मत्स्य पुराण दो सौ उनसठवाँ अध्याय
प्रतिमाओं के लक्षण, मान, आकार आदि का कथन
सूत उवाच
अतः परं प्रवक्ष्यामि देवाकारान् विशेषतः ।
दशतालः स्मृतो रामो बलिर्वैरोचनिस्तथा ॥ १
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। इसके बाद मैं देवताओं की मूर्तियों के आकारके विषय में विशेष रूप से बतला रहा हूँ। इस विषय में ब्रह्माने बताया है । १
वाराहो नारसिंहश्च सप्ततालस्तु वामनः ।
मत्स्यकूर्मों च निर्दिष्टौ यथाशोभं स्वयम्भुवा ॥ २
अतः परं प्रवक्ष्यामि रुद्राद्याकारमुत्तमम् ।
स पीनोरुभुजस्कन्धस्तप्तकाञ्चनसप्रभः ॥ ३
शुक्लोऽर्करश्मिसंघातश्चन्द्राङ्कितजटो विभुः।
जटामुकुटधारी च द्व्यष्टवर्षाकृतिश्च सः ॥ ४
बाहू वारणहस्ताभौ वृत्तजङ्घोरुमण्डलः ।
ऊर्ध्वकेशश्च कर्तव्यो दीर्घायतविलोचनः ।। ५
व्याघ्रचर्मपरीधानः कटिसूत्रत्रयान्वितः ।
हारकेयूरसम्पन्नो भुजङ्गाभरणस्तथा ॥ ६
बाहवश्चापि कर्तव्या नानाभरणभूषिताः ।
पीनोरुगण्डफलकः कुण्डलाभ्यामलङ्कृतः ॥ ७
आजानुलम्बबाहुश्च सौम्यमूर्तिः सुशोभनः ।
खेटकं वामहस्ते तु खड्गं चैव तु दक्षिणे ॥ ८
शक्तिं दण्डं त्रिशूलं च दक्षिणेषु निवेशयेत् ।
कपालं वामपार्श्वे तु नागं खट्वाङ्गमेव च ॥ ९
एकश्च वरदो हस्तस्तथाक्षवलयोऽपरः ।
वैशाखस्थानकं कृत्वा नृत्याभिनयसंस्थितः ॥ १०
कि राम, विरोचनके पुत्र बलि, वाराह और नृसिंहकी मूर्तियोंकी ऊँचाई दस तालें होनी चाहिये। वामनकी प्रतिमा सात तालकी हो तथा मत्स्य और कूर्मकी प्रतिमाएँ जितनेमें सुन्दर दीख सकें, उसी परिमाणकी बनानी चाहिये। अब मैं शिव आदिकी मूर्तियोंक आकारका वर्णन कर रहा हूँ। रुद्रकी मूर्ति तपाये हुए सुवर्णकी भाँति कान्तिमती तथा स्थूल ऊरुओं, भुजाओं और स्कन्धोंसे युक्त होनी चाहिये। उनका वर्ण सूर्यकी किरणोंके समान श्वेत और जटा चन्द्रमासे विभूषित हो। वे जटा-मुकुटधारी हों तथा उनकी अवस्था सोलह वर्षकी होनी चाहिये। उनकी दोनों भुजाएँ हाथीके शुण्डादण्डकी तरह तथा जंघा और ऊरुमण्डल गोलाकार हों। उनके केश ऊपरकी ओर उठे हुए तथा नेत्र दीर्घ एवं चौड़े बनाये जाने चाहिये।उनके वस्त्रके स्थानपर व्याघ्रचर्म तथा कमरमें तीन सूत्रोंकी मेखला बनायी जाय। उन्हें हार और केयूर से सुशोभित तथा सर्पोंके आभूषणोंसे अलंकृत करना चाहिये। उनकी भुजाओंको विविध प्रकारके आभूषणों से विभूषित तथा उभरे हुए कपोलोंको दो कुण्डलोंसे अलंकृत करना चाहिये। उनकी भुजाएँ घुटनेतक लम्बी, मूर्ति सौम्य, परम सुन्दर, बायें हाथमें ढाल, दाहिने हाथमें तलवार, दाहिनी ओर शक्ति, दण्ड और त्रिशूल तथा बायीं ओरके हाथोंमें कपाल, नाग और खट्वाङ्गको रखना चाहिये। एक हाथ वरदमुद्रासे सुशोभित और दूसरा हाथ रुद्राक्षकी माला धारण किये हुए हो ॥ २-९३॥
