मत्स्य पुराण एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय
कालनेमि और भगवान विष्णु का रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णु के चक्र के द्वारा कालनेमि का वध और देवताओं को पुनः निज पदकी प्राप्ति
मत्स्य उवाच
पञ्च तं नाभ्यवर्तन्त विपरीतेन कर्मणा।
वेदो धर्मः क्षमा सत्यं श्रीश्च नारायणाश्रया ॥ १
मत्स्यभगवान बोले- रविनन्दन। कालनेमिद्वारा विपरीत कर्म किये जानेके कारण वेद, धर्म, क्षमा, सत्य और नारायण के आश्रय में रहने वाली लक्ष्मी ये पाँचों उसके अधीन नहीं हुए। १
स तेषामनुपस्थानात् सक्रोधो दानवेश्वरः ।
वैष्णवं पदमन्विच्छन् ययौ नारायणान्तिकम् ॥ २
स ददर्श सुपर्णस्थं शङ्खचक्रगदाधरम्।
दानवानां विनाशाय भ्रामयन्तं गदां शुभाम् ॥ ३
सजलाम्भोदसदृशं विद्युत्सदृशवाससम् ।
स्वारूढं स्वर्णपक्षाकयं शिखिनं काश्यपं खगम् ॥ ४
दृष्ट्वा दैत्यविनाशाय रणे स्वस्थमवस्थितम्।
दानवो विष्णुमक्षोभ्यं बभाषे क्षुब्धमानसः ॥ ५
अर्थ स रिपुरस्माकं पूर्वेषां प्राणनाशनः ।
अर्णवावासिनश्चैव मधोवै कैटभस्य च ॥ ६
अयं स विग्रहोऽस्माकमशाम्यः किल कथ्यते ।
अनेन संयुगेष्वद्य दानवा बहवो हताः ॥ ७
अयं स निर्घणो लोके स्त्रीबालनिरपत्रपः ।
येन दानवनारीणां सीमन्तोद्धरणं कृतम् ॥ ८
अयं स विष्णुर्देवानां वैकुण्ठश्च दिवौकसाम्।
अनन्तो भोगिनामप्सु स्वपन्नाद्यः स्वयम्भुवः ॥ ९
अयं स नाथो देवानामस्माकं व्यथितात्मनाम्।
अस्य क्रोधं समासाद्य हिरण्यकशिपुर्हतः ॥ १०
उनके उपस्थित न होनेसे क्रोधसे भरा हुआ दानवेश्वर कालनेमि वैष्णवपदकी प्राप्तिकी अभिलाषासे नारायणके निकट गया। वहाँ जाकर उसने शङ्ख-चक्र गदाधारी भगवान्को गरुडकी पीठपर बैठे तथा दैत्योंका विनाश करनेके लिये कल्याण मयी गदा घुमाते देखा। उनके शरीरकी कान्ति सजल मेघके समान थी। उनका पीताम्बर बिजलीके समान चमक रहा था। वे स्वर्णमय पंखसे युक्त शिखाधारी कश्यपनन्दन गरुडपर समासीन थे। इस प्रकार रणभूमिमें दैत्योंका विनाश करनेके लिये स्वस्थचित्तसे स्थित अक्षोभ्य भगवान् विष्णुको देखकर दानवराज कालनेमिका मन क्षुब्ध हो उठा, तब वह कहने लगा-'यही हमलोगोंके पूर्वजोंका प्राणनाशक शत्रु है तथा यही महासागरमें निवास करनेवाले मधु और कैटभका भी प्राणहर्ता है। हमलोगोंका यह विग्रह शान्त होनेका नहीं, ऐसा निश्चितरूपसे कहा जाता है। बहुतेरे युद्धोंमें इसके द्वारा बहुत-से दानव मारे जा चुके हैं। यह बड़ा निष्वर है। इसे जगत्में स्त्री-बच्चोंपर भी हाथ उठाते समय लज्जा नहीं आती। इसने बहुत-सी दानव-पत्नियोंके सोहागका उन्मूलन कर दिया है। यही देवताओंमें विष्णु, स्वर्गवासियोंमें वैकुण्ठ, नागोंमें अनन्त और जलमें शयन करनेवाला आदि स्वयम्भू है। यही देवताओंका स्वामी और व्यथित हृदयवाले हमलोगोंका शत्रु है। इसीके क्रोधमें पड़कर हिरण्यकशिपु मारे गये हैं॥ २-१०॥
