दुर्ग-निर्माण की विधि तथा राजा द्वारा दुर्ग में संग्रहणीय उपकरणों का विवरण | durg-nirmaan kee vidhi tatha raaja dvaara durg mein sangrahaneey upakaranon ka vivaran

मत्स्य पुराण दो सौ सतरहवाँ अध्याय

दुर्ग-निर्माण की विधि तथा राजा द्वारा दुर्ग में संग्रहणीय उपकरणों का विवरण

मत्स्य उवाच

राजा सहायसंयुक्तः प्रभूतयवसेन्धनम् ।
रम्यमानतसामन्तं मध्यमं देशमावसेत् ॥ १

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ! जहाँ प्रचुर मात्रामें घास-भूसा और लकड़ी वर्तमान हो, स्थान रमणीय हो, पड़ोसी राजा विनम्र हो, वैश्य और शूद्रलोग अधिक मात्रामें रहते हों। १

वैश्यशूद्रजनप्रायमनाहार्ये तथा परैः ।
किञ्चिद् ब्राह्मणसंयुक्तं बहुकर्मकरं तथा ॥ २

अदेवमातृकं रम्यमनुरक्तजनान्वितम् । 
करैरपीडितं चापि बहुपुष्यफलं तथा ॥ ३

अगम्यं परचक्राणां तद्वासगृहमापदि । 
समदुःखसुखं राज्ञः सततं प्रियमास्थितम् ॥ ४

सरीसृपविहीनं च व्याघ्घ्रतस्करवर्जितम् ।
एवंविधं यथालाभं राजा विषयमावसेत् ॥ ५

तत्र दुर्गं नृपः कुर्यात् षण्णामेकतमं बुधः । 
धन्वदुर्गं महीदुर्ग नरदुर्गं तथैव च ॥ ६

वाक्ष चैवाम्बुदुर्ग च गिरिदुर्गं च पार्थिव।
सर्वेषामेव दुर्गाणां गिरिदुर्ग प्रशस्यते ॥ ७

दुर्गं च परिखोपेतं वप्राट्टालकसंयुतम् । 
शतघ्नीयन्त्रमुख्यैश्च शतशश्च समावृतम् ॥ ८

गोपुरं सकपाटं च तत्र स्यात् सुमनोहरम्। 
सपताकं गजारूढो येन राजा विशेत् पुरम् ॥ ९

जो शत्रुओंद्वारा हरण किये जाने योग्य न हो एवं कुछ विप्रों तथा अधिकांश कर्मकरोंसे संयुक्त हो, देवस्थान रहित सुन्दर हो, अनुरक्तजनोंसे समन्वित हो, जहाँके निवासी करके भारसे पीड़ित न हों, पुष्प और फलकी बहुतायत हो, आपत्तिके समय वह वासस्थान शत्रुओंके लिये अगम्य हो, जहाँ निरन्तर समानरूपसे राजाके सुख-दुःखके भागी एवं प्रेमीजन निवास करते हों, जो सर्प, बाघ और चोरसे रहित हो तथा सरलतासे उपलब्ध हो, इस प्रकारके देशमें राजाको अपने सहायकोंसहित निवास करना चाहिये। वहाँ बुद्धिमान् राजाको धन्व या धनुदुर्ग (जहाँ चारों ओरसे मरुभूमि हो), महीदुर्ग नरदुर्ग, वृक्षदुर्ग, जलदुर्ग तथा पर्वतदुर्ग-इन छः दुर्गोंमेंसे किसी एककी रचना करनी चाहिये। राजन् ! इन सभी दुर्गोंमें गिरि (पर्वत) दुर्ग श्रेष्ठ माना गया है। वह गिरिदुर्ग खाई, चहारदीवारी तथा ऊँची अट्टालिकाओंसे युक्त एवं तोप आदि सैकड़ों प्रधान यन्त्रोंसे घिरा होना चाहिये। उसमें किंवाड़सहित मनोहर फाटक लगा हो, जिससे हाथीपर बैठा हुआ पताकासमेत राजा नगरमें प्रविष्ट हो सके ॥ २-९॥

