पद्मोद्भव के प्रसङ्ग‌में मनुद्वारा भगवान विष्णु से सृष्टि सम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान का उत्तर | padmodbhav ke prasangamen manudvara bhagavan vishnu se srishti sambandhi vividh prashn aura bhagavan ka uttar

मत्स्य पुराण एक सौ चौंसठवाँ अध्याय

पद्मोद्भव के प्रसङ्ग‌में मनुद्वारा भगवान विष्णु से सृष्टि सम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान का उत्तर 

ऋषय ऊचुः

कथितं नरसिंहस्य माहात्यं विस्तरेण च।
पुनस्तस्यैव माहात्म्यमन्यद्विस्तरतो वद ॥ १

पद्मरूपमभूदेतत् कथं हेममयं जगत्। 
कथं च वैष्णवी सृष्टिः पद्ममध्येऽभवत् पुरा ॥ २

ऋषियोंने पूछा- सूतजी। आप भगवान् नरसिंहके माहात्म्यका तो विस्तारपूर्वक वर्णन कर चुके, अब पुनः उन्हीं भगवान्‌के दूसरे माहात्म्यको विस्तारपूर्वक बतलाइये। भला, पूर्वकालमें स्वर्णमय कमलसे यह जगत् कैसे उत्पन्न हुआ था और उस कमलमेंसे वैष्णवी सृष्टि कैसे प्रादुर्भूत हुई थी ?॥ १-२॥

सूत उवाच

श्रुत्वा च नरसिंहस्य माहात्म्यं रविनन्दनः । 
विस्मयोत्फुल्लनयनः पुनः पप्रच्छ केशवम् ॥ ३

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। भगवान् नरसिंहके माहात्म्यको सुनकर सूर्यपुत्र मनुके नेत्र आश्वर्य से उत्फुल्ल हो उठे, तब उन्होंने पुनः भगवान् केशवसे प्रश्न किया ॥ ३॥

मनुरुवाच

कथं पाये महाकल्पे तव पद्ममयं जगत् । 
जलार्णवगतस्येह नाभी जातं जनार्दन ॥ ४

मनुने पूछा-जनार्दन ! 'पाद्यकल्प' में जब आप इस जलार्णवके मध्यमें स्थित थे, तब आपकी नाभिसे यह पद्ममय जगत् कैसे उत्पन्न हुआ था? 

प्रभावात् पद्मनाभस्य स्वपतः सागराम्भसि । 
पुष्करे च कथं भूता देवाः सर्षिगणाः पुरा । ५

एनमाख्याहि निखिलं योगं योगविदां पते। 
शृण्वतस्तस्य मे कीर्ति न तृप्तिरुपजायते ॥ ६

कियता चैव कालेन शेते वै पुरुषोत्तमः । 
कियन्तं वा स्वपिति च कोऽस्य कालस्य सम्भवः ॥ ७

कियता वाध कालेन द्युत्तिष्ठति महायशाः । 
कथं चोत्थाय भगवान् सृजते निखिलं जगत् ॥ ८

के प्रजापतयस्तावदासन् पूर्वं महामुने। 
कथं निर्मितवांश्चैव चित्रं लोकं सनातनम् ॥ ९

कथमेकार्णवे शून्ये नष्टस्थावरजङ्गमे। 
दग्धे देवासुरनरे प्रनष्टोरगराक्षसे ।। १०

नष्टानिलानले लोके नष्टाकाशमहीतले।
केवलं गह्वरीभूते महाभूतविपर्यये ॥ ११

विभुर्महाभूतपतिर्महातेजा महाकृतिः ।
आस्ते सुरवरश्रेष्ठो विधिमास्थाय योगवित् ॥ १२ 

शृणुयां परया भक्त्या ब्रह्मन्नेतदशेषतः । 
वक्तुमर्हसि धर्मिष्ठ यशो नारायणात्मकम् ॥ १३ 