नृत्यन् दशभुजः कार्यों गजचर्मधरस्तथा।
तथा त्रिपुरदाहे च बाहवः षोडशैव तु ॥ ११
शङ्ख चक्रं गदा शाङ्ग घण्टा तत्राधिका भवेत्।
तथा धनुः पिनाकश्च शरो विष्णुमयस्तथा ॥ १२
चतुर्भुजोऽष्टबाहुर्वा ज्ञानयोगेश्वरो मतः ।
तीक्ष्णनासाग्रदशनः करालवदनो महान् ॥ १३
भैरवः शस्यते लोके प्रत्यायतनसंस्थितः ।
न मूलायतने कार्यों भैरवस्तु भयंकरः ॥ १४
नारसिंहो वराहो वा तथान्येऽपि भयङ्कराः ।
नाधिकाङ्गा न हीनाङ्गाः कर्तव्या देवताः क्वचित् ॥ १५
स्वामिनं घातयेन्न्यूना करालवदना तथा।
अधिका शिल्पिनं हन्यात् कृशा चैवार्थनाशिनी ॥ १६
कृशोदरी तु दुर्भिक्षं निर्मासा धननाशिनी।
वक्रनासा तु दुःखाय संक्षिप्ताङ्गी भयङ्करी ॥ १७
चिपिटा दुःखशोकाय अनेत्रा नेत्रनाशिनी।
दुःखदा हीनवक्त्रा तु पाणिपादकृशा तथा ॥ १८
हीनाङ्गा हीनजङ्घा च भ्रमोन्मादकरी नृणाम्।
शुष्कवक्त्रा तु राजानं कटिहीना च या भवेत् ॥ १९
पाणिपादविहीना या जायते मारको महान् ।
जङ्घाजानुविहीना च शत्रुकल्याणकारिणी ॥ २०
दस भुजाओंवाली शिवकी नटराज मूर्तिको विशाख स्थानयुक्त बनायी जानी चाहिये। वह नाचती हुई तथा गजचर्म धारण किये हुए हो। त्रिपुरान्तक प्रतिमामें सोलह भुजाएँ बनायी जानी चाहिये। उस समय उनके हाथमें शङ्ख, चक्र, गदा, सींग, घण्टा, पिनाक, धनुष, त्रिशूल और विष्णुमय शर-ये आठ वस्तुएँ अधिक रहेंगी। शिवकी ज्ञानयोगेश्वर प्रतिमामें चार या आठ भुजाएँ बनायी जाती हैं। भैरव-मूर्ति तीक्ष्ण दाँत तथा नुकीली नासिकासे युक्त होती है। उनका मुख महान् भयंकर होता है। ऐसी मूर्तिको प्रत्यायतन अर्थात् मुख्य मन्दिरके सामनेके मन्दिर या बरामदेमें स्थापित करना शुभदायक होता है। मुख्य मन्दिरमें भैरवकी स्थापना नहीं करनी चाहिये; क्योंकि ये भयकारी देवता हैं। इसी प्रकार नृसिंह, वराह तथा अन्य भयंकर देवताओंके लिये भी करना चाहिये।
देव-प्रतिमाओंको कहीं भी हीन अङ्गों वाली अथवा अधिक अङ्गोंवाली नहीं बनानी चाहिये। न्यून अङ्ग तथा भयानक मुखवाली प्रतिमा स्वामीका विनाश करती है, अधिक अङ्गोंवाली प्रतिमा शिल्पकारका हनन करती है और दुर्बल प्रतिमा धनका नाश करती है। दुबले उदरवाली प्रतिमा दुर्भिक्षप्रदा, कंकाल-सरीखी धननाशिनी, टेढ़ी नासिकावाली दुःखदायिनी, सूक्ष्माङ्गी भय पहुँचाने वाली, चिपटी दुःख और शोक प्रदान करनेवाली, नेत्रहीना नेत्रकी विनाशिका, मुखविहीना दुःखदायिनी तथा दुर्बल हाथ-पैरवाली या अन्य किन्हीं अङ्गोंसे हीन अथवा विशेषकर जंघेसे हीन प्रतिमा मनुष्योंके लिये भ्रम और उन्माद उत्पन्न करनेवाली कही गयी है। सूखे मुखवाली तथा कटिभागसे हीन प्रतिमा राजाको कष्ट देनेवाली कही गयी है। हाथ-पाँवसे विहीन प्रतिमा महामारीका भय उत्पन्न करनेवाली तथा जंघा और घुटनेसे विहीन शत्रुका कल्याण करनेवाली कही गयी है॥ १०-२० ॥
