मत्स्य पुराण एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय
नर्मदा-माहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्म्य, भृगुमुनि की तपस्या, शिव-पार्वती का उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजी द्वारा भृगुको वर-प्रदान
मार्कण्डेय उवाच
ततस्त्वनरकं गच्छेत् स्नानं तत्र समाचरेत्।
स्नातमात्रो नरस्तत्र नरकं च न पश्यति ॥ १
मार्कण्डेयजीने कहा- राजन् । तदनन्तर अनरक नामक तीर्थमें जाय और वहाँ स्नान करे। वहाँ स्नान करने मात्र से मानव को नरकका दर्शन नहीं होता। १
तस्य तीर्थस्य माहात्म्यं शृणु त्वं पाण्डुनन्दन।
तस्मिस्तीर्थे तु राजेन्द्र यस्यास्थीनि विनिक्षिपेत् ॥ २
विलयं यान्ति पापानि रूपवाञ्जायते नरः।
गोतीर्थ तु ततो गत्वा सर्वपापात् प्रमुच्यते ।। ३
ततो गच्छेत् तु राजेन्द्र कपिलातीर्थमुत्तमम् ।
तत्र गत्वा नरो राजन् गोसहस्रफलं लभेत् ॥ ४
ज्येष्ठमासे तु सम्प्राप्ते चतुर्दश्यां विशेषतः ।
तत्रोपोष्य नरो भक्त्या कपिलां यः प्रयच्छति ॥ ५
घृतेन दीपं प्रज्वाल्य घृतेन स्नापयेच्छिवम् ।
सघृतं श्रीफलं जग्ध्वा दत्त्वा चान्ते प्रदक्षिणम् ॥ ६
घण्टाभरणसंयुक्तां कपिलां यः प्रयच्छति।
शिवतुल्यबलो भूत्वा नैवासौ जायते पुनः ॥ ७
अङ्गारकदिने प्राप्ये चतुर्थ्यां तु विशेषतः ।
पूजयेत् तु शिवं भक्त्या ब्राह्मणेभ्यश्च भोजनम् ॥ ८
अङ्गारकनवम्यां तु अमायां च विशेषतः ।
स्नापयेत् तत्र यत्नेन रूपवान् सुभगो भवेत् ॥ ९
घृतेन स्नापयेल्लिङ्गं पूजयेद् भक्तितो द्विजान्।
पुष्पकेण विमानेन सहस्त्रैः परिवारितः ॥ १०
शैवं पदमवाप्नोति यत्र चाभिमतं भवेत्।
अक्षयं मोदते कालं यथा रुद्रस्तथैव सः ॥ ११
राजा भवति धर्मिष्ठो रूपवाञ्जायते कुले ॥ १२
ततो गच्छेच्य राजेन्द्र ऋषितीर्थमनुत्तमम्।
तृणबिन्दुर्नाम ऋषिः शापदग्धो व्यवस्थितः ॥ १३
पाण्डुनन्दन । अब आप उस तीर्थका माहात्म्य सुनिये। राजेन्द्र । उस तीर्थमें जिसकी हड्डियों डाल दी जाती हैं, उसके पापसमूह नष्ट हो जाते हैं और वह पुनः रूपवान् होकर जन्म ग्रहण करता है। तत्पश्चात् गोतीर्थमें जाकर मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। राजेन्द्र। तदुपरान्त श्रेष्ठ कपिलातीर्थकी यात्रा करे। राजन्। जो मनुष्य ज्येष्ठ-मासमें विशेषकर चतुर्दशी तिथिको वहाँ भक्तिपूर्वक स्नान और उपवासकर कपिला गौका दान करता है, उसे एक हजार गोदानका फल प्राप्त होता है। जो मनुष्य वहाँ घोसे दीपक जलाकर बोसे शिवको स्नान कराता है और घृतके साथ बेलको स्वयं खाता है
एवं दान देता है तथा अन्तमें प्रदक्षिणा करके घण्टा और अलंकारसे विभूषित कपिला गौका दान करता है, वह शिवके तुल्य बलवान् होता है और उसका पुनर्जन्म नहीं होता। मंगलवारको विशेषकर चतुर्थी तिथिको शिवको भक्तिपूर्वक पूजा करके ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये। मंगलबारकी नवमी एवं विशेषतया अमावास्या तिथिको यत्नपूर्वक शिवको स्नान करानेसे मनुष्य रूपवान् और भाग्यवान् होता है। जो धृतसे शिवलिङ्गको स्नान कराकर भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंकी पूजा करता है, वह हजारों विमानोंसे घिरे हुए पुष्पकविमानपर आरूढ़ हो शिवलोकको जाता है और यहाँ अभिलषित वस्तुओंको प्राप्त करता है तथा रुद्रके समान ही अक्षय कालतक वहाँ आनन्दका उपभोग करता है। जब कभी कर्मवश वह मृत्युलोकमें आता है तो कुलीन वंशमें जन्म ग्रहण करता है और रूपवान् धर्मात्मा राजा होता है। राजेन्द्र । इसके बाद श्रेष्ठ ऋषितीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। यहाँ तृणबिन्दु नामक ऋषि शापसे दग्ध होकर स्थित थे, किंतु इस तीर्थक प्रभावसे में द्विज शापसे मुक्त हो गये ॥२-१३॥
तत्तीर्थस्य प्रभावेण शापमुक्तोऽभवद् द्विजः ।
ततो गच्छेत् तु राजेन्द्र गङ्गेश्वरमनुत्तमम् ॥ १४
श्रावणे मासि सम्प्राप्ते कृष्णपक्षे चतुर्दशी।
स्नातमात्रो नरस्तत्र रुद्रलोके महीयते ॥ १५
पितृणां तर्पणं कृत्वा मुच्यते च ऋणत्रयात् ।
गङ्गेश्वरसमीपे तु गङ्गावदनमुत्तमम् ॥ १६
अकामो वा सकामो वा तत्र स्नात्वा तु मानवः ।
आजन्मजनितैः पापैर्मुच्यते नात्र संशयः ॥ १७
तत्र तीर्थे नरः स्नात्वा व्रजेद् वै यत्र शंकरः ।
सर्वदा पर्वदिवसे स्नानं तन्त्र समाचरेत् ॥ १८
पितृणां तर्पणं कृत्वा हाश्वमेधफलं लभेत्।
प्रयागे यत्फलं दृष्टं शंकरेण महात्मना । १९
तदेव निखिलं दृष्टं गङ्गावदनसंगमे।
तस्यैव पश्चिमे स्थाने समीपे नातिदूरतः ॥ २०
दशाश्वमेधजननं त्रिषु लोकेषु विद्युतम्।
उपोष्य रजनीमेकां मासि भाद्रपदे तथा ।। २१
अमार्या च नरः स्नात्वा व्रजते यन्त्र शंकरः ।
सर्वदा पर्वदिवसे स्नानं तत्र समाचरेत् ॥ २२
पितृणां तर्पणं कृत्वा चाश्वमेधफलं लभेत्।
दशाश्वमेधात् पश्चिमतो भृगुर्बाह्मणसत्तमः ॥ २३
दिव्यं वर्ष सहस्त्रं तु ईश्वरं पर्युपासत।
वल्मीकवेष्टितश्चासौ पक्षिणां च निकेतनः ॥ २४
आश्चर्यं सुमहज्जातमुमायाः शंकरस्य च।
गौरी पप्रच्छ देवेशं कोऽयमेवं तु संस्थितः ।
देवो वा दानवो वाथ कथयस्व महेश्वर ॥ २५
राजेन्द्र ! तदनन्तर श्रेष्ठ गङ्गेश्वरतीर्थकी यात्रा करे। वहाँ श्रवणमास के कृष्णपक्षको चतुर्दशी तिथिको स्नानमात्र कर लेनेसे मनुष्य रुद्रलोकमें पूजित होता है तथा पितरोंका तर्पण कर देव, पितर और ऋषि- इन तीनों ऋणोंसे मुक्त हो जाता है। गङ्गेश्वरतीर्थक समीपमें गङ्गावदन नामक श्रेष्ठ तीर्थ है। वहाँ कामनापूर्वक या निष्काम होकर स्नान कर मनुष्य अपने जन्मभरके किये हुए पापोंसे छुटकारा पा जाता है, इसमें संदेह नहीं है। उस तीर्थमें स्नानकर मनुष्यको जहाँ शंकर हैं, वहीं जाना चाहिये और वहाँ सर्वदा पर्वदिनपर स्नान करना चाहिये। वहाँ पितरोंका तर्पण करनेसे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है। प्रयागमें स्नान करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह सम्पूर्ण फल गङ्गावदन सङ्गम में महात्मा शंकरके दर्शनसे प्राप्त हो जाता है। उसीके पश्चिम दिशामें संनिकट ही दशाश्वमेधजनन नामक तीर्थ है, जो तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। भाद्रपदमासकी अमावास्या तिथिको वहाँ एक रात उपवासकर स्नान