राजा का कर्तव्य, राज कर्म चारियों के लक्षण तथा राज धर्म का निरूपण | raaja ka kartavy, raaj karm chaariyon ke lakshan tatha raaj dharm ka niroopan

मत्स्य पुराण दो सौ पंद्रहवाँ अध्याय

राजा का कर्तव्य, राज कर्म चारियों के लक्षण तथा राज धर्म का निरूपण

मनुरुवाच

राज्ञोऽभिषिक्तमात्रस्य किं नु कृत्यतमं भवेत्।
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व सम्यग्वेत्ति यतो भवान् ॥ १

मनुने पूछा- भगवन् ! अभिषेक होनेके बाद राजाको तुरंत कौन-सा कर्म करना आवश्यक है? वह सब मुझे बतलाइये क्योंकि आप इसे अच्छी तरह जानते हैं ॥ १॥

मत्स्य उवाच

अभिषेकार्द्रशिरसा राज्ञा राज्यावलोकिना। 
सहायवरणं कार्यं तत्र राज्यं प्रतिष्ठितम् ॥ २

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ! राज्यकी रक्षा करनेवाले राजाको चाहिये कि वह अभिषेकके जलसे सिरके भीगते ही सहायकों (मन्त्रियों) की नियुक्ति करे; क्योंकि राज्य उन्हींपर प्रतिष्ठित रहता है।

यदप्यल्पतरं कर्म तदप्येकेन दुष्करम्।
पुरुषेणासहायेन किमु राज्यं महोदयम् ॥ ३

तस्मात् सहायान् वरयेत् कुलीनान् नृपतिः स्वयम्।
शूरान् कुलीनजातीयान् बलयुक्ताञ्छ्यिान्वितान् ॥ ४

रूपसत्त्वगुणोपेतान् सज्जनान् क्षमयान्वितान् ।
क्लेशक्षमान् महोत्साहान् धर्मज्ञांश्च प्रियंवदान् ॥ ५

हितोपदेशकालज्ञान् स्वामिभक्तान् यशोऽर्थिनः ।
एवंविधान् सहायांश्च शुभकर्मसु योजयेत् ॥ ६

गुणहीनानपि तथा विज्ञाय नृपतिः स्वयम् । 
कर्मस्वेव नियुञ्जीत यथायोग्येषु भागशः ॥ ७

कुलीनः शीलसम्पन्नो धनुर्वेदविशारदः । 
हस्तिशिक्षाश्वशिक्षासु कुशलः श्लक्ष्णभाषितः ॥ ८

निमित्ते शकुनज्ञाने वेत्ता चैव चिकित्सिते । 
कृतज्ञः कर्मणां शूरस्तथा क्लेशसहस्त्वृजुः ॥ ९

व्यूहतत्त्वविधानज्ञः फल्गुसारविशेषवित्। 
राज्ञा सेनापतिः कार्यों ब्राह्मणः क्षत्रियोऽथवा । १०

जो छोटे-से-छोटा भी कार्य होता है, वह भी सहायकरहित अकेले व्यक्तिके लिये दुष्कर होता है, फिर राज्य-जैसे महान् उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यके लिये तो कहना ही क्या है? इसलिये राजाको चाहिये कि जो उत्तम कुलमें उत्पन्न, शूर, उच्च जाति में उत्पन्न, बलवान्, श्रीसम्पन्न, रूपवान्, सत्त्वगुण से युक्त, सज्जन, क्षमाशील, कष्टसहिष्णु, महोत्साही, धर्मज्ञ, प्रियभाषी, हितोपदेशके कालका ज्ञाता, स्वामिभक्त तथा यशके अभिलाषी हों, ऐसे सहायकोंका स्वयं वरण करके उन्हें माङ्गलिक काँमें नियुक्त करे। उसी प्रकार स्वयं राजाको कुछ गुणहीन सहायकोंको भी जान-बूझकर उन्हें यथायोग्य कार्योंमें विभागपूर्वक नियुक्त करना चाहिये। राजाको उत्तम कुलोत्पन्न, शीलवान्, धनुर्वेदमें प्रवीण, हाथी और अश्वकी शिक्षामें कुशल, मृदुभाषी, शकुन और अन्यान्य शुभाशुभकारणों तथा ओषधियोंको जाननेवाला, कृतज्ञ, शूरतामें प्रवीण, कष्टसहिष्णु, सरल, व्यूह रचनाके विधानको जाननेवाला, निस्तत्त्व एवं सारतत्त्वका विशेषज्ञ, ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय पुरुषको सेनापति-पदपर नियुक्त करना चाहिये ॥ २-१०॥

प्रांशुः सुरूपो दक्षश्च प्रियवादी न चोद्धतः ।
चित्तग्राहश्च सर्वेषां प्रतीहारो विधीयते ॥ ११

यथोक्तवादी दूतः स्याद् देशभाषाविशारदः । 
शक्तः क्लेशसहो वाग्मी देशकालविभागवित् ॥ १२

विज्ञातदेशकालश्च दूतः स स्यान्महीक्षितः । 
वक्ता नयस्य यः काले स दूतो नृपतेर्भवेत् ॥ १३

प्रांशवो व्यायताः शूरा दृढभक्ता निराकुलाः । 
राज्ञा तु रक्षिणः कार्याः सदा क्लेशसहा हिताः ॥ १४ 

अनाहार्योऽनृशंसश्च दृढभक्तिश्च पार्थिवे। 
ताम्बूलधारी भवति नारी वाप्यथ तद्‌गुणा ॥ १५ 