अस्य छायामुपाश्रित्य देवा मखमुखे श्रिताः ।
आज्यं महर्षिभिर्दत्तमश्नुवन्ति त्रिधा हुतम् ॥ ११
अयं स निधने हेतुः सर्वेषाममरद्विषाम् ।
यस्य चक्रे प्रविष्टानि कुलान्यस्माकमाहवे ॥ १२
अयं स किल युद्धेषु सुरार्थे त्यक्तजीवितः ।
सवितुस्तेजसा तुल्यं चक्रं क्षिपति शत्रुषु ॥ १३
अयं स कालो दैत्यानां कालभूतः समास्थितः ।
अतिक्रान्तस्य कालस्य फलं प्राप्स्यति केशवः ॥ १४
दिष्ट्येदानीं समक्ष मे विष्णुरेष समागतः ।
अद्य मद्वाहुनिष्पिष्टो मामेव प्रणयिष्यति ॥ १५
यास्याम्यपचितिं दिष्ट्या पूर्वेषामद्य संयुगे।
इमं नारायणं हत्वा दानवानां भयावहम् ॥ १६
क्षिप्रमेव हनिष्यामि रणेऽमरगणांस्ततः ।
जात्यन्तरगतो होष बाधते दानवान् मृधे ॥ १७
एषोऽनन्तः पुरा भूत्वा पद्मनाभ इति श्रुतः ।
जघानैकार्णवे घोरे तावुभौ मधुकैटभौ ॥ १८
द्विधाभूतं वपुः कृत्वा सिंहस्यार्धं नरस्य च।
पितरं मे जघानैको हिरण्यकशिपुं पुरा ॥ १९
शुभं गर्भमधत्तैनमदितिर्देवतारणिः ।
त्रील्लोकानुज्जहारैकः क्रममाणस्त्रिभिः क्रमैः ॥ २०
भूयस्त्विदानीं संग्रामे सम्प्राप्ते तारकामये।
मया सह समागम्य सदेवो विनशिष्यति ॥ २१
एवमुक्त्वा बहुविधं क्षिपन्नारायणं रणे।
वाग्भिरप्रतिरूपाभिर्युद्धमेवाभ्यरोचयत् ॥ २२
'इसी प्रकार इसीका आश्रय ग्रहण कर यज्ञके प्रारम्भमें स्थित देवगण महर्षियोंद्वारा तीन प्रकारकी आहुति-रूपमें दिये गये आज्यका उपभोग करते हैं। यही सभी देवद्रोही असुरोंकी मृत्युका कारण है। युद्धभूमिमें हमारे सभी कुल इसीके चक्रमें प्रविष्ट हो गये हैं। यह युद्धोंमें देवताओंके हितके लिये प्राणोंकी बाजी लगा देता है और शत्रुओंपर सूर्यके समान तेजस्वी चक्रका प्रयोग करता है। यह दैत्योंके कालरूपसे यहाँ स्थित है, किंतु अब यह केशव अपने बीते हुए काल का फल भोगेगा। सौभाग्यवश यह विष्णु इस समय मेरे ही समक्ष आ गया है। यह आज मेरी भुजाओंसे पिसकर मुझसे ही प्रेम करेगा। सौभाग्यकी बात है कि आज मैं रणभूमिमें दानवोंको भयभीत करनेवाले इस नारायणका वध कर पूर्वजोंके प्रायश्चित्तको पूर्ण कर दूँगा।
तत्पश्चात् रणमें शीघ्र ही देवताओंका संहार कर डालूँगा। यह अन्य जातियों में भी उत्पन होकर समरमें दानवोंको कष्ट पहुँचाता है। यही पूर्वकालमें अनन्त होकर पुनः पद्मनाभनामसे विख्यात हुआ। इसने ही भयंकर एकार्णवके जलमें मधु-कैटभ नामक दोनों दैत्योंका वध किया था। इसने अपने शरीरको आधा सिंह और आधा मनुष्य-इस प्रकार दो भागोंमें विभक्त करके पूर्वकालमें मेरे पिता हिरण्यकशिपुको मौतके घाट उतारा था। देवताओंकी जननी अदितिने इसीको अपने मङ्गलमय गर्भमें धारण किया था। अकेले इसीने तीन पगोंसे नापते हुए त्रिलोकीका उद्धार किया था। इस समय यह पुनः तारकामय संग्रामके प्राप्त होनेपर उपस्थित हुआ है। यह मेरे साथ उलझकर सभी देवताओंसहित नष्ट हो जायगा।' ऐसा कहकर उसने रणके मैदानमें प्रतिकूल वचनोंद्वाय अनेकों प्रकारसे नारायणपर आक्षेप करते हुए युद्धके लिये ही अभिलाषा व्यक्त की ॥ ११-२२॥