पुत्रमित्रविनाशाय हीनवक्षःस्थला तु या।
सम्पूर्णावयवा या तु आयुर्लक्ष्मीप्रदा सदा ॥ २१
एवं लक्षणमासाद्य कर्तव्यः परमेश्वरः ।
स्तूयमानः सुरैः सर्वैः समन्ताद् दर्शयेद् भवम् ॥ २२
शक्रेण नन्दिना चैव महाकालेन शंकरम् ।
प्रणता लोकपालास्तु पार्श्वे तु गणनायकाः ॥ २३
नृत्यभृङ्गिरिटिश्चैव भूतवेतालसंवृताः ।
सर्वे हृष्टास्तु कर्तव्याः स्तुवन्तः परमेश्वरम् ॥ २४
गन्धर्वविद्याधरकिन्नराणा-मथाप्सरोगुह्यकनायकानाम् ।
गणैरनेकैः शतशो महेन्द्र-मुनिप्रवीरैरपि नम्यमानम् ॥ २५
धृताक्षसूत्रैः शतशः प्रवाल-पुष्पोपहारप्रचयं ददद्भिः ।
संस्तूयमानं भगवन्तमीडयं नेत्रत्रयेणामरमर्त्यपूज्यम् ॥ २६
जो वक्षःस्थलसे विहीन होती है, वह पुत्रों और मित्रोंकी विनाशिका तथा सम्पूर्ण अङ्गोंसे परिपूर्ण प्रतिमा सर्वदा आयु और लक्ष्मी प्रदान करनेवाली कही गयी है। इस प्रकारके लक्षणोंसे युक्त भगवान् शंकरकी प्रतिमा निर्मित करानी चाहिये। उनकी प्रतिमाके चारों और सभी देवगणोंको स्तुति करते हुए प्रदर्शित करना चाहिये। शंकरकी मूर्तिको इन्द्र, नन्दीश्वर एवं महाकालसे युक्त बनाना चाहिये। उनके पार्श्वभागमें विनम्रभावसे स्थित लोकपालों और गणेश्वरोंको दिखलाना चाहिये। भृंगी और भूत-वेतालोंकी मूर्तियाँ उनके बगलमें नाचती-गाती हुई बनायी जानी चाहिये, जो सभी हर्षपूर्वक परमेश्वर शिवकी स्तुतिमें लीन रहें। रुद्राक्षकी माला धारण करनेवाले, प्रवाल (मूँगे) आदिकी माला तथा पुष्पादिरूप उपहारोंको समर्पित करनेवाले गन्धर्व, विद्याधर, किन्नर, अप्सरा और गुह्यकोंके अधीश्वरोंके अनेकों गणों तथा इन्द्र आदि सैकड़ों देवताओं और मुनिवरोंद्वारा नमस्कार एवं स्तुति किये जाते हुए तथा देवताओं और मनुष्योंके लिये पूजनीय त्रिनेत्रधारी स्तवनीय भगवान् शंकरकी प्रतिमा बनायी जानी चाहिये ॥ २१-२६ ॥
इति श्रीमालये महापुराणे प्रतिमालक्षणे एकोनषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५९ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें प्रतिमालक्षण नामक दो सौ उनसठाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २५९ ॥
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