मत्स्य पुराण एक सौ छियासीवाँ अध्याय
नर्मदा-माहात्म्य का उपक्रम
ऋषय ऊचुः
माहात्म्यमविमुक्तस्य यथावत् कथितं त्वया।
इदानीं नर्मदायास्तु माहात्म्यं वद सत्तम ॥ १
यत्रोङ्कारस्य माहात्म्यं कपिलासंगमस्य च।
अमरेशस्य चैवाहुर्माहात्म्यं पापनाशनम् ॥ २
कथं प्रलयकाले तु न नष्टा नर्मदा पुरा।
मार्कण्डेयश्च भगवान् न विनष्टस्तदा किल।
त्वयोक्तं तदिदं सर्वं पुनर्विस्तरतो वद ॥ ३
ऋषियोंने पूछा- सज्जनोंमें श्रेष्ठ सूतजी! आपने अविमुक्तका माहात्म्य तो भलीभाँति कह दिया, अब नर्मदा के माहात्म्य का वर्णन कीजिये, जहाँ ओंकार, कपिलासंगम और अमरेश पर्वतका पापनाशक माहात्म्य कहा जाता है। प्रलयकाल में भी नर्मदाका नाश क्यों नहीं होता ? एवं भगवान् मार्कण्डेयका भी पूर्व प्रलयके समयमें विनाश क्यों नहीं हुआ? यद्यपि आपने ये बातें पूर्वमें कही हैं, तथापि इस समय पुनः विस्तारके साथ वर्णन कीजिये ॥१-३॥
सूत उवाच
एतदेव पुरा पृष्टः पाण्डवेन महात्मना।
नर्मदायास्तु माहात्म्यं मार्कण्डेयो महामुनिः ॥ ४
उग्रेण तपसा युक्तो वनस्थो वनवासिना।
पृष्टः पूर्व महागाथां धर्मपुत्रेण धीमता ॥ ५
सूतजी कहते हैं ऋषियो। प्राचीनकालमें धर्मपुत्र बुद्धिमान् महात्मा युधिष्ठिरने वनमें निवास करते समय वनवासी उग्र तपस्वी महामुनि मार्कण्डेयजीसे नर्मदाके माहात्म्यकी विस्तृत कथाके विषयमें प्रश्न किया था॥४-५॥
युधिष्ठिर उवाच
श्रुता मे विविधा धर्मास्त्वत्प्रसादाद् द्विजोत्तम ।
भूयश्च श्रोतुमिच्छामि तन्मे कथय सुव्रत । ६
कथमेषा महापुण्या नदी सर्वत्र विश्रुता।
नर्मदा नाम विख्याता तन्मे ब्रूहि महामुने । ७
युधिष्ठिरने पूछा- द्विजश्रेष्ठ ! आपकी कृपासे मैंने विभिन्न धर्मोको सुना। सुव्रत! अब मैं पुनः जो सुनना चाहता हूँ, उसे आप बतलाइये? महामुने ! यह महापुण्यप्रदायिनी नर्मदा नामसे विख्यात नदी सर्वत्र क्यों प्रसिद्ध हुई इसका रहस्य मुझे बतलाइये ॥ ६-७॥
मार्कण्डेय उवाच
नर्मदा सरितां श्रेष्ठा सर्वपापप्रणाशिनी।
तारयेत् सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च ॥ ८
नर्मदायास्तु माहात्म्यं पुराणे यन्मया श्रुतम्।
तदेतद्धि महाराज तत्सर्वं कथयामि ते ॥ ९
पुण्या कनखले गङ्गा कुरुक्षेत्रे सरस्वती।
ग्रामे वा यदि वारण्ये पुण्या सर्वत्र नर्मदा ॥ १०
त्रिभिः सारस्वतं तोयं सप्ताहेन तु यामुनम्।
सद्यः पुनाति गाङ्गेयं दर्शनादेव नार्मदम् ॥ ११
कलिङ्गदेशे पश्चार्धे पर्वतेऽमरकण्टके।
पुण्या च त्रिषु लोकेषु रमणीया मनोरमा ॥ १२
