जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्ति के उपाय | jalaashay janit vikrtiyaan aur unakee shaanti ke upaay

मत्स्य पुराण दो सौ चौंतीसवाँ अध्याय

जलाशय जनित विकृतियाँ और उनकी शान्ति के उपाय

गर्ग उवाच

नगरादपसर्पन्ते समीपमुपयान्ति च।
नद्यो हृदप्रस्त्रवाणि विरसाश्च भवन्ति च ॥ १

गर्गजीने कहा- ब्रह्मन् ! जब नदियाँ, सरोवर या झरने नगरसे दूर हट जाते हैं या अत्यन्त समीप चले आते हैं, सूख जाते हैं, मलिन, कलुषित, संतप्त तथा फेनके समान जन्तुओंसे व्याप्त हो जाते हैं,

विवर्ण कलुषं तप्तं फेनवज्ञ्जन्तुसंकुलम् ।
स्नेहं क्षीरं सुरां रक्तं वहन्ते वाकुलोदकाः ॥ २

षण्मासाभ्यन्तरे तत्र परचक्रभयं भवेत् ।
जलाशया नदन्ते वा प्रज्वलन्ति कथञ्चन ॥ ३

विमुञ्चन्ति तथा ब्रह्मन् ज्वालाधूमरजांसि च। 
अखाते वा जलोत्पत्तिः सुसत्त्वा वा जलाशयाः ॥ ४

संगीतशब्दाः श्रूयन्ते जनमारभयं भवेत्।
दिव्यमम्भोमयं सर्पिर्मधुतेलावसेचनम् ॥ ५

जप्तव्या वारुणा मन्त्रास्तैश्च होमो जले भवेत् ॥ ६

मध्वाज्ययुक्तं परमान्नमत्र देयं द्विजानां द्विजभोजनार्थम् ।
गावश्च देयाः सितवस्त्रयुक्ता-स्तथोदकुम्भाः सलिलाघशान्त्यै ।। ७

तेल, दूध, मदिरा और रक्त बहाने लगते हैं अथवा उनका जल विक्षुब्ध हो उठता है, तब छः महीनेके भीतर उस देशपर शत्रुपक्षकी सेनासे भय प्राप्त होनेकी सम्भावना होती है। जब किसी प्रकारसे जलाशय शब्द करने लगते हैं या जलने लगते हैं तथा लपटें, धुआँ एवं धूलि फेंकने लगते हैं, बिना खोदे ही जल निकलने लगता है, जलाशय बड़े-बड़े जन्तुओंसे भर जाते हैं और उनमेंसे संगीतकी ध्वनियाँ सुनायी पड़ने लगती हैं, तब प्रजावर्गक मरणका भय उपस्थित होता है। ऐसे अवसरपर घी, मधु और तैलसे जलाशयोंका अभिषेक कर वरुणके मन्त्रोंका जप करना चाहिये और उन्हीं मन्त्रोंका उच्चारण कर जलमें हवन करना चाहिये। तदनन्तर ब्राह्मणोंको भोजनार्थ मधु तथा घृत मिलाकर श्रेष्ठ अन्न देना चाहिये और जलके महापापकी शान्तिके लिये श्वेत वस्त्रोंसे युक्त गौएँ और जल रखनेके घड़े दान करने चाहिये ॥ २-७॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽद्भुतशान्तौ सलिलाशयवैकृत्यं नाम चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३४ ॥

इस प्रकार श्री मत्स्य महापुराण में अद्भुतशान्ति-प्रकरणमें जलाशय-विकार-शान्ति नामक दो सौ चौतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २३४ ॥ 

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