नाभि कमल से ब्रह्मा का प्रादुर्भाव तथा उस कमल का साङ्गोपाङ्ग वर्णन | nabhi kamal se brama ka pradurbhav tatha us kamal ka sangopaang varnan

मत्स्य पुराण एक सौ उनहत्तरवाँ अध्याय 

नाभि कमल से ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमल का साङ्गोपाङ्ग वर्णन

अथ योगवतां श्रेष्ठमसृजद् भूरितेजसम् । 
स्त्रष्टारं सर्वलोकानां ब्रह्माणं सर्वतोमुखम् ॥ १

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजर्षे । तदनन्तर नारायणने अनेकों योजन विस्तारवाले उस स्वर्णमय कमलमें सम्पूर्ण लोकोंकी रचना करनेवाले ब्रह्माको उत्पन किया। १

यस्मिन् हिरण्मये पदो बहुयोजनविस्तृते।
सर्वतेजोगुणमयं पार्थिवैर्लक्षणैर्वृतम् ॥ २

तच्च पद्म पुराणज्ञाः पृथिवीरूपमुत्तमम् ।
नारायणसमुद्भूतं प्रवदन्ति महर्षयः ॥ ३

या पद्मा सा रसा देवी पृथिवी परिचक्ष्यते। 
ये पद्मसारगुरवस्तान् दिव्यान् पर्वतान् विदुः ॥ ४

हिमवन्तं च मेरुं च नीलं निषधमेव च। 
कैलासं मुञ्जवन्तं च तथान्यं गन्धमादनम् ॥ ५

पुण्यं त्रिशिखरं चैव कान्तं मन्दरमेव च। 
उदयं पिञ्जरं चैव विन्ध्यवन्तं च पर्वतम् ॥ ६

एते देवगणानां च सिद्धानां च महात्मनाम्। 
आश्रयाः पुण्यशीलानां सर्वकामफलप्रदाः ॥ ७

एतेषामन्तरे देशो जम्बूद्वीप इति स्मृतः । 
जम्बूद्वीपस्य संस्थानं यज्ञिया यत्र वै क्रियाः ॥ ८ 

एभ्यो यत् स्त्रवते तोयं दिव्यामृतरसोपमम्। 
दिव्यास्तीर्थशताधाराः सुरम्याः सरितः स्मृताः ॥ ९ 

वे योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ, परम तेजस्वी, सब ओर मुखवाले, सभी तेजोमय गुणोंसे युक्त और राजलक्षणोंसे सुशोभित थे। पुराणोंके ज्ञाता महर्षिगण उस कमलको नारायणसे उत्पन्न हुआ उत्तम पृथ्वी रूप बतलाते हैं। जो पद्मा है, वही रसा नामसे विख्यात पृथ्वीदेवी कही जाती है और जो कमलके सार-तत्त्वसे युक्त होनेके कारण भारी अंश हैं, उन्हें दिव्य पर्वत कहा जाता है। इस प्रकार जो हिमवान्, मेरु, नील, निषध, कैलास, मुञ्जवान् तथा दूसरा गन्धमादन, पुण्यमय त्रिशिखर, रमणीय मन्दर, उदयाचल, पिञ्जर तथा विन्ध्यवान् पर्वत हैं- ये सभी देवगणों, सिद्धों और पुण्यशील महात्माओंके निवासस्थान तथा समस्त कामनाओंका फल प्रदान करनेवाले हैं। इन सभी पर्वतोंके मध्यवर्ती देशको जम्बूद्वीप कहा जाता है। जम्बूद्वीपकी पहचान यह है कि वहाँ सभी यज्ञसम्बन्धिनी क्रियाएँ होती हैं। इन पर्वतोंसे जो दिव्य अमृत-रसके समान सुस्वादु जल प्रवाहित होता है, वह सैकड़ों धाराओंमें विभक्त होकर दिव्य तीर्थ बन जाता है और वे धाराएँ सुरम्य नदियाँ कहलाती हैं॥२-९॥

