प्रह्लाद द्वारा भगवान नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध | prahlaad dvaara bhagavaan narasinhaka svaroop varnan tatha narasinh aur daanavonka bheeshan yuddh

मत्स्य पुराण एक सौ बासठवाँ अध्याय

प्रह्लाद द्वारा भगवान नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध 

सूत उवाच

ततो दृष्ट्वा महात्मानं कालचक्रमिवागतम् ।
नरसिंहवपुश्छन्नं भस्मच्छन्नमिवानलम् ॥ १

हिरण्यकशिपोः पुत्रः प्रह्लादो नाम वीर्यवान्।
दिव्येन चक्षुषा सिंहमपश्यद् देवमागतम् ॥ २

तं दृष्ट्वा रुक्मशैलाभमपूर्वा तनुमाश्रितम् ।
विस्मिता दानवाः सर्वे हिरण्यकशिपुश्च सः ॥ ३

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। तदनन्तर राखमें छिपी हुई अग्निकी तरह नरसिंह-शरीरमें छिपे हुए महात्मा विष्णुको कालचक्रकी भाँति आया देख हिरण्यकशिपुके पुत्र पराक्रमी प्रह्लादने दिव्य दृष्टिसे सिंहको देखकर समझ लिया कि भगवान् विष्णु आ गये। सुमेरु पर्वतकी-सी कान्तिवाले अपूर्व शरीरको धारण किये हुए उस सिंहको देखकर हिरण्यकशिपुसहित सभी दानव घबरा गये ॥ १-३॥

प्रह्लाद उवाच

महाबाहो महाराज दैत्यानामादिसम्भवः । 
न श्रुतं न च नो दृष्टं नारसिंहमिदं वपुः ॥ ४

अव्यक्तप्रभवं दिव्यं किमिदं रूपमागतम् । 
दैत्यान्तकरणं घोरं संशतीव मनो मम ॥ ५ 

अस्य देवाः शरीरस्थाः सागराः सरितश्च याः । 
हिमवान् पारियात्रश्च ये चान्ये कुलपर्वताः ॥ ६

चन्द्रमाश्च सनक्षत्रैरादित्यैर्वसुभिः सह।
धनदो वरुणश्चैव यमः शक्रः शचीपतिः ॥ ७

मरुतो देवगन्धर्वा ऋषयश्च तपोधनाः । 
नागा यक्षाः पिशाचाश्च राक्षसा भीमविक्रमाः ॥ ८

ब्रह्मा देवः पशुपतिर्ललाटस्था भ्रमन्ति वै। 
स्थावराणि च सर्वाणि जङ्गमानि तथैव च ॥ ९

भवांश्च सहितोऽस्माभिः सर्वैर्दैत्यगणैर्वृतः । 
विमानशतसङ्कीर्णा तथैव भवतः सभा ॥ १०

सर्वे त्रिभुवनं राजँल्लोकधर्माश्च शाश्वताः । 
दृश्यन्ते नारसिंहेऽस्मिस्तथेदमखिलं जगत् ॥ ११

प्रजापतिश्चात्र मनुर्महात्मा ग्रहाश्च योगाश्च महीरुहाश्च।
उत्पातकालश्च धृतिर्मतिश्च रतिश्च सत्यं च तपो दमश्च ॥ १२

सनत्कुमारश्च महानुभावो विश्वे च देवा ऋषयश्च सर्वे।
क्रोधश्च कामश्च तथैव हर्षो धर्मश्च मोहः पितरश्च सर्वे ॥ १३

