मत्स्य पुराण एक सौ सत्तरवाँ अध्याय
मधु-कैटभ की उत्पत्ति, उनका ब्रह्मा के साथ वार्तालाप और भगवान्द्वारा वध
मत्स्य उवाच
विघ्नस्तपसि सम्भूतो मधुर्नाम महासुरः ।
तेनैव च सहोद्भूतो रजसा कैटभस्ततः ॥ १
मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ! भगवान्के योगनिद्राके वशीभूत हो शयन करते समय मधु नामका महान् असुर उत्पन्न हुआ, जो ब्रह्मा जी की तपस्यामें विघ्नस्वरूप था। १
तौ रजस्तमसी विघ्नसम्भूतौ तामसौ गणौ।
एकार्णवे जगत् सर्वं क्षोभयन्ती महाबली ॥ २
दिव्यरक्ताम्बरधरौ श्वेतदीप्ताग्रदंष्ट्रिणौ।
किरीटकुण्डलोदग्रौ केयूरवलयोज्वलौ ॥ ३
महाविवृतताम्राक्षौ पीनोरस्कौ महाभुजौ।
महागिरेः संहननौ जङ्गमाविव पर्वती ॥ ४
नवमेघप्रतीकाशावादित्यसदृशाननी ।
विद्युदाभौ गदाग्राभ्यां कराभ्यामतिभीषणौ ॥ ५
तौ पादयोस्तु विन्यासादुत्क्षिपन्ताविवार्णवम् ।
कम्पयन्ताविव हरिं शयानं मधुसूदनम् ॥ ६
तौ तत्र विचरन्तौ स्म पुष्करे विश्वतोमुखम् ।
योगिनां श्रेष्ठमासाद्य दीप्तं ददृशतुस्तदा ॥ ७
नारायणसमाज्ञातं सृजन्तमखिलाः प्रजाः ।
दैवतानि च विश्वानि मानसानसुरानृषीन् ॥ ८
ततस्तावूचतुस्तत्र ब्रह्माणमसुरोत्तमौ ।
दीप्तौ मुमूर्षु संकुद्धौ रोषव्याकुलितेक्षणौ ॥ ९
कस्त्वं पुष्करमध्यस्थः सितोष्णीषश्चतुर्भुजः ।
आधाय नियमं मोहादास्से त्वं विगतज्वरः ॥ १०
एह्यागच्छावयोर्युद्धं देहि त्वं कमलोद्भव।
आवाभ्यां परमीशाभ्यामशक्तस्त्वमिहार्णवे ॥ १९
तत्र कश्चौद्धवस्तुभ्यं केन वासि नियोजितः ।
कः स्त्रष्टा कश्च ते गोप्ता केन नाम्ना विधीयसे ॥ १२
तत्पश्चात् उसीके साथ रजोगुणसे युक्त कैटभ भी उत्पन्न हुआ। रजोगुण और तमोगुणसे युक्त एवं विघ्नस्वरूप उत्पन्न हुए वे दोनों महाबली तामसी असुर एकार्णवके जलमें सम्पूर्ण जगत्को क्षुब्ध कर रहे थे। वे लाल रंगका दिव्य वत्र धारण किये हुए थे, उनकी श्वेत वर्णकी दाढ़ोंके अग्रभाग चमक रहे थे, वे उद्दीप्त किरीट और कुण्डल तथा उज्वल केयूर और कंकणसे विभूषित थे, उनके लाल रंगके विशाल नेत्र खुले हुए थे, उनकी छाती मोटी और भुजाएँ लम्बी थीं, उनका शरीर विशाल पर्वतके समान था, वे चलते हुए पर्वत जैसा जान पड़ते थे, उनकी शरीर-कान्ति नूतन मेघ जैसी थी, उनका मुख सूर्यके समान प्रकाशमान था, वे बिजलीकी तरह चमक रहे थे और हाथमें गदा धारण करनेके कारण अत्यन्त भयानक दीख रहे थे, चलते समय वे पैरोंको इस प्रकार रख रहे थे मानो समुद्र को उछाल रहे हों और शयन करते हुए भगवान् मधुसूदनको कम्पित-सा कर रहे थे।
इस प्रकार वहाँ विचरण करते हुए उन दोनोंने कमलपर उद्भासित होते हुए चारों ओर मुखवाले योगियोंमें श्रेष्ठ ब्रह्माके निकट पहुँचकर उन्हें नारायणकी आज्ञासे मानसिक संकल्पद्वारा समस्त प्रजाओं, सम्पूर्ण देवताओं, असुरों और ऋषियोंकी सृष्टि करते हुए देखा। वे दोनों असुरश्रेष्ठ अपनी कान्तिसे उद्दीत, क्रोधसे परिपूर्ण और आसन्नमृत्यु थे, उनके नेत्र क्रोधसे व्याकुल हो रहे थे। उन्होंने ब्रह्मासे पूछा-'श्वेत रंगकी पगड़ी बाँधे, चार भुजाधारी एवं कमलके मध्यमें स्थित तुम कौन हो? तुम मोहवश नियम धारणकर यहाँ शान्तचित्त होकर क्यों बैठे हो? कमलजन्मा! तुम यहाँ आओ और हम दोनोंके साथ युद्ध करो। हम दोनों सामर्थ्यशालियोंके अतिरिक्त तुम इस महासागरमें स्थित नहीं रह सकते। तुम्हें उत्पन्न करनेवाला कौन है? तुम किसके द्वारा इस काममें नियुक्त किये गये हो? तुम्हारी सृष्टि करनेवाला कौन है? तुम्हारा रक्षक कौन है? तुम किस नामसे पुकारे जाते हो ?' ॥ २-१२॥