षाड्गुण्यविधितत्त्वज्ञो देशभाषाविशारदः । 
सांधिविग्रहिकः कार्यों राज्ञा नयविशारदः ॥ १६

कृताकृतज्ञो भृत्यानां ज्ञेयः स्याद् देशरक्षिता। 
आयव्ययज्ञो लोकज्ञो देशोत्पत्तिविशारदः ॥ १७

सुरूपस्तरुणः प्रांशुर्दृढभक्तिः कुलोचितः । 
शूरः क्लेशसहश्चैव खड्‌गधारी प्रकीर्त्तितः ॥ १८

शूरश्च बलयुक्तश्च गजाश्वरथकोविदः ।
धनुर्धारी भवेद् राज्ञः सर्वक्लेशसहः शुचिः ॥ १९ 

निमित्तशकुनज्ञानी हयशिक्षाविशारदः ।
हयायुर्वेदतत्त्वज्ञो भुवो भागविचक्षणः ॥ २०

बलाबलज्ञो रथिनः स्थिरदृष्टिः प्रियंवदः । 
शूरश्च कृतविद्यश्च सारथिः परिकीर्तितः ॥ २१

ऊँचे कदवाला, सौन्दर्यशाली, कार्यकुशल, प्रियवक्ता, गम्भीर तथा सबके चित्तको आकर्षित करनेवालेको प्रतिहारी बनानेका विधान है। जो सत्यवादी, देशी भाषामें प्रवीण, सामर्थ्यशाली, सहिष्णु, वक्ता, देश-कालके विभागको जाननेवाला, देश-कालका जानकार तथा मौकेपर नीतिकी बातें कहनेवाला हो, वह राजाका दूत हो सकता है। जो लम्बे कदवाले, कम सोनेवाले, शूर, दृढ़ भक्ति रखनेवाले, धैर्यवान्, कष्टसहिष्णु और हितैषी हों, ऐसे पुरुषोंको राजाद्वारा अङ्गरक्षाके कार्यमें नियुक्त किया जाना चाहिये। जो दूसरोंद्वारा बहकाया न जा सके, दुष्ट स्वभावका न हो, राजामें अगाध भक्ति रखता हो-ऐसा पुरुष ताम्बूलधारी हो सकता है, 

अथवा ऐसे गुणवाली स्त्री भी नियुक्त की जा सकती है। राजाको नीति शास्त्रके छः गुणोंके तत्त्वोंको जाननेवाले, देशी भाषामें प्रवीण एवं नीतिनिपुणको सन्धि-विग्राहिक बनाना चाहिये। भृत्योंके कृत-अकृत कार्योंको जाननेवाले, आय-व्ययके ज्ञाता, लोकका जानकार और देशोत्पत्तिमें निपुण पुरुषको देशरक्षक बनाना चाहिये। सुन्दर आकृतिवाले, लम्बे कदवाले, राज्यभक्त, कुलीन, शूर-वीर तथा कष्टसहिष्णुको खड्‌गधारी बनाना चाहिये। शूर, बलवान्, हाथी, घोड़े और रथकी विशेषताको जाननेवाला, सभी प्रकारके क्लेशोंको सहन करनेमें समर्थ तथा पवित्र व्यक्ति राजाका धनुर्धारी हो सकता है। शुभाशुभ शकुनको जाननेवाला, अश्वशिक्षामें विशारद, अश्वोंके आयुर्वेदविज्ञानको जाननेवाला, पृथ्वीके समस्त भागोंका ज्ञाता, रथियोंके बलाबलका पारखी, स्थिरदृष्टि, प्रियभाषी, शूर-वीर तथा विद्वान् पुरुष सारथिके योग्य कहा गया है॥ ११-२१॥

अनाहार्यः शुचिर्दक्षश्चिकित्सितविदां वरः । 
सूपशास्त्रविशेषज्ञः सूदाध्यक्षः प्रशस्यते ॥ २२

सूदशास्त्रविधानज्ञाः पराभेद्याः कुलोद्गताः ।
सर्वे महानसे धार्याः कृत्तकेशनखा नराः ॥ २३

समः शत्रौ च मित्रे च धर्मशास्त्रविशारदः ।
विप्रमुख्यः कुलीनश्च धर्माधिकरणो भवेत् ॥ २४

कार्यास्तथाविधास्तत्र द्विजमुख्याः सभासदः । 
सर्वदेशाक्षराभिज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः ॥ २५ 

लेखकः कथितो राज्ञः सर्वाधिकरणेषु वै। 
शीर्षोपेतान् सुसम्पूर्णान् समश्रेणिगतान् समान् ॥ २६ 

अक्षरान् वै लिखेद् यस्तु लेखकः स वरः स्मृतः । 
उपायवाक्यकुशलः सर्वशास्त्रविशारदः ॥ २७

बह्वर्थवक्ता चाल्पेन लेखकः स्यान्नृपोत्तम। 
वाक्याभिप्रायत्तत्त्वज्ञो देशकालविभागवित् ॥ २८ 

अनाहायें भवेत्सक्तो लेखकः स्यान्नृपोत्तम । 
पुरुषान्तरतत्त्वज्ञाः प्रांशवश्चाप्यलोलुपाः ॥ २९ 

धर्माधिकारिणः कार्या जना दानकरा नराः । 
एवंविधास्तथा कार्या राज्ञा दौवारिका जनाः ॥ ३० 

लोहवस्त्राजिनादीनां रत्नानां च विधानवित् । 
विज्ञाता फल्गुसाराणामनाहार्यः शुचिः सदा ॥ ३१

