मत्स्य पुराण एक सौ बयासीवाँ अध्याय
अविमुक्त-माहात्म्य
सूत उवाच
कैलासपृष्ठमासीनं स्कन्दं ब्रह्मविदां वरम् ।
पप्रच्छुऋषयः सर्वे सनकाद्यास्तपोधनाः ॥ १
तथा राजर्षयः सर्वे ये भक्तास्तु महेश्वरे।
ब्रूहि त्वं स्कन्द भूलोंके यत्र नित्यं भवः स्थितः ॥ २
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। एक समय सनक आदि तपस्वी ब्रह्मर्षिगण, सकल राजर्षिवृन्द एवं महेश्वरके भक्तगणोंने कैलास पर्वतके शिखरपर बैठे हुए ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ स्कन्दसे पूछा- 'स्कन्द। मृत्युलोकमें जहाँ भगवान् शंकर सदैव विराजमान रहते हैं, वह स्थान आप (हमें) बतलाइये ॥१-२ ॥
स्कन्द उवाच
महात्मा सर्वभूतात्मा देवदेवः सनातनः ।
घोररूपं समास्थाय दुष्करं देवदानवैः ॥ ३
आभूतसम्प्लवं यावत् स्थाणुभूतः स्थितः प्रभुः ।
गुह्यानां परमं गुह्यमविमुक्तमिति स्मृतम् ॥ ४
अविमुक्ते सदा सिद्धिर्यत्र नित्यं भवः स्थितः ।
अस्य क्षेत्रस्य माहात्यं यदुक्तं त्वीश्वरेण तु ॥ ५
स्थानान्तरं पवित्रं च तीर्थमायतनं तथा।
श्मशानसंस्थितं वेश्म दिव्यमन्तर्हितं च यत् ॥ ६
भूर्लोके नैव संयुक्तमन्तरिक्षे शिवालयम् ।
अयुक्तास्तु न पश्यन्ति युक्ताः पश्यन्ति चेतसा ॥ ७
ब्रह्मचर्यव्रतोपेताः सिद्धा वेदान्तकोविदाः।
आदेहपतनाद् यावत् तत् क्षेत्रं यो न मुञ्चति ॥ ८
ब्रह्मचर्यव्रतैः सम्यक् सम्यगिष्टं मखैर्भवेत् ।
अपापात्मा गतिः सर्वा या तूक्ता च क्रियावताम् ॥ ९
यस्तत्र निवसेद् विप्रोऽसंयुक्तात्मासमाहितः ।
त्रिकालमपि भुञ्जानो वायुभक्षसमो भवेत् ॥ १०
निमेषमात्रमपि यो ह्यविमुक्ते तु भक्तिमान्।
ब्रह्मचर्यसमायुक्तः परमं प्राप्नुयात् तपः ॥ ११
योऽत्र मासं वसेद् धीरो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः ।
सम्यक् तेन व्रतं चीर्णं दिव्यं पाशुपतं महत् ॥ १२
जन्ममृत्युभयं तीर्ध्वा स याति परमां गतिम् ।
नैःश्रेयसीं गतिं पुण्यां तथा योगगतिं व्रजेत् ॥ १३
न हि योगगतिर्दिव्या जन्मान्तरशतैरपि।
प्राप्यते क्षेत्रमाहात्म्यात् प्रभावाच्छंकरस्य तु ॥ १४
स्कन्दने कहा-सभी प्राणियोंके आत्मस्वरूप, महात्मा, सनातन, देवाधिदेव, सामर्थ्यशाली, महादेव देवता एवं दानवोंसे दुष्प्राप्य, घोररूप धारणकर प्रलयपर्यन्त जहाँ स्थिररूपसे निवास करते हैं, उसे अत्यन्त गुप्त अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। जहाँ शिव सदा स्थित रहते हैं, उस अविमुक्तक्षेत्रमें सिद्धि सदा सुलभ है। इस स्थानका जो माहात्म्य भगवान् शङ्करने स्वयं कहा है, उसे सुनिये। यह स्थान परम पवित्र तीर्थ और देवालय है। महाश्मशानपर स्थित जो दिव्य एवं सुगुप्त