ब्रह्मोवाच
एक इत्युच्यते लोकैरविचिन्त्यः सहस्त्रदृक् ।
तत्संयोगेन भवतोः कर्म नामावगच्छताम् ॥ १३
ब्रह्माने कहा- जो ध्यानसे परे एवं हजारों नेत्रोंवाला है, उस परम पुरुषको तो लोग अद्वितीय बतलाते हैं, (परंतु तुम दोनों कौन हो ?) अतः मैं तुम दोनोंके नाम और कर्मको जानना चाहता हूँ ॥ १३॥
मधुकैटभावूचतुः
नावयोः परमं लोके किञ्चिदस्ति महामते ।
आवाभ्यां छाद्यते विश्वं तमसा रजसाथ वै ॥ १४
रजस्तमोमयावावामृषीणामवलङ्घितौ ।
छाद्यमानौ धर्मशीलौ दुस्तरी सर्वदेहिनाम् ॥ १५
आवाभ्यामुद्यते लोको दुष्कराभ्यां युगे युगे।
आवामर्थश्च कामश्च यज्ञः स्वर्गपरिग्रहः ॥ १६
सुखं यत्र मुदा युक्तं यत्र श्रीः कीर्तिरेव च।
येषां यत्काङ्क्षितं चैव तत्तदावां विचिन्तय ॥ १७
मधु-कैटभ बोले-महामते ! जगत्में हम दोनोंसे उत्कृष्ट कुछ भी नहीं है। हमीं दोनोंने तमोगुण और रजोगुणद्वारा विश्वको आच्छादित कर रखा है। रजोगुण और तमोगुणसे व्याप्त होनेके कारण हम दोनों ऋषियोंके लिये अलङ्घनीय हैं। धर्म और शील स्वभावका आच्छादन करनेवाले हम दोनों समस्त देहधारियोंके लिये अजेय हैं। प्रत्येक युगमें दुष्कर कर्म करनेवाले हमीं दोनों लोकका वहन करते हैं। अर्थ, काम, यज्ञ, स्वर्गसंकलन-यह सब हम दोनोंके लिये ही हैं। जहाँ जो कुछ प्रसन्नतायुक्त सुख, लक्ष्मी और कीर्ति है तथा प्राणियोंके जो मनोरथ हैं, उनके रूपमें हमीं दोनोंको जानना चाहिये ॥ १४-१७॥
ब्रह्मोवाच
यत्नाद्योगवतो दृष्ट्या योगः पूर्व मयार्जितः ।
तं समाधाय गुणवत्सत्त्वं चास्मि समाश्रितः ॥ १८
यः परो योगमतिमान् योगाख्यः सत्त्वमेव च।
रजसस्तमसश्चैव यः स्वष्टा विश्वसम्भवः ॥ १९
ततो भूतानि जायन्ते सात्त्विकानीतराणि च।
स एव हि युवां नाशे वशी देवो हनिष्यति ॥ २०
ब्रह्माने कहा-पूर्वकालमें मैंने यत्नपूर्वक योगदृष्टिद्वारा योगका उपार्जन किया था, उसी गुणशाली योगको धारण करके मैं सत्त्वगुणसे युक्त हो सका हूँ। जो परात्पर, योगकी बुद्धिसे युक्त, 'योग' नामवाले, सत्त्वगुणस्वरूप, रजोगुण और तमोगुणके रचयिता तथा विश्वको उत्पन्न करनेवाले हैं, जिनसे सात्त्विक, राजसिक और तामसिक प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है, वे ही देव तुम दोनोंका विनाश करनेमें समर्थ हैं, अतः वे ही तुम दोनोंका वध करेंगे ॥ १८-२०॥
स्वपन्नेव ततः श्रीमान् बहुयोजनविस्तृतम् ।
बाहुं नारायणो ब्रह्म कृतवानात्ममायया ।। २१
कृष्यमाणौ ततस्तस्य बाहुना बाहुशालिनः ।
चेरतुस्तौ विगलितौ शकुनाविव पीवरी ॥ २२
ततस्तावाहतुर्गत्वा तदा देवं सनातनम्।
पद्मनाभं हृषीकेशं प्रणिपत्य स्थितावुभौ ॥ २३