चतस्त्रश्च तथा तत्र कार्यास्त्वायतवीथयः । 
एकस्मिस्तत्र वीथ्यग्रे देववेश्म भवेद् दृढम् ॥ १०

वीथ्यग्रे च द्वितीये च राजवेश्म विधीयते । 
धर्माधिकरणं कार्य वीथ्यग्रे च तृतीयके ॥ ११ 

चतुर्थे त्वथ वीथ्यग्रे गोपुरं च विधीयते। 
आयतं चतुरग्रं वा वृत्तं वा कारयेत् पुरम् ॥ १२ 

मुक्तिहीनं त्रिकोणं च यवमध्यं तथैव च। 
अर्धचन्द्रप्रकारं च वज्राकारं च कारयेत् ॥ १३ 

अर्धचन्द्रं प्रशंसन्ति नदीतीरेषु तद्वसन् । 
अन्यत्र तन्न कर्तव्यं प्रयत्नेन विजानता । १४ 

राज्ञा कोशगृहं कार्य दक्षिणे राजवेश्मनः । 
तस्यापि दक्षिणे भागे गजस्थानं विधीयते ॥ १५ 

गजानां प्राङ्‌मुखी शाला कर्तव्या वाप्युदङ्मुखी। 
आग्नेये च तथा भागे आयुधागारमिष्यते ॥ १६ 

वहाँ चार लम्बी-चौड़ी गलियाँ बनवानी चाहिये। जिनमें एक गलीके अग्रभागमें सुदृढ़ देव मन्दिरका निर्माण कराये। दूसरी गलीके आगे राजमहल बनानेका विधान है। तीसरी गलीके अग्रभागमें धर्माधिकारीका आवासस्थान हो। चौथी गलीके अग्रभागमें दुर्गका मुख्य प्रवेशद्वार हो। उस दुर्गको चौकोना, आयताकार, गोलाकार, मुक्तिहीन, त्रिकोण, यवमध्य, अर्धचन्द्राकार अथवा वज्राकार बनवाना चाहिये। नदी-तटपर बनाये गये अर्धचन्द्राकार दुर्गको उत्तम माना जाता है। विद्वान् राजाको अन्य स्थानोंपर ऐसे दुर्गका निर्माण नहीं करना चाहिये। राजाको राजमहलके दाहिने भागमें कोशगृह बनवाना चाहिये। उसके भी दाहिने भागमें गजशाला बनवानेका विधान है। गजोंकी शाला पूर्व अथवा उत्तराभि मुखी होनी चाहिये। अग्निकोणमें आयुधागार बनवाना उचित है। 

धर्मज्ञ। उसी दिशामें रसोईघर तथा अन्यान्य कर्मशालाओंकी भी रचना करे। राजभवनकी बार्थी ओर पुरोहितका भवन होना चाहिये तथा उसी स्थलपर एवं उसी दिशामें मन्त्रियों और वैद्यका निवासस्थान एवं कोष्ठागार बनानेका विधान है। उसी स्थानके समीप गौओं तथा अश्वोंके निवासकी व्यवस्था करनी चाहिये। अश्वोंकी पंक्ति उत्तराभिमुखी अथवा दक्षिणाभिमुखी हो सकती है, अन्य दिशा भिमुखी निन्दित मानी गयी है। जहाँ अश्व रखे जायें वहाँ रातभर दीपक जलते रहना चाहिये। अश्वशालामें मुर्गा, बंदर, मर्कट तथा बछड़ेसहित गौ भी रखनेका विधान है। अश्वोंका कल्याण चाहनेवाला अश्वशालामें बकरियोंको भी रखे। गौ, हाथी और अश्वादि शालाओंमें उनके गोबर निकालनेकी व्यवस्था सूर्य अस्त हो जानेपर नहीं करनी चाहिये। राजा उन-उन स्थानोंमें यथायोग्य समझकर क्रमशः सभी सारथियोंको आवासस्थान प्रदान करे। इसी प्रकार सबसे बढ़कर योद्धाओं, शिल्पियों और कालमन्त्रके वेत्ताओंको दुर्गमें उत्तम निवास स्थान दे। इसी प्रकार राजाको गौ-वैद्य, अश्व-वैद्य तथा गज-वैद्यको भी रखना चाहिये; क्योंकि दुर्गमें कभी रोगोंकी प्रबलता हो सकती है। दुर्गमें चारणों, संगीतज्ञों और ब्राह्मणों के स्थान का विधान है॥१०-२६ ॥