श्रद्धया चोपविष्टानां भगवन् वक्तुमर्हसि ॥ १४

पूर्व काल में समुद्रके जल में शयन करनेवाले भगवान् पद्मनाभके प्रभावसे उस कमलमें ऋषिगणोंसहित देवगण कैसे उत्पन्न हुए थे? योगवेत्ताओंके अधीश्वर! इस सम्पूर्ण योगका वर्णन कीजिये, क्योंकि भगवान्‌की कीर्तिका वर्णन सुनते हुए मुझे तृप्ति नहीं हो रही है। (कृपया यह बतलाइये कि) भगवान् पुरुषोत्तम कितने समयके पश्चात् शयन करते हैं? कितने कालतक सोते हैं? इस कालका उद्भव (निर्धारण) कहाँसे होता है? फिर वे महायशस्वी भगवान् कितने समयके बाद निद्रा त्यागकर उठते हैं? निद्रासे उठकर वे भगवान् किस प्रकार सम्पूर्ण जगत्‌की सृष्टि करते हैं? महामुने। पूर्वकालमें कौन-कौन-से प्रजापति थे? इस विचित्र सनातन लोकका निर्माण किस प्रकार किया गया था? महाप्रलयके समय जब स्थावर-जङ्गम-सभी प्राणी नष्ट हो जाते हैं, 

देवता, राक्षस और मनुष्य जलकर भस्म हो जाते हैं, नागों और राक्षसोंका विनाश हो जाता है, लोकमें अग्नि, वायु, आकाश और पृथ्वीतलका सर्वथा लोप हो जाता है, उस समय पञ्चमहाभूतोंका विपर्यय हो जानेपर केवल घना अन्धकार छाया रहता है, तब उस शून्य एकार्णवके जलमें सर्वव्यापी, पञ्चमहाभूतोंके स्वामी, महातेजस्वी, विशालकाय, सुरेश्वरोंमें श्रेष्ठ एवं योगवेत्ता भगवान् किस प्रकार विधिका सहारा लेकर स्थित रहते हैं? ब्रह्मन्। यह सारा प्रसङ्ग मैं परम भक्तिके साथ सुनना चाहता हूँ। धर्मिष्ठ। आप इस नारायण-सम्बन्धी यशका वर्णन कीजिये। भगवन्! हमलोग श्रद्धापूर्वक आपके समक्ष बैठे हैं, अतः आप इसका अवश्य वर्णन कीजिये ॥४-१४॥

मत्स्य उवाच

नारायणस्य यशसः श्रवणे या तव स्पृहा। 
तद्वंश्यान्वयभूतस्य न्याय्यं रविकुलर्षभ । १५

शृणुष्वादिपुराणेषु वेदेभ्यश्च यथा श्रुतम्।
ब्राह्मणानां च वदतां श्रुत्वा वै सुमहात्मनाम् ॥ १६

यथा च तपसा दृष्ट्वा बृहस्पतिसमद्युतिः ।
पराशरसुतः श्रीमान् गुरुद्वैपायनोऽब्रवीत् ॥ १७

तत्तेऽहं कथयिष्यामि यथाशक्ति यथाश्रुति। 
यद्विज्ञातुं मया शक्यमृषिमात्रेण सत्तमाः ॥ १८

कः समुत्सहते ज्ञातुं परं नारायणात्मकम् ।
विश्वायनश्च यद् ब्रह्मा न वेदयति तत्त्वतः ॥ १९

तत्कर्म विश्ववेदानां तद्रहस्यं महर्षिणाम्। 
तमिज्यं सर्वयज्ञानां तत्तत्त्वं सर्वदर्शिनाम् । 
तदध्यात्मविदां चिन्त्यं नरकं च विकर्मिणाम् ॥ २०