करनेके पश्चात् शंकरके निकट जाना चाहिये और वहाँ सर्वदा पर्वके अवसरपर स्नान करना चाहिये। वहाँ पितरोंका तर्पण करनेसे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है। दशाश्वमेधसे पश्चिम दिशामें ब्राह्मणश्रेष्ठ भृगुने एक हजार दिव्य वर्षांतक शिवजी की उपासना की थी। उनका शरीर बिमवटसे परिवेष्टित हो गया था, जिससे वे पक्षियोंके निवासस्थान बन गये थे। यह देखकर उमा और शंकरको महान् आश्चर्य उत्पन हुआ। तब पार्वतीने शंकरजीसे पूछा-'महेश्वर। यह कौन इस प्रकार समाधिस्थ है? यह देव है अथवा दानव ? यह मुझे बतलाइये ॥ १४-२५ ॥
महेश्वर उवाच
भृगुर्नाम द्विजश्रेष्ठ ऋषीणां प्रवरो मुनिः।
मां ध्यायते समाधिस्थो वरं प्रार्थयते प्रिये ॥ २६
ततः प्रहसिता देवी ईश्वरं प्रत्यभाषत ।
धूमवत्तच्छिखा जाता ततोऽद्यापि न तुष्यसे।
दुराराध्योऽसि तेन त्वं नात्र कार्या विचारणा ॥ २७
महेश्वर बोले-प्रिये! ये द्विजश्रेष्ठ भूगु हैं, जो ऋषियोंमें श्रेष्ठ मुनि हैं। ये समाधिस्थ होकर मेरा ध्यान कर रहे हैं और वर प्राप्त करना चाहते हैं। यह सुनकर पार्वतीदेवी हँस पड़ीं और महेश्वरसे बोलीं- 'भगवन् ! इस तपस्वीकी शिखा धुएँके समान हो गयी, फिर भी आप अभी भी संतुष्ट नहीं हो रहे हैं। इससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आप महान् कष्टसे आराधित प्रसन्न होते हैं, इस विषयमें विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है॥ २६-२७॥
महेश्वर उवाच
न जानासि महादेवि हायं क्रोधेन वेष्टितः ।
दर्शयामि यथातथ्यं प्रत्ययं ते करोम्यहम् ॥ २८
ततः स्मृतोऽथ देवेन धर्मरूपो वृषस्तदा।
स्मरणात्तस्य देवस्य वृषः शीघ्रमुपस्थितः ।
वदंस्तु मानुषीं वाचमादेशो दीयतां प्रभो ॥ २९
महेश्वरने कहा- महादेवि! तुम नहीं जानती हो, ये मुनि क्रोधसे परिपूर्ण हैं। मैं तुम्हें अभी सत्य स्थिति दिखाकर विश्वस्त कर रहा हूँ। तत्पश्चात् शिवजीने उस समय धर्मरूपी वृषभका स्मरण किया। उन देवके स्मरण करते ही वह वृष शीघ्र ही उपस्थित हो गया और मनुष्यकी वाणीमें बोला-'प्रभो! आदेश दीजिये ॥ २८-२९ ॥
महेश्वर उवाच
वल्मीकं त्वं खनस्वैनं विप्रं भूमी निपातय।
योगस्थस्तु ततो ध्यायन् भृगुस्तेन निपातितः ॥ ३०
तत्क्षणात् क्रोधसंतप्तो हस्तमुत्क्षिप्य सोऽशपत् ।
एवं सम्भाषमाणस्तु कुत्र गच्छसि भो वृष।
अद्याई सम्प्रकोपेण प्रलयं त्वां नये वृष ॥ ३१
धर्षितस्तु तदा विप्रश्चान्तरिक्षं गतो वृषम्।
आकाशे प्रेक्षते विप्र एतदद्भुतमुत्तमम् ॥ ३२
तत्र प्रहसितो रुद्र ऋषिरग्रे व्यवस्थितः ।
तृतीयलोचनं दृष्ट्वा वैलक्ष्यात् पतितो भुवि।
प्रणम्य दण्डवद् भूमौ तुष्टाव परमेश्वरम् ॥ ३३
महेश्वरने कहा- तुम इस विमवटको खोद डाली और विप्रको भूमिपर गिरा दो। तब चूपने ध्यान करते हुए योगस्थ भुगुको भूमिपर गिरा दिया। उसी क्षण क्रोधसे जले धुने भृगु हाथ उठाकर शाप देते हुए इस प्रकार बोले- 'भो वृष। तुम कहाँ जा रहे हो? वृष! अभी मैं क्रोधके बलसे तुम्हारा संहार कर डालता हूँ।' तब वह वृषभ उस विप्रको परास्तकर आकाशमें चला गया। उसे आकाशमें देखते हुए भृगु सोचने लगे- 'यह ती महान् आश्चर्य है।' इतनेमें ही वहाँ भगवान् रुद्र हँसते हुए ऋषिके सम्मुख उपस्थित हो गये। तब तृतीय नेत्रधारी रुद्रको देखकर भूगु व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़े और दण्डके समान भूमिपर लेटकर प्रणाम कर भगवान् शंकरकी स्तुति करने लगे ॥ ३०-३३॥