महानसं च धर्मज्ञ कर्मशालास्तथापराः ।
गृहं पुरोधसः कार्यं वामतो राजवेश्मनः ॥ १७

मन्त्रिवेदविदां चैव चिकित्साकर्तुरेव च।
तत्रैव च तथा भागे कोष्ठागारं विधीयते ॥ १८

गवां स्थानं तथैवात्र तुरगाणां तथैव च। 
उत्तराभिमुखा श्रेणी तुरगाणां विधीयते ॥ १९

दक्षिणाभिमुखा वाथ परिशिष्टास्तु गर्हिताः ।
तुरगास्ते तथा धार्याः प्रदीपैः सार्वरात्रिकैः ॥ २० 

कुक्कुटान् वानरांश्चैव मर्कटांश्च विशेषतः ।
धारयेदश्वशालासु सवत्सां धेनुमेव च ॥ २१

अजाश्च धार्या यत्नेन तुरगाणां हितैषिणा।
गोगजाश्वादिशालासु तत्पुरीषस्य निर्गमः ॥ २२

अस्तं गते न कर्तव्यो देवदेवे दिवाकरे।
तत्र तत्र यथास्थानं राजा विज्ञाय सारथीन् ॥ २३

दद्यादावसथस्थानं सर्वेषामनुपूर्वशः ।
योधानां शिल्पिनां चैव सर्वेषामविशेषतः ॥ २४

 दद्यादावसथान् दुर्गे कालमन्त्रविदां शुभान्। 
गोवैद्यानश्ववैद्यांश्च गजवैद्यांस्तथैव च ॥ २५ 

आहरेत भृशं राजा दुर्गे हि प्रबला रुजः। 
कुशीलवानां विप्राणां दुर्गे स्थानं विधीयते ॥ २६

न बहूनामतो दुर्गे विना कार्ये तथा भवेत्। 
दुर्गे च तत्र कर्तव्या नानाप्रहरणान्विताः ॥ २७

सहस्त्रघातिनो राजंस्तैस्तु रक्षा विधीयते।
दुर्गे द्वाराणि गुप्तानि कार्याण्यपि च भूभुजा ॥ २८

संचयश्चात्र सर्वेषामायुधानां प्रशस्यते।
धनुषां क्षेपणीयानां तोमराणां च पार्थिव ॥ २९

शराणामथ खङ्गानां कवचानां तथैव च।
लगुडानां गुडानां च हुडानां परिधैः सह ॥ ३०

अश्मनां च प्रभूतानां मुद्रराणां तथैव च।
त्रिशूलानां पट्टिशानां कुठाराणां च पार्थिव ॥ ३१

प्रासानां च सशूलानां शक्तीनां च नरोत्तम।
परश्वधानां चक्राणां वर्मणां चर्मभिः सह ॥ ३२

कुद्दालरज्जुवेत्राणां पीठकानां तथैव च। 
तुषाणां चैव दात्राणामङ्गाराणां च संचयः ॥ ३३

सर्वेषां शिल्पिभाण्डानां संचयश्चात्र चेष्यते । 
वादित्राणां च सर्वेषामोषधीनां तथैव च ॥ ३४

यवसानां प्रभूतानामिन्धनस्य च संचयः । 
गुडस्य सर्वतैलानां गोरसानां तथैव च ॥ ३५ 

वसानामथ मज्जानां स्नायूनामस्थिभिः सह। 
गोचर्मपटहानां च धान्यानां सर्वतस्तथा ।। ३६ 