क्षिप्यमाणोऽसुरेन्द्रेण न चुकोप गदाधरः ।
क्षमाबलेन महता सस्मितं चेदमब्रवीत् ॥ २३
अल्पं दर्पबलं दैत्य स्थिरमक्रोधजं बलम्।
हतस्त्वं दर्पजैदर्दोषैर्हित्वा यद् भाषसे क्षमाम् ॥ २४
अधीरस्त्वं मम मतो धिगेतत् तव वाग्बलम् ।
न यत्र पुरुषाः सन्ति तत्र गर्जन्ति योषितः ।। २५
अहं त्वां दैत्य पश्यामि पूर्वेषां मार्गगामिनम्।
प्रजापतिकृतं सेतुं भित्त्वा कः स्वस्तिमान् व्रजेत् ।। २६
अद्य त्वां नाशयिष्यामि देवव्यापारघातकम्।
स्वेषु स्वेषु च स्थानेषु स्थापयिष्यामि देवताः ॥ २७
भगवान् गदाधर में क्षमा का महान् बल है, जिसके कारण असुरेन्द्रद्वारा इस प्रकार आक्षेप किये जानेपर भी वे कुपित नहीं हुए, अपितु मुसकराते हुए इस प्रकार बोले- 'दैत्य। दर्पका बल अल्पकालस्थायी होता है, किंतु क्षमाजनित बल स्थिर होता है। तुम क्षमाका परित्याग करके जो इस प्रकारकी ऊटपटाँग बातें बक रहे हो, इससे प्रतीत होता है कि तुम अपने दर्पजन्य दोषोंसे नष्ट हो चुके हो। मेरी समझसे तो तुम बड़े अधीर दीख रहे हो। तुम्हारे इस वाग्बलको धिक्कार है; क्योंकि ऐसी गर्जना तो जहाँ पुरुष नहीं होते, वहाँ स्त्रियाँ भी करती हैं। दैत्य! मैं तुम्हें भी पूर्वजोंके मार्गका अनुगामी ही देख रहा हूँ। भला, ब्रह्माद्वारा स्थापित की गयी मर्यादाओं को तोड़कर कौन कुशलपूर्वक जीवित रह सकता है। अतः देवताओंके कार्योंमें बाधा पहुँचानेवाले तुम्हें में आज ही नष्ट कर डालूँगा और देवताओंको पुनः अपने-अपने स्थानोंपर स्थापित कर दूँगा।' ॥ २३-२७॥
एवं बुवति वाक्यं तु मृधे श्रीवत्सधारिणि।
जहास दानवः क्रोधाद्धस्तांश्चक्रे सहायुधान् ॥ २८
स बाहुशतमुद्यम्य सर्वास्त्रग्रहणं रणे।
क्रोधाद् द्विगुणरक्ताक्षो विष्णुं वक्षस्यताडयत् ॥ २९
दानवाश्चापि समरे मयतारपुरोगमाः ।
उद्यतायुधनिस्त्रिंशा विष्णुमभ्यद्रवन् रणे ॥ ३०
स ताड्यमानोऽतिबलैर्दैत्यैः सर्वोद्यतायुधैः ।
न चचाल ततो युद्धेऽकम्पमान इवाचलः ॥ ३९
संसक्तश्च सुपर्णेन कालनेमी महासुरः।
सवप्राणेन महतीं गदामुद्यम्य बाहुभिः ॥ ३२
घोरां ज्वलन्तीं मुमुचे संरब्धो गरुडोपरि।
कर्मणा तेन दैत्यस्य विष्णुर्विस्मयमाविशत् ।। ३३
यदा तेन सुपर्णस्य पातिता मूर्छिन सा गदा।
सुपर्ण व्यथितं दृष्ट्वा कृत्तं च वपुरात्मनः ।। ३४
क्रोधसंरक्तनयनो वैकुण्ठश्चक्रमाददे।
