मत्स्य पुराण दो सौ पाँचवाँ अध्याय
धेनु-दान-विधि
मनुरुवाच
प्रसूयमाना दातव्या धेनुर्ब्रह्मणपुङ्गवे ।
विधिना केन धर्मज्ञ दानं दद्याच्च किं फलम् ॥ १
मनुजीने पूछा- धर्मके तत्त्वोंको जाननेवाले भगवन् । श्रेष्ठ ब्राह्मणको ब्याती हुई गौका दान किस विधिसे देना चाहिये और उस दानसे क्या फल प्राप्त होता है ? ॥ १॥
मत्स्य उवाच
स्वर्णशृङ्गीं रौप्यखुरां मुक्तालाडूलभूषिताम्।
कांस्योपदोहनां राजन् सवत्सां द्विजपुङ्गवे ॥ २
प्रसूयमानां गां दत्त्वा महत्पुण्यफलं लभेत् ।
यावद्वत्सो योनिगतो यावद्वर्भ न मुञ्चति ॥ ३
तावद् वै पृथिवी ज्ञेया सशैलवनकानना।
प्रसूयमानां यो दद्याद् धेनुं द्रविणसंयुताम् ॥ ४
ससमुद्रगुहा तेन सशैलवनकानना।
चतुरन्ता भवेद् दत्ता पृथिवी नात्र संशयः ॥ ५
यावन्ति धेनुरोमाणि वत्सस्य च नराधिप।
तावत्संख्यं युगगणं देवलोके महीयते ।। ६
पितृन पितामहांश्चैव तथैव प्रपितामहान्।
उद्धरिष्यत्यसंदेहं नरकाद् भूरिदक्षिणः ॥ ७
घृतक्षीरवहाः कुल्या दधिपायसकर्दमाः ।
यत्र तत्र गतिस्तस्य द्रुमाश्चेप्सितकामदाः।
गोलोकः सुलभस्तस्य ब्रह्मलोकश्च पार्थिव ॥ ८
स्त्रियश्च तं चन्द्रसमानवक्त्राः प्रतप्तजाम्बूनदतुल्यरूपाः।
महानितम्बास्तनुवृत्तमध्या भजन्त्यजस्त्रं नलिनाभनेत्राः ॥ ९
मत्स्यभगवान् बोले- राजन् ! जिसके सींग सुवर्णजटित हों, खुर चाँदीसे मढ़े गये हों, जिसकी पूँछ मोतियोंसे सुशोभित हो तथा जिसके निकट काँसेकी दोहनी रखी हो, ऐसी सवत्सा गौका दान श्रेष्ठ ब्राह्मणको देना चाहिये। व्याती हुई गायका दान करनेपर महान् पुण्यफल प्रास होता है। जबतक बछड़ा योनिके भीतर रहता है एवं जबतक गर्भको नहीं छोड़ता, तबतक उस गौको वन-पर्वतोंसहित पृथ्वी समझना चाहिये। जो व्यक्ति द्रव्यसहित ब्याती हुई गायका दान देता है, उसने मानो सभी समुद्र, गुफा, पर्वत और जंगलोंके साथ चतुर्दिग्व्याप्त पृथ्वीका दान कर दिया, इसमें संदेह नहीं है। नरेश्वर! उस बछड़ेके तथा गौके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं उतने युगोंतक दाता देवलोकमें पूजित होता है। विपुल दक्षिणा देनेवाला मनुष्य निश्चय ही अपने पिता, पितामह तथा प्रपितामहका नरकसे उद्धार कर देता है। वह जहाँ-कहीं जाता है, वहाँ उसे दही और पायसरूपी कीचड़से युक्त घृत एवं क्षीरकी नदियाँ प्राप्त होती हैं तथा मनोवाञ्छित फल प्रदान करनेवाले वृक्ष प्राप्त होते रहते हैं। राजन्। उसे गोलोक और ब्रहालोक सुलभ हो जाते हैं तथा चन्द्रमुखी, तपाये हुए सुवर्णके समान वर्णवाली, स्थूल नितम्बवाली, पतली कमरसे सुशोभित, कमलनयनी त्रियाँ निरन्तर उसकी सेवा करती हैं॥ २-९॥
इति श्रीमाल्ये महापुराणे धेनुदानं नाम पञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०५ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें धेनु दान-माहात्म्य नामक दो सौ पाँचवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २०५ ॥
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