सदेवासुरगन्धर्वा ऋषयश्च तपोधनाः ।
तपस्तप्त्वा महाराज सिद्धिं च परमां गताः ॥ १३
यत्र स्नात्वा नरो राजन् नियमस्थो जितेन्द्रियः ।
उपोष्य रजनीमेकां कुलानां तारयेच्छतम् ॥ १४
जलेश्वरे नरः स्त्रात्वा पिण्डं दत्त्वा यथाविधि।
पितरस्तस्य तृप्यन्ति यावदाभूतसम्प्लवम् ॥ १५
मार्कण्डेयजीने कहा-सभी पापों का नाश करने वाली नदियों में श्रेष्ठ नर्मदा सभी स्थावर-जङ्गम जीवोंका उद्धार करने वाली है। महाराज! मैंने इस नर्मदा नदीका जो माहात्म्य पुराणमें आपसे सुना है, वह सब कह रहा हूँ। कनखलमें गङ्गा और कुरुक्षेत्रमें सरस्वती नदी पुण्यप्रदा कही गयी हैं, किंतु चाहे गाँव हो या वन, नर्मदा तो सभी जगह पुण्यप्रदायिनी है। सरस्वतीका जल तीन दिनोंतक सेवन करनेसे, यमुनाका जल सात दिनोंमें और गङ्गाका जल (स्नान-पानादिसे) उसी समय पवित्र कर देता है, परंतु नर्मदा का जल तो दर्शनमात्रसे ही पवित्र कर देता है। कलिङ्ग देशकी पश्चिमी सीमापर स्थित अमरकण्टक पर्वतसे त्रिलोकीमें विख्यात, रमणीय, मनोरम एवं पुण्यदायिनी नर्मदा प्रवाहित होती है। महाराज! इसके तटपर देवता, असुर, गन्धर्व और तपस्यामें रत ऋषिगणोंने तपस्या कर परम सिद्धिको प्राप्त किया है। राजन् । यदि नियमनिष्ठ एवं जितेन्द्रिय मनुष्य नर्मदामें स्नानकर एक रात उपवास करके वहाँ निवास करे तो वह अपने सौ पीढ़ियोंको तार देता है। यदि मनुष्य जलेश्वर (जालेश्वर तीर्थ) में स्नानकर पिण्ड-दान करता है तो उसके पितर विधिपूर्वक प्रलयकालपर्यन्त तृप्त रहते हैं॥ ८-१५॥
पर्वतस्य समंतात् तु रुद्रकोटिः प्रतिष्ठिता।
स्नात्वा यः कुरुते तत्र गन्धमाल्यानुलेपनैः ॥ १६
प्रीतस्तस्य भवेच्छर्वो रुद्रकोटिर्न संशयः ।
पश्चिमे पर्वतस्यान्ते स्वयं देवो महेश्वरः ॥ १७
तत्र स्त्रात्वा शुचिर्भूत्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ।
पितृकार्य च कुर्वीत विधिवन्नियतेन्द्रियः ॥ १८
तिलोदकेन तत्रैव तर्पयेत् पितृदेवताः ।
आसप्तमं कुलं तस्य स्वर्गे मोदेत पाण्डव ॥ १९
षष्टिर्वर्षसहस्त्राणि स्वर्गलोके महीयते।
अप्सरोगणसंकीर्णे सिद्धचारणसेविते ॥ २०
दिव्यगन्धानुलिप्तश्च दिव्यालङ्कारभूषितः ।
ततः स्वर्गात् परिभ्रष्टो जायते विपुले कुले ॥ २१
धनवान् दानशीलश्च धार्मिकश्चैव जायते।
पुनः स्मरति तत् तीर्थं गमनं तत्र रोचते ॥ २२
कुलानि तारयेत् सप्त रुद्रलोकं स गच्छति।
योजनानां शतं साग्रं श्रूयते सरिदुत्तमा ॥ २३
विस्तारेण तु राजेन्द्र योजनद्वयमायता।
षष्टिस्तीर्थसहस्त्राणि षष्टिकोट्यस्तथैव च ॥ २४