प्रणिपत्य भूतनाथं भवोद्भवं त्वामहं दिव्यरूपम्।
भवातीतो भुवनपते प्रभो तु विज्ञापये किञ्छित् ॥ ३४
त्वद्गुणनिकरान् वक्तुं कः शक्तो भवति मानुषो नाम।
वासुकिरपि हि कदाचिद् वदनसहस्त्रं भवेद् यस्य ।। ३५
भक्त्या तथापि शंकर भुवनपते त्वत्स्तुतौ मुखरः ।
वदतः क्षमस्व भगवन् प्रसीद मे तव चरणपतितस्य ॥ ३६
सत्त्वं रजस्तमस्त्वं स्थित्युत्पत्त्योर्विनाशने देव ।
त्वां मुक्त्वा भुवनपते भुवनेश्वर नैव दैवतं किञ्चित् ॥ ३७
यमनियमयज्ञदानवेदाभ्यासाश्च धारणा योगः।
त्वद्भक्तेः सर्वमिदं नार्हति हि कलासहस्त्रांशम् ॥ ३८
उच्छिष्टरसरसायनखइगाञ्जनपादुकाविवरसिद्धिर्वा ।
चिह्न भवव्रतानां दृश्यति चेह जन्मनि प्रकटम् ॥ ३९
त्रिभुवनके स्वामी प्रभो। आप प्राणिवर्गक स्वामी, संसारके उद्धवस्थान, दिव्य रूपधारी और जन्म-मरणसे परे हैं, मैं आपको प्रणाम करके कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। यद्यपि कदाचित् किसी मानवको वासुकिके समान हजार मुख हो जाय तो भी ऐसा कोई भी मनुष्य आपके गुणसमूहोंका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हो सकता, तथापि भुवनपते शंकर। मैं भक्तिपूर्वक आपकी स्तुति करनेके लिये उद्यत हूँ। भगवन्। अपने चरणोंमें पड़े हुए मुझपर प्रसन्न हो जाइये और बोलते समय घटित हुई त्रुटियोंके लिये मुझे क्षमा कीजिये। देव! विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और लयमें आप ही सत्त्व, रज और तमस्वरूप हैं। भुवनपते। आपको छोड़कर अन्य कोई देवता नहीं है। भुवनेश्वर। यम, नियम, यज्ञ, दान, वेदाभ्यास, धारणा और योग ये सभी आपकी भक्तिकी एक कलाके हजारवें अंशको समता नहीं कर सकते। उच्छिष्ट, रस-रसायन, खड्ग, अञ्जन, पादुका और विवरसिद्धि-ये सभी महादेवकी आराधना करनेवालोंक चिह्न हैं, जो इस जन्ममें व्यक्त-रूपसे देखे जाते हैं॥ ३४-३९ ॥
शाठ्येन नति यद्यपि ददासि त्वं भूतिमिच्छतो देव।
भक्तिर्भवभेदकरी मोक्षाय विनिर्मिता नाथ ॥ ४०
परदारपरस्वरर्त परपरिभवदुःखशोकसंतप्तम् ।
परवदनवीक्षणपरं परमेश्वर मां परित्राहि ॥ ४१
मिथ्याभिमानदग्धं क्षणभङ्गुरदेहविलसितं क्रूरम् ।
कुपथ्याभिमुखं पतितं त्वं मां पापात् परित्राहि ॥ ४२
दीने द्विजगणसाथै बन्धुजनेनैव दूषिता ह्याशा ।
तृष्णा तथापि शंकर किं मूढं मां विडम्बयति ॥ ४३
तृष्णां हरस्व शीघ्रं लक्ष्मीं प्रदत्व यावदासिनीं नित्यम्।
छिन्धि मदमोहपाशानुत्तारय मां महादेव ॥ ४४
करुणाभ्युदयं नाम स्तोत्रमिदं सर्वसिद्धिदं दिव्यम्।
यः पठति भक्तियुक्तस्तस्य तुष्येद् भूगोर्यथा च शिवः ।॥ ४५