व्यवर्धत स वेगेन सुपर्णेन समं विभुः ॥ ३५
भुजाश्चास्य व्यवर्धन्त व्याप्नुवन्तो दिशो दश।
प्रदिशश्चैव खं गां वै पूरयामास केशवः ॥ ३६
रणभूमिमें श्रीवत्सधारी भगवान्के इस प्रकार कहनेपर दानवराज कालनेमि ठहाका मारकर हँस पड़ा और फिर उसने क्रोधवश हाथोंमें हथियार धारण कर लिया। क्रोधके कारण उसके नेत्र दुगुने लाल हो गये थे। उसने रणभूमिमें सभी प्रकारके अत्रोंको धारण करनेवाली अपनी सैकड़ों भुजाओंको उठाकर भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलपर प्रहार किया। इसी प्रकार मय, तारक आदि अन्यान्य दानव भी खङ्ग आदि आयुध लेकर युद्धस्थलमें भगवान् विष्णुपर टूट पड़े। यद्यपि सभी प्रकारके अखोंसे युक्त अत्यन्त बली दैत्य उन पर प्रहार कर रहे थे, तथापि वे विचलित नहीं हुए, अपितु युद्धभूमिमें पर्वतकी तरह अटल बने रहे। तब महान् असुर कालनेमि गरुडके साथ उलझ गया। उसने अपनी विशाल गदाको हाथोंमें धारण कर ली और क्रोधमें भरकर पूरी शक्तिके साथ उस चमकती हुई भयंकर गदाको गरुडके ऊपर छोड़ दिया। इस प्रकार उसके द्वारा फेंकी गयी वह गदा जब गरुडके मस्तकपर जा गिरी, तब दैत्यके उस कर्मसे भगवान् विष्णु आश्चर्यचकित हो उठे। फिर गरुडको पीड़ित तथा अपने शरीरको क्षत-विक्षत देखकर उनके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये। तब उन्होंने चक्र हाथमें उठाया। फिर तो वे सर्वव्यापी विष्णु गरुडके साथ वेगपूर्वक आगे बढ़े। उनकी भुजाएँ दसों दिशाओंमें व्याप्त होकर बढ़ने लगीं। इस प्रकार भगवान् केशवने प्रदिशाओं, आकाशमण्डल और भूतलको आच्छादित कर लिया ॥ २८-३६॥
ववृधे च पुनर्लोकान् क्रान्तुकाम इवौजसा।
तर्जनायासुरेन्द्राणां वर्धमानं नभस्तले ॥ ३७
ऋषयश्चैव गन्धर्वास्तुष्टुवुर्मधुसूदनम्।
सर्वान् किरीटेन लिहन् साभ्रमम्बरमम्बरैः ॥ ३८
पद्भ्यामाक्रम्य वसुधां दिशः प्रच्छाद्य बाहुभिः ।
स सूर्यकरतुल्याभं सहस्रारमरिक्षयम् ॥ ३९
दीप्ताग्निसदृशं घोरं दर्शनेन सुदर्शनम् ।
सुवर्णरणुपर्यन्तं वज्रनाभं भयावहम् ॥ ४०
मेदोऽस्थिमज्जारुधिरैः सिक्तं दानवसम्भवैः ।
अद्वितीयप्रहरणं क्षुरपर्यन्तमण्डलम् ॥ ४१
स्त्रग्दाममालाविततं कामगं कामरूपिणम्।
स्वयं स्वयम्भुवा सृष्टं भयदं सर्वविद्विषाम् ॥ ४२
महर्षिरोषैराविष्टं नित्यमाहवदर्पितम्।
क्षेपणाद् यस्य मुह्यन्ति लोकाः स्थाणुजङ्गमाः ॥ ४३
क्रव्यादानि च भूतानि तृप्तिं यान्ति महामृधे।
तदप्रतिमकर्मोग्रं समानं सूर्यवर्चसा ॥ ४४