तथैवाभ्रपटानां च यवगोधूमयोरपि ।
रत्नानां सर्ववस्त्राणां लौहानामप्यशेषतः ॥ ३७

कलायमुद्रमाषाणां चणकानां तिलैः सह।
तथा च सर्वसस्यानां पांसुगोमययोरपि ॥ ३८

शणसर्जरसं भूर्ज जतु लाक्षा च टङ्कणम्।
राजा संचिनुयाद् दुर्गे यच्चान्यदपि किञ्चन ॥ ३९ 

कुम्भाश्चाशीविषैः कार्या व्यालसिंहादयस्तथा।
मृगाश्च पक्षिणश्चैव रक्ष्यास्ते च परस्परम् ॥ ४० 

स्थानानि च विरुद्धानां सुगुप्तानि पृथक् पृथक्।
कर्तव्यानि महाभाग यत्नेन पृथिवीक्षिता ॥ ४१

उक्तानि चाप्यनुक्तानि राजद्रव्याण्यशेषतः ।
सुगुप्तानि पुरे कुर्याज्जनानां हितकाम्यया ।। ४२

इनके अतिरिक्त दुर्गमें निरर्थक बहुत-से व्यक्तियोंको नहीं रखना चाहिये। राजन् ! दुर्गमें विविध प्रकारके शस्त्रास्त्रसे युक्त एवं हजारोंको मारनेमें समर्थ योद्धाओंको रखना चाहिये; क्योंकि उन्हींसे रक्षा होती है। राजाको  दुर्गमें गुप्तद्वार भी बनवाना चाहिये। राजन् ! दुर्गमें सभी प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंके संग्रहकी विशेष प्रशंसा की गयी है। नृपश्रेष्ठ राजन् । राजाको दुर्गमें धनुष, ढेलवाँस, तोमर, बाण, तलवार, कवच, लाठी, गुड (हाथीको फँसानेका एक फंदा), हुड (चोरोंको फँसानेका खूँटा), परिघ, पत्थर, बहुसंख्यक मुगर, त्रिशूल, पट्टिश, कुठार, दुर्गमें गुप्तद्वार भी बनवाना चाहिये। राजन् ! दुर्गमें सभी प्रास (भाला), शूल, शक्ति, फरसा, चक्र, चर्मके साथ ढाल, कुदाल, रस्सी, बेंत, पीठक, भूसी, हँसिया, कोयला-इन सबका संचय करना चाहिये। 

दुर्ग में सभी प्रकार के शिल्पीय पात्रोंका भी संचय रहना चाहिये। वह सभी प्रकारके वाद्यों तथा ओषधियोंका भी संचय करे। वहाँ प्रचुर मात्रा में घास-भूसा, ईंधन, गुड, सभी प्रकारके तेल तथा गोरसका भी संचय हो। राजाको दुर्गमें वसा, मज्जा, हड्डियाँसहित स्नायु, गोचर्मसे बने नगाड़े, धान्य, तम्बू, जौ, गेहूँ, रत्न, सभी प्रकारके वस्त्र, लौह, कुलथी, मूंग, उड़द, चना, तिल, सभी प्रकारके अन्न, धूल, गोबर, सन, भोजपत्र, जस्ता, लाह, पत्थर तोड़नेकी छेनी तथा अन्य भी जो कुछ पदार्थ हों, उनका संचय करना चाहिये। सर्पोंके विषसे भरे घड़े, साँप, सिंह आदि हिंसक जन्तु, मृग तथा पक्षी रखे जाने चाहिये, किंतु वे एक-दूसरेसे सुरक्षित रहें। महाभाग ! राजाको विरोधी जीवोंकी रक्षाके लिये यत्नपूर्वक पृथक् पृथक् स्थान बनवाना चाहिये। राजाको प्रजाकी कल्याण-भावनासे कही गयी अथवा न कही गयी सम्पूर्ण राजवस्तुओंको दुर्गमें गुप्तरूपसे संग्रहीत करना चाहिये ॥ २७-४२ ॥

जीवकर्षभकाकोलमामलक्याटरूषकान् ।
शालपर्णी पृश्निपर्णी मुद्रद्मपर्णी तथैव च ॥ ४३

माषपर्णी च मेदे द्वे शारिवे द्वे बलात्रयम् । 
वीरा श्वसन्ती वृष्या च बृहती कण्टकारिका ॥ ४४ 