निपुणश्चाप्रमत्तश्च धनाध्यक्षः प्रकीर्तितः ॥ ३२

दूसरोंके बहकावेमें न आनेवाले, पवित्र, प्रवीण, ओषधियोंके गुण-दोषोंको जाननेवालोंमें श्रेष्ठ, भोजनकी विशेषताओं के जानकारको उत्तम भोजनाध्यक्ष कहा जाता है। जो भोजनशास्त्रके विधानोंमें कुशल, वंश-परम्परासे चले आने वाले, दूसरोंद्वारा अभेद्य तथा कटे हुए नख-केशवाले हों, ऐसे सभी पुरुषोंको चौकेमें नियुक्त करना चाहिये। शत्रु और मित्रमें समताका व्यवहार करनेवाले, धर्मशास्त्रमें विशारद, कुलीन श्रेष्ठ ब्राह्मणको धर्माध्यक्षका पद सौंपना चाहिये। ऊपर कही हुई विशेषताओंसे युक्त ब्राह्मणोंको सभासद् नियुक्त करना चाहिये। जो सभी देशोंकी भाषाओं का ज्ञाता तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंमें पटु हो, ऐसा व्यक्ति सभी विभागोंमें राजाका लेखक कहा गया है। 

जो ऊपर की शिरोरेखासे पूर्ण, पूर्ण अवयववाले, समश्रेणीमें प्राप्त एवं समान आकृति वाले अक्षरोंको लिखता है, वह अच्छा लेखक कहा जाता है। नृपश्रेष्ठ ! जो उपाययुक्त वाक्योंमें प्रवीण, सम्पूर्ण शास्त्रोंमें विशारद तथा थोड़े शब्दोंमें अधिक प्रयोजनकी बात कहनेकी क्षमता रखता हो, उसे लेखक बनाना चाहिये। नृपोत्तम ! जो वाक्योंके अभिप्रायको जाननेवाला, देश-कालके विभागका ज्ञाता तथा अभेदज्ञ यानी भेद न करनेवाला हो, उसे लेखक बनाना चाहिये। मनुष्योंके हृदयकी बातों तथा भावोंको परखनेवाले, दीर्घकाय, निर्लोभ एवं दानशील व्यक्तियोंको धर्माधिकारी बनाना चाहिये तथा राजाद्वारा इसी प्रकारके लोगोंको द्वारपालका पद भी सौंपा जाना चाहिये। लोह, वस्त्र, मृग-चर्मादि तथा रत्नोंकी परख करनेवाला, अच्छी-बुरी वस्तुओंका जानकार, दूसरोंके बहकावेमें न आनेवाला, पवित्र, निपुण एवं सावधान व्यक्तिको धनाध्यक्ष बनाना चाहिये ॥ २२-३२॥

आयद्वारेषु सर्वेषु धनाध्यक्षसमा नराः । 
व्ययद्वारेषु च तथा कर्तव्याः पृथिवीक्षिता ।। ३३

परम्परागतो यः स्यादष्टाङ्गे सुचिकित्सिते ।
अनाहार्यः स वैद्यः स्याद् धर्मात्मा च कुलोद्गतः ॥ ३४

प्राणाचार्यः स विज्ञेयो वचनं तस्य भूभुजा। 
राजन् राज्ञा सदा कार्य यथा कार्य पृथग्जनैः ।। ३५

हस्तिशिक्षाविधानज्ञो वनजातिविशारदः । 
क्लेशक्षमस्तथा राज्ञो गजाध्यक्षः प्रशस्यते ॥ ३६

एतैरेव गुणैर्युक्तः स्थविरश्च विशेषतः । 
गजारोही नरेन्द्रस्य सर्वकर्मसु शस्यते ॥ ३७

हयशिक्षाविधानज्ञश्चिकित्सितविशारदः ।
अश्वाध्यक्षो महीभर्तुः स्वासनश्च प्रशस्यते ॥ ३८

अनाहार्यश्च शूरश्च तथा प्राज्ञः कुलोद्गतः । 
दुर्गाध्यक्षः स्मृतो राज्ञ उद्युक्तः सर्वकर्मसु ॥ ३९

वास्तुविद्याविधानज्ञो लघुहस्तो जितश्रमः । 
दीर्घदर्शी च शूरश्च स्थपतिः परिकीर्तितः ॥ ४० 

यन्त्रमुक्ते पाणिमुक्ते विमुक्ते मुक्तधारिते। 
अस्त्राचार्यो निरुद्वेगः कुशलश्च विशिष्यते ॥ ४१ 

वृद्धः कुलोद्गतः सूक्तः पितृपैतामहः शुचिः । 
राज्ञामन्तः पुराध्यक्षो विनीतश्च तथेष्यते ॥ ४२