पुनः वे अपने तेजसे लोकों का अतिक्रमण करते हुए से बढ़ने लगे। जिस समय वे आकाशमण्डलमें असुरेन्द्रोंको भयभीत करनेके लिये बढ़ रहे थे, उस समय ऋषिगण और गन्धर्व भगवान् मधुसूदनकी स्तुति कर रहे थे। वे अपने किरीटसे ऊपरी सभी लोकोंको तथा वस्रॉसे मेघसहित आकाशको छूते हुए पैरोंसे पृथ्वीको आक्रान्त करके और भुजाओंसे दिशाओंको आच्छादित करके स्थित थे। उनके चक्रकी कान्ति सूर्यकी किरणोंको-सी उद्दीत थी। उसमें हजारों अरे लगे थे। वह शत्रुओंका विनाशक था। वह प्रज्वलित अग्निको तरह भयंकर होनेपर भी देखनेमें परम सुन्दर था। सुवर्णकी रेणुकासे धूसरित, वज्रकी नाभिसे युक्त और अत्यन्त भयानक था। वह दानवोंके शरीरसे निकले हुए मेदा, अस्थि, मज्जा और रुधिरसे चुपड़ा हुआ था। वह अपने ढंगका अकेला ही अत्र था। उसके चारों और भुरे लगे हुए थे। वह माला और हारसे विभूषित था। वह अभीप्सित स्थानपर जानेवाला तथा स्वेच्छानुकूल रूप धारण करनेवाला था। स्वयं ब्रह्माने उसकी रचना की थी। वह सम्पूर्ण शत्रुओंके लिये भयदायक था तथा महर्षिके क्रोधसे परिपूर्ण और नित्य युद्धमें गर्वीला बना रहता था। उसका प्रयोग करनेसे स्थावर जङ्गमसहित सभी प्राणी मोहित हो जाते हैं तथा महासमरमें मांसभोजी जीव तृप्तिको प्राप्त होते हैं। वह अनुपम कर्म करनेवाला, भयंकर और सूर्यके समान तेजस्वी था॥ ३७-४४ ॥
चक्रमुद्यम्य समरे क्रोधदीप्तो गदाधरः ।
स मुष्णन् दानवं तेजः समरे स्वेन तेजसा ।। ४५
चिछेद बाहूंश्चक्रेण श्रीधरः कालनेमिनः ।
तस्य वक्त्रशतं घोरं साग्निपूर्णादृहासि वै ॥ ४६
तस्य दैत्यस्य चक्रेण प्रममाथ बलाद्धरिः ।
स च्छिन्त्रबाहुर्विशिरा न प्राकम्पत दानवः ॥ ४७
कबन्धोऽवस्थितः संख्ये विशाख इव पादपः ।
संवितत्य महापक्षी वायोः कृत्वा सर्म जवम् ॥ ४८
उरसा पातयामास गरुडः कालनेमिनम्।
स तस्य देहो विमुखो विबाहुश्च परिभ्रमन् ॥ ४९
निपपात दिवं त्यक्त्वा क्षोभयन् धरणीतलम्।
तस्मिन् निपतिते दैत्ये देवाः सर्षिगणास्तदा ॥ ५०
साधुसाध्विति वैकुण्ठं समेताः प्रत्यपूजयन् ।
अपरे ये तु दैत्याश्च युद्धे दृष्टपराक्रमाः ॥ ५१
ते सर्वे बाहुभिर्व्याप्ता न शेकुश्चलितुं रणे।
कांश्चित् केशेषु जग्राह कांश्चित् कण्ठेषु पीडयन् ॥ ५२
चकर्ष कस्यचिद् वक्त्रं मध्ये गृह्लादथापरम्।
ते गदाचक्रनिर्दग्धा गतसत्त्वा गतासवः ॥ ५३
गगनाद् भ्रष्टसर्वाङ्गा निपेतुर्धरणीतले।
तेषु दैत्येषु सर्वेषु हतेषु पुरुषोत्तमः ॥ ५४
क्रोधसे उद्दीप्त हुए भगवान् गदाधरने समरभूमिमें उस चक्रको उठाकर अपने तेजसे दानवके तेजको नष्ट कर दिया और फिर उन श्रीधरने चक्रद्वारा कालनेमिकी भुजाओंको काट डाला। तत्पश्चात् श्रीहरिने उस दैत्यके सौ मुखोंको, जो भयंकर, अग्निके समान तेजस्वी और अट्टहास कर रहे थे, बलपूर्वक चक्रके प्रहारसे काट डाला। इस प्रकार भुजाओं और सिरोंके कट जानेपर भी वह दानव विचलित नहीं हुआ, अपितु युद्धभूमिमें शाखाओंसे हीन वृक्षकी तरह कबन्ध रूप से स्थित रहा। तब गरुडने अपने विशाल पंखोंको फैलाकर और वायुके