अधिदैवं च यदैवमधियज्ञं सुसंज्ञितम् । 
तद्भूतमधिभूतं च तत्परं परमर्षिणाम् ॥ २१ 

मत्स्यभगवान्ने कहा- सूर्यकुलसत्तम । नारायणकी यशोगाथा सुननेमें जो आपकी विशेष स्पृहा है, यह नारायणके वंशजोंके कुलमें उत्पन्न होनेवाले आपके लिये उचित ही है। मैंने पुराणों, वेदों तथा प्रवचनकर्ता श्रेष्ठ महात्मा ब्राह्मणोंके मुखसे जैसा सुना है तथा बृहस्पतिके समान कान्तिमान् पराशरनन्दन गुरुदेव श्रीमान् कृष्णद्वैपायन व्यास जी ने तपोबलसे साक्षात्कार करके जैसा मुझे बतलाया है, वही मैं अपनी जानकारीके अनुसार यथाशक्ति आपसे वर्णन कर रहा हूँ, सावधानीपूर्वक श्रवण कीजिये। द्विजवरो! जिसे ऋषियोंमें केवल मैं ही जान सकता हूँ। जिसे विश्वके आश्रय स्थान ब्रह्मा भी तत्त्वपूर्वक नहीं जानते, नारायणके उस परम तत्त्वको जाननेके लिये दूसरा कौन उत्साह कर सकता है। वही समस्त वेदोंका कर्म है। वही महर्षियोंका रहस्य है। सम्पूर्ण यज्ञोंद्वारा पूजनीय वही है। वही सर्वज्ञोंका तत्त्व है। अध्यात्मवेत्ताओंके लिये वही चिन्तनीय और कुकर्मियोंके लिये नरकस्वरूप है। उसीको अधिदेव, देव और अधियज्ञ नामसे अभिहित किया जाता है। वही भूत, अधिभूत और परमर्षियोंका परम तत्त्व है॥१५-२१॥

स यज्ञो वेदनिर्दिष्टस्तत्तपः कवयो विदुः।
यः कर्ता कारको बुद्धिर्मनः क्षेत्रज्ञ एव च ॥ २२

प्रणवः पुरुषः शास्ता एकश्चेति विभाव्यते।
प्राणः पञ्चविधश्चैव ध्रुव अक्षर एव च ॥ २३

कालः पाकश्च पक्ता च द्रष्टा स्वाध्याय एव च।
उच्यते विविधैर्देवः स एवायं न तत्परम् ॥ २४

स एव भगवान् सर्वं करोति विकरोति च।
सोऽस्मान् कास्यते सर्वान् सोऽत्येति व्याकुलीकृतान् ॥ २५

यजामहे तमेवाहां तमेवेच्छाम निर्वृताः ।
यो वक्ता यच्च वक्तव्यं यच्चाहं तद् ब्रवीमि वः ॥ २६

श्रूयते यच्च वै श्राव्यं यच्चान्यत् परिजल्प्यते । 
याः कथाश्चैव वर्तन्ते श्रुतयो वाथ तत्पराः । 
विश्वं विश्वपतिर्यश्च स तु नारायणः स्मृतः ॥ २७

यत्सत्यं यदमृतमक्षरं परं यत्-यद्भूतं परममिदं च यद्भविष्यत्।
यत् किंचिच्चरमचरं यदस्ति चान्यत् तत् सर्वं पुरुषवरः प्रभुः पुराणः ॥ २८

वेदों द्वारा निर्दिष्ट यज्ञ वही है। विद्वान्‌लोग उसे तपरूपसे जानते हैं। जो कर्ता, कारक, बुद्धि, मन, क्षेत्रज्ञ, प्रणव, पुरुष, शास्ता और अद्वितीय कहा जाता है तथा विभिन्न देवता जिसे पाँच प्रकारका प्राण, अविनाशी ध्रुव, काल, पाक, पक्ता (पचानेवाला), द्रष्टा और स्वाध्याय कहते हैं, वह यही है। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। वे ही भगवान् सम्पूर्ण जगत्‌के उत्पादक हैं और वे ही संहारक भी हैं। वे ही हम सब लोगोंको उत्पन्न करते हैं और अन्तमें व्याकुल करके नष्ट कर देते हैं। हमलोग उन्हीं आदि पुरुषकी यज्ञद्वारा आराधना करते हैं और निवृत्तिपरायण होकर उन्होंको प्राप्त करनेकी इच्छा करते हैं। जो वक्ता है, जो वक्तव्य है, जिसके विषयमें मैं आपलोगोंसे कह रहा हूँ, जो सुना जाता है, जो सुनने योग्य है, जिसके विषयमें अन्य सारी बातें कही जाती हैं, जो कथाएँ प्रचलित हैं, श्रुतियाँ जिसके परायण हैं, जो विश्वस्वरूप और विश्वका स्वामी है, वही नारायण कहा गया है। जो सत्य है, जो अमृत है, जो अक्षर है, जो परात्पर है, जो भूत है और जो भविष्यत् है, जो चर-अचर जगत् है, इसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ है, वह सब कुछ सामर्थ्यशाली एवं सर्वश्रेष्ठ पुराणपुरुष ही है॥२२-२८ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे पद्योद्भवप्रादुर्भावे चतुःषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६४॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके पद्मोद्भवप्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें एक सौ चौंसठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १६४॥

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