राजा द्वारा आय तथा व्ययके सभी स्थानोंपर धनाध्यक्षके समान गुणवाले पुरुषोंको नियुक्त करना चाहिये। जो वंश परम्परा से आनेवाला, आठों अङ्गोंकी चिकित्साको अच्छी तरह जाननेवाला, स्वामिभक्त, धर्मात्मा एवं सत्कुलोत्पन्न हो, ऐसे व्यक्तिको वैद्य बनाना चाहिये। राजन् ! उसे प्राणाचार्य जानना चाहिये और सर्वसाधारणकी भाँति उसके वचनोंका सदा पालन करना चाहिये। जो जंगली जातिवालोंके रीति रस्मोंका ज्ञाता, हस्तिशिक्षाका विशेषज्ञ, सहिष्णुता में समर्थ हो, ऐसा व्यक्ति राजाका श्रेष्ठ गजाध्यक्ष हो सकता है। उपर्युक्त गुणोंसे युक्त तथा अवस्थामें वृद्ध व्यक्ति राजाका गजारोही होकर सभी कार्योंमें श्रेष्ठ कहा गया है। अश्व-शिक्षाके विधानमें प्रवीण, उनकी चिकित्सामें विशारद तथा स्थिर आसन से बैठनेवाला व्यक्ति राजाका श्रेष्ठ अश्वाध्यक्ष कहा गया है। जो स्वामि-भक्त, शूर वीर, बुद्धिमान्, कुलीन, सभी कार्योंमें उद्यत हो, वह राजाका दुर्गाध्यक्ष कहा गया है। वास्तुविद्याके विधानमें प्रवीण, फुर्तीला, परिश्रमी , दीर्घ दर्शी एवं शूर व्यक्तिको श्रेष्ठ कारीगर कहा गया है। यन्त्रमुक्त (तोप-बन्दूक) आदि, पाणिमुक्त (शक्ति आदि), विमुक्त, मुक्तधारित आदि अस्त्रोंके परिचालनकी विशेषताओंमें सुनिपुण, उद्वेगरहित व्यक्ति श्रेष्ठ अस्त्राचार्य कहा गया है। वृद्ध, सत्कुलोत्पन्न, मधुरभाषी, पिता-पितामहके समयसे उसी कार्यपर नियुक्त होनेवाले, पवित्र एवं विनीत व्यक्तिको राजाओंके अन्तः पुरके अध्यक्ष-पद पर नियुक्त करना उचित है॥ ३३-४२॥

एवं सप्ताधिकारेषु पुरुषाः सप्त ते पुरे। 
परीक्ष्य चाधिकार्याः स्यू राज्ञा सर्वेषु कर्मसु। 
स्थापनाजातितत्त्वज्ञाः सततं प्रतिजागृताः ॥ ४३

राज्ञः स्यादायुधागारे दक्षः कर्मसु चोद्यतः । 
कर्माण्यपरिमेयानि राज्ञो नृपकुलोद्वह । ४४

उत्तमाधममध्यानि बुद्ध्वा कर्माणि पार्थिवः । 
उत्तमाधममध्येषु पुरुषेषु नियोजयेत् ॥ ४५

नरकर्मविपर्यासाद्राजा नाशमवाप्नुयात् ।
नियोगं पौरुषं भक्तिं श्रुतं शौर्य कुलं नयम् ॥ ४६

ज्ञात्वा वृत्तिर्विधातव्या पुरुषाणां महीक्षिता।
पुरुषान्तरविज्ञानतत्त्वसारनिबन्धनात् ॥ ४७

बहुभिर्मन्त्रयेत् कामं राजा मन्त्रं पृथक् पृथक् । 
मन्त्रिणामपि नो कुर्यान्मन्त्रिमन्त्रप्रकाशनम् ॥ ४८

क्वचिन्न कस्य विश्वासो भवतीह सदा नृणाम्। 
निश्चयस्तु सदा मन्त्रे कार्यों ऎकेन सूरिणा ॥ ४९ 

भवेद् वा निश्चयावाप्तिः परबुद्धयुपजीवनात् । 
एकस्यैव महीभर्तुर्भूयः कार्यों विनिश्चयः ॥५० 

ब्राह्मणान् पर्युपासीत त्रयीशास्त्रसुनिश्चितान् । 
नासच्छास्त्रवतो मूढांस्ते हि लोकस्य कण्टकाः ॥ ५१

वृद्धान् हि नित्यं सेवेत विप्रान् वेदविदः शुचीन् । 
तेभ्यः शिक्षेत विनयं विनीतात्मा च नित्यशः । 
समग्रां वशगां कुर्यात् पृथिवीं नात्र संशयः ॥ ५२

बहवोऽविनयाद् भ्रष्टा राजानः सपरिच्छदाः । 
वनस्थाश्चैव राज्यानि विनयात् प्रतिपेदिरे ॥ ५३

त्रैविद्येभ्यस्त्रयीं विद्यां दण्डनीतिं च शाश्वतीम् । 
आन्वीक्षिकीं त्वात्मविद्यां वार्तारम्भाश्च लोकतः ॥ ५४ 

इन्द्रियाणां जये योगं समातिष्ठेद् दिवानिशम्। 
जितेन्द्रियो हि शक्नोति वशे स्थापयितुं प्रजाः ॥ ५५

यजेत राजा बहुभिः क्रतुभिश्च सदक्षिणैः । 
धर्मार्थं चैव विप्रेभ्यो दद्याद् भोगान् धनानि च ॥ ५६ 

इस प्रकार राजाको इन सात अधिकार-पदोंपर सभी कार्योंमें भलीभाँति परीक्षा कर सातों व्यक्तियोंको अधिकारी बनाना चाहिये। कार्योंमें नियुक्त किये गये व्यक्तियोंको उद्योगशील, जागरूक तथा पटु होना चाहिये। राजकुलोत्पन्न ! राजाओंके अस्त्रागारमें दक्ष तथा उद्यमशील व्यक्ति होना चाहिये। राजाके कार्योंकी गणना नहीं की जा सकती, अतः राजाको उत्तम, मध्यम तथा अधम कार्योंको भलीभाँति समझ-बूझकर वैसे ही उत्तम, मध्यम एवं अधम पुरुषोंको सौंपना चाहिये। सौंपे गये कार्योंमें परिवर्तन अर्थात् अधमको उत्तम और उत्तमको अधम कार्य सौंप देनेसे राजाका विनाश हो जाता है। राजाको चाहिये कि अपने पुरुषोंके निश्चय, पौरुष, भक्ति, शास्त्रज्ञान, शूरता, कुल और नीतिको जानकर उनका वेतन निश्चित करे। कोई दूसरा व्यक्ति न जान सके इस अभिप्रायसे राजा अनेकों मन्त्रियोंके साथ अलग-अलग मन्त्रणा करे, परंतु एक मन्त्रीकी मन्त्रणा को दूसरे मन्त्रियों पर प्रकट न होने दे। 