अमरकण्टक पर्वतके चारों ओर करोड़ों रुद्र प्रतिष्ठित हैं। जो मनुष्य वहाँ स्नानकर गन्ध, माल्य और चन्दनोंसे शिवजी की पूजा करता है, उसपर भगवान् रुद्रकोटि प्रसन्न हो जाते हैं- इसमें संदेह नहीं है। पाण्डुनन्दन । उस पर्वतके पश्चिम भाग के अन्तमें साक्षात् महेश्वरदेव विराजमान हैं। जो मनुष्य वहाँ स्नान करके पवित्र हो जितेन्द्रिय, ब्रह्म चारी एवं इन्द्रियोंको वशमें करके विधिपूर्वक पितृकार्य करता है तथा तिल-जलसे पितरों और देवताओंका तर्पण करता है, उसके सात पीढ़ीतकके पितर स्वर्गमें आनन्दका भोग करते हैं। साथ ही वह व्यक्ति दिव्य गन्धोंकेअनुलेपन से युक्त तथा दिव्य अलंकारोंसे विभूषित हो साठ हजार वर्षोंतक अप्सरासमूहोंसे परिव्याप्त एवं सिद्धों और चारणोंसे सेवित स्वर्गलोकमें पूजित होता है। तदनन्तर स्वर्गसे भ्रष्ट होनेपर प्रतिष्ठित कुलमें जन्म ग्रहण करता है। यहाँ वह धनवान, दानशील और धार्मिक होता है। वह उस तीर्थका पुनः-पुनः स्मरण करता है तथा उसको वहाँ जाना प्रिय लगता है। वहाँ जाकर वह सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है और रुद्रलोकको चला जाता है। राजेन्द्र! ऐसी ख्याति है कि यह श्रेष्ठ नदी सौ योजनसे अधिक लम्बी और दो योजन चौड़ी है। साठ करोड़ साठ हजार तीर्थ इस अमरकण्टकके चारों ओर वर्तमान हैं॥ १६-२४॥
सर्वं तस्य समंतात् तु तिष्ठत्यमरकण्टके।
ब्रह्मचारी शुचिर्भूत्वा जितक्रोधो जितेन्द्रियः ॥ २५
सर्वहिंसानिवृत्तस्तु सर्वभूतहिते रतः ।
एवं सर्वसमाचारो यस्तु प्राणान् परित्यजेत् ॥ २६
तस्य पुण्यफलं राजशृणुष्वावहितो मम।
शतं वर्षसहस्त्राणां स्वर्गे मोदेत पाण्डव ॥ २७
अप्सरोगणसंकीर्णे सिद्धचारणसेविते।
दिव्यगन्धानुलिप्तश्च दिव्यपुष्पोपशोभितः ॥ २८
क्रीडते देवलोकस्थो दैवतैः सह मोदते ।
ततः स्वर्गात् परिभ्रष्टो राजा भवति वीर्यवान् ॥ २९
गृहं तु लभते वै स नानारत्नविभूषितम् ।
स्तम्भैर्मणिमयैर्दिव्यैर्वज्रवैडूर्यभूषितैः ॥ ३०
आलेख्यसहितं दिव्यं दासीदाससमन्वितम् ।
मत्तमातङ्गशब्दैश्च हयानां हृषितेन च ॥ ३१
क्षुभ्यते तस्य तद्द्वारमिन्द्रस्य भवनं यथा।
राजराजेश्वरः श्रीमान् सर्वस्त्रीजनवल्लभः ॥ ३२
तस्मिन् गृहे उषित्वा तु क्रीडाभोगसमन्विते ।
जीवेद् वर्षशतं साग्रं सर्वरोगविवर्जितः ॥ ३३
एवं भोगो भवेत् तस्य यो मृतोऽमरकण्टके।
अग्नौ विषजले वापि तथा चैव ह्यनाशके ॥ ३४
अनिवर्तिका गतिस्तस्य पवनस्याम्बरे यथा।
पतनं कुरुते यस्तु अमरेशे नराधिप ॥ ३५
कन्यानां त्रिसहस्त्राणि एकैकस्यापि चापरे।
