नहीं किये जा सकते, उन्हें दण्डनीति के द्वारा वशमें करे; क्योंकि दण्ड मनुष्योंको निश्चयरूपसे वशमें करनेवाला है। १
सम्यक् प्रणयनं तस्य तथा कार्य महीक्षिता।
धर्मशास्त्रानुसारेण सुसहायेन धीमता ॥ २
तस्य सम्यक् प्रणयनं यथा कार्य महीक्षिता।
वानप्रस्थांश्च धर्मज्ञान् निर्ममान् निष्परिग्रहान् ॥ ३
स्वदेशे परदेशे वा धर्मशास्त्रविशारदान् ।
समीक्ष्य प्रणयेद् दण्डं सर्वं दण्डे प्रतिष्ठितम् ॥ ४
आश्रमी यदि वा वर्णी पूज्यो वाथ गुरुर्महान्।
नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मेण तिष्ठति ॥ ५
अदण्ड्यान् दण्डयन् राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन् ।
इह राज्यात् परिभ्रष्टो नरकं च प्रपद्यते ॥ ६
तस्माद् राज्ञा विनीतेन धर्मशास्त्रानुसारतः ।
दण्डप्रणयनं कार्य लोकानुग्रहकाम्यया ॥ ७
यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा।
प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत् साधु पश्यति ॥ ८
बालवृद्धातुरयतिद्विजस्त्रीविधवा यतः ।
मात्स्यन्यायेन भक्ष्येरन् यदि दण्डं न पातयेत् ॥ ९
देवदैत्योरगगणाः सर्वे भूतपतत्रिणः ।
उत्क्रामयेयुर्मर्यादां यदि दण्डं न पातयेत् ॥ १०
बुद्धिमान् राजाको सम्यक्-रूपसे उस दण्डनीतिका प्रयोग धर्मशास्त्रके अनुसार पुरोहित आदिकी सहायतासे करना चाहिये। उस दण्डनीतिका सम्यक् प्रयोग जिस प्रकार करना चाहिये, उसे सुनिये। राजाको अपने देशमें अथवा पराये देशमें वानप्रस्थाश्रमी, धर्मशील, ममतारहित, परिग्रहहीन और धर्मशास्त्रप्रवीण विद्वान् पुरुषोंकी परिषद्वारा भलीभाँति विचार कर दण्डनीति का प्रयोग करना चाहिये; क्योंकि सब कुछ दण्डपर ही प्रतिष्ठित है। सभी आश्रमधर्मके व्यक्ति, ब्रह्मचारी, पूज्य, गुरु, महापुरुष तथा अपने धर्म में स्थित रहने वाला कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो राजाके द्वारा दण्डनीय न हो; किंतु अदण्डनीय पुरुषों को दण्ड देने तथा दण्डनीय पुरुषों को दण्ड न देनेसे राजा इस लोकमें राज्यसे च्युत हो जाता है और मरनेपर नरकमें पड़ता है। इसलिये विनयशील राजाको लोकानुग्रहकी कामनासे धर्मशास्त्रके अनुसार ही दण्डनीतिका प्रयोग करना चाहिये। जिस राज्यमें श्यामवर्ण, लाल नेत्रवाला और पापनाशक दण्ड विचरण करता है तथा राजा ठीक-ठीक निर्णय करनेवाला होता है वहाँ प्रजाएँ कष्ट नहीं झेलतीं। यदि राज्यमें दण्डनीतिकी व्यवस्था न रखी जाय तो बालक, वृद्ध, आतुर, संन्यासी, ब्राह्मण, स्त्री और विधवा-ये सभी मात्स्यन्यायके अनुसार आपसमें एक-दूसरेको खा जायें। यदि राजा दण्डकी व्यवस्था न करे तो सभी देवता, दैत्य, सर्पगण, प्राणी तथा पक्षी मर्यादाका उल्लङ्घन कर जायेंगे ॥१-१० ॥
एष ब्रह्माभिशापेषु सर्वप्रहरणेषु च।
सर्वविक्रमकोपेषु व्यवसाये च तिष्ठति ॥ ११
पूज्यन्ते दण्डिनो देवैर्न पूज्यन्ते त्वदण्डिनः ।
न ब्रह्माणं विधातारं न पूषार्यमणावपि ॥ १२
यजन्ते मानवाः केचित् प्रशान्ताः सर्वकर्मसु ।
रुद्रमग्निं च शक्रं च सूर्याचन्द्रमसौ तथा ॥ १३
विष्णुं देवगणांश्चान्यान् दण्डिनः पूजयन्ति च।
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति ॥ १४
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्म विदुर्बुधाः ।
राजदण्डभयादेव पापाः पापं न कुर्वते ॥ १५
यमदण्डभयादेके परस्परभयादपि।
एवं सांसिद्धिके लोके सर्वं दण्डे प्रतिष्ठितम् ॥ १६
अन्धे तमसि मज्जेयुर्यदि दण्डं न पातयेत्।
यस्माद् दण्डो दमयति दुर्मदान् दण्डयत्यपि।
दमनाद् दण्डनाच्चैव तस्माद् दण्डं विदुर्बुधाः ॥ १७
दण्डस्य भीतैस्त्रिदशैः समेतै- र्भागो धृतः शूलधरस्य यज्ञे।
दत्तं कुमारे ध्वजिनीपतित्वं वरं शिशूनां च भयाद् बलस्थम् ॥ १८
यह दण्ड ब्राह्मणके शाप, सभीके अस्त्र-शस्त्र, सभी प्रकारके पराक्रमपूर्वक क्रोधसे किये गये क्रिया-कलाप और व्यवसायमें स्थित रहता है। दण्ड देनेवाले व्यक्ति देवताओंद्वारा पूज्य हैं, किंतु दण्ड न देनेवालोंकी पूजा कहीं भी नहीं होती। ब्रह्मा, पूषा और अर्थमा सभी कार्योंमें शान्त रहते हैं, इसलिये कोई भी मनुष्य उनकी पूजा नहीं करता। साथ ही दण्ड देनेवाले रुद्र, अग्नि, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु एवं अन्य देवगणोंकी सभी लोग पूजा करते हैं। दण्ड सभी प्रजाओंपर शासन करता है तथा दण्ड ही सबकी रक्षा करता है। दण्ड सभीके सो जानेपर भी जागता रहता है, अतएव बुद्धिमान् लोग दण्डको धर्म मानते हैं। कुछ पापी राजदण्डके भयसे, कुछ यमराजके दण्डके भयसे और कतिपय पारस्परिक दण्ड दमन करता है और दुर्मदोंको दण्ड भी देता है, भयसे भी पापकर्म नहीं करते। इस प्रकार इस प्राकृतिक जगत्में सभी कुछ दण्डपर ही प्रतिष्ठित है। यदि दण्ड न दिया जाय तो प्रजा घोर अंधकारमें डूब जाय। चूँकि इसलिये दमन करने तथा दण्ड देनेके कारण बुद्धिमान् लोग उसे दण्ड मानते हैं। दण्डके भयसे डरे हुए समस्त देवताओंने यज्ञमें शिवजीका भाग निश्चित किया है और भयके कारण ही स्वामी कार्तिकेयको शैशवावस्थामें ही सारी देवसेनाका सेनापतित्व और वरदान प्रदान किया गया है॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे राजधर्मे दण्डप्रशंसा नाम पञ्चविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२५ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके राजधर्म-प्रकरणमें दण्डप्रशंसा नामक दो सौ पचीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २२५ ॥
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