मन्दिर है, उसका पृथ्वीलोकसे सम्बन्ध नहीं है। वह शिवका मन्दिर अन्तरिक्षमें है। योगी व्यक्ति ही ज्ञानद्वारा उसका साक्षात्कार कर पाते हैं, किंतु जो योगसे रहित है वे उसे नहीं देख पाते। जो ब्रह्मचारी, सिद्ध और वेदान्तको जाननेवाले मृत्युपर्यन्त उस स्थानका परित्याग नहीं करते, उन्हें वह पवित्र गति प्राप्त होती है, जो ब्रह्मचर्यपूर्वक यज्ञोंद्वारा भलीभाँति अनुष्ठान करनेपर क्रियासम्पन्न व्यक्तियोंके लिये कही गयी है। जो विप्र समाधिसे रहित, योगसे शून्य एवं तीनों समय भोजन करते हुए भी वहाँ निवास करता है वह वायुभक्षीके समान माना जाता है। इस अविमुक्त क्षेत्रमें क्षणभर भी ब्रह्मचर्यपूर्वक निवास करनेवाला भक्तिमान् व्यक्ति परम तपको प्राप्त करता है। जो धीर पुरुष अल्प भोजन करते हुए इन्द्रियोंको वशमें कर एक मासतक यहाँ निवास करता है, वह (मानो) महान् दिव्य पाशुपत व्रतका अनुष्ठान कर लेता है। वह पुरुष जन्म और मृत्युके भयको पारकर परमगतिको प्राप्त करता है तथा पुण्यदायक मोक्ष एवं योगगतिका अधिकारी हो जाता है। जिस दिव्य योगगतिको सैकड़ों जन्मोंमें भी नहीं प्राप्त किया जा सकता, वह स्थानके माहात्म्य और शंकरके प्रभावसे यहाँ प्राप्त हो जाती है॥ ३-१४॥
ब्रह्महा योऽभिगच्छेत् तु अविमुक्तं कदाचन।
तस्य क्षेत्रस्य माहात्म्याद् ब्रह्महत्या निवर्तते ॥ १५
आदेहपतनाद् यावत् क्षेत्रं यो न विमुञ्चति।
न केवलं ब्रह्महत्या प्राक्कृतं च निवर्तते ॥ १६
प्राप्य विश्वेश्वरं देवं न स भूयोऽभिजायते।
अनन्यमानसो भूत्वा योऽविमुक्तं न मुञ्छति ॥ १७
तस्य देवः सदा तुष्टः सर्वान् कामान् प्रयच्छति ।
द्वारं यत् सांख्ययोगानां स तत्र वसति प्रभुः ॥ १८
सगणो हि भवो देवो भक्तानामनुकम्पया।
अविमुक्तं परं क्षेत्रमविमुक्ते परा गतिः ॥ ९९
अविमुक्ते परा सिद्धिरविमुक्ते परं पदम् ।
अविमुक्तं निषेवेत देवर्षिगणसेवितम् ॥ २०
यदीच्छेन्मानवो धीमान् न पुनर्जायते क्वचित्।
मेरोः शक्तो गुणान् वक्तुं द्वीपानां च तथैव च ॥ २१
समुद्राणां च सर्वेषां नाविमुक्तस्य शक्यते।
अन्तकाले मनुष्याणां छिद्यमानेषु मर्मसु ॥ २२
वायुना प्रेर्यमाणानां स्मृतिनैवोपजायते।
अविमुक्ते ह्यन्तकाले भक्तानामीश्वरः स्वयम् ॥ २३
कर्मभिः प्रेर्यमाणानां कर्णजापं प्रयच्छति ।
मणिकर्त्यां त्यजन् देहं गतिमिष्टां व्रजेन्नरः ॥ २४
ईश्वरप्रेरितो याति दुष्प्रापामकृतात्मभिः ।
अशाश्वतमिदं ज्ञात्वा मानुष्यं बहुकिल्बिषम् ॥ २५
अविमुक्तं निषेवेत संसारभयमोचनम् ।
योगक्षेमप्रदं दिव्यं बहुविघ्नविनाशनम् ॥ २६
विघ्नैश्चालोड्यमानोऽपि योऽविमुक्तं न मुञ्चति।
स मुञ्चति जरां मृत्युं जन्म चैतदशाश्वतम् ।