शृङ्गी शृङ्गाटकी द्रोणी वर्षाभूर्दर्भ रेणुका। 
मधुपर्णी विदार्ये द्वे महाक्षीरा महातपाः ।। ४५ 

धन्वनः सहदेवाह्वा कटुकैरण्डकं विषः । 
पर्णी शताह्वा मृद्वीका फल्गुखर्जूरयष्टिकाः ।। ४६ 

शुक्रातिशुक्रकाश्मर्यश्छत्रातिच्छत्रवीरणाः । 
इक्षुरिक्षुविकाराश्च फाणिताद्याश्च सत्तम ॥ ४७

सिंही च सहदेवी च विश्वेदेवाश्वरोधकम् । 
मधुकं पुष्पहंसाख्या शतपुष्या मधूलिका ॥ ४८

शतावरीमधूके च पिप्पलं तालमेव च। 
आत्मगुप्ता क‌फलाख्या दार्विका राजशीर्षकी ॥ ४९ 

राजसर्षपधान्याकमृष्यप्रोक्ता तथोत्कटा। 
कालशाकं पद्मबीजं गोवल्ली मधुवल्लिका ॥ ५० 

शीतपाकी कुलिङ्गाक्षी काकजिह्वोरुपुष्पिका। 
पर्वतत्रपुसौ चोभौ गुञ्जातकपुनर्नवे ॥ ५१

कसेरुका तु काश्मीरी बिल्वशालूककेसरम् । 
तुषधान्यानि सर्वाणि शमी धान्यानि चैव हि ॥ ५२

क्षीरं क्षौद्रं तथा तक्रं तैलं मज्जा वसा घृतम् ।
नीपश्चारिष्टकक्षोडवातामसोमबाणकम् ॥५३

एवमादीनि चान्यानि विज्ञेयो मधुरो गणः । 
राजा संचिनुयात् सर्वं पुरे निरवशेषतः ॥ ५४

जीवक, ऋषभक, काकोल, इमली, आटरूष, शालपर्णी, पृश्चिपर्णी, मुद्रपर्णी, माषपर्णी, दोनों प्रकारकी मेदा, दोनों प्रकारकी शारिवा, तीनों बलाएँ (एक ओषधि), वीरा, श्वसन्ती, वृष्या, बृहती, कण्टकारिका, शृङ्गी, शृङ्गाटकी, द्रोणी, वर्षाभू, कुश, रेणुका, मधुपर्णी, दोनों विदारी, महाक्षीरा, महातपा, धन्वन, सहदेवी, कटुक, रेड़, विष, शतपर्णी, मृद्धीका, फल्गु, खजूर, यष्टिका, शुक्र, अतिशुक्र, काश्मरी, छत्र, अतिछत्र, वीरण, ईख और ईखसे होनेवाली अन्य वस्तुएँ, फाणित आदि, सिंही, सहदेवी, विश्वदेव, अश्वरोधक, महुआ, पुष्पहंसा, शतपुष्पा, मधूलिका, शतावरी, महुआ, (दाख) पिप्पल, ताल, आत्मगुप्ता, कटफल, दार्विका, राजशीर्षकी, श्वेत सरसों, धनिया, ऋष्यप्रोक्ता, उत्कटा, कालशाक, पद्मबीज, गोवल्ली, मधुवल्लिका, शीतपाकी, कुलिंगाक्षी, काकजिह्वा, उरुपुष्पका, दोनों पर्वत और त्रपुष, गुंजातक, पुनर्नवा, कसेरुका, काश्मीरी, बिल्व, शालूक, केसर, सभी प्रकारकी भूसियाँ, शमी, अन्न, दुग्ध, शहद, मट्ठा, तेल, मज्जा, वसा, घी, कदम्ब, अरिष्टक, अक्षोट, बादाम, सोम और बाणक-इन सबको तथा इसी प्रकार अन्य पदार्थोंको मधुर जानना चाहिये। राजा इन सबका पूर्णरूपसे दुर्गमें संग्रह करे ॥ ४३-५४॥ 