जानीवस्त्वां विश्वयोनिं त्वामेकं पुरुषोत्तमम् ।
त्वमावां पाहि हेत्वर्थमिदं नौ बुद्धिकारणम् ॥ २४
अमोघदर्शनः स त्वं यतस्त्वां विद्वःशाश्वतम्।
ततस्त्वामागतावावामभितःप्रसमीक्षितुम् ॥ २५
तदिच्छावो वरं देव त्वत्तोऽद्भुतमरिन्दम ।
अमोघदर्शनोऽसि त्वं नमस्ते समितिञ्जय ।। २६
ठीक उसी अवसरपर परब्रह्म श्रीमान् नारायणने शयन करते हुए ही अपनी मायासे अपने बाहुको अनेकों योजनके विस्तारवाला बना लिया। तब दीर्घ बाहुवाले भगवान्की उस भुजासे खींचे जाते हुए वे दोनों दैत्य स्थानसे भ्रष्ट होकर दो मोटे पक्षियोंकी भाँति घूमने लगे। इस प्रकार खिंचते हुए वे दोनों असुर अविनाशी पद्मनाभ हृषीकेशके निकट जा पहुँचे और उन्हें नमस्कार कर सामने खड़े हो गये और इस प्रकार बोले- 'देव! हम दोनों आपको विश्वका उत्पादक, अद्वितीय और पुरुषोत्तम जानते हैं। आप हम दोनोंकी रक्षा करें। हमलोगोंकी ऐसी बुद्धिका कारण किसी प्रयोजनकी सिद्धिके लिये है। आपका दर्शन अमोघ होता है। इसीलिये हम दोनों आपको अविनाशी मानते हैं। देव। इसी कारण हम दोनों आपका दर्शन करनेके लिये यहाँ आये हैं। शत्रुसूदन। हम दोनों आपसे अद्भुत वर प्राप्त करना चाहते हैं। युद्धविजयी देव! आप अमोघदर्शन हैं, अर्थात् आपका दर्शन निष्फल नहीं होता। आपको नमस्कार है' ॥ २१-२६ ॥
श्रीभगवानुवाच
किमर्थं हि हुतं बूर्त वरं ह्यसुरसत्तमौ।
दत्तायुष्कौ पुनर्भूयो रहो जीवितुमिच्छथः ।। २७
श्रीभगवान्ने कहा- श्रेष्ठ असुरो। तुमलोगोंकी क्या अभिलाषा है? शीघ्र वर माँगो। तुमलोगोंने अपनी आयु तो दे दी है, अब तुमलोग पुनः एकान्तमें कैसे जीवित रहना चाहते हो ? ॥ २७॥
मधुकैटभाबूचतुः
यस्मिन्न कश्चिन्मृतवान् देव तस्मिन् प्रभो वधम् ।
तमिच्छावो वधश्चैव त्वत्तो नोऽस्तु महाव्रत ।। २८
मधु-कैटभ बोले-सामर्थ्यशाली देव। जिस स्थानपर कोई भी न मरा हो, वहाँ हम अपनी मृत्यु चाहते हैं। साथ ही महाव्रत ! हमारी वह मृत्यु आपके हाथों होनी चाहिये ॥ २८ ॥
श्रीभगवानुवाच
बार्ड युवां तु प्रवरी भविष्यत्कालसम्भवे।
भविष्यतो न संदेहः सत्यमेतद् ब्रवीमि वाम् ॥ २९
वरं प्रदायाथ महासुराभ्यां सनातनौ विश्ववरः सुरोत्तमः ।
रजस्तमोवर्गभवायनौ यमौ ममन्थ तावूरुतलेन वै प्रभुः ॥ ३०
श्रीभगवान्ने कहा-ठीक है, भविष्यकालमें तुम दोनों असुरोंमें श्रेष्ठ होकर उत्पन्न होओगे, इसमें संदेह नहीं है। यह मैं तुम दोनोंसे सत्य कह रहा हूँ। इस प्रकार विश्वमें श्रेष्ठ सनातन सुरवर भगवान्ने उन दोनों महान् असुरोंको वर प्रदान करनेके पश्चात् रजोगुण और तमोगुणके उत्पत्तिस्थानस्वरूप उन दोनों असुरोंको अपनी जाँधपर सुलाकर उनका कचूमर निकाल लिया ॥ २९-३०॥
इति श्रीमाल्ये महापुराणे पद्मोद्भवग्नादुर्भावे सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७० ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके पद्मोद्भवप्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें एक सी सत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १७०
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