महा प्रलय का वर्णन | mahaapralay ka varnan

मत्स्य पुराण एक सौ छाछठवाँ अध्याय

महाप्रलय का वर्णन

मास्य उवाच

भूत्वा नारायणो योगी सत्त्वमूर्तिर्विभावसुः । 
गभस्तिभिः प्रदीप्ताभिः संशोषयति सागरान् ॥ १

मत्स्यभगवान्ने कहा- रविनन्दन। तदनन्तर वे सत्त्वमूर्ति योगी नारायण सूर्यका रूप धारण कर अपनी उद्दीप्त किरणोंसे सागरोंको सोख लेते हैं। १

ततः पीत्वार्णवान् सर्वान् नदीः कूपांश्च सर्वशः ।
पर्वतानां च सलिलं सर्वमादाय रश्मिभिः ॥ २

भित्वा गभस्तिभिश्चैव महीं गत्वा रसातलात्।
पातालजलमादाय पिबते रसमुत्तमम् ॥ ३

मूत्रासृक् क्लेदमन्यच्च यदस्ति प्राणिषु ध्रुवम् ।
तत्सर्वमरविन्दाक्ष आदत्ते पुरुषोत्तमः ॥ ४

वायुश्च भगवान् भूत्वा विधुन्वानोऽखिलं जगत्। 
प्राणापानसमानाद्यान् वायूनाकर्षते हरिः ॥ ५

ततो देवगणाः सर्वे भूतान्येव च यानि तु। 
गन्धो घ्राणं शरीरं च पृथिवीं संश्रिता गुणाः ॥ ६

जिह्वा रसश्च स्नेहश्च संश्रिताः सलिले गुणाः । 
रूपं चक्षुर्विपाकश्च ज्योतिरेवाश्रिता गुणाः ॥ ७

स्पर्शः प्राणश्च चेष्टा च पवने संश्रिता गुणाः । 
शब्दः श्रोत्रं च खान्येव गगने संश्रिता गुणाः ॥ ८

इस प्रकार सभी सागरोंको सुखा देनेके पश्चात् अपनी किरणोंद्वारा नदियों, कुओं और पर्वतोंका सारा जल खींच लेते हैं। फिर वे किरणोंद्वारा पृथ्वीका भेदन करके रसातलमें जा पहुँचते हैं और वहाँ पातालके उत्तम रसरूप जलका पान करते हैं। तत्पश्चात् कमलनयन पुरुषोत्तम नारायण प्राणियकि शरीरमें निश्चितरूपसे रहनेवाले मूत्र, रक्त, मज्जा तथा अन्य जो गीले पदार्थ होते हैं. उन सबके रसको ग्रहण कर लेते हैं। तदुपरान्त भगवान् श्रीहरि वायुरूप होकर सम्पूर्ण जगत्‌को प्रकम्पित करते हुए प्राण, अपान, समान, उदान और व्यानरूप पाँचों प्राणवायुओंको खींच लेते हैं। तदनन्तर सभी देवगण, पाँचों महाभूत, गन्ध, प्राण, शरीर-ये सभी गुण पृथ्वीमें विलीन हो जाते हैं। जिल्हा, रस, स्नेह (चिकनाहट)- ये सभी गुण जलमें लीन हो जाते हैं। रूप, चक्षु, विपाक (परिणाम)- ये गुण अग्निमें मिल जाते हैं। स्पर्श, प्राण, चेष्टा ये सभी गुण वायुका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं। शब्द, श्रोत्र, इन्द्रियाँ ये सभी गुण आकाशमें विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार भगवान् नारायण दो ही घड़ीमें सारी लोकमायाको विनष्ट कर देते हैं॥२-८॥

लोकमाया भगवता मुहूर्तेन विनाशिता। 
मनो बुद्धिश्च सर्वेषां क्षेत्रज्ञश्चेति यः श्रुतः ॥ ९

ततो भगवतस्तस्य रश्मिभिः परिवारितः ॥ १०

वायुनाक्रम्यमाणासु द्रुमशाखासु चाश्रितः । 
तेषां संघर्षणोद्भूतः पावकः शतधा ज्वलन् ॥ ११

अदहच्च तदा सर्वं वृतः संवर्तकोऽनलः । 
सपर्वतद्रुमान् गुल्मौल्लतावल्लीस्तृणानि च ॥ १२

विमानानि च दिव्यानि पुराणि विविधानि च। 
यानि चाश्रवणीयानि तानि सर्वाणि सोऽदहत् ॥ १३

भस्मीकृत्य ततः सर्वांल्लोकाँल्लोकगुरुर्हरिः । 
भूयो निर्वापयामास युगान्तेन च कर्मणा ॥ १४

सहस्त्रवृष्टिः शतधा भूत्वा कृष्णो महाबलः । 
दिव्यतोयेन हविषा तर्पयामास मेदिनीम् ॥ १५ 