दाडिमाम्रातकौ चैव तिन्तिडीकाम्लवेतसम् ।
भव्यकर्कन्धुलकुचकरमर्दकरूषकम् ॥५५

बीजपूरककण्डूरे मालती राजबन्धुकम् ।
कोलकद्वयपर्णानि द्वयोराम्रातयोरपि ॥ ५६

पारावतं नागरकं प्राचीनारुकमेव च। 
कपित्थामलकं चुक्रफलं दन्तशठस्य च ॥ ५७

जाम्बवं नवनीतं च सौवीरकरुषोदके । 
सुरासवं च मद्यानि मण्डतक्रदधीनि च ॥ ५८

शुक्लानि चैव सर्वाणि ज्ञेयमाम्लगणं द्विज।
एवमादीनि चान्यानि राजा संचिनुयात् पुरे ॥ ५९

सैन्धवो‌द्भिदपाठेयपाक्यसामुद्रलोमकम् ।
कुप्यसौवर्चलाविल्वं बालकेयं यवाह्वकम् ॥ ६०

औव क्षारं कालभस्म विज्ञेयो लवणो गणः । 
एवमादीनि चान्यानि राजा संचिनुयात् पुरे ॥ ६१

पिप्पली पिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरम् । 
कुबेरकं च मरिचं शिग्रुभल्लातसर्षपाः ॥ ६२

कुष्ठाजमोदा किणिही हिङ्गुमूलकधान्यकम् । 
कारवी कुञ्चिका याज्या सुमुखा कालमालिका ॥ ६३ 

फणिज्झकोऽथ लशुनं भूस्तृणं सुरसं तथा। 
कायस्था च वयःस्था च हरितालं मनःशिला ॥ ६४

अमृता च रुदन्ती च रोहिषं कुङ्कुमं तथा। 
जया एरण्डकाण्डीरं शल्लकी हञ्जिका तथा ।। ६५

सर्वपित्तानि मूत्राणि प्रायो हरितकानि च। 
संगतानि च मूलानि यटिश्चातिविषाणि च। 
फलानि चैव हि तथा सूक्ष्मैला हिङ्गुपत्रिका ॥ ६६

एवमादीनि चान्यानि गणः कटुकसंज्ञितः । 
राजा संचिनुयाद् दुर्गे प्रयत्नेन नृपोत्तम ॥ ६७

मुस्तं चन्दनह्रीबेरकृतमालकदारवः ।
हरिद्रानलदोशीरनक्तमालकदम्बकम् ॥ ६८

दूर्वा पटोलकटुका दन्तीत्वक् पत्रकं वचा। 
किराततिक्तभूतुम्बी विषा चातिविषा तथा ॥ ६९

तालीसपत्रतगरं सप्तपर्णविकङ्कताः ।
काकोदुम्बरिका दिव्यास्तथा चैव सुरोद्भवा ॥ ७० 

षड्ग्रन्था रोहिणी मांसी पर्पटश्चाथ दन्तिका।
रसाञ्जनं भृङ्गराजं पतङ्गी परिपेलवम् ॥ ७१

दुःस्पर्शा गुरुणी कामा श्यामाकं गन्धनाकुली। 
रूपपर्णी व्याघ्घ्रनखं मञ्जिष्ठा चतुरङ्गुला ॥ ७२

रम्भा चैवाङ्कुरास्फीता तालास्फीता हरेणुका। 
वेत्राग्रवेतसस्तुम्बी विषाणी लोध्रपुष्पिणी ॥ ७३

मालती करकृष्णाख्या वृश्चिका जीविता तथा । 
पर्णिका च गुडूची च स गणस्तिक्तसंज्ञकः ॥ ७४ 