अविमुक्तप्रसादात् तु शिवसायुज्यमाप्नुयात् ॥ २७
ब्रह्महत्या करनेवाला व्यक्ति भी यदि किसी समय इस अविमुक्तक्षेत्रमें चला जाता है तो इस क्षेत्रके प्रभावसे उसकी ब्रह्महत्या निवृत्त हो जाती है। जो मृत्युपर्यन्त इस क्षेत्रका परित्याग नहीं करता, उसकी केवल ब्रह्महत्या ही नहीं, अपितु पहलेके किये हुए पाप भी नष्ट हो जाते हैं। वह भगवान् विश्वेश्वरको प्राप्तकर पुनः संसारमें जन्म नहीं ग्रहण करता। जो अनन्यचित्त हो अविमुक्त क्षेत्रका परित्याग नहीं करता, उसपर भगवान् शङ्कर सदा प्रसन्न रहते हैं और उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। जो सांख्य और योगका द्वारस्वरूप है उस स्थानपर भक्तोंपर अनुकम्पा करनेके लिये सर्वशक्तिसम्पन्न भगवान् शङ्कर गणकि साथ निवास करते हैं। अविमुक्त क्षेत्र श्रेष्ठ स्थान है। अविमुक्तमें रहनेसे श्रेष्ठ गति प्राप्त होती है।
अविमुक्तमें रहनेसे परम सिद्धि प्राप्त होती है और अविमुक्तमें रहनेसे श्रेष्ठ स्थान प्राप्त होता है। यदि बुद्धिमान् मनुष्य यह चाहता हो कि मेरा पुनर्जन्म न हो तो उसे देवर्षिगणों से सेवित अविमुक्त क्षेत्रमें निवास करना चाहिये। मेरु पर्वत, सभी द्वीपों तथा समुद्रोंके गुणोंका वर्णन किया जा सकता है, किंतु अविमुक्त क्षेत्रके गुणोंका वर्णन नहीं किया जा सकता। मृत्युके समय वायुसे प्रेरित मनुष्योंके मर्मस्थानोंक छिन्न हो जानेपर स्मृति नहीं उत्पन्न होती, किंतु अविमुक्तमें अन्तसमय कर्मोंसे प्रेरित भक्तोंके कानमें स्वयं ईश्वर मन्त्रका जाप करते हैं। मनुष्य मणिकर्णिकामें शरीरका त्याग करनेपर इष्टगतिको प्राप्त करता है। जो गति अविशुद्ध आत्माओंद्वारा दुष्प्राप्य है, उसे भी वह ईश्वरकी प्रेरणाद्वारा यहाँ प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य अनेक पापोंसे परिपूर्ण इस मानवयोनिको नश्वर समझकर संसार भयसे छुटकारा देनेवाले, योगक्षेमके प्रदाता, अनेक विघ्नोंके विनाशक दिव्य अविमुक्त (काशी) में निवास करता है तथा अनेक विघ्नोंसे आलोडित होनेपर भी अविमुक्तको नहीं छोड़ता, वह वृद्धावस्था, मृत्यु और इस नश्वर जन्मसे छुटकारा पा लेता है तथा अविमुक्तके माहात्म्यसे शिवसायुज्यको प्राप्त करता है॥ १५-२७॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽविमुक्तमाहात्म्ये द्वाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८२ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके अविमुक्तमाहात्म्य-वर्णनमें एक सी वयासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १८२ ॥
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