इस संसारमें मनुष्योंको सदा कहीं भी किसी का विश्वास नहीं होता, अतः राजाको एक ही विद्वान् मन्त्रीकी मन्त्रणाका निश्चय नहीं करना चाहिये। अन्यथा दूसरेकी बुद्धिके सहारे निश्चयकी प्राप्ति हो जाती है। उस अकेले किये गये निश्चयमें भी राजाको चाहिये कि फिरसे विचार कर ले। उसे त्रयीधर्ममें अटल निश्चय मन्त्रीकी मन्त्रणाका निश्चय नहीं करना चाहिये। अन्यथा रखनेवाले ब्राह्मणोंकी सेवा करनी चाहिये। जो शास्त्रज्ञ नहीं हैं, उन मूखौंकी पूजा न करे; क्योंकि वे लोकके लिये कण्टकस्वरूप हैं। पवित्र आचरणवाले, वेदवेत्ता, वृद्ध ब्राह्मणोंकी नित्य सेवा करनी चाहिये और उन्हींसे सदा विनम्र होकर विनयकी शिक्षा लेनी चाहिये। ऐसा करनेसे वह (राजा) निःसंदेह सम्पूर्ण वसुन्धराको वशमें कर सकता है। बहुत-से राजा उद्दण्डताके कारण अपने परिजन एवं अनुचरोंके साथ नष्ट हो गये और अनेकों वनस्थ राजाओंने विनयसे पुनः राज्यश्रीको प्राप्त किया है। राजाओंको वेदवेत्ताओंसे तीनों वेद, शाश्वती दण्डनीति, आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र) तथा आत्मविद्या ग्रहण करनी चाहिये और सर्वसाधारणसे लौकिक वार्ताओंकी सूचना प्राप्त करनी चाहिये। राजाको दिन-रात इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करनेकी युक्ति करते रहना चाहिये; क्योंकि जितेन्द्रिय राजा ही प्रजाओंको वशमें रखनेमें समर्थ हो सकता है। राजाको दक्षिणायुक्त बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठान करना चाहिये तथा ब्राह्मणोंको धर्मकी प्राप्तिके लिये भोग्य सामग्रियाँ और धन देना चाहिये ॥ ४३-५६ ॥

सांवत्सरिकमाप्तैश्च राष्ट्रादाहारयेद् बलिम्। 
स्यात् स्वाध्यायपरो लोके वर्तेत पितृबन्धुवत् ॥ ५७

आवृत्तानां गुरुकुलाद् द्विजानां पूजको भवेत्।
नृपाणामक्षयो होष निधिर्बाह्योऽभिधीयते ॥ ५८

तं च स्तेना नवामित्रा हरन्ति न विनश्यति । 
तस्माद् राज्ञा विधातव्यो ब्राह्यो वै ह्यक्षयो निधिः ॥ ५९

समोत्तमाधमै राजा ह्याहूय पालयेत् प्रजाः । 
न निवर्तेत संग्रामात् क्षात्रं व्रतमनुस्मरन् ॥ ६०

संग्रामेष्वनिवर्त्तित्वं प्रजानां परिपालनम्। 
शुश्रूषा ब्राह्मणानां च राज्ञां निःश्रेयस परम् ॥ ६१

कृपणानाथवृद्धानां विधवानां च पालनम्। 
योगक्षेमं च वृत्तिं च तथैव परिकल्पयेत् ॥ ६२ 

वर्णाश्रमव्यवस्थानं तथा कार्य विशेषतः । 
स्वधर्मप्रच्युतान् राजा स्वधर्मे स्थापयेत् तथा ॥ ६३

आश्रमेषु तथा कार्यमन्नं तैलं च भाजनम्।
स्वयमेवानयेद् राजा सत्कृतान् नावमानयेत् ॥ ६४

तापसे सर्वकार्याणि राज्यमात्मानमेव च। 
निवेदयेत् प्रयत्नेन देववच्चिरमर्चयेत् ॥ ६५ 

द्वे प्रज्ञे वेदितव्ये च ऋज्वी वक्रा च मानवैः । 
वनां ज्ञात्वा न सेवेत प्रतिबाधेत चागताम् ॥ ६६ 

नास्य च्छिद्रं परो विन्द्याद् विन्द्याच्छिद्रं परस्य तु । 
गूहेत् कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद् विवरमात्मनः ।। ६७

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत् । 
विश्वासाद् भयमुत्पन्नं मूलादपि निकृन्तति ॥ ६८