तब प्रह्लादने कहा- महाबाहु महाराज! आप दैत्योंके मूल पुरुष हैं। आपके इस नरसिंह-शरीरके विषयमें अबतक कभी कुछ न सुना ही गया और न इसे कभी देखा ही गया, अज्ञातरूपसे उत्पन्न होनेवाला यह कौन-सा दिव्यरूप आ पहुँचा है? मुझे लगता है कि आपका यह भयंकर रूप दैत्योंका अन्त ही करनेवाला है। इस सिंहके शरीरमें सभी देवता, समुद्र सभी नदियाँ, हिमवान्, पारियात्र (विन्ध्य) आदि सभी कुलपर्वत, नक्षत्रों, आदित्यगणों और वसुगणों सहित चन्द्रमा, कुबेर, वरुण, यमराज, शचीपति इन्द्र, मरुद्रण, देवगन्धर्व, तपोधन महर्षि, नाग, यक्ष, पिशाच, भयंकर पराक्रमी राक्षस, ब्रह्मा और भगवान् शंकर स्थित हैं। ये सभी ललाटमें स्थित होकर भ्रमण कर रहे हैं। राजन् ! सभी स्थावर जङ्गम प्राणी, हमलोगोंसहित तथा समस्त दैत्यगणोंसे घिरे हुए आप, सैकड़ों विमानोंसे भरी हुई आपकी यह सभा, सारी त्रिलोकी, शाश्वत लोकधर्म तथा यह अखिल जगत् इस नरसिंहके शरीरमें दिखायी पड़ रहे हैं। साथ ही इस शरीरमें प्रजापति, महात्मा मनु, ग्रह, योग, वृक्ष, उत्पात, काल, धृति,मति, रति, सत्य, तप, दम, महानुभाव सनत्कुमार, विश्वेदेवगण, सभी ऋषिगण, क्रोध, काम, हर्ष, धर्म, मोह और सभी पितृगण भी विद्यमान हैं॥४-१३॥

प्रह्लादस्य वचः श्रुत्वा हिरण्यकशिपुः प्रभुः । 
उवाच दानवान् सर्वान् गणांश्च स गणाधिपः ॥ १४ 

मृगेन्द्रो गृह्यतामेष अपूर्वा तनुमास्थितः । 
यदि वा संशयः कश्चिद् वध्यतां वनगोचरः ॥ १५ 

ते दानवगणाः सर्वे मृगेन्द्रं भीमविक्रमम् । 
परिक्षिपन्तो मुदितास्त्रासयामासुरोजसा ॥ १६

सिंहनादं विमुच्याथ नरसिंहो महाबलः । 
बभञ्ज तां सभां सर्वां व्यादितास्य इवान्तकः ।। १७

सभायां भज्यमानायां हिरण्यकशिपुः स्वयम् । 
चिक्षेपास्त्राणि सिंहस्य रोषाद् व्याकुललोचनः ॥ १८ 

इस प्रकार प्रह्लादकी बात सुनकर दानवगणों के अधीश्वर सामर्थ्यशाली हिरण्यकशिपुने सभी दानवगणों को आदेश देते हुए कहा- 'दानवो! अपूर्व शरीर धारण करनेवाले इस मृगेन्द्रको पकड़ लो। अथवा यदि पकड़नेमें कोई संदेह हो तो इस बनैले जीवको मार डालो।' यह सुनकर वे सभी दानवगण हर्षपूर्वक उस भयंकर पराक्रमी मृगेन्द्रपर टूट पड़े और बलपूर्वक त्रास देने लगे। तदनन्तर मुख फैलाये हुए कालकी तरह भीषण दीखनेवाले महाबली नरसिंहने सिंहनाद करके उस सारी सभाको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। सभाको विध्वंस होते देखकर हिरण्यकशिपुके नेत्र क्रोधसे व्याकुल हो गये, तब वह स्वयं नरसिंहपर अस्त्र छोड़ने लगा ॥ १४-१८॥

सर्वांस्त्राणामथ ज्येष्ठं दण्डमस्त्रं सुदारुणम्।
कालचक्रं तथा घोरं विष्णुचक्रं तथा परम् ॥ १९

पैतामहं तथाप्युग्रं त्रैलोक्यदहनं महत्। 
विचित्रामशनीं चैव शुष्काई चाशनिद्वयम् ॥ २०

रौद्रं तथोयं शूलं च कङ्कालं मुसलं तथा। 
मोहनं शोषणे चैव सन्तापनविलापनम् ॥ २९

वायव्यं मधनं चैव कापालमथ कैङ्करम्। 
तथाप्रतिहतां शक्तिं क्रौञ्चमस्त्रं तथैव च ॥२२

अस्त्रं ब्रह्मशिरश्चैव सोमास्त्रं शिशिरं तथा। 
कम्पनं शातनं चैव त्वाष्ठं चैव सुभैरवम् ॥ २३