ततः क्षीरनिकायेन स्वादुना परमाम्भसा । 
शिवेन पुण्येन मही निर्वाणमगमत्परम् ॥ १६

तेन रोधेन संछन्ना पयसां वर्षतो धरा। 
एकार्णवजलीभूता सर्वसत्त्वविवर्जिता ॥ १७

तदनन्तर जो सभी प्राणियोंका मन, बुद्धि और क्षेत्रज्ञ कहा जाता है, वह अग्नि उन सर्वश्रेष्ठ इषीकेशके निकट पहुँचता है और उन भगवान्‌की किरणोंसे युक्त हो वायुद्वारा आक्रान्त वृक्षोंकी शाखाओंका आश्रय ग्रहण करता है। वहाँ वृक्षोंके संघर्षसे उत्पन्न हुई वह अग्नि सैकड़ों ज्वालाएँ फेंकने लगती है। फिर उससे घिरा हुआ संवर्तक अग्नि सबको जलाना आरम्भ करती है। वह पर्वतीय वृक्षोंसहित गुल्मों, लताओं, वल्लियों, घास-फूसों, दिव्य विमानों, अनेकों नगरों तथा अन्यान्य जो आश्रय लेनेयोग्य स्थान होते हैं, उन सबको जलाकर भस्म कर देती है। इस प्रकार लोकोंके गुरु स्वरूप श्रीहरि समस्त लोकोंको जलाकर पुनः युगान्तकालिक कर्मद्वारा समूची सृष्टिका विनाश कर देते हैं। तदुपरान्त महाबली विष्णु सैकड़ों हजारों प्रकारकी वृष्टिका रूप धारण कर दिव्य जलरूपी हविसे पृथ्वीको तूस कर देते हैं। तब उस दूध-सदृश स्वादिष्ट कल्याणकारक पुण्यमय उत्तम जलसे पृथ्वी परम शान्त हो जाती है। बरसते हुए जलके उस घेरेसे आच्छादित हुई पृथ्वी समस्त प्राणियोंसे रहित हो एकार्णवके जलके रूपमें परिणत हो जाती है॥ ९-१७ ॥

महासत्त्वान्यपि विभुं प्रविष्टान्यमितौजसम् । 
नष्टार्कपवनाकाशे सूक्ष्मे जगति संवृते ॥ १८

संशोषमात्मना कृत्वा समुद्रानपि देहिनः। 
दग्ध्वा सम्प्लाव्य च तथा स्वपित्येकः सनातनः ।। १९

पौराणं रूपमास्थाय स्वपित्यमितविक्रमः । 
एकार्णवजलव्यापी योगी योगमुपाश्रितः ॥ २०

अनेकानि सहस्त्राणि युगान्येकार्णवाम्भसि । 
न चैनं कश्चिदव्यक्तं व्यक्तं वेदितुमर्हति ॥ २१

कश्चैव पुरुषो नाम किं योगः कश्च योगवान् । 
असौ कियन्तं कालं च एकार्णवविधिं प्रभुः ।
करिष्यतीति भगवानिति कश्चिन्न बुध्यते ॥ २२

न द्रष्टा नैव गमिता न ज्ञाता नैव पार्श्वगः । 
तस्य न ज्ञायते किंचित्तमृते देवसत्तमम् ॥ २३

नभः क्षितिं पवनमपः प्रकाशं प्रजापतिं भुवनधरं सुरेश्वरम् ।
पितामहं श्रुतिनिलयं महामुनिं प्रशाम्य भूयः शयनं हारोचयत् ॥ २४

उस समय सूर्य, वायु और आकाशके नष्ट हो जानेपर तथा सूक्ष्म जगत्‌के आच्छादित हो जानेपर महान्-से-महान् जीव-जन्तु भी अमित ओजस्वी एवं सर्वव्यापी नारायणमें प्रविष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार वे सनातन भगवान् स्वयं अपने द्वारा समुद्रोंको सुखाकर, देहधारियोंको जलाकर तथा पृथ्वीको जलमें निमग्न करके अकेले शयन करते हैं। अमित पराक्रमी, एकार्णवके जलमें व्याप्त रहनेवाले एवं योगबलसम्पत्र नारायण योगका आश्रय ले उस एकार्णवके जलमें अपना पुराना रूप धारण कर अनेकों हजार युगोंतक शयन करते हैं। उस समय कोई भी इन अव्यक्त नारायणको व्यक्तरूपसे नहीं जान सकता। वह पुरुष कौन है? उसका क्या योग है? वह किस योगसे युक्त है? वे सामर्थ्यशाली भगवान् कितने समयतक इस एकार्णवके विधानको करेंगे? इसे कोई नहीं जानता। उस समय न कोई उन्हें देख सकता है, न कोई वहाँ जा सकता है, न कोई उन्हें जान सकता है और न कोई उनके निकट पहुँच सकता है। उन देवश्रेष्ठके अतिरिक्त दूसरा कोई भी उनके विषयमें कुछ भी नहीं जान सकता। इस प्रकार आकाश, पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, प्रजापति, पर्वत, सुरेश्वर, पितामह ब्रह्मा, वेदसमूह और महर्षि- इन सबको प्रशान्त कर वे पुनः शयनकी इच्छा करते हैं॥ १८-२४॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे पद्योद्भवप्रादुर्भावे षट्षष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६६॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके पद्योद्भवप्रादुर्भाव प्रसङ्गमें एक सी छाछठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १६६ ॥

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