समान वेग भरकर अपनी छातीके धक्केसे कालनेमिके कबन्धको धराशायी कर दिया। मुखों और भुजाओंसे होन उसका वह शरीर चक्कर काटता हुआ स्वर्गलोकको छोड़कर भूतलको क्षुब्ध करता हुआ नीचे गिर पड़ा। उस दैत्यके गिर जानेपर ऋषियोंसहित देवगणोंने उस समय संगठित होकर भगवान् विष्णुको साधुवाद देते हुए उनकी पूजा की। दूसरे दैत्यगण, जो युद्धमें भगवान्के पराक्रमको देख चुके थे, वे सभी भगवान्की भुजाओंके वशीभूत हो रणभूमिमें चलने-फिरनेमें भी असमर्थ थे। भगवान्ने किन्हींको केश पकड़कर पटक दिया तो किन्हींको गला घोंटकर मार डाला। किसी का मुख फाड़ दिया तो दूसरेकी कमर तोड़ दी। इस प्रकार वे सभी गदाको चोट और चक्रसे जल चुके थे, उनके पराक्रम नष्ट हो गये थे और शरीरके सभी अङ्ग चूर-चूर हो गये थे। वे प्राणरहित होकर आकाशसे भूतलपर गिर पड़े। इस प्रकार उन सभी दैत्योंके मारे जानेपर पुरुषोत्तम भगवान् गदाधर इन्द्रका प्रिय कार्य करके कृतार्थ हो शान्तिपूर्वक स्थित हुए ॥ ४५-५४ ॥
तस्थौ शक्रप्रियं कृत्वा कृतकर्मा गदाधरः ।
तस्मिन् विमर्दे संग्रामे निवृत्ते तारकामये ॥ ५५
तं देशमाजगामाशु ब्रह्मा लोकपितामहः ।
सर्वैर्ब्रह्मर्षिभिः सार्धं गन्धर्वाप्सरसां गणैः ॥ ५६
देवदेवो हरिं देवं पूजयन् वाक्यमब्रवीत्।
कृतं देव महत् कर्म सुराणां शल्यमुद्धतम्।
वधेनानेन दैत्यानां वयं च परितोषिताः ॥ ५७
योऽयं त्वया हतो विष्णो कालनेमी महासुरः ।
त्वमेकोऽस्य मृधे हन्ता नान्यः कश्चन विद्यते ॥ ५८
एष देवान् परिभवंल्लोकांश्च ससुरासुरान् ।
ऋषीणां कदनं कृत्वा मामपि प्रति गर्जति ॥ ५९
तदनेन तवाग्र्येण परितुष्टोऽस्मि कर्मणा।
यदयं कालकल्पस्तु कालनेमी निपातितः ॥ ६०
तदागच्छस्व भद्रं ते गच्छामः दिवमुत्तमम् ।
ब्रह्मर्षयस्त्वां तत्रस्थाः प्रतीक्षन्ते सदोगताः ॥ ६१
कं चाहं तव दास्यामि वरं वरवतां वर।
सुरेष्वथ च दैत्येषु वराणां वरदो भवान् ॥ ६२
निर्यातयैतत् त्रैलोक्यं स्फीतं निहतकण्टकम्।
अस्मिन्नेव मृधे विष्णो शक्राय सुमहात्मने ॥ ६३
एवमुक्तो भगवता ब्रह्मणा हरिरव्ययः।
देवाशक्रमुखान् सर्वानुवाच शुभया गिरा ॥ ६४
तदनन्तर उस भयानक तारकामय संग्रामके निवृत्त होनेपर लोकपितामह ब्रह्मा तुरंत ही उस स्थानपर आये। उस समय उनके साथ सभी ब्रह्मर्षि थे तथा गन्धर्वों एवं अप्सराओंका समुदाय भी था। तब देवाधिदेव ब्रह्माने भगवान् श्रीहरिका आदर करते हुए इस प्रकार कहा- 'देव! आपने बहुत बड़ा काम किया है। आपने तो देवताओंका काँटा ही उखाड़ दिया। दैत्योंके इस संहारसे हमलोग परम संतुष्ट हैं। विष्णी! आपने जो इस महान् असुर कालनेमिका वध किया है, यह आपके ही योग्य है; क्योंकि एकमात्र आप ही रणभूमिमें इसके बधकर्ता हैं, दूसरा कोई नहीं है। यह दानव