तिष्ठन्ति भुवने तस्य प्रेषणं प्रार्थयन्ति च।
दिव्यभोगैः सुसम्पन्नः क्रीडते कालमक्षयम् ॥ ३६
राजन् ! जो मनुष्य ब्रह्मचारी, पवित्र, क्रोधजयी, जितेन्द्रिय, सभी प्रकारकी हिंसाओंसे रहित, सभी प्राणियोंके हितमें तत्पर इस प्रकार सभी सदाचारोंसे युक्त होकर यहाँ अपने प्राणोंका परित्याग करता है, उसे जो पुण्यफल प्राप्त होता है, उसे आप मुझसे सावधान होकर सुनिये। पाण्डुपुत्र! वह एक लाख वर्षांतक अप्सराओंसे व्याप्त तथा सिद्धों एवं चारणोंसे सेवित स्वर्गमें आनन्दका उपभोग करता है। वह दिव्य चन्दनके लेपसे युक्त एवं दिव्य पुष्पोंसे सुशोभित हो देवलोकमें रहता हुआ देवोंके साथ क्रीड़ा करते हुए आनन्दका अनुभव करता है। तत्पश्चात् स्वर्गसे भ्रष्ट होकर इस लोकमें पराक्रमी राजा होता है। उसे अनेक प्रकारके रत्नोंसे अलंकृत ऐसे भवनकी प्राप्ति होती है, जो दिव्य हीरे, वैदूर्य और मणिमय स्तम्भोंसे विभूषित होता है।
वह दिव्य चित्रोंसे सुशोभित तथा दासी-दाससे समन्वित रहता है। उसका द्वार मदमत्त हाथियोंके चिग्घाड़ और घोड़ोंकी हिनहिनाहटसे इन्द्रभवनके समान संकुलित रहता है। वह सम्पूर्ण स्त्रीजनोंका प्रिय, श्रीसम्पन्न और सभी प्रकारके रोगोंसे रहित होकर राजराजेश्वरके रूपमें क्रीडा और भोगसे समन्वित उस गृहमें निवासकर सौ वर्षोंसे भी अधिक समयतक जीवित रहता है। जो अमरकण्टकमें शरीरका त्याग करता है, उसे इस प्रकारके आनन्दका उपभोग मिलता है। जो अग्नि, विष, जल तथा अनशन करके यहाँ मरता है, उसे आकाशमें वायुके समान स्वच्छन्द गति प्राप्त होती है। नरेश्वर। जो इस अमरकण्टक पर्वतसे गिरकर देहत्याग करता है, उसके भवनमें एक-से-एक बढ़कर सुन्दरी तीन हजार कन्याएँ स्थित रहती हैं, जो उसकी आज्ञाकी प्रतीक्षा करती रहती हैं। वह दिव्य भोगोंसे परिपूर्ण होकर अक्षय कालतक क्रीडा करता है॥ २५-३६॥
पृथिव्यामासमुद्रायामीदृशो नैव जायते।
यादृशोऽयं नृपश्रेष्ठ पर्वतेऽमरकण्टके ॥ ३७
तावत् तीर्थं तु विज्ञेयं पर्वतस्य तु पश्चिमे।
हृदो जलेश्वरो नाम त्रिषु लोकेषु विश्रुतः ॥ ३८
तत्र पिण्डप्रदानेन संध्योपासनकर्मणा।
पितरो दश वर्षाणि तर्पितास्तु भवन्ति वै ॥ ३९
दक्षिणे नर्मदाकूले कपिलेति महानदी।
सकलार्जुनसंच्छन्ना नातिदूरे व्यवस्थिता ।। ४०
सापि पुण्या महाभागा त्रिषु लोकेषु विश्रुता।
तत्र कोटिशतं साग्रं तीर्थानां तु युधिष्ठिर ॥ ४१
पुराणे श्रूयते राजन् सर्व कोटिगुणं भवेत्।
तस्यास्तीरे तु ये वृक्षाः पतिताः कालपर्ययात् ॥ ४२