कालमुद्ररमक्षोभ्यं तपनं च महाबलम् । 
संवर्तनं मादनं च तथा मायाधरं परम् ॥ २४ 

गान्धर्वमस्त्रं दयितमसिरत्रं च नन्दकम्। 
प्रस्वापनं प्रमथनं वारुणं चास्त्रमुत्तमम् । 
अस्त्रं पाशुपतं चैव यस्याप्रतिहता गतिः ॥ २५ 

अखं हयशिरश्चैव ब्राह्ममस्त्रं तथैव च। 
नारायणास्त्रमैन्द्रं च सार्पमस्त्रं तथाद्भुतम् ॥ २६

पैशाचमस्त्रमजितं शोषदं शामनं तथा। 
महाबलं भावनं च प्रस्थापनविकम्पने ॥ २७

एतान्यस्त्राणि दिव्यानि हिरण्यकशिपुस्तदा। 
असृजनरसिंहस्य दीप्तस्याग्नेरिवाहुतिम् ॥ २८

अस्वैः प्रज्वलितैः सिंहमावृणोदसुरोत्तमः । 
विवस्वान् धर्मसमये हिमवन्तमिवांशुभिः ॥ २९

स हामर्षानिलोद्भूतो दैत्यानां सैन्यसागरः । 
क्षणेन प्लावयामास मैनाकमिव सागरः ॥ ३०

प्रासैः पाशैश्च खड्‌गैश्च गदाभिर्मुसलैस्तथा। 
वप्रैरशनिभिश्चैव साग्निभिश्च महाद्रुमैः ॥ ३१

मुद्ररैभिन्दिपालैश्च शिलोलूखलपर्वतैः ।
शतघ्नीभिश्च दीप्ताभिर्दण्डैरपि सुदारुणैः ॥ ३२

उस समय हिरण्यकशिपु सम्पूर्ण अस्त्रोंमें सबसे बड़ा दण्ड अस्त्र, अत्यन्त भीषण कालचक्र, अतिशय भयंकर विष्णुचक्र, त्रिलोकीको भस्म कर देनेवाला अत्यन्त उग्र पितामहका महान् अस्त्र ब्रह्मास्त्र, विचित्र वज्र, सूखी और गीली दोनों प्रकारकी अशनि, भयानक तथा उग्र शूल, कंकाल, मूसल, मोहन, शोषण, संतापन, विलापन, वायव्य, मथन, कापाल, कैंकर, अमोघ शक्ति, क्रौञ्चास्त्र, ब्रह्मशिरा अस्त्र, सोमास्त्र, शिशिर, कम्पन, शातन, अत्यन्त भयंकर त्वाष्ट्रास्त्र, कभी क्षुब्ध न होनेवाला कालमुगर, महाबलशाली तपन, संवर्तन, मादन, परमोत्कृष्ट मायाधर, परमप्रिय गान्धर्वास्त्र, असिरत्न नन्दक, प्रस्वापन, प्रमथन, सर्वोत्तम वारुणास्त्र, जिसकी गति अप्रतिहत होती है ऐसा पाशुपतास्त्र, हयशिरा अस्त्र, ब्राह्म अस्त्र, नारायणास्त्र, ऐन्द्रास्त्र, अद्भुत नागास्त्र, अजेय पैशाचास्त्र, शोषण, शामन, महाबलसे सम्पन्न भावन, प्रस्थापन, विकम्पन-इन सभी दिव्यास्त्रोंको नरसिंहके ऊपर उसी प्रकार छोड़ रहा था, मानो प्रज्वलित अग्निमें आहुति डाल रहा हो। उस असुरश्रेष्ठने नरसिंहको प्रज्वलित अस्त्रोंद्वारा ऐसा आच्छादित कर दिया, जैसे ग्रीष्म ऋतुमें सूर्य अपनी किरणोंसे हिमवान् पर्वतको ढक लेते हैं। दैत्योंका वह सेनारूपी सागर क्रोधरूपी वायुसे उच्छ्वलित हो उठा और क्षणमात्रमें ही वहाँकी भूमिपर इस प्रकार छा गया, जैसे सागर मैनाक पर्वतको डुबाकर उबल उठा था। फिर तो वे भाला, पाश, तलवार, गदा, मुसल, वज्र, अग्निसहित अशनि, विशाल वृक्ष, मुद्रर, भिन्दिपाल, शिला, ओखली, पर्वत, प्रज्वलित शतघ्नी (तोप) और अत्यन्त भीषण दण्डसे नरसिंहपर प्रहार करने लगे ॥ १९-३२ ॥