देव । यद्यपि भक्त शठतापूर्वक नमस्कार करता है, तथापि आप उसे इच्छानुसार ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। नाथ! आपने मोक्ष प्रदान करनेके लिये संसारको नष्ट करने वाली भक्तिका निर्माण किया है। परमेश्वर! मैं परायी रखी और पराये धनमें रत रहनेवाला, दूसरे द्वारा किये गये अनादरसे उत्पन्न हुए दुःख और शोकसे सन्तप्त और परमुखापेक्षी हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिये। में मिथ्या अभिमानसे सन्तप्त, क्षणभङ्गुर शरीरके विलासमें रत, निष्वर, कुमार्गगामी और पतित हूँ, आप इस पापसे मेरी रक्षा कीजिये। यद्यपि द्विजगणोंके साथ-साथ में दौन हूँ और बन्धुजनोंने ही मेरी आशाको दूषित कर दिया है, तथापि शंकर। तृष्णा मुझ मोहग्रस्तकी विडम्बना क्यों कर रही है? महादेव। आप इस तृष्णाको शीघ्र दूर कर दें, नित्य चिरस्थायिनी लक्ष्मी प्रदान करें, मद और मोहके पाशको काट दें और मेरा उद्धार करें। यह 'करुणाभ्युदय' नामक दिव्य स्तोत्र सभी सिद्धियोंको देनेवाला है, जो भक्तिपूर्वक इसका पाठ करता है, उसपर भूगु (पर प्रसन्न होने) के समान ही शिवजी प्रसन्न होते हैं।॥४०-४५॥
अहं तुष्टोऽस्मि ते वत्स प्रार्थयस्वेप्सितं वरम् ।
उमया सहितो देवो वरं तस्य ह्यदापयत् ॥ ४६
यदि तुष्टोऽसि देवेश यदि देयो वरो मम।
रुद्रवेदी भवेदेवमेतत् सम्पादयस्व मे ॥ ४७
भगवान् शंकरने कहा- वत्स! मैं तुमपर प्रसन हूँ तुम अभीष्ट वर माँग लो। इस प्रकार उमासहित महादेवजी भृगुको वरदान देनेके लिये उच्चत हुए भृगु बोले-देवेश! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि मुझे वर देना चाहते हैं तो मुझे यह वरदान दीजिये कि यह स्थान रुद्रवेदीके नामसे प्रसिद्ध हो जाय ॥ ४६-४७ ॥
ईश्वर उवाच
एवं भवतु विप्रेन्द्र क्रोधस्त्वां न भविष्यति।
न पितापुत्रयोश्चैव त्वैकमत्यं भविष्यति ॥ ४८
तदाप्रभृति ब्रह्माद्याः सर्वे देवाः सकिन्नराः ।
उपासते भृगोस्तीर्थ तुष्टो यत्र महेश्वरः ॥ ४९
दर्शनात् तस्य तीर्थस्य सद्यः पापात् प्रमुच्यते।
अवज्ञाः स्ववशा वापि ब्रियन्ते यत्र जन्तवः ॥ ५०
गुह्यातिगुह्या सुगतिस्तेषां निःसंशयं भवेत् ।
एतत् क्षेत्रं सुविपुलं सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ५१
तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः ।
उपानहीं च छत्रं च च्यमन्नं च काञ्चनम् ॥ ५२
भोजनं च यथाशक्त्या ह्यक्षयं च तथा भवेत् ।
सूर्योपरागे यो दद्याद् दानं चैव यथेच्छया ॥ ५३
दीयमानं तु तद् दानमक्षयं तस्य तद् भवेत्।
चन्द्रसूर्योपरागेषु यत्फलं त्वमरकण्टके ॥ ५४
तदेव निखिलं पुण्यं भृगुतीर्थे न संशयः ।
क्षरन्ति सर्वदानानि यज्ञदानतपः क्रियाः ॥ ५५
न क्षरेत् तु तपस्तप्तं भृगुतीर्थे युधिष्ठिर।
यस्य वै तपसोग्रेण तुष्टेनैव तु शम्भुना ॥ ५६
सांनिध्यं तत्र कथितं भृगुतीर्थे नराधिप।
प्रख्यातं त्रिषु लोकेषु यत्र तुष्टो महेश्वरः ॥ ५७
एवं तु वदतो देवीं भृगुतीर्थमनुत्तमम् ।
न जानन्ति नरा मूढा विष्णुमायाविमोहिताः ॥ ५८
नर्मदायां स्थितं दिव्यं भृगुतीर्थं नराधिप।
भृगुतीर्थस्य माहात्यं यः शृणोति नरः क्वचित् ॥ ५९