देवताओं और असुरोंसहित समस्त लोकों और देवताओंको तिरस्कृत करते हुए ऋषियोंका संहार कर मेरे पास भी आकर गर्जता था। इसलिये जो यह कालके समान भयंकर कालनेमि मारा गया, आपके इस श्रेष्ठ कर्मसे मैं भलीभाँति संतुष्ट हूँ। अतः आपका कल्याण हो, आइये, अब हमलोग उत्तम स्वर्गलोकमें चलें। वहाँ सभामें बैठे हुए ब्रह्मर्षिगण आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वरदानियोंमें श्रेष्ठ भगवन्! आप तो स्वयं ही देवताओं और दैत्योंके लिये श्रेष्ठ वरदायक हैं। ऐसी दशामें मैं आपको कौन-सा वर प्रदान करूँ? विष्णो! त्रिलोकीका यह समृद्धिशाली राज्य अब कण्टकरहित हो गया है, इसे आप इसी युद्धस्थलमें महात्मा इन्द्रको समर्पित कर दीजिये।' भगवान् ब्रह्माद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर अविनाशी श्रीहरि इन्द्र आदि सभी देवताओं से मधुर वाणीमें बोले ॥ ५५-६४॥
विष्णुरुवाच
शृण्वन्तु त्रिदशाः सर्वे यावन्तोऽत्र समागताः ।
श्रवणावहितैः श्रोत्रैः पुरस्कृत्य पुरंदरम् ॥ ६५
अस्माभिः समरे सर्वे कालनेमिमुखा हताः।
दानवा विक्रमोपेताः शक्रादपि महत्तराः ॥ ६६
अस्मिन् महति संग्रामे दैतेयौ द्वौ विनिःसृतौ।
विरोचनश्च दैत्येन्द्रः स्वर्भानुश्च महाग्रहः ॥ ६७
स्वां दिशं भजतां शक्रो दिशं वरुण एव च।
याम्यां यमः पालयतामुत्तरां च धनाधिपः ॥ ६८
ऋक्षैः सह यथायोगं गच्छतां चैव चन्द्रमाः ।
अब्दमृतुमुखे सूर्यो भजतामयनैः सह ॥ ६९
आज्यभागाः प्रवर्तन्तां सदस्यैरभिपूजिताः ।
हूयन्तामग्नयो विप्रैर्वेददृष्टेन कर्मणा ।। ७०
देवाश्चाप्यग्निहोमेन स्वाध्यायेन महर्षयः ।
श्रद्धेन पितरश्चैव तृप्तिं यान्तु यथासुखम् ॥ ७१
वायुश्चरतु मार्गस्थस्त्रिधा दीप्यतु पावकः ।
त्रींस्तु वर्णांश्च लोकांस्त्रीस्तर्पयं श्चात्मजैर्गुणैः ॥ ७२
भगवान् विष्णुने कहा- यहाँ आये हुए जितने देवता हैं, वे सभी इन्द्रको आगे करके सावधानीपूर्वक कान लगाकर मेरी बात सुनें। इस समरमें हमलोगोंने कालनेमि आदि सभी महान् पराक्रमी दानवोंको, जो इन्द्रसे भी बढ़कर बलशाली थे, मार डाला है; किंतु इस महान् संग्राममें दैत्येन्द्र विरोचन और महान् ग्रह राहु-ये दोनों दैत्य भाग निकले हैं। अब इन्द्र अपनी पूर्व दिशाकी रक्षा करें तथा वरुण पश्चिम दिशाको, यम दक्षिण दिशाका और कुबेर उत्तर दिशाका पालन करें। चन्द्रमा नक्षत्रोंके साथ पूर्ववत् अपने स्थानको चले जायें। सूर्य अयनोंके साथ त्रऋतुकालानुसार वर्षका उपभोग करें। यज्ञोंमें सदस्योंद्वारा अभिपूजित हो देवगण आज्यभाग ग्रहण करें। ब्राह्मणलोग वेदविहित कर्मानुसार अग्निमें आहुतियाँ डालें। देवगण अग्निहोत्रसे, महर्षिगण स्वाध्यायसे और पितृगण श्राद्धसे सुखपूर्वक तृप्तिलाभ करें। वायु अपने मार्गसे प्रवाहित हों। अग्नि अपने गुणोंसे तीनों वर्षों और तीनों लोकोंको तृप्त करते हुए तीन भागोंमें विभक्त होकर प्रकाशित हों ॥ ६५-७२॥