स्मृतानि यानि पद्मस्य केसराणि समंततः । 
असंख्येयाः पृथिव्यास्ते विश्वे वै धातुपर्वताः ॥ १०

यानि पद्मस्य पर्णानि भूरीणि तु नराधिप। 
ते दुर्गमाः शैलचिता म्लेच्छदेशा विकल्पिताः ॥ ११ 

यान्यधोभागपर्णानि ते निवासास्तु भागशः ।
दैत्यानामुरगाणां च पतङ्गानां च पार्थिव ॥ १२

तेषां महार्णवो यत्र तद्रसेत्यभिसंज्ञितम्।
महापातककर्माणो मज्जन्ते यत्र मानवाः ॥ १३

पद्मस्यान्तरतो यत्तदेकार्णवगता मही।
प्रोक्ताथ दिक्षु सर्वासु चत्वारः सलिलाकराः ॥ १४

एवं नारायणस्यार्थे मही पुष्करसम्भवा।
प्रादुर्भावोऽप्ययं तस्मान्नाम्ना पुष्करसंज्ञितः ॥ १५

एतस्मात् कारणात्तज्ज्ञैः पुराणैः परमर्षिभिः । 
याज्ञिकैर्वेदद्दृ‌ष्टान्तैर्यज्ञे पद्मविधिः स्मृतः ॥ १६

एवं भगवता तेन विश्वेषां धारणाविधिः । 
पर्वतानां नदीनां च हृदानां चैव निर्मितः ॥ १७

विभुस्तथैवाप्रतिमप्रभावःप्रभाकराभो वरुणासितद्युतिः ।
शनैः स्वयम्भूः शयनं सृजत्तदा जगन्मयं पद्मविधिं महार्णवे ॥ १८

राजन्। उस कमलके चारों ओर जो केसर कहे जाते हैं, वे विश्वमें पृथ्वीके असंख्य धातुपर्वत हैं। उस कमलमें जो बहुसंख्यक पत्ते हैं, वे म्लेच्छोंके देश कहे जाते हैं, जो पर्वतोंसे व्याप्त होनेके कारण दुर्गम हैं। भूपाल! उस कमलमें जो निचले भागमें पत्ते हैं, वे विभागपूर्वक दैत्यों, नागों और कीट-पतङ्गोंके निवासस्थान हैं। इन सबका जहाँ महासागर है, उसे 'रसा' नामसे पुकारा जाता है। वहीं महान् पाप करनेवाले मानव डूबते-उतराते रहते हैं। उस कमलके अन्तर्गत जो ठोस भाग दीखता है, वही एकार्णवमें डूबी हुई पृथ्वी कही गयी है। उसकी सभी दिशाओंमें जलसे भरे हुए चार महासागर हैं। इस प्रकार नारायणकी कार्य-सिद्धिके लिये पृथ्वी कमलसे उद्भुत हुई है। इसी कारण यह प्रादुर्भाव भी पुष्कर नामसे कहा जाता है। इसी कारण उस वृत्तान्तको जाननेवाले प्राचीन याज्ञिक महर्षियोंने वेदके दृष्टान्तोंद्वारा यज्ञमें कमलकी रचनाका विधान बतलाया है। इस प्रकार उन भगवान्ने सम्पूर्ण पर्वतों, नदियों और जलाशयोंकी धारणाकी विधिका निर्माण किया है। तदुपरान्त जो अनुपम प्रभावशाली, सूर्य-सरीखे द्युतिमान् और वरुणकी-सी कृष्ण कान्तिवाले हैं, वे सर्वव्यापी स्वयम्भू भगवान् उस महार्णवमें जगन्मय कमलका विधान करके पुनः पूर्ववत् शयन करने लगे ॥ १०-१८ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे पद्योद्भवप्रादुर्भावे एकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६९॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके पयोद्भवप्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें एक सी उनहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १६९॥

टिप्पणियाँ