अनार, आम्रातक, इमली, अम्लवेतस, सुन्दर बेर, बड़हर, करमर्द, करूषक, विजौरा, कण्डूर, मालती, राज-बन्धुक, दोनों कोलकों और अमड़ोंके पत्ते, पारावत, नागरक, प्राचीन अरुक, कैथ, आँवला, चुक्रफल, दन्तशठ, जामुन, मक्खन, सौवीरक, रुषोदक, सुरा, आसव आदि मद्य, माँड, मट्ठा, दही एवं ऐसे सभी प्रकारके श्वेत पदार्थोंको खट्टा समझना चाहिये। राजा इनका तथा ऐसे अन्यान्य पदार्थोंका अपने दुर्गमें संचय करे। सैन्धव, उद्भिद, पाठेय, पाक्य, सामुद्र (साँभर), लोमक, कुप्य, सौवर्चल, अबिल्व, बालकेय, यव, भौम, क्षार, कालभस्म-ये सभी लवणके भेदोपभेद हैं। राजा इन सबका तथा अन्य लवणोंका दुर्गमें संग्रह करे। पीपर, पीपरका मूल, चव्य, शीता, सौंठ, कुबेरक, मिर्च, सहजना, भिलावा, सरसों, कुष्ठ, अजमोदा, ओंगा, हींग, मूली, धनियाँ, सौंफ, अजवाइन, मंजीठ, जवीर, कलमालिका, कणिज्झक, लहसुन, पालाके आकारवाला जलीय तृण, हरड़, कायस्था, वयःस्था, हरताल, मैनसिल, गिलोय, रुदंती, रोहिष, केशर, जया, रेड़ी, नरकट, शल्लकी, भारंगी, सभी प्रकारके पित्त और मूत्र, हरें, आवश्यक मूल, मुलहठी, अतिविष, छोटी इलायची, तेजपात आदि कटु ओषधियाँ हैं।
राजश्रेष्ठ ! राजा दुर्गमें प्रयत्नपूर्वक इनका संग्रह करे। नागरमोथा, चन्दन, हीबेर, कृतहारक, दारुहल्दी, हल्दी, नलद, खश, नक्तमाल, कदम्ब, दूर्वा, परवल, तेजपात, वच, चिरायता, भूतुम्बी, विषा, अतिविषा, तालीसपत्र, तगर, छितवन, खैर, काली गूलर, दिव्या, सुरोद्भवा, षड्ग्रन्थी, रोहिणी, जटामासी, पर्पट, दन्ती, रसांजन, भृंगराज, पतंगी, परिपेलव, दुःस्पर्शा, अगुरुद्वय, कामा, श्यामाक, गंधना कुली, तुषपर्णी, व्याघ्रनख, मंजीठ, चतुरंगुला, केला, अंकुरास्फीता, तालास्फीता, रेणुकबीज, बेतका अग्रभाग, बेत, तुम्बी, कैंकरासींगी, लोध्रपुष्पिणी, मालती, करकृष्णा, वृश्चिका, जीविता, पर्णिका तथा गुडुच-यह तिक्त ओषधियोंका समूह है। राजा इनका तथा इसी प्रकारके अन्य तिक्त पदार्थोंका दुर्गमें संग्रह रखे ॥ ५५-७४॥

एवमादीनि चान्यानि राजा संचिनुयात् पुरे। 
अभयामलके चोभे तथैव च बिभीतकम् ॥ ७५

प्रियङ्गुधातकीपुष्पं मोचाख्या चार्जुनासनाः ।
अनन्ता स्त्री तुवरिका श्योणाकं कट्फलं तथा ।। ७६

भूर्जपत्रं शिलापत्रं पाटलापत्रलोमकम् ।
समङ्गात्रिवृतामूलकार्पासगैरिकाञ्जनम् ॥ ७७

विद्रुमं समधूच्छिष्टं कुम्भिका कुमुदोत्पलम् । 
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थकिंशुकाः शिंशपा शमी ॥ ७८ 

प्रियालपीलुकासारिशिरीषाः पद्मकं तथा। 
बिल्वोऽग्निमन्थः प्लक्षश्च श्यामाकं च बको धनम् ॥ ७९ 