बुद्धिमान् कर्मचारियोंद्वारा राज्यसे वार्षिक कर वसूल कराये। उसे सर्वदा स्वाध्यायमें लीन तथा लोगोंके साथ पिता और भाईका सा व्यवहार करना चाहिये। राजाको गुरुकुलसे लौटे हुए ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये। राजाओंके लिये यह अक्षय ब्राह्म-निधि (कोश-खजाना) कही गयी है। चोर अथवा शत्रुगण उसका हरण नहीं कर सकते और न उसका विनाश ही होता है। इसलिये राजाको इस अक्षय ब्राह्म-निधि (खजाने)-का संचय अवश्य करना चाहिये। राजाको चाहिये कि वह अपने उत्तम, मध्यम तथा अधम अनुचरोंद्वारा प्रजाको बुलाकर उनका पालन करे और अपने क्षात्रधर्मका स्मरण कर संग्रामसे कभी विचलित न हो। युद्धविमुख न होना, प्रजाओंका परिपालन तथा ब्राह्मणोंकी शुश्रूषा- ये तीनों धर्म राजाओंके लिये परम कल्याणकारी हैं। उसी प्रकार दुर्दशाग्रस्त, असहाय और वृद्धोंके तथा विधवा स्त्रियोंके योगक्षेम एवं जीविकाका प्रबन्ध करना  चाहिये। 

राजाको वर्णाश्रमकी व्यवस्था विशेषरूपसे करनी चाहिये तथा अपने धर्मसे भ्रष्ट हुए लोगोंको पुनः अपने-अपने धर्मोंमें स्थापित करना चाहिये। चारों आश्रमोंपर भी उसी प्रकारकी देख-रेख रखनी चाहिये। राजाके लिये उचित है कि वह अतिथिके लिये अन्न, तैल और पात्रोंकी व्यवस्था स्वयं करे एवं सम्माननीय व्यक्तियोंका अपमान न करे तथा तपस्वीके लिये अपने सभी कर्मोंको तथा राज्य एवं अपने-आपको समर्पित कर दे और देवताके समान चिरकालतक उनकी पूजा करे। मनुष्यके द्वारा सरल (सुमति) और कुटिल (कुमति) दो प्रकारकी बुद्धियोंको जानना चाहिये। उनमें कुटिल बुद्धिको जान लेनेपर उसका सेवन न करे, किंतु यदि आ गयी हो तो उसे दूर हटा दे। राजाके छिद्रको शत्रु न जान सके, किंतु वह शत्रुके छिद्रको जान ले। वह कछुएकी भाँति अपने अङ्गोंको छिपाये रखे और अपने छिद्रकी रक्षा करे। अविश्वसनीय व्यक्तिका विश्वास न करे और विश्वसनीयका भी बहुत विश्वास न करे; क्योंकि विश्वाससे उत्पन्न हुआ भय मूलको भी काट डालता है॥ ५७-६८ ॥ 

विश्वासयेच्चाप्यपरं तत्त्वभूतेन हेतुना। 
बकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत् ॥ ६९

वृकवच्चाविलुम्पेत शशवच्च विनिक्षिपेत्। 
दृढप्रहारी च भवेत् तथा शूकरवन्नृपः ॥ ७०

चित्राकारश्च शिखिवद् दृढभक्तस्तथा श्ववत् । 
तथा च मधुराभाषी भवेत् कोकिलवन्नृपः ॥ ७१

काकशङ्की भवेन्नित्यमज्ञातवसतिं वसेत्। 
नापरीक्षितपूर्वं च भोजनं शयनं व्रजेत् । 
वस्त्रं पुष्पमलंकारं यच्चान्यन्मनुजोत्तम ।॥ ७२ 

न गाहेज्जनसम्बाधं न चाज्ञातजलाशयम् । 
अपरीक्षितपूर्व च पुरुषैराप्तकारिभिः ॥ ७३

नारोहेत् कुञ्जरं व्यालं नादान्तं तुरगं तथा। 
नाविज्ञातां स्त्रियं गच्छेन्नैव देवोत्सवे वसेत् ॥ ७४ 

नरेन्द्रलक्षम्या धर्मज्ञ त्राता यत्तो भवेन्नृपः । 
सद्धत्याश्च तथा पुष्टाः सततं प्रतिमानिताः ॥ ७५ 

राज्ञा सहायाः कर्तव्याः पृथिवीं जेतुमिच्छता । 
यथाईं चाप्यसुभृतो राजा कर्मसु योजयेत् ॥ ७६ 

धर्मिष्ठान् धर्मकार्येषु शूरान् संग्रामकर्मसु। 
निपुणानर्थकृत्येषु सर्वत्रैव तथा शुचीन् ॥ ७७

स्त्रीषु षण्डं नियुञ्जीत तीक्ष्णं दारुणकर्मसु। 
धर्मे चार्थे च कामे च नये च रविनन्दन ॥ ७८

राजा यथाईं कुर्याच्च उपधामिः परीक्षणम् । 
समतीतोपदान् भृत्यान् कुर्याच्छस्तवनेचरान् ॥ ७९

तत्पादान्वेषिणो यत्तांस्तदध्यक्षांस्तु कारयेत् । 
एवमादीनि कर्माणि नृपैः कार्याणि पार्थिव ॥ ८०

सर्वथा नेष्यते राज्ञस्तीक्ष्णोपकरणक्रमः । 
कर्माणि पापसाध्यानि यानि राज्ञो नराधिप ।। ८१

संतस्तानि न कुर्वन्ति तस्मात्तानि त्यजेन्नृपः । 
नेष्यते पृथिवीशानां तीक्ष्णोपकरणक्रिया ॥ ८२

यस्मिन् कर्मणि यस्य स्याद् विशेषेण च कौशलम् । 
तस्मिन् कर्मणि तं राजा परीक्ष्य विनियोजयेत्। 
पितृपैतामहान् भृत्यान् सर्वकर्मसु योजयेत् ॥ ८३ 