ते दानवाः पाशगृहीतहस्ता महेन्द्रवज्राशनितुल्यवेगाः ।
समन्ततोऽभ्युद्यतबाहुकायाः स्थितास्त्रिशीर्षा इव नागपाशाः ॥ ३३

सुवर्णमालाकुलभूषिताङ्गाः पीतांशुकाभोगविभाविताङ्गाः ।
मुक्तावलीदामसनाथकक्षा हंसा इवाभान्ति विशालपक्षाः ॥ ३४

तेषां तु वायुप्रतिमौजसां वै केयूरमौलीबलयोत्कटानाम्।
तान्युत्तमाङ्गान्यभितो विभान्ति प्रभातसूर्याशुसमप्रभाणि ॥ ३५

क्षिपद्भिरुग्रैर्व्वलितैर्महाबलै-महास्त्रपूगैः सुसमावृतो बभौ।
गिरिर्यथा संततवर्षिभिर्धनैः कृतान्धकारान्तरकन्दरो हुमैः ॥ ३६

तैर्हन्यमानोऽपि महास्त्रजालै-र्महाबलैर्दैत्यगणैः समेतैः ।
नाकम्पताजौ भगवान् प्रताप-स्थितः प्रकृत्या हिमवानिवाचलः ॥ ३७

संत्रासितास्तेन नृसिंहरूपिणा दितेः सुताः पावकतुल्यतेजसा ।
भयाद् विचेलुः पवनोद्धताङ्गा यथोर्मयः सागरवारिसम्भवाः ॥ ३८ 

उस समय महेन्द्रके वज्र एवं अशनिके समान वेगशाली वे दानव हाथमें पाश लिये हुए चारों ओर अपनी भुजाओं और शरीरोंको ऊपर उठाये हुए स्थित थे, जो तीन शिखावाले नागपाशकी तरह दीख रहे थे। उनके शरीर सोनेकी मालाओंसे विभूषित थे, उनके अङ्गोंपर पीला रेशमी वस्त्र शोभा पा रहा था तथा कटिबंध मोतियोंकी लड़ियोंसे संयुक्त थे, जिससे वे विशाल पंखधारी हंसकी भाँति शोभा पा रहे थे। केयूर, मुकुट और कंकणसे सुशोभित उन उत्कट पराक्रमी एवं वायुके समान ओजस्वी दानवोंके मस्तक प्रातः कालीन सूर्यकी किरणोंकी कान्ति-सदृश चमक रहे थे। उन महाबली दानवोंद्वारा चलाये गये भयंकर एवं उद्दीप्त महान् अस्त्रसमूहोंसे आच्छादित हुए भगवान् नरसिंह उसी प्रकार शोभा पा रहे थे, मानो निरन्तर वर्षा करनेवाले बादलों और वृक्षोंसे अन्धकारित किये गये गुफाओंसे युक्त पर्वत हो। संगठित हुए उन महावली दैत्योंद्वारा महान् अस्वसमूहोंसे आघात किये जानेपर भी प्रतापशाली भगवान् नरसिंह युद्धस्थलमें विचलित नहीं हुए, अपितु प्रकृतिसे अटल रहनेवाले हिमवान्‌की तरह अडिग होकर डटे रहे। अग्निके समान तेजस्वी नृसिंहरूपधारी भगवान् विष्णुके द्वारा डराये गये दैत्यगण भयके कारण उसी प्रकार विचलित हो गये, जैसे समुद्रके जलमें उठी हुई लहरें वायुके थपेड़ोंसे क्षुब्ध हो जाती है ॥ ३३-३८ ॥

इति श्रीमाल्ये महापुराणे नारसिंहप्रादुर्भावो नाम द्विषष्ठ्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६२ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें नारसिंहप्रादुर्भाव नामक एक सौ बासठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १६२॥

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