क्रतवः सम्प्रवर्तन्तां दीक्षणीयैर्द्विजातिभिः ।
दक्षिणाश्चोपपाद्यन्तां याज्ञिकेभ्यः पृथक् पृथक् ॥ ७३
गां तु सूर्यो रसान् सोमो वायुः प्राणांश्च प्राणिषु।
तर्पयन्तः प्रवर्तन्तां सर्व एव स्वकर्मभिः ॥ ७४
यथावदानुपूर्येण महेन्द्रमलयोद्भवाः ।
त्रैलोक्यमातरः सर्वाः समुद्रं यान्तु सिन्धवः ॥ ७५
दैत्येभ्यस्त्यज्यतां भीश्च शान्तिं व्रजत देवताः ।
स्वस्ति वोऽस्तु गमिष्यामि ब्रह्मलोकं सनातनम् ।। ७६
स्वगृहे स्वर्गलोके वा संग्रामे वा विशेषतः ।
विश्रम्भो वो न मन्तव्यो नित्यं क्षुद्रा हि दानवाः ॥ ७७
छिद्रेषु प्रहरन्त्येते न तेषां संस्थितिर्भुवा।
सौम्यानामृजुभावानां भवतामार्जवं धनम् ॥ ७८
एवमुक्त्वा सुरगणान् विष्णुः सत्यपराक्रमः ।
जगाम ब्रह्मणा सार्धं स्वलोकं तु महायशाः ॥ ७९
एतदाश्चर्यमभवत् संग्रामे तारकामये।
दानवानां च विष्णोश्च यन्मां त्वं परिपृष्टवान् ॥ ८०
दीक्षित ब्राह्मणों द्वारा यज्ञानुष्ठान प्रारम्भ हों। याज्ञिक ब्राह्मणोंको पृथक् पृथक् दक्षिणाएँ दी जायें। सूर्य पृथ्वीको, चन्द्रमा रसोंको और वायु प्राणियोंमें स्थित प्राणोंको तृप्त करते हुए सभी अपने-अपने कर्ममें प्रवृत्त हों। महेन्द्र और मलय पर्वतसे निकलनेवाली त्रिलोकीकी मातास्वरूप सभी नदियाँ आनुपूर्वी पूर्ववत् समुद्रमें प्रविष्ट हों। देवगण। आपलोग दैत्योंसे प्राप्त होनेवाले भयको छोड़ दें और शान्ति धारण करें। आपलोगोंका कल्याण हो। अब मैं सनातन ब्रह्मलोक को जा रहा हूँ। आपलोगोंको अपने घरमें अथवा स्वर्गलोकमें अथवा विशेषकर संग्राममें दैत्योंका विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि दानव सदा क्षुद्र प्रकृतिवाले होते हैं। वे छिद्र पाकर तुरंत प्रहार कर बैठते हैं। उनकी स्थिति कभी निश्चित नहीं रहती। इधर सौम्य एवं कोमल स्वभाववाले आपलोगोंका आर्जव ही धन है। महायशस्वी एवं सत्य पराक्रमी भगवान् विष्णु देवगणोंसे ऐसा कहकर ब्रह्माके साथ अपने लोकको चले गये। राजन् ! दानवों और भगवान् विष्णुके मध्य घटित हुए तारकामय संग्राममें यही आश्चर्य हुआ था, जिसके विषयमें तुमने मुझसे प्रश्न किया था ॥ ७३-८० ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे पद्मोद्भवप्रादुर्भावसंग्रहो नामाष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ ९७८ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें पद्योद्भवप्रादुर्भावसंग्रह नामक एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥ १७८॥
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