नर्मदातोयसंस्पृष्टास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ।
द्वितीया तु महाभागा विशल्यकरणी शुभा ॥ ४३
तत्र तीर्थे नरः स्नात्वा विशल्यो भवति क्षणात् ।
तत्र देवगणाः सर्वे सकिन्नरमहोरगाः ॥ ४४
यक्षराक्षसगन्धर्वा ऋषयश्च तपोधनाः ।
सर्वे समागतास्तत्र पर्वतेऽमरकण्टके ॥ ४५
तैश्च सर्वैः समागम्य मुनिभिश्च तपोधनैः ।
नर्मदामाश्रिता पुण्या विशल्या नाम नामतः ॥ ४६
उत्पादिता महाभागा सर्वपापप्रणाशिनी।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ॥ ४७
उपोष्य रजनीमेकां कुलानां तारयेच्छतम्।
कपिला च विशल्या च श्रूयते राजसत्तम ।। ४८
ईश्वरेण पुरा प्रोक्ते लोकानां हितकाम्यया।
तत्र स्नात्वा नरो राजन्नश्वमेधफलं लभेत् ॥ ४९
नृपश्रेष्ठ ! अमरकण्टक पर्वतपर शरीरका त्याग करनेसे जैसा पुण्य होता है, वैसा समुद्रपर्यन्त पृथ्वीपर कहीं भी नहीं होता। इस तीर्थको पर्वतके पश्चिम प्रान्तमें समझना चाहिये। यहीं तीनों लोकोंमें विख्यात जलेश्वर नामक कुण्ड वर्तमान है, वहाँ पिण्डदान एवं संध्योपासन कर्म करनेसे पितरगण दस वर्षोंतक तृप्त बने रहते हैं। नर्मदाके दक्षिण तटपर समीप ही कपिला नामकी महानदी स्थित है। वह सब ओरसे अर्जुन वृक्षोंसे परिव्याप्त है। युधिष्ठिर ! वह महाभागा पुण्यतोया नदी भी तीनों लोकोंमें विख्यात है। वहाँ सौ करोड़से भी अधिक तीर्थ हैं। राजन् ! पुराणमें जैसा वर्णन है, उसके अनुसार वे सभी तीर्थ करोड़गुना फल देनेवाले हैं। उसके तटके जो वृक्ष कालवश गिर जाते हैं वे भी नर्मदाके जलके स्पर्शसे श्रेष्ठ गतिको प्राप्त हो जाते हैं। दूसरी महाभागा मङ्गलदायिनी विशल्यकरणी नदी है। मनुष्य उस तीर्थमें स्नानकर उसी क्षण दुःखरहित हो जाता है। वहाँ सभी देवगण, किन्नर, महान् सर्पगण, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, तपस्वी ऋषिगण आये और उस अमरकण्टकपर्वतपर मुनियों और तपस्वियोंके साथ स्थित हुए। वहाँ उन लोगोंने सभी पापोंका विनाश करनेवाली महाभागा पुण्यसलिला विशल्या नामसे विख्यात नदीको उत्पन्न किया, जो नर्मदामें मिलती है। राजन् । वहाँ जो मनुष्य ब्रह्मचर्यपूर्वक जितेन्द्रिय होकर स्नानकर उपवासपूर्वक एक रात भी निवास करता है, वह अपनी सौ पीढ़ियोंको तार देता है। नृपश्रेष्ठ ! ऐसा सुना जाता है कि पूर्वकाल में लोगोंके हितकी कामनासे महेश्वरने कपिला और विशल्या नामके तीर्थोंका वर्णन किया था। राजन् ! वहाँ स्नान करके मनुष्य अश्वमेधके फलको प्राप्त करता है॥ ३७-४९ ॥
अनाशकं तु यः कुर्यात् तस्मिस्तीर्थे नराधिप।