शिवजीने कहा-विप्रश्रेष्ठ! ऐसा ही होगा और अब तुम्हें क्रोध नहीं होगा। साथ ही तुम पिता और पुत्रमें सहमति नहीं होगी। तभीसे कित्ररोंसहित ब्रह्मा आदि सभी देवगण, जहाँ महेश्वर संतुष्ट हुए थे, उस भृगुतीर्थकी उपासना करते हैं। उस तीर्थका दर्शन करनेसे मनुष्य तत्काल ही पापसे मुक्त हो जाता है। स्वाधीन या पराधीन होकर भी जो प्राणी यहाँ मरते हैं, उन्हें निःसंदेह गुह्यातिगुह्य उत्तम गति प्राप्त होती है। यह अत्यन्त विस्तृत क्षेत्र सभी पापोंका विनाशक है। यहाँ स्नान करके मानव स्वर्गको प्राप्त होते हैं तथा जो वहाँ मरते हैं, उनका पुनः संसारमें आगमन नहीं होता। वहाँ यथाशक्ति जूता, छाता, अन्न, सोना और खाद्य पदार्थका दान देना चाहिये; क्योंकि वह अक्षय हो जाता है। जो मनुष्य सूर्यग्रहणके समय वहाँ इच्छानुसार जो कुछ दान देता है, उसका वह दिया हुआ दान अक्षय हो जाता है। चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके समय अमरकण्टकमें जो फल प्राप्त होता है, वही सम्पूर्ण पुण्य निःसंदेह भृगुतीर्थमें सुलभ हो जाता है। युधिष्ठिर। सभी प्रकारके दान तथा यज्ञ, तप और कर्म-ये सभी नष्ट हो जाते हैं, किंतु भृगुतीर्थमें किया गया तप नष्ट नहीं होता। नराधिप। उस भृगुकी उग्र तपस्यासे संतुष्ट हुए शम्भुने उस भूगुतीर्थमें अपनी नित्य उपस्थिति बतलायी है, इसलिये वह भृगुतीर्थ तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है; क्योंकि वहाँ महेश्वर संतुष्ट हुए थे। नराधिप। इस प्रकार महेश्वरने पार्वतीसे श्रेष्ठ भृगुतीर्थके विषयमें कहा है, किंतु विष्णुकी मायासे मोहित हुए मूढ़ मनुष्य नर्मदामें स्थित इस दिव्य भूगुतीर्थको नहीं जानते। जी मनुष्य कहीं भी भूगुतीर्थका माहात्म्य सुनता है, वह सभी पापोंसे विमुक्त होकर रुद्रलोकको जाता है॥ ४८-५९॥
विमुक्तः सर्वपापेभ्यो रुद्रलोकं स गच्छति।
ततो गच्छेत् तु राजेन्द्र गौतमेश्वरमुत्तमम् ॥ ६०
तत्र स्नात्वा नरो राजन्नुपवासपरायणः ।
काञ्चनेन विमानेन ब्रह्मलोके महीयते ॥ ६१
धौतपापं ततो गच्छेत् क्षेत्रं यत्र वृषेण तु।
नर्मदायां कृतं राजन् सर्वपातकनाशनम् ॥ ६२
तत्र तीर्थे नरः स्नात्वा ब्रह्महत्यां विमुञ्चति।
तस्मिस्तीर्थे तु राजेन्द्र प्राणत्यागं करोति यः ॥ ६३
चतुर्भुजस्त्रिनेत्रश्च शिवतुल्यबलो भवेत्।
वसेत् कल्पायुतं सार्य शिवतुल्यपराक्रमः ॥ ६४
कालेन महता प्राप्तः पृथिव्यामेकराड् भवेत्।
ततो गच्छेच्च राजेन्द्र ऐरण्डीतीर्थमुत्तमम् ॥ ६५
प्रयागे यत् फलं दृष्ट मार्कण्डेयेन भाषितम्।
तत् फलं लभते राजन् स्नातमात्रो हि मानवः ॥ ६६
मासि भाद्रपदे चैव शुक्लपक्षे चतुर्दशी।
उपोष्य रजनीमेकां तस्मिन् स्नानं समाचरेत् ।
यमदूतैर्न बाध्येत रुद्रलोकं स गच्छति ॥ ६७
ततो गच्छेत् तु राजेन्द्र सिद्धो यत्र जनार्दनः।
हिरण्यद्वीपविख्यातं सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ६८
तत्र स्नात्वा नरो राजन् धनवान् रूपवान् भवेत् ।
ततो गच्छेत् तु राजेन्द्र तीर्थं कनखलं महत् ॥ ६९
गरुडेन तपस्तप्तं तस्मिस्तीर्थे नराधिप।
प्रख्यातं त्रिषु लोकेषु योगिनी तत्र तिष्ठति ॥ ७०