राजादनं करीरं च धान्यकं प्रियकस्तथा। 
कङ्कोलाशोकबदराः कदम्बखदिरद्वयम् ॥ ८०

एषां पत्राणि साराणि मूलानि कुसुमानि च। 
एवमादीनि चान्यानि कषायाख्यो गणो मतः ॥ ८१

प्रयत्नेन नृपश्रेष्ठ राजा संचिनुयात् पुरे।
कीटाश्च मारणे योग्या व्यङ्गतायां तथैव च ॥ ८२

वातधूमाम्बुमार्गाणां दूषणानि तथैव च।
धार्याणि पार्थिवैर्दुर्गे तानि वक्ष्यामि पार्थिव ॥ ८३

विषाणां धारणं कार्य प्रयत्नेन महीभुजा ।
विचित्राश्चागदा धार्या विषस्य शमनास्तथा ।। ८४

रक्षोभूतपिशाचघ्नाः पापघ्नाः पुष्टिवर्धनाः ।
कलाविदश्च पुरुषाः पुरे धार्याः प्रयत्नतः ॥ ८५ 

भीतान् प्रमत्तान् कुपितांस्तथैव च विमानितान् ।
कुभृत्यान् पापशीलांश्च न राजा वासयेत् पुरे ॥ ८६

यन्त्रायुधाट्टालचयोपपन्नं समग्रधान्यौषधिसम्प्रयुक्तम् ।
वणिग्जनैश्चावृतमावसेत दुर्गे सुषुप्तं नृपतिः सदैव ॥ ८७

हरें, बहेड़ा, आँवला, मालकागुन, धायके फूल, मोचरस, अर्जुन, असन, अनन्ता, कामिनी, तुबरिका, श्योणाक, जायफल, भोजपत्र, शिलाजीत, पाटलवृक्ष, लोहबान, समंगा, त्रिवृता, मूल, कपास, गेरु, अंजन, विद्रुम, शहद, जलकुम्भी, कुमुदिनी, कमल, बरगद, गूलर, पीपल, पालाश, शीशम, शमी, प्रियाल, पीलु, कासारि, शिरीष, पद्म, बेल, अरणी, पाकड़, श्यामाक, बक, धन, राजादन, करीर, धनिया, प्रियक, कंकोल,अशोक, बेर, कदंब, दोनों प्रकारके खैर-इन वृक्षोंके पत्ते, सारभाग (सत्त्व), मूल तथा पुष्प काषाय माने गये हैं। राजश्रेष्ठ! राजाको ये काषाय ओषधियाँ दुर्गमें रखनी चाहिये। राजन् ! मारने एवं घायल करनेवाले कीट-पतंग तथा वायु, धूम, जल तथा मार्गको दूषित करनेवाली ओषधियोंको, जिन्हें मैं आगे बतलाऊँगा, राजाको दुर्गमें रखनी चाहिये। राजाको प्रयत्नपूर्वक सभी विषोंका संग्रह करना चाहिये तथा विष-प्रभावको शान्त करनेवाली विचित्र ओषधियोंको भी धारण करना उचित है। राक्षस, भूत तथा पिशाचोंके प्रभावको नष्ट करनेवाले, पापनाशक, पुष्टिकारक पदार्थों तथा कलाविज्ञ पुरुषोंको भी दुर्गमें प्रयत्नपूर्वक स्थापित करना चाहिये। राजाको चाहिये कि उस दुर्गमें डरकर भागे हुए, उन्मत्त, क्रुद्ध, अपमानित तथा पापी दुष्ट अनुचरोंको न ठहरने दे। सभी प्रकारके यन्त्र, अस्त्र तथा अट्टालिकाओंके समूहसे संयुक्त, सभी प्रकारके अन्न तथा ओषधियोंसे सुसम्पन्न और व्यवसायी जनोंसे परिपूर्ण दुर्गमें राजाको सदैव सुखपूर्वक निवास करना चाहिये ॥ ७५-८७ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे राजधर्मे दुर्गनिर्माणौषध्यादिसंचयकथनं नाम सप्तदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१७॥ 

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें राजाओंके लिये दुर्गनिर्माण और ओषधि आदिके संचयका वर्णन नामक दो सौ सतरहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २१७ ॥ 

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