राजाको चाहिये कि वह यथार्थ कारणको प्रकाशित करके दूसरोंको अपनेपर विश्वस्त करे। वह बगुलेकी भाँति अर्थका चिन्तन करे, सिंहकी तरह पराक्रम करे, भेड़ियेके समान लूट-पाट कर ले, खरगोशकी तरह छिपा रहे तथा शूकरके सदृश दृढ़ प्रहार करनेवाला हो। राजा मोरकी भाँति विचित्र आकारवाला, कुत्तेकी तरह अनन्यभक्त तथा कोकिलकी भाँति मृदुभाषी हो। नरश्रेष्ठ ! राजाको चाहिये कि वह सर्वदा कौएकी भाँति सशङ्कित रहे। वह गुप्त स्थानपर निवास करे, पहले बिना परीक्षा किये भोजन, शय्या, वस्त्र, पुष्प, अलंकार एवं अन्यान्य सामग्रियोंको न ग्रहण करे। विश्वस्त पुरुषोंद्वारा पहले बिना परीक्षा किये हुए मनुष्योंकी भीड़ तथा अज्ञात जलाशयमें प्रवेश न करे। 

दुष्ट हाथी एवं बिना सिखाये घोड़े पर न चढ़े, न बिना जानी हुई स्त्रीके साथ समागम करे और न देवोत्सवमें निवास करे। धर्मज्ञ ! राजाको सर्वदा राजलक्ष्मी (चिह्न) से सुसम्पन्न, दीनरक्षक और उद्यमी होना चाहिये। पृथ्वीको जीतनेकी इच्छा रखनेवाले राजाको सर्वदा सम्मानित एवं पालित उत्तम अनुचरोंको सहायक बनाना चाहिये। वह प्राणियोंको यथायोग्य कर्मोंमें नियुक्त करे। उसे धर्म-कार्योंमें धर्मात्माओंको, युद्धकर्मोंमें शूर-वीरोंको, अर्थ-कार्योंमें उसके विशेषज्ञोंको, सच्चरित्रोंको सर्वत्र, स्त्रियोंके मध्यमें नपुंसकको और भीषण कर्मोंमें निर्दयको नियुक्त करना चाहिये। रविनन्दन ! राजाको धर्म, अर्थ, काम और नीतिके कार्योंमें गुप्त पारिश्रमिक देकर अनुचरोंकी परीक्षा करनी चाहिये। उत्तीर्ण होनेवालेको श्रेष्ठ गुप्तचर बनाये और उनके कार्योंकी देखरेख करनेवालोंको उनका अध्यक्ष बनाये। राजन् ! इस प्रकार राजाको राज्यके कार्योंका संचालन करना चाहिये। राजाको सर्वथा उग्र कर्मोंवाला नहीं होना चाहिये। नरेश्वर! राजाके जो पापाचरणद्वारा सिद्ध होनेवाले कर्म हैं, उन्हें सत्पुरुष नहीं करते, अतः राजाको भी उनका परित्याग कर देना चाहिये; क्योंकि राजाओंके लिये क्रूर कर्माचरण उचित नहीं हैं। राजाको चाहिये कि जिस कार्यमें जिसकी विशेष कुशलता है, उसे उसी कार्यमें परीक्षा लेकर नियुक्त करे; किंतु पिता-पितामहसे चले आते हुए नौकरोंको सभी कर्मोंमें नियुक्त करे, परंतु अपने जातीय कार्योंमें उन्हें न रखे ॥ ६९-८३ ॥

विना दायादकृत्येषु तत्र ते हि समागताः ।
राजा दायादकृत्येषु परीक्ष्य तु कृतान् नरान् ।
नियुञ्जीत महाभाग तस्य ते हितकारिणः ॥ ८४

परराजगृहात् प्राप्ताञ्जनसंग्रहकाम्यया। 
दुष्टान् वाप्यथवादुष्टानाश्रयीत प्रयत्नतः ॥ ८५ 

दुष्टं विज्ञाय विश्वासं न कुर्यात्तत्र भूमिपः । 
वृत्तिं तस्यापि वर्तेत जनसंग्रहकाम्यया ॥ ८६

राजा देशान्तरप्राप्तं पुरुषं पूजयेद् भृशम्।
ममायं देशसम्प्राप्तो बहुमानेन चिन्तयेत् ॥ ८७

कामं भृत्यार्जनं राजा नैव कुर्यान्नराधिप। 
न च वाऽसंविभक्तांस्तान् भृत्यान् कुर्यात् कथञ्चन ।। ८८

शत्रवोऽग्निर्विषं सर्पों निस्त्रिंश इति चैकतः । 
भृत्या मनुजशार्दूल रुषिताश्च तथैकतः ॥ ८९

तेषां चारेण चारित्रं राजा विज्ञाय नित्यशः । 
गुणिनां पूजनं कुर्यान्निर्गुणानां च शासनम्।
कथिताः सततं राजन् राजानश्चारचक्षुषः ॥ ९०

स्वके देशे परे देशे ज्ञानशीलान् विचक्षणान्।
अनाहार्यान् क्लेशसहान् नियुञ्जीत तथा चरान् ॥ ९१

जनस्याविदितान् सौम्यांस्तथाज्ञातान् परस्परम्। 
वणिजो मन्त्रकुशलान् सांवत्सरचिकित्सकान् । 
तथा प्रवाजिताकारांश्चारान् राजा नियोजयेत् ॥ ९२

नैकस्य राजा श्रद्दध्याच्वारस्यापि सुभाषितम् । 
द्वयोः सम्बन्धमाज्ञाय श्रद्दध्यान्नृपतिस्तदा ॥ ९३