क्रीडते योगिभिः सार्धं शिवेन सह नृत्यति।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् रुद्रलोके महीयते ॥ ७१
राजेन्द्र ! इसके बाद श्रेष्ठ गौत्तमेश्वर तीर्थकी यात्रा करे। राजन् ! वहाँ स्नानकर उपवास करनेवाला मनुष्य सुवर्णमय विमानसे ब्रह्मलोकमें जाकर पूजित होता है। राजन् ! तदनन्तर धौतपाप नामक क्षेत्रकी यात्रा करनी चाहिये। स्वयं नन्दीने नर्मदामें इस क्षेत्रका निर्माण किया था, जो सभी पातकोंका नाशक है। उस तीर्थमें स्नानकर मनुष्य ब्रह्महत्यासे विमुक्त हो जाता है। राजेन्द्र ! उस तीर्थमें जो प्राण त्याग करता है, वह चार भुजा और तीन नेत्रोंसे युक्त हो शिवके समान बलशाली हो जाता है और शिवके समान पराक्रमी होकर दस सहस्र कल्पोंसे भी अधिक कालतक स्वर्गमें निवास करता है। बहुत कालके बाद पृथ्वीपर आनेपर वह एकच्छत्र राजा होता है। राजेन्द्र। तत्पश्चात् श्रेष्ठ ऐरण्डीतीर्थ में जाना चाहिये। राजन् । मार्कण्डेयजीके द्वारा प्रयागमें जो पुण्य बतलाया गया है, वही पुण्य वहाँ स्नान मात्र करनेसे मनुष्यको सुलभ हो जाता है। जो भाद्रपदमासके शुक्लपक्षकी चतुर्दशी तिथिको एक रात उपवास कर वहाँ स्नान करता है, उसे यमदूत पीड़ित नहीं करते और वह स्ह्मलोकको जाता है। राजेन्द्र। तदुपरान्त सभी पापोंको नष्ट करनेवाले हिरण्यद्वीप नामसे विख्यात तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ भगवान् जनार्दनने सिद्धि प्राप्त की थी। राजन्। वहाँ स्नान कर मानव धनवान् और रूपवान् हो जाता है। राजेन्द्र। इसके बाद महान् कनखलतोर्थकी यात्रा करे। नराधिप। उस तीर्थमें गरुडने तपस्या की थी। वह तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ योगिनी रहती है, जो योगियोंके साथ क्रीडा और शिवके साथ नृत्य करती है। राजन्। वहाँ स्नान कर मनुष्य रुद्रलोकमें पूजित होता है ॥ ६०-७१॥
ततो गच्छेत् तु राजेन्द्र हंसतीर्थमनुत्तमम् ।
हंसास्तत्र विनिर्मुक्ता गता ऊर्ध्वं न संशयः ॥ ७२
ततो गच्छेत् तु राजेन्द्र सिद्धो यत्र जनार्दनः ।
वाराहं रूपमास्थाय अर्चितः परमेश्वरः ॥ ७३
वराहतीर्थे नरः स्नात्वा द्वादश्यां तु विशेषतः ।
विष्णुलोकमवाप्नोति नरकं न च पश्यति ॥ ७४
ततो गच्छेत् तु राजेन्द्र चन्द्रतीर्थमनुत्तमम् ।
पौर्णमास्यां विशेषेण स्नानं तत्र समाचरेत् ॥ ७५
स्नातमात्रो नरस्तत्र चन्द्रलोके महीयते।
दक्षिणेन तु द्वारेण कन्यातीर्थ तु विश्रुतम् ।। ७६
शुक्लपक्षे तृतीयायां स्नानं तत्र समाचरेत्।
प्रणिपत्य तु चेशानं बलिस्तेन प्रसीदति ॥ ७७
हरिश्चन्द्रपुरं दिव्यमन्तरिक्षे च दृश्यते।
शक्रध्वजे समावृत्ते सुप्ते नागारिकेतने ॥ ७८
नर्मदा सलिलौघेन तरून् सम्प्लावयिष्यति।
अस्मिन् स्थाने निवासः स्याद् विष्णुः शंकरमब्रवीत् ॥ ७९