सर्वपापविशुद्धात्मा रुद्रलोकं स गच्छति ॥ ५०
नर्मदायास्तु राजेन्द्र पुराणे यन्मया श्रुतम्।
यत्र यत्र नरः स्नात्वा चाश्वमेधफलं लभेत् ॥ ५१
ये वसन्त्युत्तरे कूले रुद्रलोके वसन्ति ते।
सरस्वत्यां च गङ्गायां नर्मदायां युधिष्ठिर ॥ ५२
समं स्नानं च दानं च यथा मे शंकरोऽब्रवीत्।
परित्यजति यः प्राणान् पर्वतेऽमरकण्टके ॥ ५३
वर्षकोटिशतं सायं रुद्रलोके महीयते।
नर्मदाया जलं पुण्यं फेनोर्मिभिरलङ्कृतम् ॥ ५४
पवित्रं शिरसा वन्धं सर्वपापैः प्रमोचनम् ।
नर्मदा च सदा पुण्या ब्रह्महत्यापहारिणी ॥ ५५
अहोरात्रोपवासेन मुच्यते ब्रह्महत्यया।
एवं रम्या च पुण्या च नर्मदा पाण्डुनन्दन ॥ ५६
त्रयाणामपि लोकानां पुण्या होषा महानदी।
वटेश्वरे महापुण्ये गङ्गाद्वारे तपोवने ॥ ५७
एतेषु सर्वस्थानेषु द्विजाः स्युः संशितव्रताः ।
श्रुतं दशगुणं पुण्यं नर्मदोदधिसंगमे ॥ ५८
नरेश्वर! इस तीर्थमें जो अनशन करता है, वह सभी पापोंसे रहित होकर रुद्रलोकको प्राप्त करता है। राजेन्द्र ! मैंने स्कन्दपुराणमें नर्मदाका जो फल सुना है, उसके अनुसार वहाँ-वहाँ स्नानकर मनुष्य अश्वमेधके फलको प्राप्त करता है। जो नर्मदाके उत्तर तटपर निवास करते हैं, वे रुद्रलोकमें निवास करते हैं। युधिष्ठिर! जैसा मुझसे शंकरजीने कहा था, उसके अनुसार सरस्वती, गङ्गा और नर्मदामें स्नान और दानका फल समान होता है। जो अमरकण्टक पर्वतपर प्राणोंका परित्याग करता है, वह सौ करोड़ वर्षोंसे भी अधिक कालतक रुद्रलोकमें पूजित होता है। नर्मदा का लहरियों के फेनसे अलंकृत, पुण्यमय पवित्र जल सभी पापोंसे मुक्त करनेवाला है, अतः वह सिरसे वन्दना करनेयोग्य है। पुण्यतोया नर्मदा ब्रह्महत्याका नाश करनेवाली है। यहाँ एक दिन-रात उपवास करनेसे मनुष्य ब्रह्महत्यासे छूट जाता है। पाण्डुपुत्र ! नर्मदा इस प्रकार पुण्यमयी और रमणीया है। यह महानदी तीनों लोकोंमें भी पुण्यमयी है। महापुण्यप्रद वटेश्वर, तपोवन और गङ्गाद्वार-इन स्थानोंमें द्विजगण व्रतानुष्ठान करते हैं, परंतु नर्मदा और समुद्रके सङ्गमपर उससे दसगुना अधिक फल सुना जाता है॥ ५०-५८ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे नर्मदामाहात्म्ये षडशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८६ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके नर्मदामाहात्म्यमें एक सौ छियासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १८६॥
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