परस्परस्याविदितौ यदि स्यातां च तावुभौ। 
तस्माद् राजा प्रयत्नेन गूढांश्चारान् नियोजयेत् ॥ ९४ 

महाभाग ! राजाको पारिवारिक कार्योंमें परीक्षा करके मनुष्योंको नियुक्त करना चाहिये; क्योंकि वे उसके कल्याण करनेवाले होते हैं। अनुचरोंका संग्रह करनेकी भावनासे राजाको चाहिये कि जो अनुचर दूसरे राजाकी ओरसे उनके यहाँ आयें- चाहे वे दुष्ट हों अथवा सज्जन, उन्हें प्रयत्नपूर्वक अपने यहाँ आश्रय दे; किंतु दुष्टको समझकर राजा उसका विश्वास न करे, परंतु जनसंग्रहकी इच्छासे उसे भी जीविका देनी चाहिये। राजाको चाहिये कि दूसरे देशसे आये हुए व्यक्तिका विशेष स्वागत करे और 'यह मेरे देशमें आया है' ऐसा समझकर उसका अधिक सम्मान करे। नराधिप ! राजाको अधिक नौकर नहीं रखना चाहिये। साथ ही जो पहले अपने पदसे पृथक् कर दिये गये हों, ऐसे नौकरोंको किसी प्रकार भी नियुक्त न करे। नरशार्दूल ! शत्रु, अग्नि, विष, सर्प तथा नंगी तलवार- ये सब एक ओर हैं 

तथा कुद्ध अनुचर एक ओर हैं। (अर्थात् दोनों समान हैं।) राजाको चाहिये कि गुप्तचरद्वारा नित्य उन अनुचरोंके चरित्रकी जानकारी प्राप्त कर उनमें गुणवानोंका सत्कार और निर्गुणोंका अनुशासन करता रहे। राजन्। इसी कारण राजालोग सर्वदा चारचक्षु (अर्थात् गुप्तचर ही जिनकी आँखें हैं ऐसा) कहलाते हैं। अपने देशमें या पराये देशमें ज्ञानी, निपुण, निर्लोभी और कष्टसहिष्णु गुप्तचरोंको नियुक्त करना चाहिये। जिन्हें साधारण जनता न पहचानती हो, जो सरल दिखायी पड़ते हों, जो एक-दूसरेसे परिचित न हों तथा वणिक्, मन्त्री, ज्योतिषी, वैद्य और संन्यासीके वेशमें भ्रमण करनेवाले हों, राजा ऐसे गुप्तचरोंको नियुक्त करे। राजा एक गुप्तचरकी बातपर, यदि वह अच्छी लगनेवाली भी हो तो भी विश्वास न करे। उस समय उसे दो गुप्तचरोंकी बातोंपर उनके आपसी सम्बन्धको जानकर ही विश्वास करना चाहिये। यदि वे दोनों आपसमें अपरिचित हों तो विश्वास करना चाहिये। इसीलिये राजाको गुप्त रहनेवाले चरोंको नियुक्त करना चाहिये ॥ ८४-९४॥ 

राज्यस्य मूलमेतावद् या राज्ञश्चारदर्शिता। 
चाराणामपि यत्नेन राज्ञा कार्य परीक्षणम् ॥ ९५

रागापरागौ भृत्यानां जनस्य च गुणागुणान् । 
सर्वं राज्ञां चरायत्तं तेषु यत्नपरो भवेत् ॥ ९६

कर्मणा केन मे लोके जनः सर्वोऽनुरज्यते। 
विरज्यते केन तथा विज्ञेयं तन्महीक्षिता ॥ ९७

अनुरागकरं लोके कर्म कार्य महीक्षिता। 
विरागजनकं लोके वर्जनीयं विशेषतः ॥ ९८

जनानुरागप्रभवा हि लक्ष्मी राज्ञां यतो भास्करवंशचन्द्र । 
तस्मात् प्रयत्नेन नरेन्द्रमुख्यैः कार्योऽतिरागो भुवि मानवेषु ॥ ९९

राज्यके मूलाधार गुप्तचर ही हैं, क्योंकि गुप्तचर ही राजाके नेत्र हैं। अतः राजाको गुप्तचरोंकी भी यत्नपूर्वक परीक्षा करनी चाहिये। राज्यमें अनुचरोंका अनुराग एवं वैर तथा प्रजाके गुण और अवगुण- राजाओंके ये सभी कार्य गुप्तचरों पर ही निर्भर हैं, अतः उनके प्रति यत्नशील रहना चाहिये। राजाको यह बात सर्वदा ध्यानमें रखनी चाहिये कि लोकमें मेरे किस कामसे सभी लोग अनुरक्त रहेंगे और किस कामसे विरक्त हो जायेंगे। इसे समझकर राजाको लोकमें अनुरागजनक कार्यका सम्पादन और विरागोत्पादक कर्मका विशेषरूपसे त्याग करना चाहिये। सूर्यकुलचन्द्र ! चूँकि राजाओंकी लक्ष्मी उनकी प्रजाओंके अनुरागसे उत्पन्न होनेवाली होती है, इसलिये श्रेष्ठ राजाओंको पृथ्वीपर मानवोंके प्रति प्रयत्नपूर्वक अत्यन्त अनुराग करना चाहिये ॥ ९५-९९ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे राज्ञां सहायसम्पत्तिर्नाम पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९५ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें राजाकी सहायक-सम्पत्ति नामक दो सौ पंद्रहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २९५ ॥

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