राजेन्द्र । तदनन्तर उत्तम हंसतीर्थमें जाय। वहाँ हंस-समूह पापसे विनिर्मुक्त होकर निःसंदेह स्वर्गको चले गये थे। राजेन्द्र । तत्पश्चात् वाराहतीर्थकी यात्रा करनी चाहिये, जहाँ भगवान् जनार्दन सिद्ध हुए थे। वहाँ वाराहरूपधारी परमेश्वरकी पूजा हुई थी। उस वाराहतीर्थमें विशेषकर द्वादशी तिथिको स्नान कर मनुष्य विष्णुलोकको प्राप्त करता है और उसे नरकका दर्शन नहीं करना पड़ता। राजेन्द्र ! तदुपरान्त श्रेष्ठ चन्द्रतीर्थकी यात्रा करे। वहाँ विशेषकर पूर्णिमा तिथिको स्नान करना चाहिये। वहाँ स्नानमात्र करनेसे मनुष्य चन्द्रलोकमें पूजित होता है। उसके दक्षिण द्वारपर विख्यात कन्यातीर्थ है। यहाँ शुक्लपक्षकी तृतीया तिथिको स्नान करना चाहिये। वहाँ शिवजीको प्रणाम करके उन्हें बलि प्रदान करनेसे वे प्रसन्न हो जाते हैं। वहाँ हरिशयनके समय इन्द्रध्वजके निकलनेपर अन्तरिक्षमें दिव्य हरिश्चन्द्रपुर दिखायी देता है। जब नर्मदा जलसमूहसे वृक्षोंको आप्लावित कर देगी, उस समय इस स्थानमें विष्णुका निवास होगा-ऐसा विष्णुने शंकरसे कहा है। द्वीपेश्वरतीर्थमें स्नान कर मनुष्य सुवर्णराशिको प्राप्त करता है॥ ७२-७९॥
द्वीपेश्वरे नरः स्नात्वा लभेद् बहु सुवर्णकम्।
ततो गच्छेत् तु राजेन्द्र कन्यातीर्थे सुसंगमे ॥ ८०
स्नातमात्रो नरस्तत्र देव्याः स्थानमवाप्नुयात्।
देवतीर्थं ततो गच्छेत् सर्वतीर्थमनुत्तमम् ॥ ८१
तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र दैवतैः सह मोदते।
ततो गच्छेच्च राजेन्द्र शिखितीर्थमनुत्तमम् ॥ ८२
यत् तत्र दीयते दानं सर्वं कोटिगुणं भवेत्।
अपरपक्षे त्वमायां तु स्नानं तत्र समाचरेत् ॥ ८३
ब्राहाणं भोजयेदेकं कोटिर्भवति भोजिता।
भृगुतीर्थे तु राजेन्द्र तीर्थकोटिर्व्यवस्थिता ॥ ८४
अकामो वा सकामो वा तत्र स्नानं समाचरेत् ।
अश्वमेधमवाप्नोति दैवतैः सह मोदते ॥ ८५
तत्र सिद्धिं परां प्राप्तो भृगुस्तु मुनिपुङ्गवः ।
अवतारः कृतस्तत्र शंकरेण महात्मना ॥ ८६
राजेन्द्र ! इसके बाद कन्यातीर्थक सुन्दर संगमस्थानकी यात्रा करे। वहाँ स्नानमात्र करनेसे मनुष्य देवीके स्थानको प्राप्त करता है। तदनन्तर सभी तीर्थोंमें उत्तम देवतीर्थमें जाना चाहिये। राजेन्द्र ! वहाँ स्नान कर मनुष्य देवताओंके साथ आनन्दका अनुभव करता है। राजेन्द्र। तत्पश्चात् श्रेष्ठ शिखितीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ अमावस्या तिथिके तीसरे पहरमें स्नान करनेका विधान है। वहाँ जो कुछ भी दान दिया जाता है, वह सब, करोड़गुना हो जाता है। वहाँ एक ब्राह्मणको भोजन करानेपर करोड़ ब्राह्मणोंक भोजन करानेका फल होता है। राजेन्द्र । भूगुतीर्थमें करोड़ों तीर्थोकी स्थिति है। वहाँ निष्काम या सकाम होकर भी स्नान करना चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्यको अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है और वह देवताओंके साथ आनन्दका अनुभव करता है। वहाँ मुनिश्रेष्ठ भृगुने परम सिद्धि प्राप्त की थी और महात्मा शंकर अवतीर्ण हुए थे ॥ ८०-८६॥
इति श्रीमात्ये महापुराणे नर्मदामाहात्म्ये त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ ९९३ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें नर्मदामाहात्म्य वर्णन नामक एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १९३॥
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